Wednesday 22 May 2019

----- ॥ हर्फ़े-शोशा 14 ॥ -----

1.सहन-सहन सुलगती हुई सुर्ख़ शमा के जलवे..,
तश्ते-फ़लक पे रक़्स करती कहकशाँ के जलवे..,
शब्-ओ-शफ़क़ बखेर के निकलता है जब चाँद..,
देखते ही बनते हैं फिर तो आसमाँ के जलवे.....
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2..कहीं इशाअते-अख़बार हैं कहीं हाकिमों के तख़्ते हैं..,
शाह हम भी हैं अपने घर के क़लम हम भी रख्ते हैं.....
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3..बिक रहा ख़बर में हर अखबार आदमी..,  
ख़रीदे है सरकार, हो खबरदार आदमी..,
मालोमता पास है तो ही है वो असरदार..,
हो ग़रीबो-गुरबां तो है वो बेक़ार आदमी.....  
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4..सुर्खो-स्याह रु का बाज़ार हूँ मैं..,
सूरते-हाल से बेख़बर अख़बार हूँ मैं.... 
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5.. रिन्द-ए-रास्तों की ये अज़ब दास्ताँ है
काफ़िला बर्के-रफ़्ता औ रहबर न कोई
न कोई आबे-दरिया और तिश्ने-लब है
तिरे मरहलों पे आबे-दरिया न कोई

न रहमत न रिक़्क़त न दयानत की रस्में
इल्मो-इलाही से इसके रहले हैं खाली
न ख़िलक़त के ख़ालिक़ की ही इबादत
  ख़ातिरो-ख़िदमत न कोई

रिन्द = स्वच्छंद, निरंकुश, मनमाना आचरण करने वाला
काफ़िला बर्के-रफ़्ता = द्रुत गति से जानेवाला यात्रिसमूह
रहबर = पथप्रदर्शक
तेरे मरहलों के

न मरहला ही कोई गुजरे-गह पे इसकी
न मंजिल है उसका न रहमाँ ही कोई
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6..सफ़हा-ए-दिल तेरे..,
दरिया की लहरों पे..,
यादों की कश्ती की.,
अजीब दास्ताँ है ये.....

सहरों और शामों के
गिरह बंद दामन से
छूटते हुवे लम्हों की
अजीब दास्ताँ है ये.....

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7..कोई ख़्वाहिश नहीं कोई अरमाँ नहीं..,
कभी यूं भी सफ़र हम तो करते रहे..,
और बसर का कोई पास सामाँ नहीं..,
कभी यूं भी बसर हम तो करते रहे.....

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8..ज़श्न औ जलवा जलसा ज़रूरत से ज्यादा..,
जिंदगी क्या है तू इस हक़ीक़त से ज्यादा.., 
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9..मिटा लक़ीरें औरों की खुद फ़क़ीर बन गए.., 
ऐ दुन्या वो फ़क़ीर आज लक़ीर बन गए.....  

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10..जिसके ज़ीस्त-ए-जहाँ में रहमो-करम के मानी..,
वो इंसा फिर इंसा है जिसकी नज़रों में पानी.....
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11..रख्खें ग़र ईमाने-दिल सच कह दें तो गुनाह है
ये कौन सी दुन्या है ये कौन सा जहाँ है.....
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12..खिल के चमन में रंगो-खुशबु लुटाना है,
तू गुल है तुझे सदा मुस्कुराना है
ए शोला-ए-आफताब औ चॉंद सितारों सुनो,
तुम्हे बुलंदे-आस्माँ को सर पे उठाना है 
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13..तवारिख को स्यह तहजीब को बदरंग किए हुए,
मिरी मुल्के-मलिकियत को वो फरहंग किए हुए,
रहती है मिरे घर में मिरी गुलामियत अब तक,
गड़े मुर्दे उसके उसपे हैं मुझे तंग किए हुए...
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14..लावा से न लश्कर से तोप से न तीर से..,
ख़त्म हुई हकूमतें क़लम बंद शमशीर से..... 
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15..अपनी गुलामियत के हुक्म रानो का..,
मैँ दुश्मन अंग्रेजों का मुसलमानो का.....
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16..फक्र न कर अपनी गरीबो-गर्दवारी पर..,
लोग हँसते हैँ तिरी ईमानदारी पर..,

है पास दौलत तो है सल्तनत औ साहबी..,
है आबाद ज़महुरियत भी इसी रायशुमारी पर..,

इंसाफ पे पाबंदियाँ जबहे-जुल्म को आजादियाँ ..,
बजती हैँ तालियाँ य़ाँ रइय्यते-आज़ारी पर..,
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17..ढली शाम वो सुरमई, लगा बदन पे आग l
फिर रौशनी बखेरते, लो जल उठे चराग ll

चली बादे-गुलबहार, मुश्के बारो-माँद l
सहन सहन मुस्कराके निकल रहा वो चाँद ll
१८ --ऐ हकूमते -तारिक़ तू फ़तहे बाद है दूर तलक,
वाँ शिकस्त है तेरी जाँ हम चराग़े-क़लम रख दें.....
हकूमते तारिक़ = वह शासन जहाँ नियम नीतियों का अभाव हो
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१९--फिर आवाज़ रहम की उठी उसके सीने से..,
के ज़बहे करके मुझको रोको न जीने से..,
मिरा दर्द भी है तिरे दर्द के जैसा..,
मिरे बच्चे भी हैं शहजाद ओ परीने से...
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20--मालुम न था तारीके शाम यूं यकायक होगी,
नीम शब की तीरगी भी इतनी दूर तलक होगी,
ऐ चरागे कलम संभाले रखो तुम रौशनी,
आगे और भी मुझे तुम्हारी जरूरत होगी....
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परवाने की फितरत है शमा पे आस्ना होना..,
मुश्ते ख़ाक ऐ जिंदगी तिरी फितरत है फना होना..,
सर पे चांद सितारे औ सुलगते आफताब का बोझ..,
हर किसी के बस का नहीं है आसमाँ होना.....
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सुर्खो-स्याह रू का बाज़ार हूँ मैं ,
सूरते-हाल से बेख़बर अख़बार हूँ मैं.....
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हुई शाम और शफक टूटकर बिखर रही..,
दस्त मे हिना लिये फलक पे रंग भर रही..,
सितारे भरके किश्तीयाँ साहिलो पे आ लगी..,
सहन-सहन आहिस्ते से माहे-शब उतर रही....
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ये ज़बाने-हिंदी है ज़रा नज़ाकत से बोलिए। .,
इसमेँ ज़बाने-ग़ैर का ज़हर न घोलिए। ....
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सज़ा है ये कौन सी वक़्त तुझे ये क्या हुवा,
आग आग जिस्म हर जिंदगी धुआँ धुआँ.....
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इक तो ख़ार ये रास्ता उसपे बला की तीरगी ,
ऐ चराग़े-रौशनी सुन अभी तू उफ़ न कर.....
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