Wednesday 9 December 2015

----- ।। उत्तर-काण्ड ४४ ।। -----

सोमवार ०७ दिसंबर,२०१५ 

बहुरि जानकी रमन के हेता । लए औषध आइहिं रन खेता ॥ 
औषध सहित गयउ जब आवा । निरखत हनुमत सब सुख पावा ॥ 
फिर जानकी रमण श्रीराम के शुभेक्षु औषधि लिए रणक्षेत्र में आए | हनुमान जी औषधि सहित लौ आए यह दर्शकर सभी सुखी हो गए | 

भेंट तासु रिपु हो कि मिताईं । साधु साधु कह करिहिं बड़ाईं ॥ 
कपि गण महुँ अद्भुद कपि मानिहि । बली महुँ महबली पद दानिहि ॥ 
मित्र हो अथवा शत्रु उनसे भेंट कर साधु साधु कहते हुवे सभी उनकी प्रसंशा करने लगे | कपिगणों में उन्हें अद्भुत कपि मान और बाहुबलियों में महाबली पद प्रदान किया | 

महामना माहि महातिमही । बुला मंत्रिबर सुमति सों  कहीं ॥ 
जो निर्जिउ जिय देइ जियाइहिं । करिहौं अब मैं सोइ उपाइहिं ॥ 
फिर हनुमंत ने महामनाओं में महातिमहा मंत्रीवर सुमंत को बुलाकर बोले : - ' जो नीर्जिवो को प्राण देकर उन्हें जीवंत कर दे अब मैं वह उपाय करूंगा | 

लए भुजदल पुष्कल पुठबारे । पुनि हरिहर उर औषध धारे ॥ 
धर ते बिहुन तासु सिर लीन्हि । जुगत मन जुत जुगावत दीन्हि ॥ 
तदनन्तर पुष्कल के पृष्ठप्रदेश को भुजाओं में धारणकर उनके वक्षस्थल पर धीमे से वह औषधि रख दी व् धड़ से विहीन उनका शीश लिया और सावधानी पूर्वक युग्मित कर उसे धड़ से संयुक्त कर दिया | 

जुगे जोहि धर सोहि सिरु, पुष्कल देह सँभारि । 
द्रवत हरिदय हँकारि के कथे कथन हित कारि ॥ 
शीश ज्यों ही धड़ से संयोजित हुवा तब पुष्कल की देह को संयत कर द्रवित ह्रदय से पुकारते हुवे यह हितकारी कथन कहने लगे : - 

जो मन क्रम बचन ते मम होइ राम गोसाइँ | 
 तुरै ए सजीवन औषधि पुष्कल देइ जिआइँ || 
यदि मन क्रम वचन से रघुवीर मेरे स्वामी हैं तो यह प्राणदायिनी औषधि पुष्कल को तत्काल जीवित कर दे | 

बुधवार, ०९ दिसंबर, २०१५                                                                                   

एहि निगदन मुख निकसिहि जोहीं । बीर सिरोमनि पुष्कल तोहीँ ॥ 
जीअत उठि बैठे हरषाईं । भेंटत सकल हरष उर लाईं ॥ 
ज्यों ही मुख से यह उक्ति निष्कासितत्यों ही वीरों के शिरोमणि पुष्कल जीवित होकर उठ बैठे और अत्यंत हुवे हर्षित फिर सभी से भेंट कर उन्हें सहर्ष ह्रदय से लगा लिया | 

कटकटात पुनि दन्त रिसायो । सहज सरूप समर भुइँ आयो ॥ 
बजे पुनि घन घोर रन डंका । पचारि चला बयरु सो बंका ॥ 
वह रोष करते हुवे दांत कटकटाने लगे फिर सहज स्वरूप में संग्राम भूमि आए | पुनश्च घनघोर रण डंका बज उठा फिर वह वीर अपने वैरियों को ललकारते हुवे चला 

गयउ कहाँ सो राम बिद्रोही । आजु ताहि हठि मारिहुँ ओही ॥ 
कहँ सर धनु कहँ मोर निषंगा । बोलत  अस फरकिहिं अंगंगा ॥ 
 रामजी के वह विद्रोही कहाँ गए आज मैं उनका निश्चित ही वध कर दूंगा | मेरे धनुष-बाण कहाँ है मेरा निषंग कहाँ है ऐसा कहते पुष्कल के अंग-अंग फड़क उठे | 

तानि कान लग कटु कोदंडा । संधान रसन बान प्रचंडा ॥ 
दरसत ऐसेउ कपिबर ताहि । कहेउ कोमलि आन तिन पाहि ॥ 
रसना में प्रचंड बाण का संधान कर फिर उन्होंने अपने कठिन कोदंड को श्रुतिसाधन तक तन्य किया | उन्हें ऐसा दर्शकर कपिवर उनके निकट आकर कोमलता से बोले : - 

बीर भद्र मारेसि तोहि, तुम जीवन्मृत होहु । 
रघुबर चरन प्रसादु सों पुनि नव जीवन जोहु ॥ 
वीरभद्र ने तुम्हे हताहत किया तुम्हारे जीवन का अंत हो गया था | रघुवर के चरण-प्रसाद से तुम्हें नवजीवन प्राप्त हुवा है | 

शुक्रवार, ११  दिसंबर, २०१५                                                                                 

रामानुजहू मुरुछित होंही । जिअन सजीवन जोहत ओहीं ॥ 
लागेउ सिउ संभु के बाना । पीर परत भए साँसत प्राना ॥ 
रामानुज शत्रुध्न भी मूर्छित  होंगे वह भी जीवन हेतु संजीवनी की प्रतीक्षा कर रहे हैं | शिवशंभु का के बाण के प्रहार से पीड़ित हो उनके प्राण भी साँसत में हैं | 

