Friday 16 October 2015

----- ।। उत्तर-काण्ड ४२ ।। -----

शुक्रवार, १७ अक्तूबर, २०१५                                                                   

सीस चरन धर कर धरि काना । दहत दहत महि गिरे बिहाना ॥ 
तेहि अवसर समर मुख पीठा । हा हा हेति पुकारत दीठा ॥ 
सिरोपर चरण व् कानों में हाथ धरे दग्ध होते अंत में राजकुमार पृथ्वी पर गिर पड़ा | उस समय युद्ध का मुखपृष्ठ हाहाकार करते हुवे रक्षा की गुहार लगाने लगा | 

राज कुँअर मुख मुरुछा छाईं । दरसत ताहि बीर मनि राई ॥ 
दहन गरभ गह आँगन आवा । गहन गरज पुष्कल पुर धावा ॥ 
राजकुमार के मुख पर मूर्च्छा छा गई | राजकुमार को मूर्छित  देखकर क्रोध में भरे राजा वीरमणि  रणांगण आए और घोर गर्जना करते हुवे पुष्कल की ओर दौड़े | 

करिउ चित्कार अतिउ घन घोरा ।  गुँजहि बल्लिका चारिहुँ  ओरा ॥ 
इहाँ कपिबर बीर हनुमाना । देखत प्रबिसत  सिंधु समाना ॥ 
कटक माँझि धरि रूप कराला ।बीर मनि जस भयऊ ब्याला ॥ 
जोरि जोग निज बिनहि बिचारे । झपट डपट भट धरि धरि मारे ॥ 
वह गंभीर चीत्कार कर रहे थे उनकी चीत्कार पृथ्वी के चारों ओर  प्रतिध्वनित होने लगी |  इधर कपिश्रेष्ठ वीर हनुमंत यह देखकर सिंधु के समान विशाल सेना के मध्यभाग में विकराल रूप धारण कर प्रविष्ट हुवे | (उन्हें देखकर) वीरमणि जैसे हिंसक जंतु हो गए थे समकक्ष प्रतिद्वंदी का विचार किए बिना वह सरपट भागते हुवे सैनिकों पर झपट पड़े और उनका वध करने लगे | 

बज्राघात करि  बीर कचारे। पाहि पाहि सब पाहि पुकारे ॥ 
पुष्कल संकट घेरे घिराए । अचिर प्रभ गति सम अचिरम धाए ॥ 
वज्राघात कर वह वीरों को पटकने लगे | चोटिल होते सभी योद्धा त्राहि त्राहि पुकार उठे | भरत कुमार पुष्कल संकट के घेरे से घिरा देखकर वह विद्युत् की सी गति से तत्काल ही उस ओर दौड़ पड़े | 

धावत आवत द्युति गति जब निज कोत बिलोकि । 
धीर बँधावत एहि कहत पुष्कल हनुमत रोकि ॥ 
हनुमंत को अपनी ओर द्रुतगति से दौड़ते हुवे आते देखकर पुष्कल ने उनका धैर्य बंधाते  हुवे यह कहकर उन्हें स्तंभित कर दिया कि : - 

निर्बल बिकल मोहि न बुझावा । महाकपि कहु केहि कर धावा ॥ 
तृनु तुल तुहीन यह कटकाई । कहु त अहहीं केत रे भाई ॥ 
'मुझे व्याकुल व् निर्बल न जानिये महाकपि ! आप क्यों दौड़े आ रहे हैं | राजा वीरमणि की यह सेना तृण के तुल्य अत्यंत ही तुच्छ है  भ्राता ! कहिए तो ? यह है ही कितनी ?'

रथि कछु रथ कछु गज कछु घोड़े । जानिहु मैं गनि महुँ बहु थोड़े ॥ 
असुर सैन सरि  सिंधु अपारा । राम कृपा जस करिहहि  पारा ॥ 
यत्किंचित रथी-रथ व् कतिपय हस्ती व् अश्व को संख्या में मैं अत्यल्प समझता हूँ | असुरों की सेना के अपार जलधि को आपने श्री रामचंद्र जी की कृपा से पार कर लिया था | 

सोइ भाँति हे पवन कुमारा । संकट ते पइहौं मैं पारा ॥ 
नाउ अधर हरिदै छबि धरके । रघुबरन्हि मन सुमिरन करके ॥ 
उसी प्रकार हे पवन कुमार ! में भी इस महा संकट के पार हो जाऊँगा | अधरों में रघुवीर जी का नाम हृदय में उनकी छवि और मन में उनका स्मरण करके 

दसा असहाए होत सहाईं  । राम नाम दुःख सिंधु सुखाईं ॥ 
संकट हरन राम कर नाऊ । ताहि तनिक संदेह न काऊ ॥ 
मेरी यह असहाय दशा भी सहाय हो जाएगी | राम नाम से दुखों का सिंधु अवशोषित हो जाता है राम नाम संकट का हर्ता है इसमें किंचित भी संदेह नहीं है | 

