Thursday 1 January 2015

----- ॥ उत्तर-काण्ड २६ ॥ -----

 बृहस्पतिवार, ०१ जनवरी, २०१५                                                                                     

मत्स्यावतार तुम्ह धारे । श्रुति रच्छत संखासुर मारे ॥ 
महा पुरुख तुम सब कुल मूला । तुहरए सत सों  जग फल फूला ॥ 
आपने मत्स्यावतार धारण कर श्रुतियों की रक्षा करते हुवे शंखासुर का वध किया । हे पुरुषोत्तम आप सभी कुल के मूल पुरुष हैं आपका ही सत्व प्राप्त कर यह जग फलाफूला है ॥ 

सेष महेसहु महि कह देखे । सारदहु का तुअ केहि न लेखे ॥ 
तिनके सहुँ कहँ मैं अग्यानी । कहँ मोरी अनबाचित बानी ॥ 
भगवान शेष क्या महेश ने भी आपके महात्म्य का वर्णन किया आप शारदा क्या किसी के भी बोधसे अतीत हैं ॥ फिर इनके सम्मुख कहाँ मैं अज्ञानी कहाँ मेरी यह अन्वाचित ( गौण , हीन ) वाणी ॥ 

भगवन गन सकलन अस होई । तिन गावन समरथ नहि कोई ॥ 
गाँठ गदन सुठि बरन के पाँति ।अरपत अस्तुति हार एहि भाँति । 
भगवान के गुणों का संकलन ही ऐसा है कि इनका पूर्ण-गायन करने में कोई समर्थ नहीं है । इसप्रकार कथनों में सुन्दर वर्णों को ग्रंथित कर राजन ने भगवान श्रीराम के चरणों में स्तुति हार का अर्पण कर : - 

बहुरि नत नयन करत प्रनामा । गदगद गिरा लेइ प्रभु नामा ॥ 
मंजुल  मुख मंगल मुद भ्राजू । नीति प्रीति पालक रघुराजू ॥ 
तदननतर अवनत नयन से उन्हें परंम किया । गदगद गिरा से युक्त होकर राजन का मुख श्री राम का मंत्र जाप करने लगा ॥ नीती एवं प्रीति के पालक भगवान श्रीरामचन्द्र के मंजुल मुखारविंद में मंगलकारी प्रसन्नता सुशोभित होने लगी ॥ 

 भाव भगति उर भरि अस भावा । उठए बन घन नयन जल छावा ॥ 
गदै बचन बानि सरबसु से । गहन सुमनसु श्रवन ससि रसु से ॥ 
भक्त की श्रद्धा एवं भक्ति ने भगवान के हृदय को ऐसे भावों से भर दिया वह गहन स्वरूप उतिष्ठ होकर उनके नयन रूपी गगन में व्याप्त हो गया ॥ उन्होंने फिर उनके मुख से ऐसी सरसता सम्पूरित वाणी निकली जो ग्रहण करने में कुसुम के समान व् श्रवण करने शशि-सुधा के सरिस थी ॥ 

रे बछर तुम्हरी भगति, मम सद भगत सरूप । 
प्रसादु पावत अजहुँ तुअ, होहु चतुर्भुज रूप ॥ 
( उन्होंने कहा ) : -- वत्स ! तुम्हारी भक्ति मेरे सत्य भक्त के स्वरूप ही है । मेरा प्रसाद प्राप्त कर अब तुम भी चतुर्भुज रूप प्राप्त करोगे ॥ 

शुक्रवार, ०२ जनवरी, २०१५                                                                                                  

 तुहरे जाप जतन अस होईं । तिन गहि मोहि जपिहि जो कोई ॥ 
दरसि सो जब चतुर भुज रूपा । पाहि परम पद हे नरभूपा ॥
तुम्हारे स्त्रोत वचन व् प्रभु दर्शन का यत्न ऐसा है कि उसे ग्रहण कर जो कोई मेरा वंदन करेगा  वह मेरे चतुर्भुज स्वरूप के दर्शन का अधिकारी होगा और हे महराज !वह परम पद को प्राप्त करेगा ॥ 

सुनि प्रभु गिरा आनि जो संगा । मुद महिपत सह सुजन प्रसंगा ॥
होत कृतारथ प्रभु पुर  लाखे । पदुम चरनिन्हि प्रसादु भाखे ।।  
भगवन की वाणी श्रवण पान करके महिपत अत्यधिक हर्षित हुए साथ आए  स्वजनों  का प्रसंग कर कृतार्थ होकर प्रभु की ओर दृष्टि स्थिर किए उनके पदार्विन्द का पवित्र प्रसाद ग्रहण किया । 

तबहि कनक कल कंकनि जोई । सौंह एकु जान प्रगसित होई ॥
ते अवसरु सो धर्मा चारी । भए प्रभु के जो कृपाधिकारी ॥
तभी सुन्दर स्वर्ण घंटिकाओं को संजोए एक यान सम्मुख प्रकट हुवा | उस समय वे धर्माचरणी राजा जो भगवान के कृपापात्र थे | 

भगवन के अग्या ले पारे । लै संगिनि सँग जान पधारे ॥
रहि मंत्री धुर धर्म परायन । सब तीरथ सेवन किए ब्रम्हन ॥
भगवान की ही आज्ञा प्राप्त कर अपनी जीवन संगिनी को साथ लिए यान पर विराजित हुवे | राजा का मंत्री भी अत्यंत ही धर्मपरायण था हे ब्राह्मण ! उसने सभी तीर्थों का सेवन किया था |  

करम्ब बदन भगवान गुन गाए । एह हुँत चतुर भुज दरसन पाए ॥
अस सूतकृत तपसि का भूपा ॥ भयऊ सकल चतुर्भुज रूपा ॥
सूतकार कदम्ब का मुख सदैव भगवान  के गुणगान करता रहता था इस हेतु उसे भगवान के चतुर्भुज रूप का दर्शन प्राप्त हुवा इसप्रकार क्या सूतकार क्या तपस्वी और क्या भूपति सभी चतुर्भुज रूप के हो गए | 

जो देवन्ह के हेतु रहँ दुर्लभ अस्थान । 
ऐसो भगवद्धाम को, लेईं चले बिमान ॥   
जो स्थान देवताओं के लिए भी दुर्लभ है वह विमान उन्हें ऐसे भगवद्धाम को ले चला | 

शनिवार, ०३ जनवरी, २०१४                                                                                                     

संख गदा चक पद्म सँभारे। सबहीँ चतुर भुज रूप धारे ॥ 
बिहसित बदन तन घन स्यामा । छावत छन छबि नयनाभिराम ॥ 
शंख, चक्र, गदा व् पद्म को संभाले सभी ने चतुर्भुज रूप धारण कर रखा था | सभी के मुख पर मुख पर विहास था और सभी के तन मेघ के समान श्यामसुंदर था , कभी विलुप्त व् कभी प्रकट होने वाली प्रभा से युक्त उनकी छवि नयनाभिराम थी | 

सील चरन सत सुचित सुभावा । सबहि भरि हरि भगति भावा ॥ 
कंकनि कल कुण्डल केयूरा । कंठ चरन  कर कानन पूरा ॥ 
शील आचरण सत्य व् सूचित स्वभाव के कारण सभी भगवद की भक्ति भाव से भरे थे | कंकणी, सुन्दर कुण्डल व् केयूर उनके कंठ चरण व् कानों में परिपूरित थे | 

चरन पदुम जस कर कमलिन किए । अलि बल्लभ निभ जस मुख लस लिए ॥ 
अधर दलोपर अरुन अधारे । सुदरसु सुबसित सुधा पधारे ॥ 
सबके चरण पद्मनी व् हाथ कमलिनी की भांति सुशोभित थे उनका मुख लाल कमल के जैसे शोभित हो रहा था | आधार दाल पर अरुण का आधार था सुदर्शी सुवासित सुधा वहां विराजित थी | 

पुर परिजन जो आयउ संगे । हरषिहि दरसत  दिरिस बिहङ्गे ॥ 
बीथि गत पंगत किए बिमाना । बजे दुन्दुभि धुनी दिए काना ॥ 
साथ में आए हुवे पुरजन व् परिजन इस  बिहङ्गम दृश्य को देखकर अत्यंत आह्लादित हुवे | गगन वीथिका में विमान पंक्तिबद्ध थे कानों में दुंदुभि की ध्वनि सुनाई दे रही थी | 

ते समउ तहँ एकु त्रिमुखी, भाव भरे अस भारि । 
भगवद बिरह प्रभाउ बस भयउ चतुर भुज धारि ॥ 
उस समय वहां एक ब्राह्मण भी आए थे उनमे भगवान के प्रति ऐसा प्रेम भाव था कि भगवद विरह के प्रभाव के वशीभूत वे स्वयं भी चतुर्भुजरूप धारी हो गए | 

रविवार, ०४ जनवरी, २०१५                                                                                                     

देखिहि जब एहि अद्भुद बाता । कि ब्रम्हन भए चतुर भुज गाता ॥ 
अस अनुरागि इहाँ को नाहैं  । धन्य धन्य कहि सबहि सराहैं ॥ 
दर्शकों ने जब इस अद्भुद घटना को देखा कि एक ब्राह्मण चतुर्भुजधारी हो गए हैं ऐसा अनुरागी यहाँ कोई नहीं है यह कहते हुवे धन्य धन्य कहकर सभी ने उसकी सराहना की |  

गंगागम तट कृत अस्नानै । काँची तब सब पद प्रस्थानै ॥ 
तपसि सूतकृत राजन रागी । कहत चले सो भए बढ़ भागी ॥ 
गंगा के इस दुर्गम तट पर स्नान करके तब सभी जनों ने कांची को प्रस्थान किया और कहते चले  तपस्वी, सूतकार, राजा व् रानी अत्यंत सौभाग्यशाली  हैं |  

कथत कथा नत सतत सरूपा । कह सुमति एहि गिरि सोइ भूपा ॥ 
आन जहाँ प्रभु मान बढ़ाइहिं । तब परबत पूजित पद पाइहि ॥ 
नतमस्तक मुद्रा में कथा का सतत रूप में  व्याख्यान कर सुमति कहने लगे महाराज ! यह वही नीलगिरि है भगवान पुरुषोत्तम ने यहाँ आकर जब इसका मान बढ़ाया तब यह पूजित पद को प्राप्त हुवा | 

दरसिहि तिन्हनि जो नर नारी । होहि परम गति के अधिकारी ॥ 
जो सुभग नील गिरी गुन गाइहि । तासु महत्तम सुनिहि सुनाइहि ॥ 
जो  नर-नारी इसका दर्शन करेगा वह परम पद का अधिकारी होगा | जो भाग्यवान इसका गुणगान करेगा इसके महत्तम को सुनेगा व् सुनाएगा : - 

दोउ परम पद पाए के जाइअहि ब्रम्ह लोक । 
ते बरनन सुनत सुमिरत रहए न को दुःख सोक ॥ 
वे वक्ता व् श्रोता दोनों ही परमपद को प्राप्त होंगे और ब्रह्मलोक को गमन करेंगे इस नीलगिरि के वर्णन को सुनते व् स्मरण करते रहने से जीवन में दुःख व् शोक भी नहीं रहता |

इहाँ आन जो भगत दए भगवन दरस हँकार । 
सो भव सिंधु संग तरै  होइहि बेड़ा पार ॥ 
यहाँ आकर जो भक्त प्रभु दर्शन की पुकार करेगा,भव सिंधु को पारगमन कर उसका अवश्य ही कल्याण होगा | 




सोम/मंगल , ०५/०६ जनवरी, २०१५                                                                                                      

रघुबर सरूप सहसै आखी । मातु सिआ लखि लख्मी साखी ॥ 
जग श्रीक रूप दंपति दोई । कारनहु केर कारन होई ॥ 
रघुवर सहस्त्र नेत्रधारी श्री विष्णु का ही स्वरूप हैं माता सीता साक्षात् लक्ष्मी के रूप में लक्षित हैं इन दोनों दम्पति स्वरूप जगत के लिए कल्याणकारी हैं ये कारणों के भी कारण हैं |  

अजहुँत प्रभु हवि भवन अधाने । अस्व मेध कृत के पन ठाने ॥ 
मह पापक हो ब्रम्हन हंता । पतित पबित सो  होहि तुरंता ॥ 
इस समय प्रभु ने हवन कुंड का  आधान कर अश्वमेध यज्ञ करने का प्रण लिया है | कोई महापापी हो या ब्रह्म हत्यारा ही क्यों न हो इस अनुष्ठान से वह पतित तत्काल ही पुनीत हो जाएगा | 

कहत सुमति मह सचिव पुरंजन । रामानुज हे दसरथ नंदन ॥ 
यह अवसर तुम्हरे तुरंगा । ऊँच गान भए गगन बिहंगा ॥ 
प्रज्ञावान महासचिव सुमति कहते हैं -- ' हे रामानुज दसरथ नंदन ! इस समय तुम्हारा अश्व ऊंचाई के प्रसंग गगन विहंग हो गया है | 

पूजित पबित गिरिबर नियराएँ । हमहि थान गत सीस परनाएँ ॥ 
महमते तहँ भगत जो जाइहि । अघहीन होत  परम पद पाइहि ॥ 
वह पूजित व् पवित्र नीलाचल गिरि के निकट जा पहुंचा है हमें भी उस स्थान पर जाकर भगवान पुरुषोत्तम को प्रणाम करना चाहिए | महामते ! जो भक्त वहां जाता है वह पाप से रहित होकर परम धाम को प्राप्त होता है | 