परेउ होइ हताहत जहँवाँ  । अस कह दोनउ गयऊ तहँवाँ ॥ 
साँसत साँस बहोरत आने । तब हनुमत औषध उर दाने ॥ 
ऐसा कहकर वह दोनों वहां गए जहाँ शत्रुध्न हताहत हुवे भूमि पर धराशायी थे | हनुमत ने उनके ह्रदय पर औषधि का आधान कर उनके अवरुद्ध होती सांस को संयमित कर कहा : -

परेउ मुरुछि कहत रे भाई । मही माहि कादर के नाईं ॥ 
तुम बिक्रमी तुम मह बलबाना । नहि को बीर तुहरे समाना ॥ 
हे भाई ! तुम भीरुओं की भांति भूमि में मूर्छित पड़े हो ? तुम तो पराक्रमी व् महाबलवान हो तुम्हारे समकक्ष कोई वीर नहीं है | 

जो मैं जतनसील जनिकाला । अहउँ बम्हचर के परिपाला ॥ 
त सत्रुहन उठि बैठु छन माही । न तरु ब्रम्ह चरनिहि मैं नाही ॥ 
यदि मै जन्मकाल से  ब्रम्हचर्य सचेष्ट पालनकर्ता हूँ तो शत्रुध्न कहलन में ही स्वस्थ हो जाएं अन्यथा में ब्रम्हचारी नहीं हूँ | 

देइ पलक पट डीठ दुआरे । जिअत सत्रुहन ए  बचन उचारे ॥ 
दृष्टि द्वार पर पलक पट दिए शत्रुध्न जिवंत होकर फिर यह वचन कहने लगे : - 

सिउ कहँ संकर कहँ संभु, गयऊ कहँ रन छाँड़ि । 
 कहत अस रिस दहत नयन लपट बदन पर बाढ़ि ॥ 
शिव कहाँ हैं ? शम्भू कहाँ हैं ? संग्राम त्यागकर वह कहाँ चले गए ऐसा कहते उनके नेत्र क्रोधवश दग्ध हो उठे और उसकी शिखाएं मुखमण्डल पर प्रस्तारित हो चली | 

संग्राम सूर बीर बहुतेरे । पिनाका धारिहि मारि निबेरे ॥ 
महत्मन मह बीर हनुमंता । जतनत सबन्हि किए जीवंता ॥ 
पिनाकधारी भगवान शंकर ने संग्राम में बहुतक शूरवीरों का संहार कर दिया था महात्मा महावीर हनुमान जी  यातना करते हुवे सभी को जीवित कर दिया | 

तब सबहि गाताबरन सोंही  ।  साजत निज निज रथ अबरोहीँ ॥ 
रोष पूरनित हरिदे संगे । करेउ धुनि घन सब रन रंगे ॥ 
तब सभी कवचकुंडल आदि से सुसज्जित होकर  अपने अपने रथों पर आरूढ़ हो गए | और रोष आपूरित ह्रदय से रण हेतु उत्साहित हो घोर गर्जना करने लगे | 

बजे भेरि पुनि धनबन भेदी । चले रिपुपुर चढ़े रन बेदी ॥ 
बीरमनि सुभटन्हि सों घेरे । चले आपहिं अबहिं के फेरे ॥ 
रण भेरी पुनश्च गगन भेदी ध्वनि से निहनादित हो उठी वह सब रण वेदी पर आरोहित हो शत्रु की ओर निर्गत हुवे  | इस बार शूरवीरों से घिरे वीरमणि युद्ध हेतु स्वयं अग्रसर हुवे | 

भिरन जैसेउ सम्मुख होंही । देखि ताहि सत्रुहन अति कोहीं ॥ 
तापर आग्नेस्त्र चलाईं । तासों सकल कटक दवनाईं ॥ 
युद्ध हेतु वह जैसे ही सम्मुख हुवे उन्हें देखकर शत्रुध्न अत्यंत क्रोधित हो गए और उनपर आग्नेयास्त्र का प्रयोग किया इस आक्रमण से समूची सेना दग्ध होने लगी | 

अरि अरि दवारि समतूल दहत धुरोपर छाए । 

लपट चहुँ दिसि चपेटन्हि प्रचंड रूप धराए ॥  
प्रतिपक्ष का प्रत्येक शत्रु दावाग्नि के समतुल्य दाहित कराती वह अग्नि शीर्ष पर व्याप्त होने लगी उसकी शिखाओं ने फिर प्रचंड रूप धारण कर चारों दिशाओं को अपनी चपेट में ले लिया | 

शनिवार, १२ दिसंबर, २०१५                                                                        

देखि महायुध के दहनाई । सीवा रहित  कोप किए राई ॥ 
जरत बदन ज्वाल कन जागे । प्रत्यरथ बरुनास्त्र त्यागे ॥ 
इस महायुद्ध का दहन दर्शकर राजा को असीम कोप किया | कोप में जलाते राजा के मुख से चिंगारियां  विकरित होने लगी प्रतिकार में उन्होंने वरुणास्त्र प्रयोग किया  | 

मरम भेदि प्रहार के ताईं । सीतारत अनीक अकुलाईं ॥ 
कंपत  जब आरत अति गाढ़े । सत्रुहन तापर बायब छाँड़े ॥ 
इस मर्मभेदी प्रहार द्वारा शीत से पीड़ित होकर  सेना व्याकुल हो गई कंपकपाते हुवे जब उनकी पीड़ा बढ़ने लगी तब शत्रुध्न ने उसके निवारण हेतु वायव्यास्त्र छोड़ा | 