एहि हेतु महबीर तुम्ह रन भू बहुरत जाहु । 
तोर पीठ मैं आइहौं जयत बीर मनि नाहु ॥ 
इस हेतु हे महावीर ! आप इस रणभूमि से लौट जाइये | वीरमणि पर विजय प्राप्त कर में आपके पीछे आ रहा हूँ | 

सोमवार, १९ अक्तूबर, २०१५                                                                                

कुँअरु बचन श्रवनत हनुमाना । कहत ए बचन भयउ अकुलाना ॥ 
तात बयरु कीजो ताही सों । बुधि बल सकिअ जीति जाही सों ॥ 
भरत कुमार के वचन श्रवण कर वीर हनुमंत यह कहते हुवे व्याकुल हो उठे कि हे तात ! बैर भी उसी से करना चाहिए जिसे बुद्धिव् बल पर जीता जा सके | 

कहाँ बाल दिनकर के खेला । कहाँ तपत हेलिक कर हेला ॥ 
महा दातार यह जनपालक । बिरध बयस यह अरु तुम बालक ॥ 
कहाँ बाल दिनकर की क्रीड़ाएं कहाँ तेजस तप्तातृ सूर्य की क्रियाएं | यह जनपालन महादातार व् अनुभवी वृद्ध हैं और तुम अबोध बालक हो | 

प्रनत पाल नय विद जस होई । रन भू महुँ अस कुसल न कोई ॥ 
महा प्रताप सील बलबाना । धीर धुरंधर नीति बिधाना ॥ 
यह जैसे प्रजापालक व् नीति में कुशल और विद्वान हैं वैसा इस रणभूमि में कोई भी नहीं है | यह महाप्रतापी शील व बल के धाम है यह धीर, धुरंधर और नीति-नियमों के आचार्य हैं | 

सस्त्र घात में परम प्रबेका । तासों हारिहि बीर अनेका ॥ 
सिव संकर तिनके रखबारे । यह बत जानपनी तुम्हारे ॥ 
शस्त्राघात में यह प्रेमप्रवीण हैं इनसे अनेकों वीर परास्त हुवे हैं | यह सूचना तुम्हारे संज्ञान योग्य है कि भगवान शिव-शंकर जिनके रक्षक हैं | 

भगतिहि  केर वसीभूत रहैं सदा संकास । 
तासु  नगर गिरिजा सहित करिहहिं नंद निवास ॥ 
इनकी भक्ति के वशीभूत वह सदैव इनके सन्निकट रहते हैं और इनके नगर में गिरिजा सहित सानंद निवास करते हैं 

 मंगलवार, २० अक्तूबर २०१५                                                                                 

तोर कही कपिबर मैं माना । करे भगति अस भूप सयाना ॥ 
कि भयउ बसीभूत सिउ संकर । किए अस्थापित ताहि निज नगर ॥ 
हे कपिवर ! आपके वचन मुझे सर्वथा मान्य हैं, इस बुद्धिवंत नरेश ने ऐसी भक्ति की कि भगवान शिव-शंकर को वश में करके उन्हें अपने नगर में स्थापित कर दिया |   

जासु चरन  स्वयम भगवाना । पूजित पाए परम अस्थाना ॥ 
बसे मम हिय सोइ रघुराई । छाँड़ मोहि अरु कतहु न जाईं ॥ 
जिनकी चरणवंदना करके स्वयं भगवान शंकर भी परम प्राप्त हुवे वह श्रीराम चंद्र जी मेरे ह्रदय में निवास करते हैं वह मेरा परिहरण कर कहीं नहीं जाते | 

भगत बछर रघुबर जहँ अहहीं । सकल चराचर जग तहँ रहहीं ॥ 
हारिहि अवसि जुझत जनपाला । होइहि मोर कंठ जयमाला ॥ 
हे भक्तवत्सल जहाँ श्री रघुवीर  हैं वहीँ समस्त चराचर जगत है | इस हेतु महाराज वीर मणि मुझसे अवश्य ही पराजित होंगे और विजयमाल मेरे कंठ में ही सुशोभित होगी | 

धरे धीर हनुमत  अस कहेउ । होइ सो जो तासु मन चहेउ ॥ 
हित अहित पुनि हरिदै बिचारी । फेरिहि चरन करत मन भारी ॥ 
वीर हनुमंत ने धैर्यधारण कर पुष्कल से कहा जो तुम्हारा मन अभिलाषा करेगा वही होगा, फिर हिताहित का विचार करते हुवे वह भारी मन से लौट गए | 

बीर मनि  कर लघु भ्रात, बीर सिंह रहि नामु । 
बहुरि तासु जुझावन पुनि चले बुद्धि बल धामु ॥ 
फिर बुद्धि वबाल के धाम  वीरसिंह नामक वीरमणि के लघुभ्राता से भिड़ंत हेतु प्रस्थित हुवे | 

