Thursday 26 June 2014

----- ॥ उत्तर-काण्ड १६ ॥ -----

सुनत लखन सँदेसु यह प्रियकर । लहे दिए निर्देस कानन धर ॥ 
अस्त्र सस्त्र सब आयुध धारी । समर सिर सूरवाँ अनहारी ॥ 
लक्ष्मण का यह प्रिय यह हर्ष उत्पन्न करने वाला सन्देश श्रवण कर सेनापति कालजीत ने भ्राता लक्ष्मण के निर्देशों को फिर ध्यान पूर्वक सुना ॥ ( भ्राता लक्ष्मण ने कहा : -- ) अस्त शस्त्र एवं सभी आयुधों एवं संग्राम हवन में अपने मस्तक की आहुति देने वाले अविजित शूरवीरों को धारण की हुई  : - 

चातुरंगिनी सेन सँवारौ । रघुबर के आयसु अनुहारु ॥ 
जोग कलित सब काल बिनासा । लेख लखन मुख भासित भासा ॥ 
सेना को तैयार करो यह रघवीर की आज्ञा है उसका अनुशरण हो । सेना सभी उपयोगी सामग्रियों से सुसज्जित होनी चाहिए । लक्ष्मण के मुख द्वारा उद्भासित की गई भाषा को समझ कर : -- 

सकल झुझाउन साज सँमराए । जोग जुगित रन चीन्ह धराए ॥ 
सेन जूथ अस ब्यूह रचिते । दरस माहि अरि भय भीत कृते  ॥ 
समस्त रण कारी आयुधों को संवार कर ईवा सभी उपयोगी सामग्रियों को संकलित किए सेना को युद्धोपकरणों से युक्त किया । फिर सैनिक समूहों की ऐसी व्यूहरचना रची कि वह दर्शन मात्र से शत्रु को भयभीत कर दे ॥ 

बहुरि कालजित समुख पधारे । लखन नयन तब जोख निहारे ॥ 
सेनि संख्या दरसत ऐसे । दरसि गगन तारागन जैसे ॥ 
इस प्रकार सेना को तैयार किए  काल जीत भ्राता लक्ष्मण के सम्मुख पधारे । तब भ्राता लक्षमण की तीक्षण दृष्टि ने उस  निरक्षण किया ।। ( साठ सहस्त्र ) सैनिकों की संख्या ऐसी दर्श रही थी जैसे गगन में नक्षत्र का समूह दर्श रहा हो ॥ 

तदनन्तर समरोद्यत , निरखत सैन बिसाल  । 
कहि पुलक अब  कूच करें लखमन सेनापाल ॥ 
तत्पश्चात रण हेतु तैयार सेना का निरीक्षणोपरांत भ्राता लक्ष्मण ने सेनापति कालजीत से पुलकित स्वर में कहा : - अब  कूच कीजिए  । 

सोमवार, ०४ जुलाई,२०१४                                                                                                        

 तरत तरंग सम तूल जूहा । सागर नागर लोक समूहा ॥ 
जब नायक आयसु पाईं । मख मंडप तट उदकत आई ॥ 
उतरती हुई तरंग के समतुल्य वह सैन्य समूह था । नागरिकों एवं लोगों का समुदाय सागर के सरिस था । सैनिक रूपी उन जल तरंगो को जैसे ही नायक की आज्ञा हुई । वे उत्साह पूर्वक यज्ञ मंडप के तट की ओर उमड़ने लगी ॥ 

निकसत बास छतर कर जोटे । चली बाहिनी रबि किए ओटे ॥ 
जूथ चारी सकल रन बीरा । जस रत्नाकर मुकुतिक हीरा ।। 
 छत्र हस्तगत किए सूर्य को भी आच्छादित काटे हुवे सैन्य वाहिनी, अपने निवेश भूमि से  निकली । यूथ चारीयों में समस्त समर मूर्धा एवं समर-शूर मानो उन तरंगों के सह रत्नाकर सेनिकलने  वाले रत्न हों ॥ 

तोमर मुदगल खड्ग प्रचंडा । सजे भुज सिखर धनु  सर षण्डा ॥ 
भर अतुलित बल मुख अस गर्जहिं । गहे गहन रस घन जस तर्जहिं ॥ 
उनके भुजा शिखर  धनुष एवं वाण -समूह सहित तोमर मुद्गल एवं अति तीव्र खड्ग शोभायमान हैं ॥ भुजाओं में अतुलित बल भरकर उनके मुख ऐसे  गर्जना रहें हैं जैसे गंभीर घन अतिशय रस युक्त होकर तरजना कर रहें हो ॥ 

रन कामिन अस प्रगसि उछाहा । किए रवन जल पाए जस बाहा ॥ 
चले बीर जिमि सीख सिखावा । स्फुटित गति पद ताल मिलाबा ।।  
समरोद्यत सैनिक  ऐसे उत्साह प्रकट रहे हैं जैसे वायु प्राप्त  कर सिंधु का जल ध्वनिवन्त् होता हैं ॥ वे वीर  इस भांति चल रहे हाँ जैसा की उन्हें  प्रशिक्षण दिया गया है उनकी पद ताल इलाते हुवे उनकी गति असाधारण है ॥ 

भरे उतमंग परसन तरंग पद उद कांत के जस धावहीं । 
चतुरंगिनी के एक एक अंग मख मंडप तस आवहिं ॥ 
ताल गति बर ढोल डमरू धर दुंदुभी मुख संख बजे । 
सुर मनि बल गीती कंठ कल सकल संगीत समाजु सजे ॥ 
( किरणों से ) भरी मांग से  जिस प्रकार उत्तरङ्ग  समुद्र के चरण तट को स्पर्श करने तीव्र गति से चली आती है ।  सेना भी अपने समस्त अंगों सहित यज्ञ मंडप रूपी तट में उसी प्रकार प्रभु श्रीराम के चरण स्पर्श हेतु चली आ रहीं हैं ॥ ढोल और डमरू हस्तगत हुवे , तालों की श्रेष्ठ गति वरण कर जब मुख में दुंदुभी एवं शंख ध्वनित हो उठे । तब समस्त स्वर, गीतिका मणियों से वलयित होकर संगीत समाज के कल कंठ में सुसज्जित हो उठे ॥ 