चले बेगि बहु बात कराली । बिभंजत घन भई बाताली ॥ 
घोराकार घटा घन काला । धार धार जिमि बदन ब्याला ॥ 
इससे वायु तीव्रतापूर्वक प्रसारित होने लगी और विकराल आंधी का रूप धारण कर उसने मेघ समूहों को विभंजित कर दिया |  काली घनघोर घटाएं घोराकृति वाली थी और धाराओं की मुखाकृति हिंसक जंतु की सी थी 

होइ जोहि बाताल अधीना । चहुँ दिसि छतबत भई बिलीना ॥ 
जोइ सैन रहि सीत दुखारी । बीतत दुःख पुनि होइ  सुखारी ॥ 
जैसे ही वह उस आंधी की वशीभूत हुई वह चीन-भिन्न होकर चारों दिशाओं में विलीन हो गई | जो सेना शीत के प्रकोप से पीड़ित थी अब उनकी पीड़ा विगत हो गई वह पुनश्च सुखानुभूत करने लगी | 

बीर मनि निज अनीक दिखि जब पीर गहाहि  । 
निबारक रिपु संहारक पर्बतास्त्र चलाहि ॥ 
वीर मणि ने जब अपनी सेना को पीड़ित देखा तब उन्होंने उस वायव्यास्त्र के निवारण हेतु शत्रु-संहारक पर्वतास्त्र का प्रयोग किया | 

रविवार, १३ दिसंबर, २०१५                                                                                     

बाताली परिहरै न कोपा । लेइ केतु करि चहुँदिसि रोपा ॥ 
परा समुख परबत गतिरोधा । बिहनए भए पूरन प्रतिसोधा ॥ 
आंधी कोप का त्याग ही नहीं कर रही थी वातकेतु लेकर उसने उसे चारों ओर आरोपित कर दिया | जब सम्मुख पर्वत का गतिरोध उत्पन्न हुवा तब अंत में उसका प्रतिशोध पूर्ण हो गया | 

प्रसर बिनु जब चरन पयाने । त सत्रुहन बज्रास्त्र संधाने ॥ 
मारि चोट अघात किए घोरा । बिनसिहि उपरुध उपल कठोरा ॥
प्रसारण न होने पर उसके चरण पलायन कर गए तो शत्रुध्न ने वज्रास्त्र का संधान किया फिर घोर आघात कर  गंभीर चोट देते हुवे कठोर उपल को घेरकर विनष्ट कर दिया | 

बहोरि सिल पट रहे न कोई । तिल तिल कर सब कन कन होईं । 
रिपुदल बीर बिदारन लागिहि । अंग अंग सुरंग में पागिहि ॥ 
तत्पश्चात उस पर्वत में कोई भी शिलापट न रहा तिल-तिल करके वह सब चूर्ण हो गए  | फिर वह अस्त्र शत्रुदल के वीरों को विदीर्ण करने लगा उनके अंग अंग लाल रक्त में अनुरक्त हो रहे थे | 

रिसत रुधिरु तन सोहहिं ऐसे । सुबरन संग सुभग के जैसे ॥ 
दरसि दिरिस यह बिसमय कारी । देख न हारे देखनहारी ॥ 
 द्रवीभूत होता रुधिर देह पर ऐसे शोभित हो रहा था जैसे स्वर्ण के संग  सुहागा सुशोभित होता है | यह विस्मयकृत दृश्य दर्शकर दर्शकगण एकटक रह गए | 

बहोरि होत रिसान, रहइ न सीवाँ कोप कर । 
ब्रम्हास्त्र संधान बीर मनि कसै कोदंड ॥ 
फिर तो रुष्ट होते वीरमणि के क्रोध की सीमा न रही उन्होंने कोदंड कर्षित कर ब्रह्मास्त्र का संधान किया | 

सोमवार, १४ दिसंबर, २०१५                                                                                


ब्रम्हास्त्र बहु अचरजकारी । जहँ जा लागिहि तहँ रिपु जारीं ॥ 
सोए बीरमनि सन रन रंगा । चढ़ेउ रसना छाँड़ निषंगा ॥ 
यह ब्रह्मास्त्र अत्यंत विस्मयकारी था जहाँ का लक्ष्य करता वहां शत्रु को दग्ध कर देता | वीरमणि शयनित युद्धोत्साह जागृत हो गया वह अस्त्र  निषंग त्याग कर प्रत्यंचा पर आरोहित हो गया | 

तासों छूट चला रिपु ओरा । छुटत  टँकारिहि गुन घन घोरा ॥ 
 तब लग सत्रुहन कर सोहा । तुरत आन आयुध मन मोहा ॥ 
और जैसे ही मुक्त हुवा वह शत्रु की ओर बढ़ चला उसके मुक्त होते ही प्रत्यंचा ने घोर टंकार किया | तब तक शत्रुध्न के हस्त में तत्काल मोहनास्त्र धारित हुवा | 
  बिद्युत गति सम धाए प्रचंडा । बम्हास्त्र छन किए दुइ खंडा ॥ 
राउन्हि उर घन अघात करे । मुरुछित बिकल धरनि खसि परे ॥ 
उसने विद्युत् की सी गति दौड़कर उस प्रचंड ब्रह्मास्त्र के दो खंड कर दिए और राजा के वक्षस्थल पर गहरा आघात किया वह विचलित हो कर  मूर्छित अवस्था में पृथ्वी पर गिर पड़े | 