बुधवार, २१ अक्तूबर, २०१५                                                                                         

दुइरथ रन मैं बहु कुसलाता । सुमिरत पुष्कल मन जनत्राता ॥ 
हिरन मई रथ रसन सँभारत ।भूपत सम्मुख चले पचारत ॥ 
पुष्कल द्वैरथ-युद्ध में अत्यंत कुशल थे मन में जगत रक्षक का नाम स्मरण कर उन्होंने हिरण्यमयी रथ की रश्मियाँ संयत की और ललकारते हुवे वह देवपुर के राजा के समक्ष चले | 

आवत देखि बीर मनि ताहीं । जान जुबक अस कहत बुझाहीं ॥ 
अजहुँ कोप प्रचंड भए मोरा । जुद्ध करत होवत अति घोरा ॥ 
वीरमणि ने जब उनका आगमन देखा तो उनको युवा जानकर उनका इस भांति प्रबोधन किया | इस मेरा क्रोध प्रचंड है युद्ध करते समय यह और भी विकराल हो सकता है | 

मैं अँगार तुम होहु पतंगा  । भोरहु ते भिरहु न मम संगा ॥ 
चाहु न मरन प्रान जो चाहू । मम सों रन बिनु बहुरत जाहू ॥ 
मैं अंगार हूँ और तुम पतंग के सदृश्य हो तुम मेरा सामना नहीं कर पाओगे इस हेतु भूल से भी मुझने न टकराना | यदि प्राणों की अभिलाषा है मृत्यु की नहीं  तो मुझसे युद्ध किये बिना ही लौट जाओ | 

बीर मनि ऐसेउ कहि पायो । पुष्कल तत छन उत्तरु दायो ॥ 
जो राउर रनोन्मुख होहू । समर बिमुख सुनु सोहि न मोहू ॥ 
वीरमणि के इस प्रबोधन पर पुष्कल ने तत्क्षण उत्तर दिया: - 'राजन ! यदि आप संग्रामोन्मुख हैं तो मुझे भी संग्राम विमुखता शोभा नहीं देती | 

सुभट सोइ जो प्रान न लोभा । बीरगति बीरन्हि के सोभा ॥ 
पुनि रघुबर भगता जौ होईं । ता सों जीत सकै नहि कोई ॥ 
वीर योद्धा वही है जिसे प्राणों की लालसा न हो | वीरों की शोभा वीरगति प्राप्त करने में ही है | फिर जो रघुबर का भक्त हो उसे कोई परास्त नहीं कर सकता | 

को राउ हो कि चहे किन सुरपत पद अधिकारि । 
लरत प्रभु कर काज करत परिहि भगताहि भारि ॥ 
वह राजा हो अथवा इंद्र के पद का अधिकारी क्यों न हो , श्रीरामचद्र जी के कार्य संपन्न करते उनके भक्त ही शत्रु पर भारी पड़ेंगे | 

बुधवार, ०४ नवम्बर २०१५                                                                                     

भरत सुत जब ऐसेउ भासा । निपट बालक समझ नृप हाँसा ॥ 
बदन हास छन माहि बिलोपा । अगन सरूप प्रगस भए कोपा ॥ 
भरत नंदन ने जब ऐसा कहा तब उसे नितांत बालक बोधकर राजा वीर मणि विहास करने लगे | वह हास क्षण में ही विलुप्त हो गई और मुख पर अनल सदृश्य क्रोध प्रकट हुवा | 

भूपत केर कुपित जब जान्यो । बीर कुअँरु धनु धरी तान्यो ॥ 
समरोन्मत्त रसन सहारा । उरस बीस तिख बान उतारा  ॥ 
भूपति को क्रोधित संज्ञान कर समारोन्मत्त वीर कुमार ने  धनुष तानकर प्रत्यंचा कर्षि और वीरमणि के ह्रदय का लक्ष्य कर बीस बाण उतार दिए | 

भूप बान बाढ़त जब लाखा । गहकर सर सरि सूल सलाखा ॥ 
छाँड़त मन भा क्रोध प्रचंडा । बाढ़त बान भयउ बहु खंडा ॥ 
भूपति ने जब बाणों को बढ़ते देखा तो शूल के समान सायक लिए और प्रचंडा कोप करते हुवे उन सायकों का  प्रहार किया परिणामतस सम्मुख बढ़ते बाण खंड-खंड हो गए | 

देखि बान नृप काटि निबेरे । बीर बिनासक रिपु दल केरे ॥ 
पुष्कल हरिदय भा बहु  क्रोधा । गर्जेउ प्रबल काल सम जोधा ॥ 
पुष्कल ने जब देखा कि उनके बाणों का निवारण हो गया तब शत्रु दाल के वीरों विनाशक पुष्कल का ह्रदय में बहुंत क्रोध हुवा, तब उस योद्धा ने काल के सरिस गर्जना की | 