सैन सहि पत पंगत हुए , चातुर रँग के साथ ।  
सौमुख सकल सिरु अवनत, निरख रहे रघुनाथ ॥ 
सेना के चतुर अंग पालक सहित पंक्तिबद्ध हुवे  । महाराज श्री रघुनाथ जी निरक्षण कर रहे हैं, और वह  उनके सम्मुख अवनत मुद्रा में है ॥   

रविवार, ०३ जुलाई, २०१४                                                                                                        

इहाँ भरत प्रभु आयसु पाईं । अग्याकारी सेबक नाईं ॥ 
अचरम तुरग भवन पधारे । चयनित हय के रसना धारे ॥ 
इधर भ्राता भरत प्रभु श्री रामचन्द्रजी प्राप्त कर एक आज्ञाकारी  सेवक की भाँती अतिशीघ्र अश्वशाला में पदार्पण किए एवं चयनित मेधीय अश्व की रश्मियाँ धारण किए ।। 

मणि मंडित बहु लमनी ग्रीवा । लसत लवन के नहि कछु सींवा ॥ 
गह रद बिसद बदन के कांति । लघु करन लघु पाँखि के भाँति ॥ 
मणियों मंडित अति प्रलंबित  आकर्षक ग्रीवा, जिसके सौंदर्य  की कोई सीमा नहीं । दन्त युक्त मुख  जिसकी उज्जवल कांति है छोटे छोटे कान छोटे  छोटे पंख की  भाँती लक्षित हो रहे हैं ॥ 

ललित नयन तापर सुठि नासा । बरधे सुहा हरित मुख ग्रासा ॥ 
मुकुतिक माल रतन रतनारे । कलित चरण पुनि बाहिर धारे ॥ 
अभिराम नयन उसपर  एक सुन्दर सी नासिका, मुख में शोभा वर्धन करता हुवा हरित-ग्रास था ।  रत्नारी रत्नों एवं मुक्ता माल्य से विभूषित उस अश्व की जब  अश्वशाला से निकासी हुई 

लागहि  तीर तरंगित ताना । पलासित पोत पीठ पलाना ॥ 
हिरन सकल बल कल मनि खाँचे । आवत जिमि कर धर रबि राँचे ॥ 
॥ तब ऐसा प्रतीत हुवा मानो  पीठ पर अरुणारी पोत उसपर सूत्रों द्वारा तरंगित कग़ारी  युक्त जीन पर आरूढ़ होकर , स्वर्ण कणों  से वलयित एवं सुन्दर मणियों से खचित  किरणों को  हस्तगत किए  स्वयं सूर्यदेव चले आ रहे हों ॥ 

गौर गिरि सम छतर ता ऊपर । द्योत सरिस दुइ धवलित चँवर ॥ 
साधन संपन सकल सरीरा । अस्व बृंद मैं लागत हीरा ॥ 
उसके ऊपर हिमगिरि की भांति श्वेत छत्र और धूप की भांति धवलित दो चँवर ।  इस  प्रकार उस अश्व  का समस्त शरीर विभिन्न शोभा सम्पत्तियों से विभूषित था और वह अश्व समूह में सबसे श्रेष्ठ था ॥  

जेहि भाँति मनु रिषि मुनि देबा । जुगत  जोग श्री हरि के सेबा ॥ 
तेह भाँति बहुतक सेनाचर । करे राख हय के रस्मी धर ॥ 
 जिस प्रकार देवताओं सहित मनुजन, ऋषि मुनि गण, सेवा -योग्य श्री हरि सुश्रुता में नियोजित रहते हैं उसी प्रकार  बहुंत से सेनाचर  रश्मियाँ ग्रहण किए उस अश्व की रक्षा में नियोजित थे । 

खुर न्यास उत्खचित खल , परस रहा आगास । 
हिंसत अस पैठइ अस्व, मख मंडप के पास ॥  
इस प्रकार धरा ऊपर खुर के चिन्ह खचित कर आकाश स्पर्श करता वह अश्व  हिनहिनाते हुवे यज्ञ मंडप के निकट पहुंचा ॥ 

उजरित लघु रोमावली, दस ध्रुवक के चीन्ह । 
कंठ चरन नूपुर धरे, रुरी रुनझुन कीन्हि ॥ 
उज्जवल महीन रोमावलियां उपसार दस ध्रुवक के चीन्ह मधुर स्वर में रुनझुन करते हुवे उसके कंठ एवं चरण 

कलित कमन तन सित बरन, दुइ करन घन स्याम । 
करत लजित रबि रथ किरन , पूजन किए श्रीराम ॥  
श्वेत वर्ण से युक्त उसकी देह घने काल वर्ण से युक्त  दो कर्ण  मानो कामदेव ने स्वयं रचित किया हो किया हो । ऐसी शोभा से युक्त वह अश्व  रवि के रथ की किरणों को लज्जित कर रहा है भगवान श्री राम उसकी पूजा कर रहे हैं ॥ 

मंगलवार, ०५ जुलाई, २०१४                                                                                                   

हय सह अनी आन जब देखे । प्रभु श्री लोचन मुनि पुर पेखे । 
दिरिस पंथ चर लिए तिन घेरे । समयोचित कृत करतन प्रेरे ॥ 
अश्व के सह भगवन ने जब सेना को आते देखा तब उनकी अर्थ पूर्ण दृष्टि  मुनि वशिष्ट को  देखने लगे ।। दृष्टि गोचर पथ पर चली उसने मुनिवर को घेर लिया एवं समयोचित कार्य करने हेतु उन्हें उत्प्रेरित किया ॥ 

सुबरन मई सिया बोलाईं । बहुरि अनुठान हाथ लगाईं ॥ 
कुम्भज मन बिधि काज सँभारे । बाल्मीकि अधबर निरधारे । 
तब बुद्धिमान महर्षि  वशिष्ट ने स्वर्णमयी माता सीता को बुलाया । तत्पश्चात यज्ञ अनुष्ठान को आरम्भ किया ॥ तपोनिधि अगस्त्य मुनि ने ब्रह्मा का ( कृताकृतावेक्षणरूप ) कार्यभार ग्रहण किया । महर्षि वाल्मीकि को  अध्वर्यु बनाए गए ।। 