क्रोध अगन  लोचन न समायो । रोहित रथ सिउ नृप पहि आयो ॥ 
सत्रुहन औचकहि तेहि औसर । चढ़ा प्रत्यंचा  कसे धनु सर ॥ 
लोचन में क्रोधाग्नि समा नहीं रही थी शिवजी रथारूढ़ होकर राजा वीरमणि के निकट आए | उस समय  शत्रुध्न सहसा ही धनुष कर्षकर प्रत्यंचा चढ़ाई | 

आयउ बढ़ि त्रै लोचन आगे । करि गहन रन जुझावन लागे ॥ 
एक पाली रिपुहन एक संकर । भयउ बीच संग्राम भयंकर ॥ 
और त्रिलोचन के सम्मुख बढे चले आए फिर वह उनके साथ युद्ध कर घनघोर  संघर्ष करने लगे | एक पाले में शत्रुध्न तो दूसरे में भगवान शंकर, दोनों के मध्य भयंकर संग्राम होने लगा | 

चलेउ सस्त्रास्त्र बिकट, आयुध बहुंत प्रकार । 
परे चमक चिङ्गारि कन सबहि दिसा उजियार ॥ 
फिर चिंगारियों से चमकते हुवे सभी दिशाएँ उद्दीप्त करते  नाना भांति के आयुध व् विकराल शस्त्रास्त्र प्रक्षेपित होने लगे | 

बुध/बृहस्पति , १६/१७  दिसंबर, २०१५                                                                             

लरत भिरत त्रै लोचनसंगा । भए सत्रुधन्हि सिथिर सब अंगा ॥ 
आकुल हिअ अरु जिअ नहि जोहीं । तब हनुमत उपदेसन सोही ॥ 
त्रिलोचन के संग लड़ते-भिड़ते शत्रुध्न के सभी अंग शिथिल हो गए | व्याकुल ह्रदय और देह प्राण संयोजित नहीं हो रही थी तब हनुमंत के उपदेश से उन्होंने : - 

सुमिरै मन ही मन गोसाईं । आरत नाद कहत रे भाई ॥ 
धरे संभु रन रूप भयंकर । लेहि प्रान हाँ गहे धनुषकर ॥ 
मन ही मन अपने स्वामी श्रीराम चंद्र जी का स्मरण किया व् आर्तनाद से बोले हा नाथ ! हां  शम्भु ने इस संग्राम में भयंकर रूप धारण कर लिया है धनुष ग्रहण किए अवश्य ही वे मेरे प्राण ले लेंगे | 

टीस  देन जिअ लेन उतारू । पाहि पाहि प्रनतारत हारू ॥ 
राम राम जो राम पुकारे । भए भव पारग सो दुखियारे ॥ 
ये पीड़ा देने व् प्राण लेने हेतु उतारू हैं हे शरणागत के पीड़ा को हरण करने ! वाले मेरी रक्षा करो | जो कोई राम राम कहके आपका आह्वान करता है वह दुःखार्त इस भव सिंधु से पारगम्य हो जाते  है | 

कहि गए साधक सिद्ध सुजाना । दीन दयाकर कृपानि धाना ॥ 
मिटे दोष सब मोर हिया के । दुराइहौ दुःख एहु दुखिया के ॥ 
ऐसा साधक सिद्ध व विद्वान कह गए हैं | हे दीनदयाकर ! हे कृपानिधान ! मेरे ह्रदय के दोष समाप्त हो जाएं इस दुखित के दुःख भी दूर कीजिए  सत्रुहन निगदित ए गदन जोहीं । प्रगसिहिं सम्मुख रघुबर तोहीं ॥ 
दरस प्रभो निज पीर बिजोगे । करे अस्तुति सत्रुहन कर जोगे ॥ 
शत्रुध्न ने ज्योंही उक्त उक्ति कही उनके सम्मुख श्रीरामजी प्रकट हो गए | प्रभु को साक्षात दर्शकर वह अपनी पीड़ा विमुक्त हो गए और हस्त आबद्ध कर उनकी स्तुति करने लगे : - 

कुण्डलाय शिरो कुंतलम् । लसितम्  ललित ललाटूलम् ॥
नयनाभिराम नलीन सम । श्रीराम श्याम सुन्दरम् ॥
जिनके शीश पर कुंडलित केश हैं जो उनके सुन्दर ललाट पर  सुशोभित हो रहे हैं | नलीन के समान वह श्रीरामश्याम सुन्दर नेत्रों को प्रिय हैं | 

परम धाम ज्योतिः परो । सर्वार्थ सर्वेश्वरम् ॥

सर्वकाम्योनंत लील:। प्रद्युम्नो जगद्मोहनम् ॥
सर्वोत्तम वैकुण्ठधाम निर्गुण परमात्मा हैं  सूर्यादि को भी प्रकाशित करने वाला जिनका सर्वोत्कृष्ट ज्योर्तिमय स्वरूप है महाबली कामदेव के समान अपने अलौकिक लावण्य  से सम्पूर्ण विश्व को मोहने वाले | 

कंदर्प कोटि लावण्यम । तीर्थ कोटि समाह्वयं ॥

शम्भुकोटि महेश्वराय । कोटीन्दु जगदानन्दम् ॥
करोड़ों कामदेवों के समान मनोहर कांतिवाले, करोड़ों तीर्थों के समान पवित्रनाम वाले, करोड़ों शंकर के समान महा ऐश्वर्य शाली, करोड़ों चंद्रमाओं की भांति जगत को आनन्दित करने वाले | 