बहुरि धनुरुधर हाथ तान त्रइ सायक कस्यो । 
सीध बाँध पुनि माथ  भूपत हतत बिकल भयो ॥ 
तदनन्तर उस धनुर्धारी ने हस्तगत धनुष को तान उसपर तीन सायकों का संधान किया और  भूपति के मस्तक का लक्ष्य किया  भूपति उन बाणों चोट से व्यथित हो गए | 

बृहस्पति/ शुक्र  , ०५/०६ नवम्बर, २०१५                                                                                                                                              
करत अघात बान करि घावा । बहुरि प्रचंड कोप उर छावा ॥ 
तानेउ चाप रसन सहारा  । छन महु नृप नव बान उतारा ॥ 
बाणों ने आघात कर घाव कर दिया तब भूपति प्रचंड कोप करते हुवे धनुष उठाया और प्रत्यंचा साधकर क्षण में ही नौ बाणों का प्रहार कर दिया | 

लगत बान बिदरित भई छाँति । गिरत परत सँभरेउ केहि भाँति ॥ 
छूटत चरे रक्त की धारा । करे कोप अति भरत कुमारा ॥ 
बाणों के लगते ही पुष्कल का हृदयभवन विदीर्ण हो गया गिरते-पड़ते वह किसी भाँती संभले | रक्त-धारा स्त्रावित हो चली तब भरतकुमार अपरम्पार क्रोध किया | 

करधर धनु पुनि खरतर मूँहा । गहि गुन  सर सत केर समूहा ॥ 
चलेउ तुर जस काल ब्याला । भयउ हताहत नृप तत्काला ॥ 
फिर धनुष उठाया और प्रत्यंचा पर तीक्ष्ण पर्व वाले बाणों के सप्त समूह का संधान किया | वह बाण ऐसे चले जैसे साक्षात विकराल महाकाल हों, राजा तत्काल ही घायल हो गए | 

कियो उरस अस तीख प्रहारा । बीर बिभूषन देइ उतारा ॥ 
देहाबरन महि माहि गिराए । बिभंजित रथ बिनु चरनहि धाए ॥   
उन बाणों ने हृदय पर ऐसा तीक्ष्ण प्रहार किया कि राजा  सभी राजाभूषण से रहित कर दिए |  कवच कुण्डल भूमि पर गिर पड़ा विभंजित रथ अब चरण विहीन होकर दौड़ने लगा  | 

निरखत नृप चढ़त  नव स्यंदन  । रहेउ अचल भरत के नंदन ।।  
बहुरि बीर मनि सम्मुख  आना । प्रीति पूरित ए बचन बखाना ॥ 
यह देख राजा नवीन स्यंदन पर आरोहित हो गए इधर भरत नंदन रणभूमि में अडिग थे वह  उनके सम्मुख आए और प्रेमपूरित यह वचन बोले : - 

रघुबर चरन  सरोज सम अरु तुम मधुकर रूप ।
वाकी छबि राकेस  सरिस अरु तुम कुमुद सरूप ॥
रघुवर के चरण कमल के सरिस हैं और तुम उसके मधुकर स्वरूप हो, उनकी छवि चंद्र सी है और तुम कौमुद के समरूप हो | 

मधुकर कौमुद इब अनुरागी । भए अजहुँ मम कोप  कर भागी ॥ 
सबहि बिधि सों कुसल भूपाला । गहि गुन अगनित बान कराला ॥ 
जैसे चन्द्रमा व् कमल के  समान रामचन्द्रजी पर मधुकर व् कौमुद के समान  अनुराग करने वाले तुम अब मेरे कोप के भागी बनो | सब भांति से कुशल फिर राजा वीरमणि ने प्रत्यंचा पर  असंख्य बाणों को संधान कर -

पुनि पुष्कल पुर करक निहारा । सीध बाँध करि तीख प्रहारा ॥ 
काल गहन घन मेघ समाना । लागेउ बृष्टि करै बहु बाना ॥ 
उनका पुष्कल की ओर लक्ष्य करके तत्पश्चात कठोर दृष्टि से उनका निरिक्षण करते हुवे  तीक्ष्ण प्रहार किया | काले घनघोर मेघों के समान वह बाण अत्यधिक वर्षा कर वृष्टि करने लगे | 

दसहुँ दिसा रहेउ नभ छाईं । अबरु  न कछु अरु देइ दिखाईं ॥ 
बज्र निपातत बारहीं बारा । घुर्मि घुर्मि करि धूनि अपारा ॥ 
 वह नभ में  व्याप्त हो गए दासों दिशाओं में उनके अतिरिक्त और कुछ दर्शित नहीं हो रहा था | वह व्रजनिपात करते हुवे घुमड़ घुमड़ कर वारंवार घोर गर्जना कर रहे थे | 