कन्य भयउ द्वार प्रतिपाला । ले घेर मख कुण्ड बिसाला ॥ 
आठ दुअरि तोरन अस साजे । सुरग पुरी के पौरी  लाजे ॥ 
कण्व को जब द्वारपाल नियुक्त किया गया । तब उन्होंने उस विशाल यज्ञ कुण्ड को चारों और से सुरक्षित कर लिया । यज्ञ स्थल की अष्ट द्वार तोरण से ऐसे सुसज्जित थे जो स्वर्ग-सोपान की भी निंदा कर रहे थे ॥ 

कहत सेष हे बात्स्यायन । रखे राख तँह दुइ दुइ ब्रह्मन ॥ 
पूरब देबल असित आसिते । पिछु जातू करन जाजलि थिते ॥ 
भगवान शेषजी कहते है हे मुनि वात्स्यायन ! उनमें से प्रत्येक द्वार पर दो-दो मंत्र वेत्ता ब्राह्मण बैठाए गए । पूर्व द्वार पर तपस्या के भंडार देवल एवं असित मुनि थे । पश्चित द्वार पर महर्षि जातूकर्ण्य  एवं जाजलि उपस्थित थे ॥ 

उत्तर मुखी दुआरी, द्वित एकत किए राख । 
दक्खन माहि लगे रहे, कस्यप अत्रि के आँख ॥ 
उत्तर मुखी द्वार  द्वित एवं एकत मुनियों द्वारा रक्षित था । दक्षिण में महात्मा कश्यप एवं मुनिवर अत्रि की दृष्टि लगी थी ॥ 

बृहस्पतिवार, ३१ जुलाई,२०१४                                                                                                     

ऊँच मंच मख मंडप साजे । निकट नागर निबासि बिराजे ॥ 
सौहहि  संगी संग संगिनी । गावहि मंगल कंठ भामिनी ॥ 
ऊँचे मंच पर यज्ञ  मंडप स्थापित किया गया । नगर मन निवासित नागरिक गण निकट विराजमान थे ॥ सहधर्मचारि धर्मचारिणियों के संग सुशोभित हो रहे थे ॥ 

देखू बनाउ नैन किए सैने ।  भए मौनी मुख नैनहि बैने ॥
चितइ चितबत कौतुहल कारी । भरि मख भूमि भीड़ भइ भारी ॥ 
यज्ञ भूमि की रचना के दर्शन हेतु जब उनके नयन संकेत करते तब मुख मौन धारण कर लेते, नयन वाणी से युक्त हो जाते  ॥ 

बिधिदर्शीन सब भाँति तोले ।श्रुतानवित बसिष्ठ मुनि बोले ।। 
बिनहि प्रिया मैं बेद बिलोका । धरम कर्म नहि होत त्रिलोका ॥ 
विधिदर्शियों से न्यूनाधिक की विवेचना कर वेद के ज्ञाया मुंवार वशिष्ट बोले । हे त्रिलोकपत ! मैने वेदों का अवलोकन किया है धार्मिक कर्मकांड अर्द्धनिगिनी से रहित होकर धारामिन कर्मकांड पूर्णता को प्राप्त नहीं होते ॥ एतएव इस समय माता सीता की उपस्थिति परम आवश्यक  है ॥ 

रहे मौन प्रभु कछु न उचारें । नत सिरु नयन पलकिन्हि ढारे ॥ 
छाए मख भूमि अस निरबताए । सूचि कर गिरहि सोइ रबनाए ॥ 
मुनिवर के ऐसे वचन  श्रवण प्रभु  मौन मुद्रा धारण कर अनुच्चरित रहे ।  उनका शीश अवनत था एवं दृष्टि पलक पट से अर्धाच्छादित थीं ॥ यज्ञ भूमि में ऐसी नीरवता छा गई कि यदि वहां सूचिका भी गिरे तो वह भी ध्वनित हो उठे ॥ 


कहे प्रभो करु जुगति अस , मुनि मम किरिया जान । 
करौं मैं आपनि करतब, रहे धर्म सनमान ॥  
तदनन्तर प्रभु श्रीराम चन्द्र जी ने कहा : --  हे मुनिवर ! मेरे वचनों को संज्ञान कर कोई ऐसी युक्ति  करिये जिससे मैं अपने कर्त्तव्य भी पूर्ण करूँ एवं धर्म का सम्मान भी रह जाए ॥ 

शुक्रवार, ०१ अगस्त, २०१४                                                                                                        

सिरुनत प्रभु पुनि लए उछबासे । अवनत नयन मंद सुर भासे ॥ 
कहो मुने अस कोउ उपाई । लहे सम्मति सबहि के नाईं ॥ 
अवनत शीश मुद्रा में ही फिर उच्छ्वास लेते हुवे नत लोचन स्वरूप में ही मंद स्वर में बोले । हे मुनिवर ! ऐसा कोई उपाय कहें जो सर्वसम्मत हो ॥ 

तब रिषि नारद मुनिहि मनीषा । किए मंथन मत जोरत सीसा ॥ 
जोग जुगति गुरुबर  सनकादी । सुनौ  बचन कहि परम अनादी ॥ 
तब ऋषि गण, महर्षि नारद  सहित सभी मनीषियों ने सिर जोड़ कर  विचार-विमर्श किया ॥ गुरुवर एवं सनकादि आदि मुनियों ने एक योग्य युक्ति विचार कर कहा : -- हे अनादि पुरुष ! सुनिए ॥ 

सुबरन मई मूरत रचाहू । सील सीय सरि रूप धराहू ॥ 
भगवन सुबुध बचन अनुहारे । रचत मूरत संग बैठारे ॥ 
स्वर्णमयी मूर्ति की रचना कर उसे परम शीलवती श्री सीताजी के सदृश्य रूपानतरित कीजिए ॥ तदोपरांत भगवान श्रीरामचन्द्रजी ने मुनि महर्षियों के कहे वचनों का अनुशरण किया । और कही गई रचना रचित  कर उसे अर्द्धांगिनी स्वरूप में अपने संग विराजित किया ॥ 