सर्वदेवैकदेवता : । जगन्नाथो जगदपिता: ॥

नित्य श्री : श्री निकेतनम् । नित्यवक्ष स्थलस्थ श्रीधरं ॥
समस्त देवताओं के एकमात्र आराध्य देव जगत के स्वामी , सम्पूर्ण जगत के जन्मदाता, नित्य स्थिर रहने वाली भगवती लक्ष्मी की शोभा से युक्त व् लक्ष्मी के ह्रदय में निवास करने वाले, जिनके वक्षस्थल में लक्ष्मी सदा निवास करती है ऐसे भगवान विष्णु | 


हृषिकेशाय हंसो क्षरो । पीयुषोत्पत्ति कारणम् ॥ 

स्मृतसर्वाघविनाशन: । तीर्थमयी जनार्दन: ॥ 
समस्त इन्द्रियों के स्वामी , हंसरूप धारण कर संतों को उपदेश देनेवाले अक्षय परमात्मा, क्षीरसागर से  अमृत की उत्पत्ति के कारणभूत, समस्त पापों के नाशक, तीर्थस्वरूप जनार्दन | 

श्रीरामो भद्र शास्वता । विश्वामित्रप्रियो दांता ॥ 
खरध्वंसी कौशलेयम्   । वेदांतपारात्मनम् ॥ 
शास्वत व् कल्याणमय ईश्वर,  विश्वामित्रजी के प्रिय, जितेन्द्रिय,  हे खर नामक राक्षश का विध्वंश करने वाले कौशल्या पुत्र ! हे वेदान्त से भी अतीत् आत्म स्वरूप् ईश्वर ! 

जामदग्न्य दर्प: दलनम्   । कामद् कोदंड खण्डनम् ॥ 
सत्यवाच्य विक्रमो व्रते । श्रीमान जानकी: पते ॥ 
परशुरामजी के महान अभिमान काचूर्ण करने वाले ! शिवजी के धनुष का विखंडन करने वाले, सत्यवादी, सत्य पराक्रमी, श्रीमान जानकी पति !

दासरथि सद्गुणार्णव: । रविवंश रामो राघव: ॥ 
पित्राज्ञा त्यक्त राज्य : । कंदरार्पितैश्वर्य: ॥ 
अयोध्या के चक्रवर्ती नरेश महाराज दशरथ के प्राणाधिक प्रिय पुत्र, सूर्यवंशी योगीजन के रमन हेतु नित्यानन्दस्वरूप रघुकुल में जन्म ग्रहण करने वाले भगवान श्रीराम !  पिता की आज्ञा से समस्त भू मंडल के साम्राज्य  कात्याग करने वाले 

चित्रकूटाप्त रत्नादृ: । श्यामाङ्ग सुन्दरो शूर: ॥  
पीताम्बरी धनुर्धर: । यथेष्टामोद्यास्त्र:॥ 
चित्रकूट को निवासस्थल में परिणित कर उसे रत्नमय पर्वत की महत्ता प्रदान करने वाले ! श्यामविग्रह वाले परम मनोहर शौर्य संपन्न वीर ! पीतवस्त्र व् धनुर धारण करने वाले, जिनके सभी अस्त्र इच्छाचारी व् अमोद्य हैं 

महासार पुण्योदयो । ब्रह्मण्यो मुनिसोत्तम: ॥ 
देवेंद्रनंदनाक्षिहा ।  मारीचध्न : विराधहा ॥ 
 ब्राम्हण व् मुनियों के सर्वोत्तम पुरुष ! देवराज इंद्र के पुत्र जयंत के नेत्र विक्षिप्त करने वाले, मायामय मृग का रूप धारणकरने वाले मारीच के विध्वंशक व् विराध के का वध करने वाले 

 निर्गुणीश्वरादि देवा । ध्वस्तपाताल दानवा ॥ 
दण्डकारण्यपवित्र  कृते ।   हस्ताचल : हनुमत पते ॥ 
 पातालनिवासी दानवों के विनाशक दंडकारण्य अपने निवास से पवित्र करने वाले, करतल में पर्वत को धारण करने वाले हनुमंत के स्वामी ! 

वालि प्रमथन जनार्दन: ।  सुग्रीवस्थिरोराज्यप्रद:॥ 
जटायुषो ग्नि दातार: । धीरोदत्तगुणोत्तर : ॥ 
बालि का प्रमथन करने वाले जनार्दन ! सुग्रीव को स्थिर राज्य प्रदान करने वाले ! जटायु का दाहसंस्कार कर उन्हें उत्तम गति प्रदान करने वाले  सिंहल द्वीप ध्वंशनम् । सुबद्धे सेतु :सागरम्  ॥  
द्वितीय सौमित्रि लक्ष्मण: । प्रहतेन्द्रजिता राघव : ॥ 
 समुद्र में सुन्दर सेतु आबद्ध कर लंका द्वीप का विध्वंश करने वाले 

विराध दुषण त्रिशरो S रि: । दशग्रीव शिरो हर: हरि: ॥ 
पौलत्स्य वंश कृन्तन: । कुम्भकर्ण च रावणिध्न :॥  
विराध, दूषण व त्रिशिरा नामक दैत्यों के शत्रु दशाशीश के मस्तकों का हनन करने वाले हरि | कुम्भकरण सहित रावण का वध कर विश्व हेतु कंटक स्वरूप पौलत्स्य के वंश को समूल नष्ट करने वाले | 

परं ज्योति: परं धाम । पराकाशो परोत्पर : ॥ 
परेशोपारो पारग: । सर्वभूतात्मक: शिवा ॥  
परम प्रकाशमय साकेतधामस्वरूप, त्रिपाद विभूति में स्थित परमव्योम नामक वैकुण्ठधामरूप, इन्द्रिय मन बुद्धि आदि से परे ईश्वर ! सर्वोत्कृष्ट शासक, सबसे परे, भवसागर से पार लगाने वाले सर्वभूतस्वरूप वह कल्याणमय ईश्वर ! 