परइ सिलीमुख सहुँ अस चमकहिं । सबहि कतहुँ जस दामिनि दमकहिं ॥ 
निज सेन संहार जब लाखा । लोहिताखि लाखत प्रतिपाखा ॥ 
प्रहार करते बाणों का फल ऐसे उद्भाषित हो रहा था जैसे  सभी ओर बिजली चमक रही हो | पुष्कल ने जब अपनी सेना का संहार देखकर  शत्रुपक्ष कोलाल भभूके लोचन से विलोकते -

धुरबह धुरीन पुष्कलहु कोटिसायुध निपात । 

रिपु पर धावा बोलि के करे घात पर घात ॥ 
रथियों में अग्रगण्य पुष्कल ने भी बहुंत प्रकार अस्त्रों प्रक्षेपण किया  उन अस्त्रों ने शत्रु पर धावा बोल दिया और आघात पर आघात करने लगे  रविवार, ०७ नवम्बर, २०१५                                                                           

सयन मगन बन केसरि जागा । धरि धरि भट संहारन लागा ॥ 
कहँरत घाउ धरत प्रतिपाखा । जहँ लग देखि बिनासहि लाखा ॥ 
मानो शयन मग्न सिंह जागृत हो गया हो उन्होंने शत्रु पक्ष के योद्धाओं का संहार करना प्रारम्भ कर दिया | रणभूमि में जहाँ तक देखो वहां विनाश ही दिखाई दे रहा था, आघात से आहत होता प्रतिपक्ष पीड़ा से तड़पने लगा | 

छायौ रन रव अस चहुँओरा । गर्जहिं जिमि घन घोर कठोरा ॥ 
बिदरित भए जब माथ अपारा । बिहुर बिहुर गिरि गजमनि धारा ॥ 
चारों ओर युद्ध की तर्जना इस भांति व्याप्त हो गई जैसे वह घनघोर घटाओं की कर्कश गर्जना हो | जब गजों के मस्तक विदीर्ण होने लगे तब उस पर धारित मुक्ता भी गिरकर रणभूमि पर बिखरते चले गए | 

कटक केरि भय गयउ परायो । निर्भिक तब  मुख संख पुरायो ॥ 
लखत बीर मनि  भर अति क्रोधा । छुभित जियँ अस कहत संबोधा ॥ 
सेना भयमुक्त  होती चली गई पुष्कल ने तब  निर्भीकता से शंखनाद किया और लक्ष्य कर वीरमणि अत्यंत क्रोध से आपूर्त हो गए | फिर उन्होंने क्षोभ से भरे ये वचन कहे : - 

भूपति तुम बिरधा बय धर के । होइहउ जोग मानादर के  ॥ 
तथापि समर माहि एहि  अवसर । परम बिक्रम मम लखिहु बीरबर ॥ 
'राजन! आप वृद्ध हैं इस हेतु मेरे मानादर के योग्य हैं | तथापि हे वीरवार! इस समय  संग्राम में मेरे असीमित पराक्रम के दर्शन कीजिए | 

जो महपापी जग परितापी सुरसरि तट आन परे । 
भव तारिनि कर अघहारिनि कर निंदारत दोष धरे ॥ 
सीस घमन भर करए अनादर रहेउ बिनहि अवगहे । 
तीनि सिली सों मुरुछा न देउँ त तासु लहनि मोहि लहे ॥ 
यदि मैने इस त्रिसायक से आपको मूर्छित न कर दिया तो जो महापापी  हैं और संसार को संताप देने वाले हैं वह गंगाजी के तट पर जाकर भी इस संसार का उद्धार करने वाली पापनाशिनी की निंदा कर उस पर दूषण का दोष आरोपित करते हैं और अहंकार के वशीभूत उसका अनादर  करते हुवे उसके जल का अवगाहन नहीं करते तब उनका पाप मुझे लगे   | 

लखि बिसाल हरिदय भवन अतिसय ऊँच किवारि । 
लच्छ धरत पुष्कल बहुरि भूपत देइ हँकारि ॥     
तदनन्तर पुष्कल ने राजा वीरमणि के विशाल ह्रदय भवन के महाद्वार का लक्ष्य कर उन्हें ललकारा | 

शुक्रवार, १३ नवंबर, २०१५                                                                                     

खैंचत रसन करन लग ताना । छाँड़ेसि पुनि अगन सम बाना ॥ 
पाए पवन अरु भयउ प्रचंडा । भूपत तत्पर किए दुइ खंडा ॥ 
और प्रत्यञ्चा खैंचकर उसे कानों तक ले गए ततपश्चात अग्नि के सदृश्य तेजस्वी बाण छोड़ा  | वायु की संगती प्राप्त कर वह प्रचंड हो गया किंतु भूपति ने उस अखंड बाण को तत्परता से द्विखंड में परिणित कर दिया | 