 ललित कला  कृति  बूषन साजे । बिचित्र देह बर बसन बिराजे ॥ 
 चित्रकृत कहि चितबत नर नारी । मूरति नहि जगजननि हमारी ॥ 
वह ललित कला कृति श्रेष्ठ आभूषण कलित किए हुवे थी उसके सुगठित वपुर्धर पर श्रेष्ठ वस्त्र विराजित थे । स्तब्ध  नर एवं नारियों  ने कहा : -- अद्भुद !यह मूर्ति नहीं है साक्षात जगज्जननी है ॥ 

 बहुरि जजमान जग्यधर, बिप्रबर परम प्रबीन । 
बाहि जोग मख रथ केतु, किए तिन्ह के अधीन ॥ 
 तत्पश्चात यज्ञ के धारण कर्त्ता पुरुष श्री रामचन्द्र जी ने ( दो सहस्त्र ) वेद-मत से भली भांत परिचित यज्ञन्न विप्रवर को यज्ञ वाह नियुक्त कर यज्ञ-रथ को संचालित करने हेतु यज्ञ-केतु उनके अधीन किया ॥ 

शनिवार, ०२ अगस्त, २०१४                                                                                              

मकर मास रितु सिसिर सुहाई । मख मंडप बैठे रघुराई ॥ 
बोले गुरु जस बेद बखाने । मेधीअ तुरग तस लय आने ॥  
माद्य मास की सुन्दर शिशिर ऋतु में रघुकुल के कान्त श्रीरघुनाथ जी यज्ञा वेदी पर विराजमान हुवे ॥ तत्पश्चात गुरुवर वशिष्ट ने खा जैसा वेदों में वर्णित किया गया है वैसा मेधीय अश्व यज्ञ के मंडप में लाया जाए ॥ 


जोड़न बिनु जज्ञ होए न भाई। सुबरन मई सिया रच साईँ ॥ 
किए गठ जुग जज्ञ बेदी बैठे । बिमौट सह लव कुस तँह पैठे ॥ 
अर्द्धांगिनी के बिना  कोई भी धार्मिक कार्य संपन्न नहीं होता यज्ञ कर्म काण्ड भी नहीं । इस प्रकार भगवान श्रीरामचन्द्र ने स्वर्णमयी सीता की रचना कर गठ बंधन किए यज्ञ वेदी पर विराजमान हुवे  ही थे कि उसी क्षण महर्षि वाल्मीकि भी लव कुश के साथ अयोध्या नगरी पधारे ॥ 

दौनौ बाल पुर पुरौकाई । भँवर भँवर रामायन गाईं ॥ 
मधुर गान रहि अस रस बोरे। पागत श्रवन पुरौकस घोरे॥    
दोनों बालक ने नगर में घूम घूम कर नगर वासियों महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित श्री रामायण महा काव्य का पाठ बांच कर सुनाया ॥ उनका मधुरित गायन रसों में इस प्रकार से डूबा हुवा था कि वह गहरा होकर नगर वासियों के कानों में घुलने लगा ॥ 

बाँधे लय जब दुहु लरिकाई । सुर मेली के गान सुनाईं ॥ 
संग राग छह रंगन लागे । पुर जन के मन मोहन लागे ॥ 
जब दोनों गदेले लय बद्ध होकर सुर को मिलाते हुवे रामायाण की गाथा गा कर सुनाते  तब छहों राग साथ में  तरंगित हो उठते, और उस गान ने अवध वासियों के मन को मोह लिया ॥ 

आगिन गवने सुत रघुराई । पाछू सब जन रमतत  आईं ॥ 
मोद मुदित मुख निगदित जाते । जो तिन्ह जनि धन्य सो माते ॥ 
राजा राम चन्द्र के पुत्र जब थोड़ा आगे चले तो सब जन मुग्ध होते हुवे उनके पीछे पीछे चलने लगे ।। प्रसन्न चित एवं आनन्दित होते हुवे वे अपने मुख से कहते चलते कि जिस माता ने इन पुत्रों को जन्म दिया है वह माता धन्य है ॥ 

जन मुख कीर्ति कीरतन, श्रुत दोनौ निज मात । 
भए भावस्थ ग्रहत प्रवन, वंदन चरन अगाध ॥    
नगर वासियों से अपनी माता की कीर्ति का कीर्तन श्रवण कर, वे भाव में लीन होकर उस कीर्तन का आशय ग्रहण कर वे भाव विभोर हो उठे, अपनी माता के चरणों में उनकी श्रद्धा और अधिक हो गई ॥ 

गुरूवार, २ ७ जून, २ ० १ ३                                                                                        

प्राग समउ मह भारत खंडे । रहहि लघु राज भू के षण्डा ॥ 
कहूँ नदिया कहूँ नद के धारी । घेर बाँध भू किए चिन्हारी  ॥ 
प्राचीन समय में भारत वर्ष की भूमि,सुव्यवस्थित राजनीतिक क्षेत्रों की लघु ईकाइयों का समूह था । कहीं  क्षुद्र तो कहीं वृहदाकार नदियाँ ही राज्य क्षेत्र  की सीमाओं को चिन्हांकित करती थीं ॥ 

तेइ बयस  मह देसिक धारे । रहहि न अबाधित अंतर सारे ॥ 
समाज सन रहि भेद अभेदे । भेद अभेद भेदीहि भेदे ॥ 
उन परिस्थितियों में राष्ट्रीयता की धारा  अपने आतंरिक  विस्तार में अबाधित नहीं थी अर्थात वे बाधित थी  । प्राचीन भारतीय समाज में भेद और अभेद दोनों ही था । भेदी अर्थात भेद अभेद का लाभ लेने वाले  भेद-नीति अपना कर अपना उल्लू सीधा करते ॥ 