जाग दीछित पुुरुख भेष गहे हस्त मृग शृंग । 
कमल नयन चरन सरोज सत्रुहन भयऊ भृंग ॥ 
हस्त में मृगश्रृंग लिए यज्ञ दीक्षित पुरुष का वेश धारण किए जिनके नेत्र कमल व् चरण सरोज के समान हैं स्तुति करते हुवे शत्रुध्न ऐसे भगवान विष्णु के भृंग स्वरूप हो गए 

शनिवार, १९ दिसंबर, २०१५                                                                               

हरैं पीर जो प्रनताजन के  । सत्रुहन सो अभिराम नयनके ॥ 
साखिहि समुख जब दरसन पाए । हरिदे के सब दुख्ख दूराए ॥ 
जो शरणागतों की पीड़ा का हरण करते हैं फिर शत्रुध्न ने अपने सम्मुख नेत्रप्रिय उस विष्णु अवतार भगवान श्रीराम के साक्षात दर्शन किए तब शत्रुध्न का  ह्रदय सभी दुखों से मुक्त हो गया  | 

हनुमंतहु  दरसिहि रघुनाथा । गिरे चरन बहु अचरज साथा ॥ 
ते औसर ऐसो हर्षाईं । तृषावन्त  जिमि जल दरसाईं ॥ 
रघुनाथ ने हनुमंत को दर्शन दिए | भगवान के दर्शन प्राप्तकर हनुमंत साश्चर्य उनके चरणों में गिर गए | उस समय वह ऐसे हर्षित हुवे मानो तृष्णावंत को जल के दर्शन हो गए हों | 

जोइ भगत रच्छन हुँत आईं । पुलकित तिन्ह कहे गोसाईं ॥ 
भगतन के सब बिधि कृत पाला । भगवन हेतु जोग सब काला ॥ 
जो भक्तों की रक्षा हेतु आए थे हुनमान जी ने पुलकित होते हुवे उनसे कहा : - ' स्वामी ! भक्तों का  सभी प्रकार से पालन करना आप भगवन हेतु सभी काल में सर्वथा योग्य है | 

धन्य धन्य हम हे रघुनंदन । एहि औसर भए तुहरे दरसन ॥ 
कृपा सिंधु सों कृपा तिहारी । होहि बिजय कर कटक हमारी ॥ 
हे रघुनन्दन! हम धन्य हुवे ! आज इस अवसर पर हमें आपके दर्शन प्राप्त हुवे | हे करपा के सिंधु ! अब आपकी कृपा से हमारी सेना विजित होगी | 

जोगिन्हि ध्यान गोचर रघुबर आगत जानि । 
सिव संकर होइँ अगुसर गहे चरन जुग पानि ॥ 
उस समय योगियों के ध्यानगोचर भगवान शिवशंकर को भगवान श्रीराम के आगमन सूचना प्राप्त हुई तब अग्रसर होकर उन्होंने  उनके चरणों में करबद्ध प्रणाम अर्पित किया |  

करिहि सुवागत करत प्रनामा । बिनयाबत एहि बचन उचारी ॥ 

हे सरनागत के भय हारी । धनुरु धारि बनचर असुरारी ॥ 
और प्रणाम अर्पण करने के पश्चात उनका स्वागत करते वह विनम्रतापूर्वक बोले : - 'हे शरणागतो का भय हरण करने वाले ! दैत्यों के शत्रु ! हे वनचारी धनुर्धर !

पारब्रम्ह प्रकृति के स्वामी । पुरुष रूप तुम अंतरयामी ॥ 
आपनि अंस कलावतारे। सरजत पालत जग संहारे ॥ 
स्वामी ! एकमात्र आप ही अंतर्यामी पुरुष हैं और प्रकृति से परे परब्रह्मा कहलाते हैं | जो अपनी अंश-कला से  विश्व का सृजन, पालन और संहार करते हैं | 

सरजन काल बिधात सरूपा । पालन काल चतुर भुज रूपा ॥ 

प्रलय काल में सर्ब नाउ धर । मोर रूप में भयो साखि हर ॥ 
सृष्टिकाल में विधाता, पालनकाल में चतृर्भुजस्वरूप व् प्रलयकाल में शर्व नाम से विख्यात साक्षात मेरे अर्थात हर के स्वरूप हैं | 

मैं भगत कृतत उपकारा । बाधत तुहरे काज बिगारा ॥ 

दया सील हे दीन दयालू । छिमा मोर अपराध कृपालू  ॥ 
मैंने अपने भक्त का उपकार करने के लिए आपके कार्य में अवरोध उत्पन्न किया | हे दयाशील दीन दयाल ! हे कृपालु ! मेरे इस अपराध को क्षमा करें | 

साँच करन कहि आपनी मो सों एहि कृत होइ । 
भगवन ता संगत अबरु मोए दोष न कोइ ॥ 
अपने कथन को सत्य सिद्ध करने हेतु मुझसे यह कृत हुवा है भगवन ! इसके अतिरिक्त मेरा और कोई दोष नहीं है | 

सोमवार, २१ दिसंबर, २०१५                                                                            

जानतहुँ प्रभो तोर प्रभाउब । रच्छन भगत इहाँ मैं आउब ॥ 
कहे संभु पुनि नत सिरु संगा । पुरब काल भयऊ ए पसंगा ॥ 
प्रभो ! मुझे आपका प्रभाव ज्ञात है यहाँ में भक्तों की रक्षा हेतु आया हूँ संभु ने विनयित शीश से पुनश्च कहा : - 'पूर्वकाल का यह प्रसंग है  --