कहैं नाथ अहि जब बरनत रहि सुमति महिमा प्रभो के । 
मरुत गति साथा हे द्विज नाथा तब हय भयउ नभोके ॥ 
पद पाँख बिताने पवन समाने नील गिरि नियरु अवने । 
अरिहंतहु धाए तिन पीछू आए बिप्र बर हे महामुने ॥ 
अहिनाथ भगवान शेष जी कहते हैं -- ' हे द्विजनाथ !  जब सुमति भगवान की महिमा का वर्णन कर रहा था तब वह अश्व मारुत गति के साथ नभचर हो गया था उसके चरण जैसे  पंखों में परिवर्तित हो गए, जिन्हें पसार कर वह वायु के जैसे तत्काल ही नीलगिरि के निकट पहुँच गया | हे विप्रवर !  हे महामना ! तब अरिहंत भी उसके पीछे दौड़ पड़े | 

उपकृत सत्रुहन आपुनो परम सुभागी मान ।  
चरन प्रसादु पवाए के, पबित पयस किए पान ॥ 
नीलगिरि पहुंचकर शत्रुध्न ने भगवान के चरणों का प्रसाद प्राप्तकर व् चरणामृत का पान करके स्वयं  को उपकृत  व् परम सौभागि माना | 

तदनन्तर गिरि छिनु भर होरे । हय हरितक पत पुल मुख जोरे ॥ 
भरत उदर तृन चरत अगूता । मरुत तस तेजस गति सँजूता ॥ 
मुने ! तदनन्तर वह अश्व वहां कुछ समय के लिए ठहरा मुख में दूर्वा के पत्र पुंजों का ग्रास किया इस प्रकार तृण चरकर अपना उदर भरते हुवे वह  मारुत की सी तीव्र गति से आगे बड़ा | 

सत्रुहन सन  लखमी निधि राजू । संग  भयंकर बाहि बिराजू ॥ 
पुष्कल सह राजन बहुतेरे । रच्छन हेतु रहैं हए घेरे ॥ 
शत्रुध्न के संग राजा लक्ष्मी निधि साथ में भयंकर वाहन पर विराजित राजा पुष्कल व् और भी अनेकानेक राजा ये सभी रक्षा हेतु उस अश्व को घेरे हुवे थे | 

कोट करे कोटिक रन बीरा । ओट किए चले धीरहि धीरा ॥ 
चरत चक्राका पुर नियराईं । रहि पालित जो सुबाहु ताईं ॥ 
करोड़ो युद्ध वीर दल बनाकर उसकी सुरक्षा करते हुवे धीरे धीरे चल रहे थे | चलते चलते वह अश्व राजा सुबाहु द्वारा परिपालित चक्रांका नगरी के निकट पहुंचा | 

पैठत तहँ राजन के बेटा । खेलत रहा खेत आखेटा ॥ 
जब मेधि अस्व पर दीठ धरे । भयउ अपलक चित गयऊ हरे ॥ 
वहां प्रवेश करते ही उस क्षेत्र में आखेट खेलते हुवे  राजा के पुत्र की दृष्टि जब उसपर पड़ी तब वह उसे देखकर चित्रवत हो गया अश्व ने उसका मन मोह लिया था | 

हंसा बरन चन्दन चर्चिता । तिलक लच्छत अच्छत अर्चिता ॥ 
लसित लवन लघु करन स्यामा । कांत बदन नयनाभिरामा ॥ 
रजत वर्ण, चन्दन आदि से चर्चित, अक्षत से अर्चित वह अश्व अश्व तिलक से चिन्हित था  उसके सुन्दर छोटे श्याम कारण प्रतीक से सुशोभित हो रहे थे, कांति लिए हुवे उसका मुख  नयनाभिराम था | 

मूरधन पर हिरन मई पतरी सोहा पाए ।
भीत बरन सिंगार किए मौली माल बँधाए ॥  
उसके मूर्धन्य पर एक स्वर्णमयी पत्रिका शोभा पा रही थी जो  मौली मालिका से विबन्धित थी,  अंतर में उसने विभिन्न वर्णों का श्रृंगार किया हुवा था 

बुधवार, ०७ जनवरी, २०१५                                                                                                      

जस मुकुलित कौसुम बन राँचै । गहे दमन मुखरित मुख बाँचे ॥ 
पढ़ अविरत समुझत अभिप्राया । अहनीक (अह्नीक )अहो मुख निकसाया ॥ 
पत्र में ये वर्ण ऐसे सुशोभित हो रहे थे जैसे अधखिले कुसुम, वन में शोभा पा रहे हो | राजा के पुत्र दमन ने उसे ग्रहण कर मुखरित मुख से बाँचा | पत्र को अविराम स्थिति में पढ़ा और उसका अभिप्राय समझते हुवे उनके मुख से निकला --'अरे निर्लज्ज ! 

 मोर तात जिअत जिअ ऐसेउ । ऐतक घमन किए को कैसेउ ॥ 
करे कवन साहस अस गाढ़ा । हतिहि तिन्ह मम सर गुन बाढ़ा ॥ 
भूमण्डल पर मेरे पिताश्री के जीते जी इतना अहंकार कोई कैसे किया | किसने इतना अधिक साहस किया, मेरी खींची हुई रसना में चढ़े बाण उसका संहार कर देंगे |  


कहत पुनि अस तमगत ताका । अजहुँ मोरे बान असलाका ॥ 
सररत चरत  अमोघ अघातिहि । उद्दंड तुर अरिहत सँघातिहि ॥ 
तमककर ताकते दमन ने फिर कहा -- मेरी बाण की श्लाकाएँ  सरर्र परिचालन करते हुवे ऐसा अचूक  प्रहार करेंगी उद्दंडता को आतुर अरिहंत का संहार ही हो जाएगा | 

साखा लखि जस फूर पलासा । होही प्रफूरित उर चहुँ पासा ॥ 
देखु बीर मम भुज बल भारी । कसे कैसेउ करषत नारी ।। 
शाखाओं में जिस प्रकार पलासपुष्प लक्षित होते हैं वक्ष के चारों ओर उनका ह्रदय भी उसी प्रकार से पुष्पित हो जाएगा | वीरों ! भारी बल से युक्त मेरी इन भुजाओं को देखो, नाड़ियों को खैंचकर  ये कैसी सुगठित हैं | 

करिहौ कोदंड कसि कै कोटि कोटि सर बारि । 
केत न केतक साहसी, मम साहस सँग हारि ॥ 
अब में धनुष खैंच कर करोड़ों बाणों की वर्षा करूंगा मेरे इस साहस के सम्मुख न जाने कितने ही साहसी नतमस्तक होंगे | 

बृहस्पतिवार, ०८ जनवरी, २०१५                                                                                         

दमन तुरंग तुर पठाई दियो । सहरष सेन पति सों कहियो  ।।  
महामते मम सेन सँभारू । जोग जुधित जुब जुधा जुझारू ॥ 
दमन ने फिर तुरंग को तत्काल ही नगर में भेज दिया और अपने सेनापति से हर्षपूर्वक कहा -- 'महामते !  यह जुझारू युवा योद्धाओं के योग को संयोजित कर  मेरी  सेना को तैयार  करो !

एहि बिधि उत्कट सुभट सुसाजे । जुझाउनी सब साज समाजे ॥ 
दमन खेह सौमुह डट गयऊ । ते समउ सो बिकट रूप भयऊ ॥ 
इस प्रकार उत्कट सैनिकों से सुसज्जित  रण के समस्त सामग्रियों से सुशोभित होकर दमन रणक्षेत्र के सम्मुख डट गया , उस समय उसका रूप और अधिक विकट हो गया था | 

मेधीअ अस्व के अनुहारी । एही माझ तहँ आन पधारी ॥ 
होत  ब्याकुल बारही बारा । पँवर परस्पर पूछत हारा॥ 
 इसी मध्य मेधिय अश्व के पीछे चलने वाले योद्धा भी वहां आ पहुंचे | ( अश्व को देखकर ) वह वारंवार व्याकुल  होकर उसकी थाह लेते एक दूसरे से पूछने लगे कि वह अश्व कहाँ चला गया ?

महराउ जिन जग्य जुगाईं । जासु भाल चीठी चिन्हाई ॥ 
दीठ दिरिस औचक कहँ दूरे । बाँधि गयो का को पथ भूरे ॥ 
महाराज ने जिसे यज्ञ के लिए नियुक्त किया था, जिसके मस्तक पर पत्रिका सुशोभित थी दृष्टि दृश्य से वह सहसा कहाँ चला गया ? क्या किसी के द्वारा बांध लिया गया है अथवा वह मार्ग भटक गया है ? 

अरि तापद प्रतापाग्रै दरसे सौमुंहु जोंह । 
डटे रहिहिं सेन कोइ जुझाउ साज सँजोह ॥ 
शत्रुओं को संताप देनेवाले प्रतापाग्रय ने अपने सम्मुख देखा कि सैन्य सामग्रियों से सुज्जित जैसे कोई सेना खड़ी है | 

शुकवार, ०९ जनवरी, २०१५                                                                                                       

बिरोचित गहनि धुनिहि उचारए   । गरजत घन जस सार न धारए  । 
प्रतापाग्रै संग भट बोले । बरसन बन कस हुलस हिलोले ॥ 
वह वीरोचित किन्तु गंभीर ध्वनि का उच्चारण कर रही थी जैसे गर्जते बादलों के पास जल नहीं होता वैसे ही गर्जती सेना के पास बल नहीं होता | प्रतापाग्रय से सैनिकों ने कहा --ये सेना युद्ध करने के लिए कैसी उतावली हो रही है | 

लागिहि है तिनके पहि आहीं । न तरु गरजहिं अस कोउ नाहीं ॥ 
सुनत जोइ भट के अस बचना । सेन सँजुह रच ब्यूह रचना ॥ 
इसकी भावभंगिमा से ऐसा प्रतीत होता है जैसे  वह अश्व इनके पास है अन्यथा अकारण ऐसे कोई गर्जना नहीं करता |' प्रतापाग्रय ने ज्योंही सैनिकों के इन वचनों को सूना त्यों ही उन्होंने व्यूह रचना रचकर अपनी सेना को भी संयोजित कर लिया | 

 एकु दूतक तिन पाहि  पठाईं । दूतक  तहँ गत पूछ बुझाईं ॥ 
मेधिअ है कहु कहाँ बँधायो ।  प्रभु परिचय का जान न पायो ॥ 
फिर एक दूत को उसके पास भेजा, वहां जाकर दूत ने प्रश्न किया -- 'कहो मेधीय अश्व कहाँ विबन्धित है क्या भगवान श्रीरामचंद्रजी से तुम परिचित नहीं हो ?'

जुगुत नयन बन मति के आँधे । तसु किअं कहँ ले गत बाँधे ॥ 
रहि बलबन बहु राज कुँआरा । करे लस्तकधृ करक निहारा ॥ 
नेत्र होते हुवे भी तुम्हारी अन्धबुद्धि है उसे लेजाकर कहाँ और क्यों बांधा है ? राजकुमार दवन अतिशय बलवान था धनुष की मूठ को  धारण किए उसने दूत को कड़क दृष्टि से देखा | 

भालपत मौली माल कलिते । तिलकित लच्छन संग लंकृते ॥ 
हंसा बरन करन स्यामा । कांत बदन नयनाभिरामा ॥ 
'वही जिसके मस्तक पर मौलि मालिका से कलित पत्रिका सुशोभित है ? जो तिलक लक्षणों से अलंकृत है जो रजत वर्ण का है तथा जिसके श्याम कर्ण  हैं जिसका कांतिमय मुख नयनाभिराम है ? 

