हाथोँ हाथ सूझै नहि घन अँधियारी रैन |
अनहितु सीँउ भेद बढ़े सोइ रहे सबु सैन || १ ||
भावार्थ : -- जहाँ हाथों हाथ सूझता न हो जहाँ नीति व् नियमों का अभाव के सह अज्ञानता व्याप्त हो | जहाँ शत्रु सीमाओं को भेद कर आगे बढ़ रहे हों जहाँ सेना गहन निद्रा में निमग्न हो वहां जनमानस को चाहिए कि वह सचेत व् सावधान रहे |
रतनधि धर जलधि जागै,जागै नदी पहार |
एक पहराइत जगै नहि ,जागै सबु संसार || २ ||
भावार्थ : - रत्नों की निधियां संजोए जलधि जागृत है नदी जागृत है पहाड़ जागृत है सारा संसार जागृत है केवल एक पहरेदार जागृत नहीं है |
निँद त्याज कर जागरन जन जन पूछ बुझाए |
पितु धन सम्पद जान के परबसिया कर दाए || ३ ||
भावार्थ : - सुषुप्त अवस्था त्याग कर जनमानस भी जागृत हो और सत्ता के लालचियों से प्रश्न करे कि राष्ट्र की भूमि को खंड-खंड कर उपनिवेशियों को दे दी गई क्या इन्होने इस राष्ट्र को अपनी पैतृक सम्पति समझ रखा है |
१९६० ई .के ९ वे संशोधन का कारण पूछे जिसमें देश के टुकड़े कर एक संधि के द्वारा बेरुबारी व् खुलना आदि क्षेत्र पाकिस्तान को दे दिए गए थे |
खंड खंड करि देस जे अखंड राग अलाप |
जागरित जन को चाहिये पूछे तिनके पाप || ४ ||
भावार्थ : -- अखंडता के राग का अलाप करते जिन्होंने इस देश को खंड-खंड किया और करते रहेंगे | जागृत जनमानस को चाहिए वह उनके पाप पूछे |
अधिकार ते सजग होत करतब सोंहि सचेत |
पलछन चिंतन रत रहत करे देस सो हेत || ५ ||
भावार्थ : -- स्वाधिकार के प्रति सजग व् स्व-कर्तव्य के विषय में सचेत रहते हुवे जो आत्मचिंतन से अधिक राष्ट्र के चिंतन में लीन रहता हो उसे अपना राष्ट्र प्रिय होता है,यह जागरूक जनमानस का भी लक्षण है |
तरु बलयित जस बेलरी तासु कोस अवसोस |
बढ़त बढ़ावत आपनी बासत जात पड़ोस || ६ ||
भावार्थ : -- वृक्ष में वलयित बेल वृक्ष के ही पोषण कोष का अवशोषण कर अपनी वृद्धि करती हुई जिस प्रकार पड़ोस में बसती चली जाती है उपनिवेशियों का स्वभाव भी उसी प्रकार का होता है |
देसवाल हो जासोइ पाए धरनि धन धाम |
बैर बँधावत तासोइ चढ़त करे संग्राम || ७ ||
भावार्थ : -जो देश भूमि धन व् सदन से युक्त कर इन्हें देशवाल बनाते हुवे जगत में प्रतिष्ठित करता है, ये उसी देश से वैर बाँधते उसकी सीमाओं का अतिक्रमण करते हुवे नित्य संग्राम के लिए आतुर रहते हैं |
पीर नहीं पर एकै की यह अगजग की पीर |
जेहि तरु तिन पोषि तेहि काटैं धीरहि धीर || ८ ||
भावार्थ : - उपनिवेशियों द्वारा प्रदत्त यह पीड़ा किसी एक राष्ट्र की न होकर उन सभी राष्ट्रों की है जहाँ की ये बसे हुवे हैं ये जिस वृक्ष से परिपुष्ट होते हैं उसी वृक्ष की जड़ें काटने में लगे रहते हैं इनकी अनंतिम परिणीति विभाजन है |
जुग लग सम्राज वाद पुनि उपनिवेसि कर सोस |
भारत की प्रगति दो दिन चली अढ़ाई कोस || ९ ||
भावार्थ : -- इस प्रकार युगों तक साम्राज्यवादी एवं औपनिवेशिक शोषण होने के कारण प्रगति के पथ पर भारत की गति अत्यधिक धीमी हो गई, शोषण के ये कारण इस देश में अब तक व्याप्त हैं | अन्य देशों को इससे बच के रहना चाहिए |
जग माहि एक भगवन की कृपा अकारन होइ |
प्रति कारज न त होत है कारन कोइ न कोइ || १० ||
भावार्थ : - संसार में एक ईश्वर की कृपा ही अकारण होती है अन्यथा प्रत्येक कार्य का कोई न कोई कारण होता है |
साँसत घर की कोठरी संविधान को मान |
बदले घर सो आपुना रचिता केर समान || ११ ||
भावार्थ : - उपनिवेशकों द्वारा शोषण एवं योग्यता की उपेक्षा करने कारण भारत के संविधान को पीड़ादायक कालकोठरी की संज्ञा दी गई और जिस प्रकार इसके रचेयता ने तो धर्म परिवर्तन किया था उसी प्रकार कुछ लोगों ने संविधान ही परिवर्तित कर लिया |
बसा बसेरा बिहुर के निसदिन करत पलान |
देस पराए जा बसे केतक प्रतिभावान || १२ ||
भावार्थ : - अपने बसे बसाए राष्ट्र को छोड़ कर नित्य पलायन करते हुवे फिर कितने ही प्रतिभावान पराए देशों में निवासरत हो गए |
'धर्म को परिवर्तन न कर धर्म में परिवर्तन करो'
'संविधान को परिवर्तन मत करो संविधान में परिवर्तन करो'
पण यह है कि वह परिवर्तन कल्याणकारी हो.....
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (12-08-2017) को "'धान खेत में लहराते" " (चर्चा अंक 2694) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'