एकु समऊ सुनु यहु महराई । छपा नदिहि तट आन  न्हाई ॥ 
उज्जेनि महकाल देवाला ।  कीन्हेसि तप कठिन कराला ॥ 
एक समय इस राजा ने क्षिप्रा नदी के तट पर आकर स्नान किया था, उज्जैन नगर में महाकाल -देवालय में इसने अत्यंत कठोर  तपस्या की थी | 

धरनिहि भर के तपो निधानी । निरख तासु तप अचरज मानीं ॥ 
निरखत तपरत नृप तेहि समउ । मोरेउ मन बहु प्रमुदित भयउ ॥ 
समस्त भूमण्डल के तपो-निधान उनके तप को देखकर विस्,विस्मित रह गए  उस समय तपरत नृप को विलोक मेरा मनमानस अत्यंत हर्षित हो उठा | 

बर दायन मम कर बढ़ि आईं ।  बोलेउ ताहि करत बड़ाई ॥ 
तुहरे तप परिपूरन होईं । मँगो भूप मो सों बर कोई ॥ 
वरदायन हेतु मेरे हस्त अग्रसारित हुवे उसकी प्रशंसा करते मैने कहा : -'  तुम्हारी तपस्या परिपूर्ण हो गई | राजन ! मुझसे कोई वर मांगो |
 
सुरपुर के अखंड  राज मँगे भूप बर माहि । 
तासु कथनानुहार के बढे हस्त बर दाहि ॥ 
तब भूपति ने वर में सुरपुर का अखंड राज्य माँगा | उसके कथनों का अनुशरण करके मेरे अग्रसारित हस्त ने उसे फिर वह वर दान दिया | 

मंगलवार, २२ दिसंबर, २०१५                                                                             

तदनन्तर प्रभु मैं कहि पारें । होए देवपुर राज तिहारे ॥ 
अवधेसु के मेधीअ बाहिहिं ।  जब एहि देउ नगरि पुर आहिहि ॥ 
प्रभु ! उसके पश्चात मैने कह दिया कि देवपुर में तुम्हारा राज्य होगा, तुम्हारे नगर की और  जब  अवध नरेश के मेधीय अश्व  का देवनगरी में आगमन होगा,

तुहरे हितहुत तेहि बसबासा | तबलगि मैंहु रहिहौं निबासा ||| 
एहि भाँति बर दान मैं दायउँ । दिया बचन ता संग बँधायउँ ॥ 
तुम्हारे हितों की रक्षा हेतु तब तक में भी उस स्थान में निवासित रहूंगा | ' इस प्रकार में उसे वरदान दिया और उस वरदान में दिए वचन के साथ मैं विबन्धित हो गया | 

आयउ अजहुँ समउ सो भगवन ।  सुजन सुत सहित सो जागि जवन  ॥ 
नृप तव चरन समर्पन करिहि । बंदत भव सिंधु पार उतरहिं॥ 
भगवन ! वह अवसर आ गया कि अब वह राजा अपने  पुत्र व् बंधू-बांधवों सहित उस याज्ञिक यवन को वह नरेश आपके चरणों में समर्पित करेगा और उन चरणों की वंदना कर भवसिंधु से पारगम्य होगा | 

तब सिव सों बोले रघुराई । देवन्हि धरम भगत भलाई ॥ 
एहि औसर जस रखिहउ राई । भले काज भी तुहरे ताईं ॥ 
तब भगवान रघुवीर शिवजी से बोले : - भक्त का कल्याण करना देवताओं का तो धर्म  ही है, इस समय आपने जैसे अपने भक्त राजन का संरक्षण किया यह आपके द्वारा अति उत्तम कार्य हुवा | 

हर के हरिदय होइँ हरि हरि हरिदै हर होइँ । 
हम दुनहु के बीच परस्पर अंतर भेद न कोइ ॥ 
हर के हृदय में हरि निवासित हैं  हरि के ह्रदय में हर निवासित हैं | हम दोनों के  मध्य कोई पारस्परिक अंतर्भेद नहीं है | 

बुधवार, २३ दिसंबर, २०१५                                                                          

को मूरख मलीन मति जाकी । करें भेद मुख दीठ न वाकी ॥ 
धूप किरन जिमि किरनहि धूपा । दरसित हम तिमि एक सम रूपा ॥ 
कोई मूढ़ जिसकी बुद्धि दूषित   है जिनका मुख है न दृष्टि वही हम दोनों में भेद करते हैं | जिस प्रकार धूप ही किरण व् किरण ही धूप है हमारा स्वरूप भी वैसा ही एकसम है | 

हरि हर बीच भेद मति राखा ।  होंहि तासु लोचन बिनु लाखा ॥ 
अहहीं महादेउ जो तोरे । धर्मी पुरुख भगत सो मोरे ॥ 
हरि हर के मध्य जो भेदबुद्धि रखते हैं उनकी दृष्टि गोचर विहीन है | महादेव ! जो धर्मी पुरुष आपके भक्त हैं वह मेरे भी भक्त हैं | 

जैसेउ मोर चरन जुहारें । परत बिनत सो चरन  तिहारे  ॥ 
कहत शेष हे सुबुध सुजाना । रघुबीर बचनन्हि दे काना ॥ 
वे जैसे मेरी चरणवंदना करते हैं आपके चरणों में उनकी वैसी ही अनुरक्ति है | शेशभगवान कहते हैं : - हे बुद्धिमान ! हे विद्वान !रघुवीर के वचनों को श्रवण कर 