जग्य जुगित जबान जबन होइहि मम पुर माहि । 
बन बलि  दवन एसिउ बचन बोले बल दे बाहि ॥ 
यज्ञ हेतु नियोजित वह युवान यवन  मेरे नगर में है, भुजाओं में बल देकर स्वयं को बलवान प्रदर्शित करते हुवे  फिर उसने क्रमश: ऐसे वचन कहे | 

शनिवार, १० जनवरी, २०१४                                                                                                    

जीत सके  मोहि सो सहुँ आए । बँधे बाजि बरियात छँढ़ाए ॥ 

ए सुनि पलक दूतक बहु रोषा । किए अपनै बस रोष न पोषा ॥ 
जो मुझपर विजय प्राप्त करने में सक्षम है वह मेरे सम्मुख आए और बंधे हुवे अश्व को बलपूर्वक मुक्त करे | यह सुनकर एक क्षण के लिए दूत अत्यंत रुष्ट हुवा फिर उसने रोष को न बढ़ाते हुवे उसे अपने वश में किया | 

प्रभु परिचित कर एक छन होरा । बहरि थान सों हाँस बहोरा ॥ 
दमन बदन जो बचन कहायो  । जस के तस गत कहत सुनायो ॥ 
प्रभु श्रीरामचन्द्रजी का परिचय देकर वह एक क्षण के लिए ठहरा, तत्पश्चात मंद विहास के साथ युद्ध क्षेत्र से बाहिर राजा के पास चला गया  | वहां जाकर दमन के मुख से निष्कासित  वचन को  ज्यों-के -त्यों कह सुनाया  | 

प्रतापाग्रै लखए भयकारा । बदन अँगिरी नयन अँगारा ॥ 

हिरन मय रथ चतुर्हय केरे । हस्त किरन भाँबर कर घेरे ॥ 
प्रतापाग्रै उसे भयाक्रांत दृष्टि से देखा रहा था उसका मुख अंगीठी हो गया था और नेत्रों में अंगारे थे अर्थात वह अत्यंत क्रोधित हो गए थे  | फिर वे चार घोड़ों से सुशोभित स्वर्णमय रथ पर किरणों को भंवरी देकर हाथ में घेरे हुवे : -

बाहित बाहु बली लिए संगा ।  चलए चरन पथ पवन प्रसंगा ॥ 
गयउ निकट यह कहत निहारै । हम कटक कठिन तुअँ सुकुआँरे ॥ 
आरोहित, बाहुबलियों को साथ लिए फिर रथ के चरण पवन का प्रसंग कर चलने लगे | राजकुमार के निकट जाकर उसपर नेत्र  टिकाए उन्होंने कहा -- 'हम एक दुर्जय सेना हैं और तुम सुकुमार हो |'

जुधिक जुबक बालक जान, बहु बिधि कह समुझाइ । 

जगत प्रभु के प्रभुति भूति का तुअ जानत नाहि ॥ 
योद्धा युवक को बालक जानकर उसे यह कहते हुवे बहुंत प्रकार से समझाया कि  श्रीरामचन्द्रजी जगत्प्रभु हैं  क्या तुम्हें उनकी प्रभुता व् वैभव  का संज्ञान नहीं है | 

रविवार, ११ जनवरी,२०१४                                                                                         

सूर सिरौमनि सब कह जासू । करिषिहु किरन  हरिहु हय तासू ॥ 
दनु राज जिन लंकापति कहैं । एकै उपपंखिहि दस मुख गहैं ॥ 
जिसे सब वीरों के शिरोमणि कहते हैं तुमने उनके अश्व की किरणों को खैंचकर उसके हरण की धृष्टता की | जिन्हें राक्षसराज लंकापति कहते हैं  एकही कंधे पर जिसके दस मुख हैं |  

अहम मति सोए हहरत  काँपा । सहेउ  न सके प्रभो प्रतापा ॥ 
मैं जम दूतक तुहरे  काला । होहि अवसि तव मरनि अकाला ॥  
वह अहंकारी भी प्रभु के प्रताप को सह न सका और थरथर काँप उठा | में यमदूत हूँ और तुम्हारा काल हूँ, अब अवश्य ही तुम्हारी अकाल मृत्यु होगी | 

बाँध बाजि निज नगर पठायो  । अधबल घट घर समर उछायो ॥ 
रे फिरकी फिर फिरत तुरंता । मुचित हय सो भयउ बय बंता ॥ 
तुमने अश्व को बांधकर उसे अपने नगर भेज दिया ? आधे अधूरे बल वाली तुम्हारी देह हैं औरघर भर में रण भेरी बजाते फिर रहे हो ? रे फिरकी ! अब तुम लौट जाओ और उन्मोचित अश्व के साथ आयुष्मान बनो | 

केलि करत कल हेलत मेला । बालकपन के तौ एहि खेला । 
दमन उर भवन भयउ अटाला । बसे जहँ  एकु हरिदै बिसाला ॥ 
हिलमिल कर किलोल करना बालकपन का तो यही खेल है युद्ध करना नहीं | दमन का हृदय-भवन, भवन न हो कर  अट्टालिका थी वहां एक विशाल हृदय निवास करता था | 

एहि श्रवन  रदन अछादन सहज सुहास सजाए । 
बरनत ए निर्भीक बचन, अतुलित बल दरसाए ॥   
यह सुनकर अधरों पर एक सहज व् सुन्दर हास सुसज्जित कर अतुलित बल दर्शाते हुवे उसने ये निर्भीक वचन कहे --

सोमवार, १२ जनवरी, २०१५                                                                                                 

समुझ सेन तृन तूल तुहीना । कहि चाहे हो जल बिनु मीना ॥ 
दिवस रयन  हो तमस अँजोरे । सूर बीर के मुख नहि मोरे ॥ 
तुमने मेरी सेना की तृण के तुल्य समझ लिया है और उसे तुहीन कहना चाहते हो ? अश्व के बिना  तुम स्वयं जल से विहीन मीन के जैसे हो | दिवस हो कि रयन हो अन्धकार हो चाहे उजाला हो  शूर-वीर रण  से विमुख नहीं हुवा करते | 

जुधिक कुशल बाँकुर बलबाना । होहि मोहि सो देउ प्रमाना ॥ 
जुधिक जुबक कू  बालक माना । कल्प रचित कृत चरित बखाना ॥ 
तुम कुशल योद्धा हो,बलवंत हो, वीर हो तो मुझे इसका प्रमाण दो | मुझ जैसे योद्धा युवक को बालक मानकर तुम एक कल्प रचित चरित्र का व्याख्यान कर रहे हो ?

भले भवन अब बायन दिन्हा । सो भ्रम मति  जो मोहि न चिन्हा ॥ 
बरन बचन सन का रन खेले । अजहुँ भयऊ भल सोंहि  भेले ।। 
अब किसी वीर योद्धा को ललकारा है उसकी बुद्धि भ्रमित है जो मुझे नहीं पहचानता | अब तक तुमने क्या शब्दों व् वचनों से युद्ध किया है ? आज तुम्हारी एक रण बाँकुर से भिड़ंत हुई है | 

बीरति बालक पन की बेला । समर खेत देखिहऊ खेला ॥ 
बोले जो रन आँगन माही । सूर बीर जग सोइ कहाहीं ॥ 
बाल्यकाल व्यतीत हो चुका है, रणक्षेत्र में अब मेरी कुशलता देखना | जो रणांगण में बोलते हैं संसार में वही शूरवीर कहलाते हैं | 

ऐतक कहत सुबाहु कुँआरा । धरे धुनुर कर दिए टंकारा ॥ 
लच्छ लखत सत सर संधाना । खैच करन लग रसन बिताना ॥ 
इतना कहकर सुबाहु-कुमार ने हाथ में धनुष धारण कर उसपर टंकार  दी और लक्ष्य लक्षित करते हुवे सात बाण संधाने, प्रत्यंचा को खैंचकर कानों तक विस्तार दिया  | 

धुनुर गगन गुन द्युति भए भयउ सर घन भारि । 
द्यु प्रगस अस बरखे जस बरखे धारासारि ।।  
धनुष गगन के  , प्रत्यंचा विद्युत् के  और बाण घने मेघ के सदृश्य हो गए, प्रभा प्रकट करते वे ऐसे बरसने लगे जैसे कोई महावृष्टि हो रही हो |  मंगलवार, १३ जनवरी, २०१५                                                                                               

प्रतापागै प्रपत सर षंडा । अस्फूर्त किए खंडब खंडा ।। 
देखि दमन भए लाल भभूका । धुबित धूति द्यु धूतक धूँका ॥
प्रतापाग्रय ने गिरते हुवे सायक समूहों को फुर्ती से खंड-खंड कर दिया | यह देखकर कर दमन अत्यंत क्रोधित हो गया अपने क्रोध से ताड़ के पंखों हिलाते हुवे प्रत्यंचा रूपी विद्युत् में प्रकट हुई अग्नि को विस्तार देते हुवे उसपर  -

तिगुने सतक तेजनक साधे । प्रतापाग्रे उरस दिए बाधे ॥ 
कर धरे सर सर धरे छाँती । रुधिरुद्गत निपते एहि भाँती ॥ 
तीन शतक बाणों का संधानकर प्रतापाग्रय के हृदय को भेद दिया | प्रतापाग्रय हाथ सायक को तो सायक ह्रदय को धारण किये हुवे थे | रुधिर स्त्राव के साथ उनका ऐसे  पतन हुवा  

भजन भगति बिमुख निपाति हि । पतझर रितु निपतत जस पातिहि ॥ 
बहुरि दमन मुख संख पुरायो । गहबर घर जस घन गरजायो ॥ 
जैसे भजन-भक्ति से विमुख हुवे पुरुषों का पतन होता है व् पतखड़ ऋतु  में जैसे शाखापत्रों का पतन होता है | तत्पश्चात दमन ने मुख से शंख निहानादित होकर ऐसे गर्जने  लगा जैसे निविड़ भवन में हथोड़े गर्जना कर रहे हों   | 

निपतित बीर भरे प्रतिसोधा । उठए बेगि अरु बोल सक्रोधा ॥ 
तृन तूल तुअ मोहि लेखिहउ  । अजहुँ मम अमित बिक्रम देखिहउँ ॥ 
धराशायी हुवा वह वीर प्रतिशोध में भरकर तीव्रता पूर्वक उठा क्रोध करते हुवे बोला - तुमने मुझे तिनका के जैसे समझ लिया है अब मेरा अमित विक्रम देखो | 

ऐसेउ कहत सान सुधारे । दान बान गुन भर बौछारे  ॥ 
धुनुर रसन कासित अस छूटे । देइ अगन फुरु झूरी फूटे ॥ 
ऐसाकहकर उन्होंने धार करके बाणों को प्रत्यंचा में देकर जैसे बौछार सी कर दी | धनुष की प्रत्यंचा से कर्षित होकर वे ऐसे छूटे जैसे प्रत्यंचा में उन्होंने कर्ष रूपी अग्नि दी हो जिसमें बाण रूपी चिंगारी प्रस्फुटित हो रही हों | 

चले गगन लखि अस नयन जस घन गहरत  गाजि । 
प्यादिक चरन कर संग, गयऊ हत गज बाजि ॥ 
गगन में जाते वे बाण ऐसे दृष्टिगोचर हुवे जैसे जैसे घने मेघ गर्जना कर रहे हों |  क्या हाथी क्या घोड़े क्या प्यादिक उनसे सभी हताहत हो गए | 

बुधवार, १४ जनवरी, २०१५                                                                                                       

कुअँरु दमन अचिरम प्रतिरोधा । सौमुह रिपु करतब सम्बोधा ॥ 
गरब पूरित निगदन उचारा । समर सूर एहि बचन हमारा ॥ 
राजकुमार दमन ने उस बाणवर्षा का अविलंब प्रतिरोध किया, सम्मुख उपस्थित शत्रु का सम्बोधन करते हुवे गर्व पूरित ये  वचन कहे -- 'हे संग्रामसूर ! मेरी यह प्रतिज्ञा है कि 

मोर बान के एक ही मारा  । करिहि रथी रथ पतन तुहारा ॥ 
होतब सोए कहा मैं जोई । मोर कहे जो पूर न होई ॥ 
मेरे बाण का एक ही प्रहार तुम्हें रथ से नीचे गिरा देगा और हे रथी वही होगा जो मैने कहा है, यदि मेरा कहा पूर्ण नहीं हुवा तो 

जुगति बाद के जो कुसलाई । मोह बिबस किए बेदु बुराई ॥ 
 नारक कुंड निमज्जनु जोई । सो  पातक मम सिरु होइ  ॥ 
युक्तिवाद में कुशल होने के कारण जो मोह के वशीभूत वेदों की निंदा करते हैं, नरक कुंड में डुबोने वाला उनका वह पाप मुझे ही लगे | 

बहुरि सिखर सिर  अगन ज्वाला । होइ तड़ित जस बारिद माला ॥ 
बिकराल काल भयऊ भाथा । सिखर  चढ़े भुज सेखर साथा ॥ 
यह कहकर फिर कन्धों के ऊपर चढ़े मेघ माला में  तड़ित के जैसी अग्नि ज्वाला जागृत करती शिखाओं से युक्त  काल के समान भयंकर तूणीर के साथ -

छाँड़ेसि दमन चहुँ दिसा, काल अगन सम बान ॥ 
दीपित दीप सम दिरिसा होए  दैदीपमान । 
दमन चारों दिशाओं में काल अग्नि समान बाण छोड़े, छूटे हुवे बाण प्रदीप्त दीपक के समदृश्य दैदीप्यमान होकर-
बृहस्पतिवार, १५ जनवरी, २०१५                                                                                   

गरजत तर्जत घनकत घोरा । चले बेगि बहुरी रिपु ओरा ॥ 
धारा सार समरूप सायक । किए धनु गुन पूरै  दल नायक ॥ 
गर्जते, तर्जते गंभीर ध्वनि करते हुवे  तत्परता से शत्रु की ओर चले | जब दल नायक प्रतापाग्रय ने उन्हें देखा तब धारावृष्टि के समरूप बाणों लेकर उन्हें धनुष की प्रत्यंचा पर परिपूरित कर दिया   | 

निकर निकर सर निकरत कैसे । बनांतर पथ रघुबर जैसे ॥ 
छाँड़े अस तर करष कुआँरा । धारा सारहु हंत न पारा ॥ 
फिर वे बाण लच्छे लच्छे होकर ऐसे निकलने लगे जैसे  वन के अंतर पंथ में रघुवर निकल रहे हों | किन्तु सुबाहु कुमार ने आवेश में ऐसा बाण छोड़ा था कि  प्रतापाग्रय की वह बाणवृष्टि भी उसे नष्ट करने में असमर्थ रही | 