सकल मंडल उजारत आयो  ॥ प्रथम खंड महि महँ पतितायो || 
दूज पतित नृप स्यंदनोपर । देखि दसा सर निरखत कातर ॥ 
प्रथम खंड समस्त भूमण्डल को प्रकाशित करता भूमि पर आ गिरा | दूसरा खंड राजा के स्यंदन पर आ गिरा, राजा उस बाण को कातर दृष्टि दर्शने लगे | 

निज जननी भगति जनित सुभफल । दूज प्रद्ल प्रदत्त कृत पुष्कल ॥ 
अवनत लोचन माथ लगायो । आतुर धनु सों छूटत धायो ॥ 
पुष्कल ने द्वितीय बाण को अपनी मातृभक्ति जनित पुण्य अर्पित किया और  दृष्टि अवनत कर उसे मस्तक से स्पर्श किया वह बाण धनुष त्याग कर शीघ्रतापूर्वक दौड़ा 

इहाँ बीर मनि केर चलाई । काटिहि  बिसिख बिसिख सन जाई ॥ 
भयऊ छोभ पुष्कल मन माहि । लगा बिचारन करन का चाहि ॥ 
इधर वीरमणि के द्वारा के चलाए विशिख ने उस विशिख का भी निवारण कर दिया | पुष्कल के मन में भारी क्षोभ हुवा वह विचार करने लगा अब कौन सी युक्ति करनी चाहिए | 

बिचार मगन मन सुमिरै मंगलमय एकु नाम । 
असुर निकंदन जय जय जय रघुपति राजा राम ॥
विचारमग्न मन ने एक मंगलमय नाम का स्मरण किया हे असुर निकंदन रघुकुल के स्वामी श्रीराम चंद्र आपकी जय हो | 

शनिवार, १४ नवम्बर, २०१५                                                                                    

जुद्धकला मैं बर बिद्बाना । छाँड़ि कोप करि  तीसर बाना ॥ 
फुँकारत अस चला मतबारा । चलि जस काल सर्प बिष धारा ॥ 
फिर युद्धकला में श्रेष्ठ विद्वान पुष्कल ने कोप करते हुवे तीसरा बाण छोड़ा | कह मदोन्मत्त बाण फुंफकारता हुवा ऐसे चला मानो कालसर्प के विशधारा चल रही हो |  

धावहिं द्रुत अस बदनु पसारा । सकल भूमि जस होंहि अहारा ॥ 
गतवत मनिमय माथ चकासा ।  कासित भए जस सूर प्रकासा ॥ 
 द्रुत गति से दौड़ते हुवे फिर उसने अपना मुख ऐसे प्रसारित किया जैसे समूची भूमि ही उसका आहार हो | उसका गतिमान मणिमय मस्तक सूर्य की प्रकाश दीप्ती के जैसे दैदीप्यमान  हो रहा था | 

खैंचत गगन अगन अवरेखा । भूपत काल बरन करि लेखा ॥ 
धँसत उर दंस  अस घात  कियो । घरी मह अरि मुरुछित करि दियो ॥ 
गगन में अग्नि रेख आरेखित करते राजा वीरमणि के कालाक्षरों को उल्लेखित करते हुवे उस बाण ने हृदय भेद कर दन्त से ऐसा आघात किया कि क्षणमात्र में ही उसने शत्रु को मूर्छित कर दिया | 

सैन  नाथ जब मुरुछित पाईं । पाहि पाहि कह भयउ पराईं ॥ 
गहि सर उर जब महि परि आवा ।  दूर दूर धूरि धूरि छावा ॥ 
सेनापति को मूर्छित देख सेना त्राहि त्राहि कर भाग चली |  हृदय में सायक धारण किए वीरमणि धराशायी हो गए और दूर दूर तक धूल ही धूल आच्छादित हो गई | 

छबि हृदय अनुराग नयन, मुखधर रामहि राम । 
बल हीन पुष्कल बलि सों जीत लियो संग्राम ॥  
इस प्रकार हृदय में श्रीराम की छवि नेत्रों में अनुराग एवं मुखपर उनका नाम का आधार कर  निर्बल पुष्कल ने  बलशाली पर संग्राम में विजय प्राप्त की | 

रविवार, १५ नवम्बर, २०१५                                                                                  

कहत सेष पुनि  हे मुनिराई । हनुमत बीर सिंह पहि जाईं ॥ 
बोले निज पुठबार डिठाइब । अहौ बीरबर कहु कहँ जाइब ॥ 
शेषजी कहते हैं हे मुनिराज ! तदनन्तर हनुमानजी वीर सिंह के पास गए और बोले अपनी पीठ दिखलाकर अहो  वीरवार ! कहो तुम कहाँ जाते हो ? 