सस्य स्यामलि सुमनस सूमिहि । एक छत्र करतन भारत भूमिहि ॥ 
देस भूमि जन घेरन बंधे । चिन्ह तंत्र प्रद पाल प्रबंधे ॥ 
शस्य श्यामल, सौमनस्य, जल से परिपूर्ण इस भारत की भूमि को एकछत्र अर्थात सार्वभौम स्वरूप देने हेतु राज्य का  क्षेत्र एवं उसके वासियों को  अर्थात भारतीय गणराज्य को एक सीमा रेखा में बाँधते हुवे उसकी सीमाओं का चिन्हांकन कर समस्त भारत में एक ही शासन   पद्धति लागू  करने एवं राष्ट्र को संगठित करने के उद्देश्य से  : -- 

महातिमह मख कल्पन धारे । भारत भू एवम एकीकारे ॥ 
एक कौ अश्व मेध जज्ञ कहही । दूजन राज सूय यज्ञ रहहीं ॥  महा यज्ञों की कल्पना की गई थी कि इस यज्ञ विधि से भारत की भूमि का एकीकरण हो ॥ इन  महा यज्ञों में  एक यज्ञ को अश्व मेध यज्ञ कहते हैं दूसरा  राज सूय यज्ञ कहलाता है  ॥ 

प्रतीकतह तजैं एक हय , भँवरि सकल भू बाट । 
जे राउ तेहिं कर धरहि, जोधहि संग सम्राट ॥ 
प्रतीक स्वरूप समस्त राज्यों की वीथीकाओं में एक घोड़ा छोड़ा जाता । जिस राजा ने उस घोड़े की रस्सियों को पकड़ लेता उसे सम्राट के साथ युद्ध करना पड़ता ॥  

बुधवार,०६ अगस्त, २०१४                                                                                                

सब समिंधन समित हबि बाहा । हबिर रसन  दए बोलि सुवाहा ॥ 
उठे गगन भुक धूम सुगंधा । पास देस सह पुर पुर गंधा ॥ 
समस्त यज्ञीय ईंधन को एकत्रिभूत कर ऋत्विज हवन में रसन दान कर स्वाहा की ध्वनि करने लगे ॥ गगन में अग्नि धूम उठने लगा । जिसके सुगंध से निकटवर्ती देशों सहित नगर-नगर सुंगंधित हो गए ॥ 

दाए आसन भुक देउ बिराजे । परगस रूप गहे निज भाजे ॥ 
मख मुख अंतिम हूति सँजोई  । अस्व मेध तब पूर्ण होई ॥ 
पितृगण, भगवान शिव एवं अग्नि आदि देवता आदर पूर्वक दिए गए आसन में विराजित हुवे प्रकट स्वरूप में  अपना भाग ग्रहण करने लगे ॥ यज्ञ के श्री मुख ने जब अंतिम आहुति संकलित की तब अश्व मेध यज्ञ पूर्णता का प्राप्त हुवा ॥ 

सेन सहित जन  जय जय कारे । एकीकरन बिथुरित संसारे ॥ 
नेकानेक बस्तु बिधि नाना । याचकिन्ह  भगवन दिए दाना ॥ 
सेना सहित सभी उपस्थित जन अस्त-व्यस्त विश्व के एकीकरण हेतु प्रभु श्रीरामचन्द्रजी की जय जय कार  करने लगे ॥ फिर भगवान ने याचकगण को  नाना प्रकार की अनेकानेक याचित वस्तुएं प्रदान की ॥ 

लिखत पत्री मुनि मुद्रा चीन्हे । हय भाल तूल तिलकित कीन्हे ॥ 
नागर गन  दरसे तृन तोड़े । पत्री बाँध्यो देवन छोड़े ॥ 
मुनिवर वशिष्ट ने मस्तक-पत्री में प्रभु के नाम की मुद्रा चिन्हांकित की एवं अश्व के तेजस्वी मस्तक पर लाल तिलक लक्षित किया ॥ नागरिक समूह  उसे देखते और तृण तोड़ते । फिर मुद्रांकित  पत्री  को अश्व के मस्तक पर बांधा गया वह अश्व त्याग हेतु तैयार हो गया ।।  

बात्स्यायन अहि राउ, सुने धरे चित साँति । 
पूछे बिप्रवर मम प्रभो , लिखि लेख केहि भाँति ।। 
मुनिवर वात्स्यायन भववान शेष जी को स्थिर चित्त से श्रवणरत हैं । वे प्रश्न करते हैं : -- हे प्रभु ! बंधे पत्री  किस प्रकार लेखित की गई थी ॥ 

बृहस्पतिवार, ०७ अगस्त, २०१४                                                                                               
चंचलाख्य चंदन चर्चिता  ।सोहा सम्पद्  कुमकुम अर्चिता ॥ 
तपे हिरन मनमोहक गंधे । पुनि पत्री देइ मस्तक बंधे ।। 
भगवान शेष जी ने उत्तर दिया : -- हे मुनिवर वह पत्र चंचलाख्य ( एक सुगन्धित द्रव्य ) चन्दन से चर्चित कुमकुम से अर्चित होकर शोभा की सम्पति स्वरूप तपे हुवे स्वर्ण की मनमोहक गंध से युक्त कर तत्पश्चात उसे अश्व के तेजस्व ललाट पर मुनि श्री वशिष्ट ने आबद्ध  किया ॥ 

दसरथ नंदन रघुवर जी के । तपित रूप लिखि आखर नीके ॥ 
बरनि अवध प्रताप बल चाका । प्रहरैं जो रबि बंस पताका ॥ 
जिसमें दशरथ नंदन श्री रघुवीर जी के तपाए हुवे शुद्ध रजत से उज्जवल एवं सुन्दर अक्षरों में अवध साम्राज्य के शौर्य एवं प्रताप वर्णन करते हुवे यह उल्लेखित किया कि  रवि वंश की पताका का प्रहरण करने वाले : - 

श्री दशरथ जी बर धनुधारी । धनुहाई के जो गुरु भारी ॥ 
तिन्ह के सुपुत सदपत गामी । ए काल रघु  बंस के स्वामी ॥ 
धनुर विद्या के श्रेष्ठ गुरु एवं धनुर्धर श्री दशरथ जी के धर्म का अनुशरण करने वाले सुपुत्र महाभाग श्री राम चन्द्र जी इस समय रघुवंश के स्वामी हैं ॥ 