धीर जुगुत उर पैठिहि कैसे । बसत बन प्रभु बहुरि घर जैसे ॥ 
दै अघात उर ऐसेउ  भेंटा । रहेउ जस सुबाहु के बेटा ॥ 
वह उनके धैर्ययुक्त हृदय में धंस कर ऐसे बस   गया जैसे प्रभु पंथ में विचरते वन के निवास में बस गए हों | वक्ष स्थल में गंभीर चोट करते हुवे वह दलनायक से ऐसे भेंट किया मानो वह सायक न होकर स्वयं सुबाहु का पुत्र ही हो | 

दलप के मुख मूरुछा छाई । रथ पद पतत भए धरासाई ॥ 
सारथि लिए रथ पदक पौढ़ाए । रन खेह संग बहुरि बहिराए ॥ 
दलनायक के मुख पर मूर्छा छा गई, रथ पीठि  से गिरकर फिर वह धराशायी हो गया |  सारथी ने उन्हें उठाया और रथ पीठि पर बैठाकर रणक्षेत्र से बाहिर ले गया  | 

चहुँपुर हाहाकार किए भागए तहँ रन बीर । 
रिपुहंत जहँ घेर रहे , समर सूर के भीर ॥  
चारों ओर  हाहाकार करते तब सभी युद्ध वीर वहां भाग खड़े हुवे जहाँ शत्रुध्न थे और  अन्य संग्राम सुरों उन्हें घेरे हुवे थे |  

शुक्रवार, १६ जनवरी, २०१५                                                                                               

इहँ परिकर समर सूर संगा । जान सैनि मुख सकल प्रसंगा ॥ 
करे रोष पूछिहि अरिहंता । पीसत बचन चाकि सँहु दंता ॥ 
इधर संग्राम  शूरों से घिरे शत्रुध्न ने सैनिकों के मुख से समस्त घटनाक्रम जानकर अत्यंत क्रोधित हुवे, फिर शब्दों को  दाँतों से चक्की के समान पीसते हुवे पूछा --

रघुबर राजु कर बाजि बँधाए ।  सूर सिरोमनि दलपति हराए ॥ 
बाहु सिखर ऐतक  बर जोई । कहौ बीर ऐसिउ को होई ॥ 
राजा रामचंद्र जी के अश्व को बांधा शूरों के भी शिरोमणि दलपति प्रतापाग्रय को पराजित किया | कन्धों में इतना बल लिए हुवे कहो तो ऐसा वीर कौन है ? 

सुबाहु सुत दल गंजन भारिहि । ते सोंह जुझत दलपत हारिहि ॥ 
सैनि श्रवन करि  क्रोध अपारा । दृग सहुँ बरखिहि बिपुल अँगारा ॥ 
वह भारी वीर सुबाहु का पुत्र दमन है जिसके साथ मुठभेड़ करते हुवे सेनापति पराजित हो गए | सैनिक की बाते सुनकर शत्रुध्न को अपार क्रोध हुवा, नेत्रों से अंगारे बरसने लगे | 

अजिरु रंग किए रन अगवानी । बेगि चरन पुनि सत्रुहन आनी ।। 
भयउ हतत  हय बाहि बिकिरना । केत गज कुम्भ भय बिदीरना ॥ 
फिर शत्रुध्न  युद्ध की अगवानी करने हेतु अत्यंत उत्कंठित होकर  तीव्र गति से युद्ध क्षेत्र में आए | अश्व व् उनके आरोही हताहत होकर तितर -बितर हो गए थे न जाने कितने ही हस्तियों के गंडस्थल विदीर्ण हो गए थे | 

देख ए  दिरिस अँगारिहि जागे कनक ज्वाल । 
छितर छनक कपोलक सन कन पट लग किए लाल ॥ 
यह दृश्य देखकर उनकी दृष्टि में अंगारों के साथ ज्वाल कणिकाएं भी जागृत हो गई जो छनन-मनन कर बिखरती  हुई कपोलों  के साथ उनकी कनपटी को भी अरुणिम कर रह थी  | 

शनिवार, १७ जनवरी, २०१५                                                                                                  

पलक पँखी पत हलरत  लोले । रामानुज  भभकत मुख बोले ॥ 
आजुधी होए कोइ ऐसोइ । जोइ भुज कुँअर दमन बल जोए ॥ 
पलकों के पंखि पत्र हिलने-डुलने लगे तब भभकते मुख से रामानुज बोले -- कोई ऐसा योद्धा है जिसकी भुजाओं ने कुमार दमन जैसा बल हो ?  

सुनि सत्रुहन पुष्कल मह बीरा । दमन दलन तुर होहि अधीरा ॥ 
रन कर्मन उर भरे उछाहा । बिनै बचन कहि हे दलनाहा ॥ 
पुष्कल के चुनौती को सुनकर महावीर पुष्कल, दमन को तत्काल दलन करने हेतु अधीर हो उठे | युद्ध संघर्ष हेतु उनका ह्रदय जब उत्कंठित हो गया तब उन्होंने विनयपूर्वक ये वचन कहे -- 'हे दलनायक ! 

कहाँ लघुबर कुँअर सुकुँआरा । कहाँ दल गन्जु दास तुहारा ॥ 
गहेउ रबिकुल तिलक प्रतापा । तपन भवन कहु तिन को तापा ॥ 
कहाँ वह बालक सुकुमार राजकुँअर और कहाँ असीम बल धारण करने वाला आपका यह  दास | जिसमें सूर्यवंश के तिलक का प्रताप हो तपोभवन में कोई उसे संतापित कर सकता है ? 

जग कारन गहेउ गुन रासिहि । अस प्रभु के है कर को कासिहि ॥ 
दास अजहुँ रन अजिरु पधारिहि । रघुबर के सब काज सँवारिहि ॥ 
जो जग कारण हैं, गुणों के भण्डार हैं ऐसे प्रभु के अश्व की रश्मियों को कोई खैंच सकता है ? आपका यह दास तत्काल ही उस रणभूमि में उपस्थित होगा व् भगवान श्रीरामचन्द्र के कार्य सम्पन्न करेगा | 

तुहरे बदन चिंतन जस घन गह गहे अगास । 
मम किरिआ कानन देत, बरखत होहि उजास ॥ 
आपके मुख-मंडल की चिंता ऐसी है जैसे आकाश में मेघ गहरे हो गए हों | मेरी इस प्रतिज्ञा को सुनकर वह अवश्य बरस पड़ेंगे और वह पुनश्च उज्जयंत होगा  | 

रविवार, १८ जनवरी, २०१५                                                                                             

जो प्रतिपति के हार न करिहौं । चितहरनिहि हरि सुरति न धरिहौं ॥ 
प्रभु भाव भजन रसन बियोगए। मोरि पंथ सो पातक जोगए ॥ 
यदि मैने शत्रु को पराजित नहीं किया तो चित्त को हरने वाले श्रीहरि का स्मरण नहीं करूंगा मेरी जिह्वा प्रभु के ब्भाव भजनों से वियोजित हो जाएंगी पाप मेरी प्रतीक्षा में रहेंगे | 

जो सुत बिलगित जननिहि चरना । मान तीरथ अबर कहुँ परना ॥ 
जगे जननि प्रति भाव बिरोधा । सो पातक मोहि लेहि सोधा ॥ 
जो कोई पुत्र अपनी जननी के चरण से पृथक होकर किसी अन्य पुण्यस्थान को माता मान उसे प्रणाम करता है और जननी के साथ विरोध करता  है ऐसे पाप भी मुझे ढूंड लेंगे ॥ 

पुष्कल मुख पन बचन अलापे । सत्रुहन मन अति हर्ष ब्यापे ।। 
रन ठानन पुनि आयसु देईं । चलेउ भरत सुत अनी लेईं ॥ 
पुष्कल के मुख द्वारा अलापे हुवे इन प्रतिज्ञा वचनों से शत्रुध्न के मन में हर्ष व्याप्त हो गया | फिर उन्होने संग्राम करने की आज्ञा दी तो भरता पुत्र पुष्कल सेना लेकर चल पड़े | 

साज सहित तहँ चरण पधारे । रहेउ बीरतर जहँ  कुँआरे ॥ 
देखि जुझावन पुष्कल आनी । करत  जय घोष किए अगवानी ॥ 
सम्पूर्ण सैन्य-सज्जा सहित उन्होंने वहां पदार्पण किया जहाँ  महान वीर राज कुमार दमन उपस्थित था | उन्होंने जब देखा कि पुष्कल संग्राम करने आ रहे हैं तब जय घोष करते हुवे उनका स्वागत किया |  

सुभट परिकर राज कुँअर सौमुख चरन अगोहि । 
रन उद्यत दुहु मुठ भिरत, निज निज रथ अति सोहि ॥ 
कुशल योद्धाओं से घिरे राजकुमार उनके सम्मुख  बढ़े | रण हेतु उद्यत दोनों ही एक दूसरे से सामना करते हुवे  अपने-अपने रथों पर अत्यंत सुशोभित हो रहे थे | 

सोम/मंग ,१९,२० जनवरी, २०१५                                                                                             

बरन तुला बरनन जस तोले । धरि मुख पुष्कल किछु एक बोले । 
सुनौ दमन जब मैं रन आना । तुहरी हार करन पन ठाना ॥ 
वर्णों की तुला में जैसे कथनों को तोलते हुवे पुष्कल ने संक्षेप में कहा -- सुनो दमन ! मैने युद्ध में आगमन के समय तुम्हें परास्त करने की प्रतिज्ञा की थी | 

भरत तनय मम पुष्कल नामा । करिहउँ पूरित तव रन कामा ॥ 
सूर सैनिहि सँभार निहारौ । बहुरत अपने कोत सँभारौ । 
में भरत-पुत्र हूँ, मेरा नाम पुष्कल है| तुम्हारी युद्ध की कामना को में अवश्य पूर्ण करूँगा | अपने शौर्य व् अपने सैनिकों का निरिक्षण कर लो ततपश्चात स्वयं का निरिक्षण करो | 

 कत भरत सुत के उपहासा ।   दमनहि अधरन सजै सुहासा ।
भूपति सुबाहु  मोहि जनावा  । बहोरि  दमन मैं नाउ पावा ॥ 
दमन के अधरों पर भरत -पुत्र का उपहास करती हुई एक सुहास सुसज्जित हो गई   |  राजा सुबाहु ने मुझे जन्म दिया तत्पश्चात ही मुझे दमन नाम प्राप्त हुवा | 
                                                                                                                                                                                                                          मम  कर निसदिन पितु चरन  गहे  । एहि  कारन पातक दूर रहे ॥ 
बिजई माल बिजईस अधीना । होत ताल जस जल बस मीना ॥ 
मेरे हाथ नित्यप्रति पितृ-भक्ति में ही अनुरत  रहते हैं इसलिए मेरे समस्त पाप दूर हो गए हैं | विजयमाला विजयाधीश के अधीन है जैसे ताल में मीन जल के अधीन होती है | 

 जय तिलक चिन्ह चीन्हिहि  जिन गंजन के सीस । 
बिजय माल लंकृत करिहि तासु कंठ बिजईस ।।  
जिस वीर का मस्तक विजय के तिलक चिन्ह से लक्षित होगा, विजयाधीश उसी के कंठ में विजयमाल अलंकृत करेंगे | 

लखिहउ अमित बिक्रम तुअ मोरे । अस निगद दमन देइ टँकोरे । 
खैंच सरासन लेइ बिताना । छाँड़ेसि अस तेजसी बाना ॥ 
अब तुम मेरा अमित विक्रम देखना, ऐसा कहकर दमन ने धनुष पर टंकार दिया और सरासन को खैंचकर विस्तार देते हुवे ऐसे तीव्र बाण छोड़े, 

चरत सररत  खगोलक ढाँके । पूछे सूर केतु कहँ झाँके ॥ 
बिगूचत बिगत बाध प्रकासा । गाहे गहन घन काल अगासा॥ 
जो सर-सर चलते खगोल को आच्छादित कर दिया और सूर्य की रश्मियां जैसे पूछने लगी हम कहाँ से झांके | वायुमंडल को असमंजस में  डालकर प्रकाश को बाधित करके फिर वे बाण आकाश में घने काले मेघ के रूप में व्याप्त हो गए | 

 दुति गति गत गज बाजि भेंटे ।   लपट झपट पुनि चोट चपेटे ॥ 
सकल सैन बहु दिए संतापा । केतु ब्यापत धरि हरि चापा ॥ 
और विद्युत गति से गमन करते हुवे वे हाथी -घोड़ों से भिड़ गए फिर लपकते हुवे  उनपर  टूट पड़े और उन्हें चोटों की चपेट में ले लिया | इसप्रकार उन बाणों ने समस्त सेना को भरपूर संताप दिया | बाणों के बादल छटते ही रुधिर किरणों को व्याप्त करते हुवे सूर्य देव ने इंद्रधनुष धारण कर लिया | 

जब पुष्कल  रिपु बीर बिनासा । निरखेउ दमन बिक्रम सकासा ॥ 
जोए धुनुरू एकु बान  भयंकर  । धरे सीस पढ़े अगनि मंतर  ॥ 
शत्रु पक्ष के वीरों का नाश करने वाले पुष्कल ने दमन को अपने समरूप पराक्रम का प्रदर्शन करते हुवे देखा |तथा  एक भयंकर बाण से संयोजित धनुष को शीश पर धारण करके अग्निमन्त्र से अभिमंत्रित किया | 