मरन दरस  रन भूमि बिसारिहु । मोरे कर छन महु तुम हारिहु ॥ 
लखि बड़बोलापन कपि केरा । बीर सिंह रिस नयन तरेरा ॥ 
मृत्यु का साक्षात्कार कर रणभूमि त्याग कर रहे हो ? सुनो ! मेरे द्वारा तुम क्षण में परास्त हो जाओगे | वानर  का बड़बोलापन देख वीरसिंह रूष्ट होते हुवे वक्रदृष्टि की और : -

कोपत चाप गहत परचारा । घन निभ गहन धुनी टंकारा ॥ 
करषत गुन  किन्ही सर बारी । करिअ धनब जिमि धारासारी ॥ 
धनुष धारण कर उसपर  मेघ के समान गंभीर ध्वनि से टंकार करते हुवे हनुमंत जी को क्रोधपूर्वक ललकारा  | कर्षित होती प्रत्यंचा धारावृष्टि करते आकाश के समान बाणवर्षा करने लगी | 

धार धार भा महि अस सोही । बरखत जस पावस मन मोही  ॥ 
बान  बून्द जब लगिहि सरीरा ।  भा अति क्रुद्ध महाबल बीरा ॥ 
धारा-धारा हुई भूमि ऐसे सुशोभित हो रही थी जैसे धारावाहिक वृष्टि करती मनोहर पावस ऋतू सुशोभित होती है  | बाणों की बुँदे जब शरीरों पर पड़ने लगी महाबली वीर हनुमान अत्यंत क्रुद्ध हो गए | 

बजर घोष कर बजर सम हनुमत मूठि तरेर । 
बीरसिंह केरी छाँति मारे देइ दरेर ॥ 
कड़कती बिजली के से शब्द करते हुवे वज्र सरिस हनुमान  जी ने मुष्टिका वक्र की और उसे वीरसिंह की ह्रदय में दे मारा | 

सोमवार, १६ नवम्बर, २०१५                                                                                     

परा भूमि गह घोर प्रहारा । परा साल जिमि चरन उपारा ॥ 
छाए गहन मुरुछा मुख वाके । दरस दुर्दसा निज पितिआ के ॥ 
इस तीव्र प्रहार से वह ऐसे धराशायी हुवा जैसे जड़ों से उखड कर साल वृक्ष धराशायी होता है | उसके मुखमण्डल पर गंभीर मूर्छा व्याप्त हो गई | अपने पितृव्य (चाचा) की दुर्दशा देख : - 

आतुर सुभाङ्गद तहँ आयो । जागत मुरुछा गै भूरायो ॥ 
रुकुमाङ्गद केहु चित चेता । आनइ धमक गयउ रन खेता ॥ 
शुभांगद शीघ्रतापूर्वक वहां आया  | मूर्च्छा के विगत होते ही जागृत रुक्मांगद का चित्त जब सचेत हुवा तब वह भी वेग से रणक्षेत्र में आ पहुंचा | 

भिरत भयंकर पुनि दुहु भाई । परचारत  हनुमत पहि आईं ॥ 
समर पराइ डिठाइब पीठी  । दोउ बीर आगत पुनि डीठी ॥ 
दोनों भाई हनुमानजी को ललकारते उनके पास आए और फिर उन्होंने भयंकर घमासान किया | रणभूमि से पलायन कर दृष्टपृष्ठ हुवे उन दोनो वीरों का पुनश्च आगमन देख  : - 

धनुरथ सहित दोउ पुठबारे । लपटि  लँगूर पटकि महि डारे ॥ 
खात बेगि आघात कराला । भयउ दुनहु मुरुछित तत्काला ॥ 
धनुष व् रथ सहित दोनों को पृष्ठ भाग पर अपनी पुच्छ से लपेट कर तीव्रतापूर्वक उन्हें भूमि पर गिरा दिया | इस कठोर आघात से हताहत दोनों ही अतिशीघ्र मुरुछा को प्राप्त हो गए | 

सुमद के सोंह बलमित्रहु  निज निज जोरी जान । 

लरत भरत बहु समउ गत हतचित भयउ बिहान ॥ 
अपना योग्य प्रतिद्वंद्वी अनुमान कर इसी प्रकार बलमित्र ने सुमद के संगत युद्ध किया और बहुंत समय तक लड़ते- भिड़ते  अंतत: वह भी मूर्छित हो गया | 

मंगलवार, १७ नवम्बर, २०१५                                                                          

ससि शेखर सर सुरसरि धारे । भगतन के जो सोक निवारे ॥ 
निज परिजन  मुरुछित जब जानिहि । सो भगवन आपहि रन आनिहि ॥ 
जो भक्तों के शोकनिवारक हैं वह शशि शेखर गंगाधर भगवान शंकर जी अपने शुभेक्षु को जब मूर्छित जाना तब वह स्वयं ही रणभूमि में आए | 