परसादि सों सिउ भगवंता । जिअ हीन जिअ करिहिं जीयन्ता ॥ 
बाण पीरित बीर मनि संगा । भयउ सचेत सकल चतुरंगा ॥ 
फिर भगवान शिव ने स्पर्शादि से जीवनांत प्राण को जीवंत कर दिया बाण पीड़ित राजा वीरमणि सहित समूची सेना चैतन्य हो उठी | 

रथारोहि कि पदचर हो हितू कर हो कि हेत ।  

एहि बिधि भूपत सुत सहित सब जन भयउ सचेत ॥  
वह रथ पर आरोहित हो अथवा पदचर  हो अथवा हितार्थी हो अथवा बंधू-बांधव हों इस प्रकार भूपति व् उनके पुत्र सहित सभी सचेष्ट हो गए | 

 शुक्रवार, २५ दिसंबर, २०१५                                                                      


तदनन्तर हे वात्स्यायन । धन्य धन्य सो सुरपुर राजन ॥ 
जोग नीठ कि तपोबल ताईं । केहि भाँति दुर्लभ गोसाईं ॥ 
तदनन्तर हे वात्स्यायन ! वह राजा धन्य धन्य हुवे स्वामी ! यज्ञनिष्ठा अथवा तपोबलादि अन्य किसी भी विधि से दुर्लभ हैं | 

जोगि जन जिन्ह दरस न पावा । तिन्हनि जगजीवन दरसावा ॥ 
दरस समुख भगवन श्री रामा । कुटुम सहित निप करिहि प्रनामा ॥ 
जो योगीगण को भी दर्शनातीत है वह जगजीवन उन्हें दर्शित हुवे | भगवान श्रीराम को के सम्मुख दर्शन प्राप्तकर नृप ने उन्हें कौटुम्ब सहित प्रणाम किया | 

परिहि पदुम चरनन सब कोई । गहे असीर कृतारथ होईं ॥ 
दुर्लभ मानुष  देहि गही के । भयउ सफल जीवन सबहीं के ॥ 
सभी ने उनके पद्मचरणों को स्पर्श किया और आशीर्वाद ग्रहण कर कृत कृत हो गए | मानव की दुर्लभ देह धारण कर सभी का जीवन सफल हो गया | 

सारद सेष ब्रम्हादि सहिता । भयउ देवन्हि केर पूजिता ॥ 
सत्रुहन हनुमन सरिस सुजाना । करिअहि नित जिनके जस गाना ॥ 
शारदा, शेष व् ब्रह्मादि सहित जो देवों के द्वारा पूजित हैं; शत्रुध्न हनुमान जैसे विदूषक जिनका यशोगान करते हैं | 

तेहि रघुबर चरन सिरु नाईं । अरपिहि अस्व बीर मनि राई ॥ 
उन भगवान रघुवीर के चरणों में नतशीश से फिर वीरमणि ने वह मेधीय अश्व समर्पित कर दिया | 

जानि निज भगत अनुकूल, ससिधर कहि अनुहारि । 
समर्पित सकल राज पुनि जोए पानि पग धारि ॥  
अपने भक्त को अनुकूल संज्ञान कर व् शशिधर भगवान शंकर के कथन का अनुशरण करते हुवे अपना सम्पूर्ण राज्य समर्पित कर हाथ जोड़ते हुवे श्रीराम जी के चरण ग्रहण कर लिए | 

सुनु बिप्रबर बहोरि रघुनाथा । हसित बिहर्षित रिपुदल साथा ॥ 
निज सेवक सों वन्दित होहीं । मंजुल मनिमय रथावरोही ॥ 
हे विप्रवर सुनो ! तत्पश्चात  रघुनाथ ने हर्षित शत्रुदल सहित अपने सेवकों से अभिवन्दित होकर विहास करते हुवे अति सुन्दर मणिमय रथ पर आरूढ़ हुवे और 

होत पीठासीत् भगवाना । छन माहि भए अन्तरध्याना ॥ 
जगवन्दित  रामहि जगजीवन । समझिहु न ताहि मनुज सधारन ॥ 
फिर  उसपर पीठासित होते ही भगवान अंर्तध्यान हो गए | विश्ववन्दित राम ही संसार के जीवनदाता हैं मुने ! आप उन्हें साधारण मनुष्य रूप में संज्ञापित न करना | 

जल में थल में अम्बर तल में । भगवन ब्यापित चलाचल में ॥ 
सबके अंत: करन निवासित । श्रीबर रूप सर्वत्र प्रकासित ॥ 
जल में, स्थल में, गगनतल, चल व् अचल  में वह भगवान ही व्याप्त  हैं वह सबके अंत:कारन में निवास करते हैं और श्री के वर स्वरूप वह सर्वत्र प्रकाशित हैं | 

कहेउ बचन सन पन पुराए । संकर संभुहु चरन बहुराए ॥ 
माँगत बिदा चलन जब लागे । कहत कहत ए ठाढ़ भए आगे ॥ 
अपने कहे वचन सहित अपनी  प्रतिज्ञा पूर्ण कर भगवान शंकर भी लौट चले | विदा माँगते हुवे जब वह प्रस्थान करने लगे तब यह कहते-कहते ठिठक गए : -- 

राजन दुर्गम जगत में दुर्लभ बस्तु न कोइ । 
एकु रघुनंदन के सरन सबते दुर्लभ होइ ॥ 
'राजन ! इस दुर्गम जगत में कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं है एक रघुनाथ जी का आश्रय ही सबसे दुर्लभ है | 















































  



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