खैंचत लस्तक लक लगा   ,तमक तमक तक ताड़ ॥ 
रिपुन्हि सिर्षोपर पलक ,गुन करषत दिए छाँड़ ॥ 
धनुष की मुठ को खैंचते हुवे ललाट से लगाकर तमतमाती दृष्टि से देखते हुवे वस्तुस्थिति को भाँपा तत्पश्चात प्रत्यंचा  कसकर क्षण में ही वह भयंकर बाण शत्रु के शीर्ष पर छोड़ दिए | 

बुधवार, २१  जनवरी २०१५                                                                                                

छूटत प्रगत भयउ बिकराला । बेगि प्रचरत उगरत  ज्वाला ॥ 
सिली मुख सिखी कन उदगारे । छन रन भुवन छदत छतनारे ॥ 
प्रत्यंचा से छूटकर आगे बढ़ते हुवे वे विकराल  हो गए, तथा वेगपूर्वक परिचालन करते हुवे ज्वाला उगलने लगे | शिली मुख  की शिखाओं से चिंगारियां निकल रही थी, क्षणमात्र में वह रणभूमि छलनी करते हुवे बिखर गईं | 

बरै झरझर गिरै चहुँ पासा ॥ झुरसत सुभट गहत संत्रासा ॥ 
अगनि बारि ए  भई प्रलयंकर । किए सु बिहिन भर रूप भयंकर ॥ 
जलती दहती झर-झर कर चारों ओर गिरती चिंगारियों से झुलसते शत्रु पक्ष के कुशल सैनिक संत्रासित हो गए | इस अग्नि वर्षा प्रलयंकारी हो गई और भयंकर रूप धारण करके उसने उन सैनिकों को कौशलता से विहीन कर दिया | 

एकै बान मुख दसन प्रहारा । धावत भट पिछु हतत पचारा ॥ 
 बहुरि बिलोकत बरत बरूथा । चहुँ कोत अधमरे भट जूथा ॥ 
बाण एक होता किन्तु वह दस मुख से दस प्रहार करता तथा भागते सैनिकों को घायल कर उनका पीछा करते हुवे उन्हें ललकारता |  दग्ध होती सेना और चारों ओर अधमरे सैनिकों के झुण्ड को देखकर फिर 

आजुधी कला  के कुसलाई । दमन कर बरुनाजुध्  गहाई ॥ 
छूटत भए  घन गगन  गहावा । अपलाबित रस दहन बुझावा ॥ 
आयुध कला में कुशल दमन ने हाथों में वरुणायुध लिया उससे छूटते ही वह वह गहन रूप लेकर गगन में व्याप्त हो गए और रसाप्लावन करके बाणों की दहन को शांत किया | 

रहे जल जल भए जल जल किए पल पुष्कल सैन । 
गज बाजि भट गहि हिमबल करए ताल रन ऍन ।।  
तत्पश्चात दमन के पराक्रम से ईर्ष्या करती हाथी-घोड़ों से युक्त पुष्कल सेना को क्षणमात्र में ही जल से आप्लावित कर दिया, गिरती हुई जल बिंदुओं से फिर रणभूमि तरण-ताल में परिवर्तित हो गई | 

बृहस्पतिवार  २२जनवरी २०१५                                                                                                   

बरखे जस घन रस एहि भाँती । प्रतिभट उरस परे बहु सांती ॥ 
पुष्कल कन खत निज भट देखे । जलवत हहरत पत सम लेखे ॥ 
मेघों का रूप धरे वराणास्त्र से जिस प्रकार की वर्षा हुई वह प्रतिपक्ष के दग्ध सैनिकों के ह्रदय को शांत कर गई  | पुष्कल ने कनखियों से  अपने सैनिकों का अवलोकन किया उन्हें जलमय अवस्था में कांपते हुवे पत्तों के समान पाया | 

अगन बरुन कर गयउ बिनासा । छितरत भट निपते चहुँ पासा ॥ 
क्रोध सिखी कन बरनइ लाला । लागे लोचन बरे ज्वाला ॥ 
वरुणास्त्र के हाथों आग्नेयस्त्र  विनाश हो गया था सैनिक छिन्न-भिन्न  होकर चारों ओर  गिरे पड़े थे | क्रोध शिखा के रक्तवर्णी कण लगने से नेत्रों नेत्रों में जैसे ज्वाला प्रज्वलित हो उठी | 

 बायब्यास्त्र किए अभिमंतर । बृहद बान धर किए धनु ऊपर ॥ 
तदनन्तर मंतर के प्रेरे । बात केतु कर कोपत घेरे ॥ 
वायवास्त्र से अभिमंत्रित करके एक वृद बाण धनुष पर रखकर उसे ऊपर किया तदनन्तर मन्त्रों की प्रेरणा से तदनन्तर वह वायु और धूल ने फिर प्रकोपित हो उन मेघों को घेर लिया | 

बेगि घटा घन दिए छितराई । भयउ छितरित प्रपत के नाई ॥ 
पुष्कल अधर कौसुम बिकासे । साँस साँस जस वास निवासे ॥ 
तीव्र गति से मेघों की उन घटाओं को तितर -बितर | अब वह मेघ पत्तों के समान बिखर गए  | पुकाल के अधर रूपी सुमन खिल गए और उनकी सांसों में जैसे सुगंध का ही निवास हो गया |  

देखि दमन बरूथन्हि छीन करै  बात  प्रचंड । 
पर्वतास्त्र सँजोगि  कै , बाँधि सीध कोदंड ।।  
दमन ने जब देखा कि उनका सैन्य दल को प्रचंड वायु ने क्षीण कर दिया है तब उन्होंने पर्वतास्त्र का संयोग कर धनुष को लक्ष्य की ओर केंद्रित किया | 

शुक्रवार, २३ जनवरी, २०१५                                                                                               

रिपुदल सिरु पर परबत बरखे । बात रूख पुनि कतहुँ न दरसे  ||  
 परबत ताहि गयउ अवरोधे ॥ दरस ए भरत तनय अति क्रोधे || 
शत्रुयोद्धों के मस्तक पर  पर्वतों की वर्षा होने लगी । प्रचंड वायु कहीं लक्षित नहीं हो रही थी, पर्वतों के द्वारा अवरुद्ध हो गई थी इस दृश्य को देखकर भरत नंदन पुष्कल अत्यंत  आवेशित हो गए  | 

अरु जब निज दल बल बिनु जानइ | त प्रखर बज्रास्त्र संधानइ ॥ 
करत घात दीन्हि अस धौंके । निपते परबत तिल तिल हो के ॥ 
और जब अपने दल को बल से रहित जाना तो वज्र नामक प्रखर अस्त्र  का संधान किया | फिर उस अस्त्र ने आघात करते हुवे  पर्वतास्त्र को ऐसी टक्कर दी कि वह तिल-तिल होकर गिरने लगे | 


ता सो बजर गरज घनकायो । निपत दमन उर भवन ढहायो ।। 
बिंध उरस लिए चोट   चपेटे । आसु  दमन परेउ रन खेटे ।। 
इसके साथ ही वह वज्र भी गर्जननाकर गंभीर ध्वनि करते हुवे गिरा और  दमन के ह्रदय भवन को ढहा दिया तत्पश्चात  ह्रदय का विभेदन करते हुवे गंभीर चोट के चपेट में ले लिया,   दमन तत्काल ही रणग्राम में गिर पड़े | 

भयउ बाध बहु बहु  अकुलाई |  बाहु बली मुख मुरुछा छाई || 
देखि परे दल पति बलवाना । नीति निपुण रथ सारथि आना ॥ 
इससे उस बाहुबली को अतिशय व्यथा हुई, व्याकुलता के कारण उसके मुख मंडल पर मूर्छा छा गई |  उसका  सारथि युद्ध नीति में निपुण था, उसने जब अपने सेनापति को  धराशायी देखा तो  उन्हें रथ में बाहिर ले आया  | 

धरए उपपाँखि कोस भर अजिरु सोहि दूराए । 
तासु समर बीर भय कर, छतवत  इत उत धाए ॥ 
और फिर कंधो पर रखकर  रणभूमि से एक कोस दूर ले गया  | इस आक्रमण से संग्राम वीर भी भयभीत हो गए और तीतर-बितर होते हुवे इधर-उधर भाग खड़े हुवे | 

शनिवार, २४ जनवरी, २०१५                                                                                                 

राउ धानि भट धावत आईं । सकल बार्ता कहत सुनाईं ॥ 
छतबत दमन मुख मुरुछा गहे । पत सोंह हहरत एहि बत कहे ॥ 
सैनिक दौड़ लगाते राजधानी आए एक साँस में समस्त घटना क्रम कह सुनाया और अपने राजा से कांपते हुवे यह बात कही कि राजकुमार दमन घायल अवस्था में मूर्छा को प्राप्त हैं | 

इहाँ कंठ जय माल गहाईं । भरत तनय चित प्रभु सुरताईं ॥ 
बिजय तिलक लक धर बिजईसा । चिरंजीउ के देइ असीसा ॥ 
इधर कंठ में जयमाल धारण किए भरतनंदन पुष्कल का चित्त प्रभु का स्मरण करने लगा | विजयेश ने मस्तक पर विजय तिलक लक्षित करते हुवे उसे चिरंजीव होने का आशीर्वाद दिया | 

बहुरि सूरत रघुबर कहि  बाता । लरत हतेउ न केहि अघाता ॥ 
संख पूरित बाजि रनभेरी । रणांगण चहुँपुर लिए फेरी ॥ 
तत्पश्चात रघुवीर के कहे हुवे वचनों का स्मरण करके उन्होंने फिर न तो किसी को घायल किया न ही  किसी पर प्रहार किया | शंख पूर्णित रणभेरी बज उठी तथा विजय की प्रसन्नता में उन्होंने रणांगण की चारों ओर परिक्रमा की | 

साधुबाद दे बिजय निनादे । बाद बृंद धर बादक बादे ॥ 
हर्ष अरिहंत असीरु दीन्हि  । भूरिहि भूरि प्रसंसा कीन्हि ॥ 
साधू वाद प्रदान करता हुवा जयघोष होने लगा, वादक वाद-वृंदों से वादन करने लगे | शत्रुध्न ने भी हर्षित होकर आशीष देते हुवे उनकी भूरि -भूरि  प्रशंसा की | 

कहत सेष मुनि जब उहाँ , भर मुख धूरहि धूर । 
रुधिर रुधिरू सिरु सों लखि  हारे गाढ़े सूर ॥  
भगवान शेष जी कहते हैं -- हे मुनिवर ! उधर जब धूल भरे मुख और  रक्ताक्त शीश के साथ अपने मरे-खपे वीरों को देखा ,

शुक्रवार, ३० जनवरी, २०१५                                                                                                

सुबाहु सांति करत तब सोका । सुत के करनी पूछ बिलोका ॥ 
ताहि समउ भट मन भय माने । हतप्रभा मुख छबिरु मलियाने ॥ 
सुबाहु ने तब उनके शोक को शांत सा करते हुवे उनसे अपने सुपुत्र की करनी पूछी उस समय उन सैनिकों के मन में भय व्याप्त था हतच्छाया से मुख की छवि मलिन हो रही थी | 

 रकताकत भा  बसन अधारे । कह भट राउ सुतनय तिहारे ।।  
हिरन मई पतिया सिरु चीन्हि  । लखि रघुपति है निज बस कीन्हि ॥ 
रक्त से भीगे हुवे वस्रों को धारण किए सैनिकों ने कहा -- हे महाराज ! आपके सुपुत्र ने   मस्तक पर  स्वर्णमयी पत्रिका से चिन्हित रघुवीर के अश्व को वश में करके 

मानए रिपुहन तृन समतूला । बाँध रसन भए तूलमतूला ॥ 
उत रघुबर इत सुकुवर संगी । उत अक्षोहिनी इत चतुरंगी ॥ 
शत्रुध्न  को तृण के समतुल्य तुहीन मानकर उस अश्व को बांध लिया  और उनसे  लड़-भिड़े | उधर रघुवीर तो इधर वो सुकुमार, साथ में उधर अक्षोहिणी ( पूर्ण सेना का दसवां भाग ) सेना तो इधर चतुरंगी सेना थी | 

दोनहु दल गहि बल अति  धारी । किएँ रन लोमन हर्षन कारी ॥ 
अस्त्रजीबी करे सर बारी ।धार धरे जस धारा सारी ॥ 
दोनों ही सेनाएं अत्यंत ही बलशाली थी एतएव उन्होंने लोम हर्षक युद्ध किया  सैनिक जब  अस्त्रों की वर्षा करते तब ऐसा प्रतीत होता जैसे वां बाणवर्षा रूपी महावृष्टि की अविरल धारा हो | 

कुँवर के सर घात संग रच्छक भयउ अचेत । 
तब रिपु चहुँ पुर घेर किए लिए भट केतनकेत ॥ 
राजकुमार के सायकों द्वारा किए गए आक्रमण से जब अश्व के रक्षक अचेत हो गए तब शत्रुपक्ष के न जाने कितने ही सैनिकों ने उन्हें घेर लिया | 

 शनिवार, ३१ जनवरी, २०१५                                                                                    

भयउ धनु घन बान बौछारा  । बरखिहि आन बिपुल बल धारा ॥ 
कासि कृपान ऐसेउ चमकिहि । जस रिसि चहुँ दिसि दामिनि दमकिहि ॥ 
उनके धनुषों ने तो बाणों ने बौछार  | फिर तो उनसे विपुल बल धाराओं की वर्षा होने लगी | कर्षित कृपाण फिर ऐसे चमकने लगे जैसे चारों दिशाओं में क्रुद्ध  हुई दामिनी दमक रही हो | 