इत सत्रुघन के कटक बिसाला । प्रतिरोधन तिन उत महकाला ॥ 
बिपदा गहि भगतन कर राखा । और कोउ रन  हेतु न लाखा ॥ 
इधर शत्रुध्न की विशाल सेना थी उनके प्रतिरोधन हेतु उधर स्वयं महाकाल थे |  विपदाग्रस्त भक्तों की रक्षा हेतु उन्हें और कोई योद्धा योग्य प्रतीत न हुवा | 

पुरबल काल त्रिपुर के संगा । जुझे जेहि बिधि जासु प्रसंगा ॥ 
तासु संगत तेहि बिधि तहवाँ । रामानुज रहि रनरत जहवाँ ॥ 
पूर्व में त्रिपुर के संगत उन्होंने  जिस विधि विधान के साथ युद्ध किया था वही विधि वहां इनके साथ भी प्रयुक्त की जहाँ रामानुज शत्रुध्न युद्ध में संलग्न थे | 
निज परिचारक किए पुनि  संगी | प्रमथ गन सहित अर्द्धांगी |  समर सजाउल साजि महेसू  । धरनिहि तल हहरात प्रबेसू  ॥ 

फिर प्रमथ-गणों सहित अपने पार्षदों को सहचर किए फिर सभी संग्राम सामाग्रियों से सुसज्जित हो अर्द्धांगी भगवान महेश भूतल को कम्पित करते हुवे रणभूमि में प्रविष्ट हुवे |

महाबली सत्रुहन जब लाखी । कि सरबदेउ सिरोमनि साखी ॥ 
भगत बिबस हित अहित बिसारे । जुझन आपहीं आन पधारे ॥ 

महाबली शत्रुध्न ने जब देखा कि समस्त देवताओं के शिरोमणि भगवान शंकर उनके सम्मुख हैं,और वह भक्तों के वशीभूतत हिताहित को विस्मृत किए युद्ध हेतु स्वयं पधारे हैं | 

समर बीर जगाई पुनि सब रन साज सजाए । 
चन्द्रधर महेसर संग समरन सम्मुख आए ॥ 
तब संग्राम वीरों को सचेत करते हुवे सभी रण सामग्रियां सुसज्जित किए  युद्ध करने हेतु चंद्रधर महेश्वर के समक्ष उपस्थित हुवे | 

बुध/बृहस्पति , १८/१९  नवम्बर, २०१५                                                                             

लखि सत्रुहन कहुँ सैन सँभारा । सकल जुझावनि साज सँवारे ॥ 
बैनघनकर बरन  करि बारी । बीर भद्रन्हि  कहि त्रिपुरारी ॥ 
शत्रुघ्न का सैन्य संघटन का संप्रेक्षण कर उन्होंने भी सभी युद्धोचित सामाग्रियों से सज्जित होकर वाणी की ऋतू से शब्दों की वर्षा करते हुवे वीरभद्र से कहा : -- '

ए मोर भगत हेतु दुखदाई  | ताहि संग तुम करौ लराई ॥ 
बल माहि हनुमत एकजस पाए । नन्दीहि तासों भिरन पठाए ॥ 
ये मेरे भक्तों के लिए दुखकर हो चले हैं इनके साथ तुम युद्ध करो ' बलशीलता में हनुमंत को समान प्रतिद्वंदी अनुमानकर उनके साथ संघर्ष हेतु नंदी को भेजा | 

कहेब दए आयसु सब काहू । भँगी तुअ सुबाहु पहि जाहू ॥ 
गयउ कुसध्वज पाहि प्रचंडा । समर बाँकुर सुमद पहि चंडा ॥ 
सभी को युद्धादेश देकर शंकरजी ने भंगी से कहा : - 'तुम सबाहु के पास जाओ | 'शिव जी के आदेशानुसार तदनन्तर कुशध्वज के पास प्रचंड व् संग्रामवीर सुमद के पास चण्ड  नामक गण युद्ध करने गए  | 

रुद्रगन मैं बल बीर बिसेखा । बीर भद्रहि सहुँ आगत देखा ॥ 
पुष्कल कर मन रन अति रंगा ।चला दीप सहुँ जरन पतंगा ॥ 
रुद्रगणों में विशेष बलवीर वीरभद्र को सम्मुख आते देख पुष्कल का मनमानस रण हेतु अत्यंत उत्साहित हो गया इस प्रकारदीपक के सम्मुख जलने हेतु पतंगा चल पड़ा | 

तासु  कर पै पञ्च प्रदल उरि जस गगन बिहंग । 
चोंच भरि अरि करि घायल बिभंजत सबहि अंग ॥ 
उसके हाथ से पांच बाण छूटकर गगन में ऐसे उड़े जैसे वह कोई विहंग हों और अपने शीर्ष रूपी चोंच में भरकर शत्रु के सभी अंग विभंजित करके  उसे घायल कर दिया 





  


















1 comment:

  1. दीप पर्व की सादर शुभ कामनाएं

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