सूर सिरोमनि कँह तिन लोगे । धूरिकारू  मान बल जोगे ॥ 
बिधि दर्सी जो नेम उचारा । करें प्रभु मख तासु अनुहारा ॥ 
उन्हें बल के अभिमान को चूर्ण करने वाले वीरों का सिरोमणि कहा जाता है  उन्होंने  विधिदर्शी गुरुवर एवं मुनियों की कही गई विधि के अनुसार महा अश्वमेध यज्ञ के अनुष्ठान का श्री गणेश कर दिया है  ॥ 

तेजस तूल तिलक लक लासे । कमन कलित कृत किरनन कासे ॥ 
फटिक बरन जो गहि गुन गाढ़े । सोइ अस्व श्री रामहि छाँड़े ॥ 
जो श्वेत -वर्णी जो गुणों का ग्राम है उस अश्व का श्री रामचद्र जी द्वारा त्याग किया जा रहा है ॥ जिसके मस्तक पर तीक्ष्ण अति शोण तिलक चमक  रहा है किरणों को आकर्षित किए जो  रतिपति कामदेव की रचना है एवं ूानहीं के द्वारा विभूषित किया गया है ॥ 

सकल है बंस  अवतंस बाहन माहि प्रधान । 
रामानुज सत्रुहन जोग, रखे तिन्ह के त्रान ॥  
यह हय अपने वंश में सर्वश्रेष्ठ है वाहनों में सबसे उत्तम वाहन है । रामानुज शत्रुध्न को इस अश्व का रक्षक नियुक्त किया गया है ॥ 

शुक्रवार, ०८ अगस्त, २०१४                                                                                                

सेनाचर सह सैन बिसाला । अस्त्र सस्त्र धनु बान कराला ॥ 
सहसई है संग गज राजू । रथ रन सूर रथि बन बिराजे ॥ 
सेनाचरों के संग विशाल सेना है । जो धनुष-बाण खड्ग आदि अस्त्र-शस्त्र से युक्त है ॥ इसके संग सहस्त्रों अश्व एवं सहस्त्रों गजराज हैं । समरशूर रथी बनकर रथों में विराजित हैं ॥ 

गह घमंड प्रचंड बलि  बाहू । सकल मही मह राउन्हि काहू ॥ 
 हमहि सरिस जग कह नहि कोई । करे हरन है साहस जोई  ।॥
समस्त पृथ्वी में जिन राजाओं को अपने प्रचंड  बाहुबल का घमंड है जो यह समझते हैं की  संसार में हमसे बढ़कर कोई समर शूर  है ही नहीं वह इस अश्व को हरण करने का साहस करे ॥ 

जासु चित ऐसेउ अभिमाना । सूर धनुर्धर बर बल्बाना ॥ 
उद्यत होत समर जो कारिहि । सोइ सत्रुहन जुझावत हारिहि ।  ॥ 
जिसके चित्त में ऐसा अभिमान है कि वह सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर एवं प्रचंड बलवान है ॥ एवं उद्यत होकर संग्राम हेतु उत्कंठित होगा वह  रामानुज वीर शत्रुध्न द्वारा परास्त हो जाएगा ॥ 

लिखी जन अंग नाउ बल चाका । पत्री पटल है दंड पताका ।। 
अरु लिखत कहि नीति नय नाना । मान न तासु काल निअराना ॥ 
 उस पत्री में जब अवध साम्राज्य के जनसमूह एवं अवध राज्य के अंग जैसे प्रकृति, राजा,अमात्य ,दुर्ग कोष, बल उसके मैत्रीदेश आदि उल्लेख किया गया तब वह पत्री मानो अवध साम्राज्य की केतुचिन्ह हो गई एवं अश्व उस केतु का दंड स्वरूप हो गया ॥  

सुबरन मय इतिहास सन बरनि अवध के बान । 
राम नाम उद्गार के  पुनि देइ मुद्रा दान ॥ 
ततपश्चात अवध के स्वर्णिम इतिहास के संग उसकी सभ्यता एवं संस्कृति का वर्णन करते हुवे उसपर महाराज प्रभु श्रीरामचन्द्रजी के नाम की आधिकारिक मुद्रा का चिन्ह दिया गया ॥ 

शनि/रवि , ०९/१०  अगस्त, २०१४                                                                                                   

श्रव श्री सोहा के भंडारे । भंवरन भुइँ पुनि  दिए परिहारे ॥ 
निकसि बेग बल बायु समाना । चरण पंख किए काइ बिमाना ॥ 
हे मुनिवर : -- तदोपरांत यशो धन एवं शोभा की सम्पती  का भंडार स्वरूप  उस अश्व का  पृथ्वी में विचरण हेतु  त्याग कर  दिया गया ॥वायु के सदृश्य वेग युक्त होकर चरणों को पंख एवं काया को विमान किएवह अश्व अवध से निर्गत हुवा ॥ 

भूमि अमरावति  कि पाताला । चले चरन समरूप सुचाला ॥ 
तदनन्तर रबि कुल बर रघुराई । भ्रात सत्रुहन्हि आयसु दाईं ॥ 
 त्रैलोक अर्थात पृथ्वी स्वर्ग  एवं पाताल पर वचरण करते  उसकी गति में समरूपता थी । उसके त्यागकरण के पश्चात रवि वंश के अवतंस  राजा रामचन्द्रजी ने भ्राता शत्रुध्न को आज्ञा देते हुवे : -- 

कहे बीर हे सुमित्रा नंदन । बिचरत यह है सो अपनै मन ॥ 
पथ दरसत तुम गावै पिठाई  । रनोद्यत जो कोउ अवाई  ॥ 
कहा : -- हे सुमित्रा नंदन !  हे वीर ! यह अश्व अपनी मन-मानस के अनुरूप विचरने वाला है । । तुम इसका मार्ग दर्शन करते हुवे इसके पीछे जाओ । रणोद्यत होकर जो कोई इसके सम्मुख आवे ॥ 