तदनन्तर रन भयउ भयंकर । प्रतिसर रूप धरे  प्रलयंकर ॥ 
करै कुँवरु अति करक प्रहारा । बिजइ कलस धरि बारहि बारा ॥ 
तदनन्तर भयंकर युद्ध हुवा  पश्चिमी भाग ने  प्रलयंकारी रूप धारण कर लिया और राजकुमार शत्रुपक्ष पर कठोर प्रहार करने लगे, इस युद्ध में वारंवार आपके पुत्र की  ही विजय होने लगी   | 
   
पर्वतास्त्र तैं रिसत गाढ़े । पुष्कल बजरास्त्र पुनि छाँड़े ॥ 
सर सर कर उर घर  भितराई । परे दमन मुख मुरुछा छाई ॥ 
पर्वतास्त्र के प्रहार से अत्यंत ही क्रुद्ध होकर फिर पुष्कल ने जब वज्रास्त्र का प्रयोग किया तव वह सरसराता हुवा दमन के हृदय भवन में प्रवेश कर गया इससे वह  वीर धराशयो हो गया और उसके मुख पर मूर्छा छा गई | 

सेबक मुख उदंत जब जाने । निकस सुबाहु तहँ चले आने ॥ 
अस्त्र  सस्त्र गह बिबिध प्रकारा ।  रिपु रनन जहाँ पंथ जुहारा ॥  
सेवक के मुख से यह वृत्तांत जानकर राजधानी से निकले और वहां के लिए प्रस्थान किए  जहाँ  विविध प्रकार के अस्त्र-शस्त्र  धारण किए  शत्रु संग्राम हेतु प्रतीक्षारत थे | 

सुबरन अभूषित रथ चढ़ि , चरए गगन भरि छारि। 
निरख ताहि रिपुहनहि अनि  लिए रन साज सँभारि  ॥ 
वह स्वर्ण विभूषित रथ पर आरूढ़ होकर आकाश को धूल से व्याप्त करते हुवे प्रस्थान किए | उन्हें  आते देखकर रिपुहंत की सेना युद्ध के लिए तैयार हो गई | 

रवि/सोम , ०१ फ़रवरी, २०१५                                                                                                  

रहे अनुजात सुकेतु  नावा । सोइ संग्राम हुँत चलि आवा ॥ 
गदा गदन मैं परम प्रबीना । एके घात हत बाधए तीना ॥ 
राजा सुबाहु के अनुज का नाम सुकेतु था वे भी संग्राम के लिए चले आए  वे गदायुद्ध में अत्यंत प्रवीण था  एक ही प्रहार में जो तीन-तीन योद्धाओं को घायल कर देता था | 

भूप एकु तनुभव संग आईं । लहै सकल रन कौसलताई ॥ 
 सक्ति सील बहु नाउ चित्रंगा  ।चढ़ेउ सोइ भरे रन रंगा ॥ 
राजा का एक पुत्र भी उनके साथ आया था जो युद्ध की सभी कलाओं में कुशल था | उसका नाम चित्रांग था बलवान तो वह था ही, युद्ध हेतु अति उत्साहित होते हुवे वह भी शत्रु सेना पर चढ़ आया | 

एकु अबरु तनुज संग महुँ आए |  बिचित्र नाउ तिन्ह कहत बुलाएँ ॥ 
दमन रन गति सुने जब काना । मन ही मन बहुतहि  दुःख माना ।। 
उसका एक और तनुज साथ में आया था जिसे विचित्र नाम से पुकारा जाता था जब उसने अपने भ्राता दमन की रणगति सुनी तो उसके मन में भारी दुःख हुवा  | 

बिचित्र बिधि सों जोइ रन खेले । भ्राता संगत रिपु दल हेले  ॥
हिरनमई रथ राजित ए हेतु । कोपत तिन संग चढ़े सुकेतु ॥ 
वह विचित्र विधि से संग्राम करता था, भ्राता के साथ देते हुवे उसने भी शत्रु दल को ललकारा || इस कारण से उनके साथ सुकेतु भी  हिरण्मय रथ पर विराजित होकर कोप करते हुवे शत्रु पर टूट पड़ा | 

रहँ ता संग धनुर्धारि बीर अनेकानेक । 
समर कला कौसल माहि  रहिहीं सबहि प्रबेक ॥ 
इनके साथ अनेकानेक धनुर्धर वीर थे वे सब भी समर कला की कौशलता में श्रेष्ठ थे | 

मंगलवार, ०३ फ़रवरी, २०१५                                                                                      
कोप करत संग्राम  मझारे | बीर सुबाहु रहेउ पधारे || 
तहाँ कुँवरन्हि हतचित पेखे । रुधिरोद्गत  पीर जब देखे । 
वीर सुबाहु ने अत्यंत ही कोप करते हुवे संग्राम के मध्य में पदार्पण किया था | वहां  राजकुमार की मूर्छा व् रुधिर उगलती पीड़ा को देखकर 

बयरु सबु लिए बान उर घारे  | कहँ अह रिपु कस करकष मारे || 
मरनासन रथ परिअ दुलारा | देखि दसा दुःख करिअ अपारा || 
कहा -- 'आह! शत्रु ने कैसी कठोरता से मारा है बाणों को सारा वैर निकालते हुवे ह्रदय में रोपित किया है |' उनका प्यारा पुत्र मरणासन्न अवस्था में रथ पर गिरा हुवा था उसकी ऐसी दशा देखकर अत्यंत दुखी हो गए  | 

निरखत कातरि धरि परसाखी । हलरए हरिअ हराहरि पाखीं ॥ 
कहत ए कलपत  बारहिबारा  | अह सुत अहित न होइ तिहारा  ||
उसे कातर दृष्टि से देखते हुवे एक टहनी लेकर फिर शिथिल मुद्रा में पल्लवों को हिलाकर उसे हवा करने लगे, वारंवार यह कहकर विलाप करने लगे कि आह!कहीं तुम्हारा कुछ अहित न हो जाए | 

मृदुल परस पल पलकन मूंदी | होत बिकल छींटे जल बूँदी || 
तासों हरिअरि चेतस आना | जगे बहुरि सस्त्रग्य महाना || 
एक क्षण भर के लिए अपनी पलकों को बंद कर फिर उन्होंने उसका कोमल स्पर्श किया तथा व्याकुल होकर उसके शरीर पर जल बिंदुओं का छींटा दिया | इससे शनै शनै महान अस्त्र वेत्ता वीर दमन की चेतना लौट आई | 

ढारे नयन पलक पट खोले । बहुरि उठत रथ बैसत बोले ॥ 
कहँ दलपत पुष्कल उद्दण्डा |  कहँ तर तूनी कहँ कोदंडा  || 
नयनों के ढले हुवे पलक पट खुले फिर वह उठ बैठा और बोला --  
'मेरे बाण और तूणीर कहाँ है ? मेरा धनुष कहाँ है ? वह उद्दंड सेनापति पुष्कल कहाँ है ?' 

कहँ  सैनी कहँ सेन बिसाला । कहँ तिनके रथ कहँ दंताला ॥ 
खात अघात जुझत मम सोंही | मोर  बान सो पीरत ओही || 
सैनिक और विशाल सेना कहाँ हैं ? उसका रथ और हस्ती कहाँ है ? मुझसे जूझते हुवे मेरे बाणों के प्रहार से आहत होकर -

मरनि निरखत डिठा पीठ  गयऊ कहाँ परान |  
सुबाहु अतिसय हरषेउ सुत कहि बत दै कान || 
अपने काल को निकट देख वह कहाँ भाग गया ? अपने पुत्र के इन वचनों को सुनकर सुबाहु अत्यंत प्रसन्न हो गए 

बुधवार, ०४ फ़रवरी, २०१५                                                                                                       

भरि हरिदय  भए भाव बिभौरे। होत बिकल सुत अँकोरे ॥ 
दरसत तात नयन भए चोरे । अवनत मस्तक दमन लजोरे ॥ 
हृदय के भर आने से वह भाव विभोर हो गए और विह्वल होते हुवे अपने पुत्र को अंक में भर लिया | पिता को देखकर दमन नेत्र चुराने लगा और लज्जावश अपना मस्तक झुका लिया | 

चढ़े घात गहि गहन अघाता । भरे रकत जिमि केतु प्रभाता ॥ 
तथापि उमरै घन अनुरागा । भगति अपूरित पितु पग लागा ॥ 
घात पर चढने के कारण उसे गहरी चोंट पहुंची थी, वह प्रभात में किरणे के जैसे रक्ताक्त था तथापि पिता के प्रति उमड़ते हुवे अनुराग के कारण बड़ी भक्ति से पिता के चरणों से लग गए  | 

सुत पुर पितु पुनि कातर लाखे ।  गहि  कर निज कंचन रथ राखे ॥ 
बहोर धरम कर्म कुसलाई | चक्राका नगरि के महराई ||  

पुत्र को कातर दृष्टि से देखते हुवे नेत्रों की पंखुड़ियों से  हवा करने लगे और फिर उसे हाथों से उठाकर अपने स्वर्ण रथ में सुरक्षित बैठा दिया  फिर धर्म-कर्म में कुशल  चक्रांका  नगर के महराज सुबाहु  -

सेना बाहि सोंह सम्बोधे । कलिक ब्यूहक ब्यूह बोधे ।। 
कहत ताहि  अस ब्यूह रचाएँ । जिन्हनि रिपुदल भेद ना पाए ॥ 
सेनापति से सम्बोधित हुवे और उसे  क्रौञ्च रूपी सैन्य-व्यूह की संरचना को समझाते हुवे उसे कहा -- ऐसी व्यूह की रचना करो कि शत्रु दल जिसका भेदन न कर सके | 

अस ब्यूहित सैन संग समर बीर बल जोहि । 
तासु आश्रय बिजय कलस अवसि हमहि कर होहि ॥ 
ऐसे सैन्य व्यूह के साथ संग्राम वीर का बलवर्द्धन होगा,  उसी के आश्रय  से विजय कलश अवश्य हमारे हाथ में होगा | 

बृहस्पतिवार, ०५ फरवरी , २०१५                                                                                               


नृप जैसेउ बिधि बोध कराए | सेनप तस बर ब्यूह रचाए ॥ 
कंठ कला कृत किए चितरंगा । करे सुकेतु मुकुल मुख संगा ॥ 
राजा ने जिस भाँती कहा था सेनापति ने वैसा ही सुन्दर व्यूह रचा |  सेना के  मुकुलित मुख में सुकेतु को रखकर कंठ भाग में चित्रांग को रखकर कला कृति करते हुवे उसे चित्रंगा किया | 


दुहु भूप कुअँरु भए दुहु पाँखी । कटकाकृति कलिक सोहि लाखी ॥ 
रथ गज बाजि पयादिक संगे । साजिहि सैनि सहित सब अंगे ॥ 
दोनों राज कुमार -- दमन और  विचित्र पंख हो गए  | अब कटक की आकृति क्रौंच पक्षी के समान दर्शित होने लगी थी |   रथ, हाथी, घोड़े साथ में  पदाजि ये सभी अन्य सैनिकों सहित  सभी चारों अंग सुसज्जित-

मध्य माहि गह सैन बिसाला । पुंग भाग गहि बीर भुआला ।। 
एहि  बिधि सकल जूह सँजूहा  । दल नायक कलित कल ब्यूहा ॥ 
विशाल सेना ने मध्य भाग में स्थित हुई उसके पुच्छ भाग में स्वयं राजा सुबाहु स्थित हुवे |  सुन्दर व्यूह की संरचना करते हुवे  समस्त सैन्य समूह को संयोजित किया  इस प्रकार दलनायक ने  | 

रचनाकृति  कृत कटक अभेदे । महराउ सो सादर निबेदे ॥ 
चक ब्यूह बर बिचित्र बनाई । किए भरु  भूरिहि भूरि बड़ाई ॥ 
 एक अभेद्य कटकाकृति की रचना करके महारज को सादर निवेदन किया | क्रौंच व्यूह अत्यंत ही विचित्र था, राजा ने उसकी भूरि-भूरि  प्रशंसा की | 

मेघाडम्बर करत अनि, छतर सिरोपर सारि । 
कहत अहिपत हे मुनिबर, लगे अति भयंकारि  ॥ 
भगवान शेषनाथ कहते हैं -- हे मुनिवर ! शत्रु की सेना ने जब मेघों के समान गर्जना करते छत्र का विस्तार किया तब वह और अधिक भयंकर प्रतीत होने लगी | 

शुक्रवार, ०६ फरवरी २०१५                                                                                                    

दरस तेहि बर बानि गभीरा । सुमति सोंह बोले रन बीरा ॥ 
हम सों बिहुर के पंथ भुराए । हमरे हैं  कहँ आन पैठाए ॥ 
उसे देखकर गंभीर वाणी के साथ युद्धवीर शत्रुध्न  सुमति से बोले हमसे पृथक होने के कारण  हमारा अश्व मार्ग से भटककर ये कौन सी नगरी में आ गया ?

