" आलोचना व अवहेलनाऐ सदैव उत्कृष्ट उद्धरण हेतु प्रोत्साहित करतीं हैं....."
" निंदक नियरे राखिये आँगन कूटी छबाए..,
बिनु पानी बिनु साबुना निर्मल करे सुहाए....."
----- ।। कबीर ।। -----
" सिद्धांत व व्यवहार, अध्यात्म व विज्ञान के द्वैध पक्ष हैं;
अध्यात्म का सम्बन्ध आत्म रूप में व विज्ञान का
सम्बन्ध दैहिक स्वरूप में है....."
TUESDAY, JULY 10, 2012
" तुलनात्मक दृष्टिकोण की स्तुति की अपेक्षा अतुल्य
दृष्टांत की प्रस्तुति का प्रस्तावक होना चाहिए....."
SUNDAY, JULY 15, 2012
" योग्यता तब निश्चित होती है जब व्यक्ति वास्तव में योग्य हो.."
" परिभ्रष्ट अथवा क्लिष्ट कर्म से अर्जित धन के दान से श्रेष्ठ, उक्त कार्य का
परित्याग है..,
अर्थात : --
अनैतिक अर्जन ( ज्ञान, अर्थ इत्यादि ) के विसर्जन से उत्तम
अनैतिक कर्म का विसर्जन है..,
नीतिगत अर्जन का रितिगत विसर्जन( दान,धर्म आदि ) सर्वोत्तम है ..,
गुप्त विसर्जन उत्तमोत्तम है....."
SATURDAY, JULY 21, 2012
" गुणों के मध्य कोई एक दोषारोपण खिन्न्न करता है,
दोषों के मध्य कोई एक गुणगान प्रसन्न करता है;
सत्य आलोचना श्रे ष्ढ व्यक्तित्व का निर्माण करती है.."
किन्तु : --
सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस ।
राजधर्म तन तीनि कर होइ बेगिही नास ।।
----- ।। तुलसीदास ।। -----
" निंदक नियरे राखिये आँगन कूटी छबाए..,
बिनु पानी बिनु साबुना निर्मल करे सुहाए....."
----- ।। कबीर ।। -----
" सिद्धांत व व्यवहार, अध्यात्म व विज्ञान के द्वैध पक्ष हैं;
अध्यात्म का सम्बन्ध आत्म रूप में व विज्ञान का
सम्बन्ध दैहिक स्वरूप में है....."
TUESDAY, JULY 10, 2012
" तुलनात्मक दृष्टिकोण की स्तुति की अपेक्षा अतुल्य
दृष्टांत की प्रस्तुति का प्रस्तावक होना चाहिए....."
SUNDAY, JULY 15, 2012
" योग्यता तब निश्चित होती है जब व्यक्ति वास्तव में योग्य हो.."
" परिभ्रष्ट अथवा क्लिष्ट कर्म से अर्जित धन के दान से श्रेष्ठ, उक्त कार्य का
परित्याग है..,
अर्थात : --
अनैतिक अर्जन ( ज्ञान, अर्थ इत्यादि ) के विसर्जन से उत्तम
अनैतिक कर्म का विसर्जन है..,
नीतिगत अर्जन का रितिगत विसर्जन( दान,धर्म आदि ) सर्वोत्तम है ..,
गुप्त विसर्जन उत्तमोत्तम है....."
SATURDAY, JULY 21, 2012
" गुणों के मध्य कोई एक दोषारोपण खिन्न्न करता है,
दोषों के मध्य कोई एक गुणगान प्रसन्न करता है;
सत्य आलोचना श्रे ष्ढ व्यक्तित्व का निर्माण करती है.."
किन्तु : --
सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस ।
राजधर्म तन तीनि कर होइ बेगिही नास ।।
----- ।। तुलसीदास ।। -----
प्रभावित हुआ |
ReplyDeleteआभार ||
बिलकुल.....
ReplyDeleteहम भी प्रभावित हुए...
बहुत सुन्दर.
अनु
बहुत बढ़िया!
ReplyDeleteबस यही तो दिक्कत है कि शब्दपुष्टिकरण के लिए अनावश्यक समय नष्ट करना पड़ता है।
खैर अब यहाँ आ ही गया हूँ तो यह दिक्कत भी झेल लेता हू।
चर्चामंच के माध्यम से आपके यहाँ आना हुआ, देख कर अत्यंत ख़ुशी हुई कि हिंदी के शब्दों का जो आपने भरपूर इस्तेमाल किया है, वो वाकई काबिल-ए-तारीफ है!
ReplyDeleteआपको फोल्लो करने लगा हूँ तो अब आता रहूँगा आपको पढने समय समय पर!
बहुत सुंदर है !!
ReplyDeleteचर्चामंच के माध्यम से आपके यहाँ आना हुआ