 प्रगसत धर खल रूप अनेकिहु । जतात निज बिक्रम ताहि छेकिहु ॥ 
वीरोचित गुन संगत राखिहु । सयनित पत निरबसित न लाखिहु ।। 
जिसने की धृष्टता का अनेक रूप वरण किए  हो अपने पराक्रम का प्रदर्शन कर तुम उसका अवरोधन करना । वीरोचित गुणों की संगती रखना । जो निद्राशील निपतित निर्वस्त्र  हों उनपर  दृष्टिक्षेप न करना ॥ 

चरन निपतित त्रसित भैभीते । संग्राम सूर तेहि न जीतें ॥ 
तुम रथारूढ़ रथ हीन बिपाखा । तासु कोत कभु करिहु न आँखा ॥ 
जो चरणों में गिरे हुवे हों,त्रस्त हों, जो भयभीत हों संग्राम शूर उन्हें नहीं जीतते,  उन्हें भीरू ही जीतते हैं ॥ यदि तुम रथारूढ़ हो और शत्रु पक्ष रथहीन हो तब कभी भी उसकी ओर दृष्टि न करना ॥ 

जो निज फूरि कीर्ति न गावए । तासु संग सम बीर जुधावए ॥ 
रनमद भयद्रुत सस्त्र बियोगे । रने सो अधम गति के जोगे ॥ 
जो अपनी असत्य कीर्ति न करता हो  उसके संग उसके जैसा  ही बली जूझता है ॥ जो युद्ध हेतु केवल उन्मत्त हो  उसमें रन-सामर्थ्य न हो भयवश जो दृष्ट-पृष्ठ हो,  जो शस्त्र-वियुक्त हो,   ऐसे योद्धा से युयुधान रन कारित नहीं करते,  जो करते हैं वह अधम गति के योग्य होते  है ॥  

परतिय पर धन चित न लगाहू । करिइहु न सँगत अधमी काहू ॥
सद्गुन चारन रहिहु अपनाए । लागिहु न पहिले तुअ बुढ़ताए ॥
पराई स्त्री एवं पराए धन की ओर चित्त न ले जाना । किसी अधमी की संगती न  करना ॥ सभी सद्गुणों को अंगीकार किए रहना । बड़े-बूढ़ों के ऊपर प्रथमतस  प्रहार न करना ॥ 

गौ ब्रह्मन अरु धरम परायन । बिष्नु भगत प्रनम्य नत लोचन ॥
तेहि प्रनामत जहँ कहुँ जावैं ।  कृतबीर तहाँ  कृतफल पावैं ॥
गौ, ब्राह्मण तथा धर्म परायण वैष्णवों को अवनत लोचन से प्रणाम अर्पित करना । उन्हें प्रणाम करने वाले वीर्यशील जहां कहीं भी जाते हैं  वहां सफलता को प्राप्त होते हैं ॥ 

 लाँघहु न  पूजीत के पूजा । दया भाव चित चेत न दूजा ॥
रहिहु ते  हुँत सदा सचेता । जगजननी पत जगत प्रनेता ॥ 
अर्चित पुरुषों के पूजा-अर्चना का कभी उल्लंघन न करना । जो चित्त दया भाव से युक्त होता है इससे अवर कोई मंदिर नहीं है ॥ इस प्रकार मेरे द्वारा कही गई  उक्त  वचनों के लिए सदैव सचेष्ट रहना । जगज जननी के स्वामी जगत के प्रणेता स्वरूप : -- 

महाबाहु हरि सर्व स्वामी । ब्यापक रूप अंतरजामी ॥
जो भगता श्री हरिहि पियारे । सोइ सरूप सर्वत्र बिहारे ॥
महाबाहो भगवान श्री विष्णु,सर्वेश्वर हैं वह सर्वव्याप्त एवं अंतर जगत के ज्ञाता हैं जो भक्त भगवान विष्णु को प्रिय होते हैं । वह उन्हीं के स्वरूप में सर्वत्र विहार करते हैं ॥ 

सकल भूत के निलय निबासी । तेहि नाउ पुनि पुनि उद्भासी ॥ 
सुमिरि  जो हरि नाउ  गुन रासी । लाखिहु तिन श्री पत संकासी ॥
जो सम्पूर्ण भूतों के निवास करने वाले  हों  उनका नाम का वारंवार जाप करते हों और जो हरि नाम के गुण समूहों का स्मरण करते हों उन्हं तुम श्री के पति साक्षात श्री विष्णु के समरूप ही समझना  

जाके हुँत को आपना, नाहीं  कोउ पराए ।
सो बिस्नुभगत छन माहि, पापिन को पबिताए ॥
जिसके लिए कोई अपना है न कोई पराया है वह वैष्णव क्षण मात्र में ही पापियों को पवित्र कर देता है ॥ 

 सोम/मंगल  ११ /१२ अगस्त २०१४                                                                                                

जो द्विजन्हि के चरन पखारे । भगवदीअ हरि भजन पियारे ।
अरु वैर भाव के प्रतिमोचन । सो सुचिकरन जग लिए अव्तरन ॥ 
 जो सुसंस्कृत बाह्मणों के चरण धोते हैं जिन भगवद् भक्तों को हर भजन प्रिय है जो वैर स्वभाव का विमोचन करने में समर्थ हैं वे संसार को पवित्र करने हेतु ही वैकुंठपुर से अवतरित हुवे हैं ॥ 

जासु चित हरि भगति मह लागा । भाव हरिदै चरन  अनुरागा ।।
जासु उदर  हरि भोग प्रसादा ।  कँह  हरिजन सोइ निर्बिबादा ॥ 
जिसका चित्त हरि भक्ति में ही अनुरक्त है । ह्रदय में सनातन विष्णु ( ईश्वर) का ध्यान ) उनके चरणों में अनुराग है । जिनके उदर में उन्हीं का प्रसाद हो उन्हें निर्विवाद स्वरूप में वैष्णव ही कहा जाएगा ॥ 

दया भाव जिनके मन माही  । लगे बेद प्रिय जग सुख नाही ॥ 
धर्मवान भृत सदकृत कामा । होत भेँट तुअ  करिहु प्रनामा ।। 
जिनके मन में दया का भाव है जिन्हें वेद प्रिय है जगत के सुख नहीं । जो निरंतर धर्म (अर्थात सत्य तप शौच दान )का पालन करते हैं उनसे भेंट होते ही तुम प्रणाम करना ॥  