सुमति भूपति नाउ मुख लैही । चक्राका पूरी परिचन  दैही । 
एहि  नगरी जो नागर बासै । सो हरि चरन्हि पयस पियासे ॥  
तब सुमति ने राजा सुबाहु का नाम लेते हुवे चक्रांका पूरी का परिचय दिया और कहा इस नगरी जो नागरिक निवास करते हैं वे भगवान के चरणों का अमृत के प्यासे हैं | 

हरि भगति सोहि भए अघ हीना । इहाँ सब तोषि नहि को दीना ॥
राउ सदा निज तिय अनुरागे  । अस बर राजु बर माहि माँगे ॥ 
भगवद भक्ति से वे पापरहित हो गए हैं इस नगरी सभी संतोषी हैं यहाँ  दरिद्र नहीं है | राजा सदैव अपनी ही स्त्री से अनुराग रखते हैं ऐसा उत्तम राजा उन्हें वरदान में प्राप्त हुवा है | 

 निरखे नहि परधन परदारा | धरम करत नहि करिअ बिचारा || 
एहि अवसरु सुत सह परिवारे । अहहीं उपनत समुह तिहारे ॥ 
पराया धन और पराई स्त्री पर दृष्टि नहीं रखते धर्म करते समय कभी विचार नहीं करते | इस समय वह पुत्र एवं परिवार सहित आपके समक्ष उपस्थित हैं |   

मानस भवन  कानन निकुंजा । भग नंदु कथा अलि बन गुंजा ॥ 
  इनके मानस भवन के कर्ण निकुंज में हरि-कथा रूपी भौरें गूंजा करते हैं | 

जोइ बखानत अबरु बिषय सो बत कही न कबहु गहै । 
लहि लबध लहनी जोइ प्रजा जनी छ भाजन कर धन लहै ॥ 
(राम राज्य का कर पांच लाख की आय में तीस सहस्त्र मुद्रा ) 
हरि बुद्धि सहित भाऊ पूरित नृप ब्रम्हनि सदा पूजिहीं । 
हरि पदारविंदु कर मकरंदु पयसन भँमर बन गूजिही ॥ 
भगवद कथा के अतिरिक्त जो अन्य विषयों का बोध कराती हो ऐसी कथावार्ता ये कभी श्रवण  नहीं करते | प्रजा के द्वारा अर्जित आय के छठे भाग को कर के रूप में प्राप्त करते हैं इसके अतिरिक्त दूसरे का धन नहीं ग्रहण करते | ये हरि-बुद्धि से भक्तिपूर्वक ब्राह्मणों की पूजा करते हैं | भगवान विष्णु के चरणर्विन्द का मकरंद पीने को ये भ्रमर बनकर गुंजा करते हैं | 

सेवत धर्मंन आपनी, बिमन पराया धर्म । 
जो परम पद हेतु जोइ,करैं सोइ सब कर्म ॥ 
पर धर्म से विमुख होकर स्वधर्म का ही सेवन करते हैं जो  परम पद का प्रदाता हो ये वे सभी कर्म करते हैं | 

शनिवार, ०७ फरवरी, २०१५                                                                                                               

अमित सुभट सब समर जुझारा । कौसल महु को पाए न पारा ॥ 
गहि भुज  अतुलित बल सब कोई । तिन्हके तूल बली न होई ॥ 
यहाँ सभी सैनिकों के पास अपरिमित  कौशल है किन्तु इनका रण-कौशल अपारगम्य है | सभी की भुजाओं में अतुलनीय बल हैं किन्तु इनके समान बलवान कोई नहीं है | 

महा समर हमरे समुहाई । तनुभव गति जब देइ सुनाई ॥ 
नयन अँगिरी रोष अँगार भर ।भए उपनत नृप रन एहि अवसर ॥ 
 उस महायुद्ध में हमारे समक्ष  अपने पुत्र की गति सुनी, इस समय ये राजा नेत्रों की अंगीठी में क्रोध के अंगारे भरकर युद्ध करने के लिए उपस्थित हुवे हैं | 

पुनि सत्रुहन सौरथ संबोधे ।कलिक ब्यूह रचना प्रबोधे ॥ 
अमित्र  तापस लेइ  मुख पाँखे । सुबाहु पंखि पुंग महि राखे ॥ 
तत्पश्चात शत्रुध्न ने  सुबाहु की क्रौंच व्यूह रचना का बोध कराते हुवे अपने वीर योद्घाओं कहा -- ' मुख और पक्ष भाग शत्रुओं को परम संताप देने वाला है, इस व्यूह ने राजा सुबाहु को पुच्छल भाग में स्थापित किया हुवा है | 

कहु अस रन बांकुर को होहीं । जो ब्यूह भंजन बल जोहीं ॥ 
कहहु बेगि अहहीं  को बीरा । कहत सत्रुहन भयऊ गभीरा ॥ 
शत्रुध्न फिर यह कहते हुवे गंभीर हो गए कि कहो तुममे से कोई ऐसा शूरवीर है,  जिसमें इस व्यूह का विभेदन करने की शक्ति हो, अविलम्ब कहो, है कोई ऐसा युद्धवीर ? 

तब समर बीर लखी निधि,सब रन साज सँजूह । 
पान उठाए सोंह लहै,भंजन कलिक ब्यूह ॥  
तब वीर योद्धा लक्ष्मी निधि ने क्रौंच-व्यूह विभेदन का बीड़ा उठा लिया और सभी सैन्य-सामग्री संयोजित कर शत्रुध्न के समक्ष उपस्थित हुवे | 

वीरवार, ०८ फरवरी, २०१५                                                                                                        

राम सहाय लषन के नाई । पुष्कल तिनके भयउ सहाई ॥ 
बहोरि सत्रुहन जब आयसु दए । रिपुताप नील रत्न उग्रासय ॥ 
राम की सहायता करने वाले लक्ष्मण की भांति पुष्कल भी उनके सहायक हो गए |  शत्रुध्न जब आज्ञा दी तब रिपुताप, नील रत्न, उग्रासय - 


बीरमर्दन सुभट किए संगे । गवने लख्मी  निधिहि प्रसंगे ॥ 
सौं मुख भाग सुकेतु सँभारे । लख्मी निधि एहि बचन उचारे ॥ 
और वीर मर्दन जैसे युद्धवीरों को साथ लेकर क्रौंच -व्यूह का विभेदन करने वह लक्ष्मी निधि के संग चल पड़े | सेना के मुख्य भाग को सुकेतु ने सम्भाला लक्षिनिधि ने फिर ये वचन कहे --

जनक पूरी पति पिता हमारे । लख्मी निधि मो कहत पुकारे ॥ 
जोई सकल दानउ कुल नासे । छाँड़उ तासु बाजि निज पासे ॥ 
मिथिलेश नगरी के राजा हमारे पिता हैं मेरा नाम लक्ष्मी निधि है जिसने समस्त दैत्यवंश का सर्वनाश कर दिया उसके त्यागे हुवे अश्व को मुक्त कर दो | 

न तरु मोरे घात उर खाइहु । जमपुरी केर दुअरी जाइहु ॥ 
बीर केसर कही कर काना । सुकेतु धनु धर बेगि बिताना ॥ 
अन्यथा मेरा आघात से अपना मर्म भेदन करके तुम तुम सीधे यम पूरी के द्वार पर पहुँच जाओगे वीर केसरी की चेतावनी श्रवण कर सुकेतु ने अत्यंत वेग से  धनुष चढ़ाया  | 

लखत लख्मी निधि गह गुन,खैंच करन लग सारि । 
बान बून्द जल धार किए, करेउ बृष्टि अपारि ।।  
और लक्ष्मी निधि की और देखते हुवे उसकी रसना खींचते हुवे उसे  कानों तक विस्तार दिया | बाण रूपी बूंदों की जलधारा से फिर उसने रणभूमि में बाणों की झड़ी ही लगा दी  | 

सोमवार, ०९ फरवरी , २०१५                                                                                      

सुकेतु सरन सर बारि निरखे । कुटिल भृकुटि लोचन कर तिरखे । 
ताजे लखी निधि बिसिख कराला । लहलहात जिमि चले ब्याला ।। 
सुकेतु के बाणावलियों की इस झड़ी को देखकर कुटिल भृकुटि और तिर्यक नेत्रों के साथ लक्ष्मी निधि ने विकराल नुकीली शिखाओं वाले बाण छोड़े वे सर्पों के समान लहलहाते हुवे चले | 

तेजस गति सिरु उरत  अस धाए । जिमि सूर सान समन सुधराए ॥ 
बिफल होहि सब उद्यम ताके । सुकेतु सर सर काट नहाके ॥ 
तीव्र गति धारण किए फ़िर् वे सिरोपर से ऐसे दौड़े मानो वे सूर्य रूपी शाणाश्मन् पर सुधारे गए | सुकेतु के सभी उद्यम विफल् सिद्ध हुवे वे उसके प्रत्येक बाण का निवारण करते पारगम्य हुए | 

चरत सररत छ सर के पाँती । लगि सुकेतु के छेदत छाँती । 
करै  घात जब तासु  प्रहारा । कोपित बीसि बान दए मारा ।। 
और सरसरा कर चलते इन बाणों में से छ: बाणावली हृदय भवन का भेदन करते हुवे सुकेतु को लगी | इस प्रहार से घायल सुकेतु ने क्रुद्ध होते हुवे लक्ष्मी निधि को बीस बाण मारे | 

बहुरि कटु सार मुख धार धरे । लखमी निधि  सर गुन संग करे ॥ 
चारि बिकरारि बाजि बल थाका । एकु रथ भंजत  काटि पताका ॥ 
फिर लक्ष्मी निधि  ने तीव्र धार वाली शिखाओं से युक्त बाणों को रसना से संयोजित किया | उसमें से चार एक बाण ने सुकेतु के रथ का विभंजन करते हुवे उसकी ध्वजा काट दी | विकराल बाणों ने घोड़ों को बलहीन कर दिया |

एकु रथ बाहक कै मुंड बिदार रुंड महि डार् यो   । 
एकु रसन सहित सुकेतु गहित धन्वनु  खन खन कार् यो ॥ 
एकु कोपि भरे उर भवन तरे बेगि भीति छत हतयो । 
अस रन कौसल निरख भट सकल लखि निधि चितबत चितयो ॥ 
 एक से सारथी के शीश को धड़ से पृथक कर भूमि पर डाल  दिया |  एक बाण से सुकेतु के द्वारा धारण किए धनुष प्रत्यंचा सहित खंड-खंड कर दिया |  एक बाण को उसके क्रोध से भरे ह्रदय भवन में उतारा और वेगपूर्वक  उसकी भित्ति का विच्छेदन करते हुवे उसे हताहत कर दिया | इस प्रकार लक्ष्मी निधि के रण पराक्रम  का अवलोकन कर सभी पराक्रमी  उसे स्तब्ध दृष्टि से देखने लगे | 

हय हस्ती रथ सारथी सों सब सैन सँजोहिँ । 
बिनसै जान सुकेतु गहि कर माहि गदा अगोहिँ ॥ 
हाथी, घेड़े, रथ व् सारथी सहित अन्य सभी  सैन्य-सामग्री को नष्ट हुवा जानकर सुकेतु फिर हाथ में गदा लिए आगे बढे | 

मंगलवार, १० फरवरी, २०१५                                                                                                  

गदा गदन महुँ अति निपुनाई  । आत निकट रिपु देइ दिखाई ॥ 
गहे घन सम गदा तिख सारे  । लखमी निधि रथ तरत पचारे॥ 
गदायुद्ध में अत्यंत निपुण शत्रु को गदा लिए सन्निकट आते दिखाई दिए  | हाथ में हथौड़े सा लोहल गदा लिए फिर लक्ष्मी निधि रथ से उतर गए और शत्रु को ललकारा | 

 परम रनी दुहु कुसल अपारा ।  जयन एकहि एकु करें प्रहारा ॥ 
सहसा  लखि निधि गदा उठायो । कोप सिंधु उर भरी ल्यायौ ॥ 
दोनों ही परम युद्ध थे दोनों में ही अपार रण-कौशल था विजय प्राप्ति के लिए वे एक दूसरे पर प्रहार करने लगे | सहसा ही लक्ष्मी निधि ने गदा उठाया और ह्रदय में क्रोध का सिंधु भरे 

चहे लहे  उर चोट चपेटे । बेगि चरत सुकेतु झपेटे ॥ 
लेइ लूटि पुनि निज कर धारे । फिरै लखि निधि उर दे मारे ॥ 
सुकेतु के ह्रदय को चोट के चपेट में लेने की इच्छा से वह तीव्रता से चलते हुवे उसपर झपटे किन्तु सुकेतु ने उस गदा को लूटकर अपने हाथ में ले लिया और पलटकर उसे लक्ष्मी निधि के हृदय में ही दे मारे | 

देख गदा गयऊ रिपु साथा । कूदि लखी निधि रीतै हाथा ॥ 
बरनै कबित बरन बिनु गाथा । लरए बीर कर बिनु धनु भाथा ॥ 
गदा को रिपु के हाथों में जाता देख लक्ष्मी निधि शस्त्र विहीन हस्त से सुकेतु के ऊपर छलांग लगाई | वर्ण रहित काव्य गाथा का वर्णन के जैसे वे योद्धा भी तर व् तूणीर से रहित होकर युद्ध करने लगे | 

बहोरि दुनहु दल गंजन, लरत पचारि पचारि । 
गुथे कर माहि कर गहे, चरण चरण महुँ घारि ॥ 
फिर तो दिनों ही परम वीर ललकार ललकार कर लड़ते हुवे हाथ में हाथ और चरण में चरण दिए वे गुत्थमगुत्था हो गए  | 

बुधवार, ११ फरवरी,२०१५                                                                                                           

जोग जुझाए छाँति सों छाँती । उठइँ झपटिहि बेगि एहि भाँती ॥ 
हतं एकहि एक  दोनहु  चाहैं । दुहु केहि कर   हते न हताहैं ॥ 
और वक्ष से वक्ष मिलाकर वह बड़े वेग से युद्ध करने लगे इस प्रकार उठते -गिरते, लपटते-झपटते इस प्रकार वह एक दूसरे का वध करने की प्रत्यासा में थे किन्तु दोनों में से किसी का वध हुवा न वे वधिक हुवे | 

लरत लरत जब भए सिथिराईं । क्राँत होत  मुख मुरुछा छाई ॥ 
भाल गह  रन खेत  परे ।गगन धरा धूर धूसर करै ॥ 
लड़ते- लड़ते जब वह शैथिल्य हो गए तब  पारस्परिक बलाक्रांत से दोनों ही मूर्छा को प्राप्त हुवे | दोनों ही हाथों से मस्तक धरे धरती और गगन को धूलधूसरित करते हुवे  रण क्षेत्र में गिर गए | 

मल्ल क्रिडा अस कौसल होई । भयउ चितबत चितब जो कोई ॥ 
दल  बल पुरुधव  देखनिहारै । धन्य धन्य सब कहत पुकारे ॥ 
उनकी  मल्ल क्रीड़ा में ऐसी कुशलता थी कि उसे जिस किसे ने देखा वह विस्मय-विमुग्ध हो गया | दल व् बल के उन पुरोधाओं को देखकर फिर सभी धन्य धन्य कहते हुवे उनका अभिवादन करने लगे | 


सुकेतु  हो कि लखी निधि होहीं । सोत बचन मैं दोनउ सोंही ॥ 
करत गंजन के जसोगाना । निज निज दल के करैं बखाना ॥ 
सुकेतु हो कि लक्ष्मी निधि हो योद्धाओं की स्तुति में दोनों ही शोभनीय थे  | इन वीरों का यशोगान करते हुवे ये अपने -अपने दल की भी प्रशंसा कर रहे थे | 

कहत अहिपत हे मुनिबर, पुनि चित्रांगि कुमार । 
कराँकुल कल कंठ कलित,सरथ किरन कर धार ॥ 
भगवान शेष जी कहते हैं -- हे मुनि ! फिर चित्रांग कुमार जो क्रौंचाकृति सेना के सुन्दर कंठ भाग में सुसज्जित था | 

बृहस्पतिवार, १२ फरवरी, २०१५                                                                                                   

नेक बीर अस घेर घिराईं । जासु सुहा बरु बरनि न जाई ॥ 
बिष्नु भगवान बारहबतारा । प्रबिसिहि जोह जलधि जल धारा ॥ 
 जो अनेकों वीर योद्धाओं से ऐसे घिरा था जिसकी शोभा वर्णनातीत है |  वाराहावतारधारी भगवान विष्णु ने जिस प्रकार समुद्र की जल धाराओं में प्रवेश किया था | 

चित्रांग प्रबिसि जबु तस भाँति |  भई धारि जस  धार के पाँति || 
करम कारमुक करक कठोरा ।मेघ गरज सरि करत टँकोरा ॥ 
चित्रांग ने भी जब उसी प्रकार से प्रवेश किया तब शत्रुध्न की सैन्य पंक्ति ने भी समुद्र धाराओं का रूप ले लिया | 
उसका सुदृढ़ कोदंड कड़क व् कठोर था तथा वह मेघ गर्जना के समान टंकार करने वाला  था | 

करश प्रत्यंचा कटि कर करे । कानन पहि गयउ कुरपरे || 
मारि बान  मुख बेगि झपट्टा  । चिक्करहि महि परिहि बहु भट्टा ॥ 
जब उसकी प्रत्यंचा खैंचि तब चित्रांग का करतल करधन तक पहुँच गया तथा कुहनी कानों तक पहुँच गई  , फिर धनुष उठा कर उसने  बाणों का प्रहार करना प्रारम्भ किया |  ये बाण अत्यंत वेगपूर्वक चले और क्रौंच कटक के मुख पर झपट पड़े परिणामतस बहुंत से योद्धा चक्कर लगाते भूमि पर गिर पड़े | 

तीख  बान बहु तेज प्रहारा  । कोटि कोटि भट हति महि पारा ॥ 
भयौ गगन जस घन घन घोरा ।भयउ भुईँ तस रन चहुँओरा ॥ 
इन तीक्ष्ण बाणों का प्रहार अत्यंत ही तीव्र था इस प्रहार ने शत्रुध्न के बहुतेरे सैनिकों को घायल कर धराशायी कर दिया था इसके पश्चात गगन में व्याप्त घनघोर घटाओं के जैसे रण भूमि में भी चारों ओर घमासान मच गया |  

मचे चिकार कठोर जिमि गरजि घटा नभ फोर । 
तब पुष्कल एकु छोर, रन पहुमि पद अर्पन किए ॥ 
फिर तो वहां ऐसी चीत्कार मच गई जैसे नभ को विदीर्ण कर घनघोर घटाएं गर्ज उठी हों | तब एक छोर से पुष्कल का रण भूमि में पदार्पण हुवा | 

शुक्रवार,१३ फरवरी, २०१५                                                                                          

इत बलि पुष्कल उत चित्राङ्गा | भिड़े दोउ पुनि कासत लाँगा || 
ते औसर दुहु केर सरूपा । दरसि जुझावत  परम अनूपा  ॥ 
इधर बलवान पुष्कल तो उधर चित्रांग थे, एक दूसरे की चुनौती स्वीकार्य करते हुवे फिर दोनों भिड़ गए | परस्पर जूझते हुवे इस समय दोनों का स्वरूप अत्यंत ही सुन्दर दिखाई दे रहा था | 

पुष्कल सुठि भरमास्त्र छाँड़े । छूटत केसरि सरिस दहाड़े || 
चित्रांगहि रथ देइ उड़ायो  ॥ पवन प्रसंग गगन घुरमायो || 
पुष्कल ने सुन्दर भ्रामकास्त्र  छोड़ा उसके छूटते ही वे  सिंह के जैसे दहाड़ उठे | उस अस्त्र ने चित्रांग के रथ को उड़ा दिया और पवन के प्रसंग से उसे गगन में घुमाना आरम्भ किया | 

भयउ एकु तब बात अद्भुता । चिक्करत रथ निज बाहि सँजुता ॥ 

भरमखग भवन एक छन होरे । दुखारत बहुरि  चरन बहोरे ॥ 
तब एक अनूठी बात हुई,  नभ में घूर्णन करता हुवा वह रथ एक मुहूर्त तक अपने घोड़ों सहित स्थिर रहा फिर इस कष्टमय स्थिति में युद्ध भूमि को लौट आया | 

तेहि अवसरु  चित्रांग बोले । पुष्कल तुअजस रथ उत्तोले ॥ 
जैसेउ अमित बिक्रम दरसाए । अस तो कहुँ कतहुँ देइ दिखाए ॥ 
उस समय चित्रांग ने कहा -- पुष्कल ! तुमने जिस भाँती से रथ का उत्तोलन किया और  जिस प्रकार के  अमित विक्रम का प्रदर्शन किया वह मुझे अन्य कही दर्शित नहीं हुवा | 

घुरमिहि अगास जस रथ बाइहि । अस कर्मन रनि बहुंत सराइहि ॥ 
दरसिहु अजहँबल बिक्रम मोरे । दरसत तीन रनि तिनका तोरें ॥ 
आकाश में  रथ और घोड़े ने जिस प्रकार घूर्णन किया, संग्राम में श्रेष्ठ योद्धा  ऐसे कर्म की अतुष्य प्रशंसा करते हैं | अब तुम मेरे बल और विक्रम का दर्शन करो इन्हें देखकर वीर युद्ध तृण तोड़ते हैं ( ऐसी कला पर कहीं किसी की कुदृष्टि न पड़े  ) 

तदनन्तर चित्रांग कर गहै भयंकर बान । 
जोग सरासन सिरोपर जोजत  गुन  कान ॥ 
तदनन्तर चित्रांग ने एक भयंकर बाण लिया और सरासन में उसका संधान  कर मूठ को अपने सर से ऊपर कर प्रत्यंचा को अपने कानों से सटाया  |   

शनिवार, १४ फरवरी,२०१५                                                                                             

बाँधे किरन बान निज पासा । पुष्कल रथ लिए फिरै अगासा ॥ 
बाहिनी बाहि सारथि सागै । बिहग के भाँति चिकरन लागै ॥ 
किरणों से बाण व् किरण के पाश से आबद्ध रथ को पुष्कल आकाश में ले गए, वहां वह किसी पक्षी की भांति सारथी और घोड़ों सहित घूर्णन करने लगा | 

देखि तनुज कर कौसल भारी । सुबाहु चकित चित्कृत पुकारी  ॥ 
जो पुष्कल दमनए बहु बीरा । केहि  भाँति भयऊ भू थीरा ॥ 
अपने पुत्र के इस परम कौशल पर दृष्टपात कर सुबाहु ने चकित हुवे कहा --'अद्भुद !' अनेकानेक शत्रुवीरों का दमन करने वाले पुष्कल फिर किसी भांति भूमि पर आकर स्थिर हुवे | 

रहि चित्रांग स्यंदनारोहि । रहेउ संगत सूत कर जोहि ।। 
बरे रन बीथि जुते सत बाहि ।  जासु अंग अंग सुबरन दाहि ॥ 
  सप्ताश्व से संयोजित रथ पर आरोहित होकर चित्रांग रथ-वीथिका पर उपस्थित था किरणों को साधे  सारथी उनके साथ था उस रथ के अंग-अंग में स्वर्णमयी आभा से दमक रहा था | 

चाप तान एकु बान प्रचंडा । कियौ सयंदन जब खन खंडा ॥ 
तब चित्रांग दूसर रथ रोहि  । पुष्कल सायक नासेउ सोहि ॥ 
पुष्कल ने धनुष वितान कर एक प्रचंड से उस स्यंदन को जब खंड-खंड कर दिया तब चित्रांग दूसरे रथ पर आरूढ़ हो गया पुष्कल के सायकों ने उसे भी नष्ट कर दिया | 

एहि बिधि रन भुइ रनत रिपु,बरेउ  दस रथ षंड । 
पुष्कल के तीख बान मुख, गनि किए दस दस खंड ॥  
इस प्रकार रणभूमि में संघर्ष करते हुवे शत्रु ने कुल दस रथों का वरण किया, पुष्कल की  तीक्ष्ण बाण- शिखाओं ने गिन -गिन कर उन दासों रथों के दस-दस खंड कर डाले | 

रविवार, १५ फरवरी, २०१५                                                                                            

 आए चित्रांग रन बहु रंगे ।  एकु अति  बिचित्र स्यंदन संगे ॥ 
लोहित मुख लोचन भरि रोषा । पंच भल्लक करे कर कोषा ॥ 
तब चित्रांग रण हेतु अत्योत्साहित होते हुवे एक अत्यंत विचित्र रथ के साथ आए | हस्तकोश में वह पांच भालों को लिए हुवे था उसके नेत्रों में क्रोध और मुख मंडल पर उसकी लालिमा व्याप्त थी | 

मह तेजसी भरत के लाला । लखत करे लख तिलकित भाला ॥ 
सकल भाल मुठ एक करताला । रहैं जासु मुख दंस कराला ॥ 
फिर भरत के महातेजस्वी लाल का लक्ष्य उसके तिलकित मस्तक पर दृष्टि स्थिर की और उन सभी विकराल दंष्ट्रा भालों को एक ही करतल में लिए - 

चलत चपल किए प्रखर प्रहारा । ले पल पुष्कल चोटिल कारा ॥ 
भए चोटिल त बिकट चिनगारी । लगे नयन पट बरे अँगारी ॥ 
चपलता पूर्वक परिचालन करते हुवे एक तीक्ष्ण प्रहार किया और क्षणमात्र में पुष्कल को चोटिल कर दिया | चोटिल हो जाने पर  अग्नि के विकट पतंग लोचन-पट से जा लगे और जैसे उनमें ज्वाला सी जलने लगी | 

 दवानल सरि भयउ  भयकारी ।  दहन रिपुहु पुनि भभक पचारी || 
पुष्कल अनल बान संधाने । ठान हतन रिपु उर पर ताने ॥ 
वह क्रोध ज्वाला जब दावानल के समान और भयंकर हो गई तब  शत्रु को दहन करने के लिए भभकते हुवे पुष्कल ने  ललकार लगाते हुवे अग्नि बाण का संधान कर शत्रु को मार गिराने की प्रतिज्ञा करते हुवे उसे उसके ह्रदय की ओर ताना  | 

रोष अँगारी  जौह,  नयन तापस भवन करे । 
 रसन किवारी सोंह, बदन तपत कंचन करे ॥  
रोष की अंगारों ने मानो पुष्कल के नेत्रों को जब तप्त भवन में परिणित कर दिया  तब द्वार पट से  उठती  लपटों ने उनके मुख मंडल  को कुंदन  कर दिया | 






 


















































































































  






1 comment:

  1. सार्थक प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (03-01-2015) को "नया साल कुछ नये सवाल" (चर्चा-1847) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    नव वर्ष-2015 आपके जीवन में
    ढेर सारी खुशियों के लेकर आये
    इसी कामना के साथ...
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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