 सीस धरे पद पंकज धूरी । हर हरि के किए  भगति भूरी ॥ 
गौ गौरी सुरसरि सम देखें । तिनइ बीच जो भेद न लेखें ॥ 
शीश पर उनके चरणारविन्द की धूलि धारण किए जो  श्री विष्णु एवं भगवान शिव की अतिशय भक्ति करते हैं जो गौ गौरी एवं गंगा को समान दृष्टि से देखते हैं इनमें कोई भेद नहीं करते । 

कहे कथन सम सरासन साँच बचन सम  बान । 
भरे अंतर भाव छिमा, सूर न तासु समान  ॥ 
जिनका कहे कथन कोदंड के समान है कथन में निहित सत्य वचन वाण के सदृश्य हैं जिनके अंतर में काशमा का भाव हो उसके सदृश्य कोई वीर नहीं ॥ 

 मान सकल जन पातक नासा । सो सरि अवतर सुर संकासा ॥ 
भगत भाउ निज बल अनुहरे  । सरनागत  के राखनहारे ॥ 
उन सभी भक्तों को वैकुण्ठधाम के निवासी ही समझना इन सभी जनों को वैकुण्ठधाम में निवास करने वाले एवं अघनाशक ही मानना कारण कि ये सभी स्वर्ग से भूमि पर अवतरित हुवे देव ही हैं ॥ 

सरन  दात दानए बर दाने । बिसनौ मह सर्बोपरि माने ॥ 
जासु नाउ के  परभूता  । किए पातक तुर भस्मिन् भूता ॥ 
जो सत्पात्रों के करतल उत्तम दान देते हैं जो शरण -दातृ है एवं सत्पात्र को उत्तम दान देता हो उसे वैष्णवों में श्रेष्ठ जानना चाहिए ॥ जिसके नाम का प्रभुत्व ऐसा है कि वह तत्काल ही पापों को भस्मीभूत  कर देता है ॥ 

बिसई बाहि कर कासे किरन । अंतर्मन  भगवन के चिंतन ॥ 
बिष्नु चरन सरोज रति राखे ।  तासु भगत तिन लोचन लाखे ॥ 
जो विषयों के घोड़ों की किरणों को कर्षित किए अंतरमन में भगवान का ही चिंतन करता हो ।  के चरण सरोज में ही जिसका अनुराग हो ऐसे भक्तों  को तुम्हारी दृष्टि वैष्णव स्वरूप में ही देखे ॥ 

ऐसेउ समुह सिरु परनावै । सो जन निज जीवन पवितावै ॥
एहि भाँति मम अग्या अनुहरिहू । जो मैँ कहा रे सोइ करिहू  ॥ 
 ऐसे विष्णु भक्तों के सम्मुख जो शीश नवाता है वह अपने सम्पूर्ण जीवन को पवित्र कर  देता है ॥ इस प्रकार तुम मेरी आज्ञा का पालन करना जो मैने उपदेश कहा हे भ्राता तुम वही करना ॥ 

मम कहे कथन संग जो, होहिहु कबहु न बाम । 
बर जोग तैं लहनहारु , पैहिहु परमम धाम ।। 
हे लक्ष्मण ! यदि तुम मेरे कहे कथन के संग कभी विरुद्ध नहीं जाओगे । तब  उत्तम योगों के द्वारा प्राप्त होने वाले परम धाम के तुम् अधिकारी होगे । 
बुधवार, १३ अगस्त, २०१४                                                                                                

जासु निगम नित निगम प्रसंसा । हे रिसि अस रघुकुल अवतंसा ॥ 
कृताकृत के देत उपदेसा  । दिए सत्रुहन पयनै आदेसा ॥ 
यह वह परम धाम है जिसकी निगमगम सदैव प्रसंशा करते हैं ॥ हे महर्षि !हे वात्साययन ! इस प्रकार रघुकुल के अवतंस ने कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का उपदेश देते हुवे शत्रुध्न को कूच  करने का आदेश दिया ॥ 

अबर सूर पेखत प्रियताई । बहुरिमधुर बोले रघुराई ।।  
अहइँ कोइ अस अमित बीर बर । पीठ देस के रच्छा बल धर ॥ 
तत्पश्चात श्री रामचन्द्रजी अन्य वीरों के सम्मुख होकर उन्हें अनुरागपूरित दृष्टि से निहारते हुवे मधुर स्वर में कहा : -- है कोई श्रेष्ठ ? है कोई ऐसा अमित तेजस्वी ? जिसमें सेना के पृष्ठ भाग की रक्षा करने की क्षमता हो ॥ 

अहँ को  बिक्रमी भुजबल धारी । रच्छत है जो पाछिनु चारिहि ॥ 
मर्माघाती आयुध सँजुहा  । जीतएँ अरि सो आवैं समुहा ॥ 
है कोई पराक्रमी कोई बाहुबली जो राजस्कंद की रक्षा करते हुवे सेना अनुगमन करे । जो मर्म भेदी आयुधों से संयुक्त हो एवं सम्मुख आए अमित्र को जीतने में समर्थ हो ॥ 

हैं समर सूरवाँ अस कोई । एहि भार गहन समर्थ होई ॥ 
अस कह मौन भाव गह रघुबर । भरत पुत पुष्कल होइ अगुसर । 
है ऐसा कोई समर सूरवाँ जो यह बीड़ा उठाने में समर्थ हो । ऐसा कहकर जब रघुनाथ के मुख ने मौन भाव ग्रहण कर लिया तब भरत-पुत्र पुष्कल आगे आए ॥ 

गह भुज भार बिनयाबत, कह हे सर्व स्वामि । 
महनुभाव के अनुकामि, प्रतिमुख यह अनुगामि ।।   
अपनी भुजाओं में वह भार उठाए वह शिष्टता पूर्वक  बोले : -- हे सर्वेश्वर ! आप महानुभाव के कामनानुकूल यह आज्ञाकारी अनुचर सादर उपस्थित है ॥ 




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