भगवन पाहि पहुँचावै दरसावत सद पंथ |
धर्मतस सीख देइ सो जग में पावन ग्रन्थ || १ ||
भावार्थ : - जो ग्रन्थ मनुष्य का मार्गदर्शन करते हुवे उसे ईश्वर के पास पहुंचाता हो | जो ग्रन्थ धर्म का अनुशरण कर मनुष्य को सत्य, दया, दान के सह त्याग व् तपस्या की शिक्षा देता हो वह ग्रन्थ पवित्र होता है.....
जो ग्रन्थ अपना देश, अपनी मातृभूमि छुड़वाता हो वह ग्रन्थ पवित्र नहीं होता.....
अजहुँ के चालि देख पुनि जनमानस कू लेख |
अगहुँ धरम सम होइगा संविधान निरपेख || २ ||
भावार्थ विद्यमान समय की चाल का निरिक्षण व् जनमानस का अवलोकन करके ऐसा प्रतीत होता है कि आगे आगे धर्म के समान संविधान भी निरपेक्ष होने लगेगा |
करत पराई चाकरी करतब तासु अधीन |
होत जात निज देस सो होइब देस बिहीन || ३ ||
भावार्थ : - पराए देशों की चाकरी करते करते उसे अपने अधीन करने वाले, देशवाल होते हुवे भी देश से विहीन हो कर दुत्कारे जाते हैं ||
आन देस अनगढ़ होत रहँ जब नंग धडंग |
रहे सुघड़ एहि देस तब गहे सैन चतुरंग || ४ ||
भावार्थ : - अन्य राष्ट्र असभ्यता को प्राप्त होकर जब अशिक्षित व् नग्नावस्था में थे, तब सभ्यता की परकाष्ठा को स्पर्श करते हुवे यह भारत चतुरंगिणी वाहिनी का धरता हुवा करता था |
धर्म वट धुजा पट धरे रहे सीव के संग |
पथ पथ चरन पखारती तीनी जलधि तरंग || ५ ||
भावार्थ : - धार्मिक एक रूपता की ध्वजा को धारण किये यह देश सीमाओं से चिन्हित था | तीन समुद्रों से उठती तरंगे पथ पथ पर इसके चरणों का प्रक्षालन करती थी |
हिममंडित मौली मुकट हृदय जमुना गंग |
प्रथम किरन करि आलिँगन गगनपरसते श्रृंग || ६ ||
भावार्थ : - जिसका ह्रदय गंगा -यमुना जैसी नदियों के पावन जल रूपी रक्त की वाहिनियों से युक्त है | हिम मंडित हिमालय जिसके मस्तक का मुकुट है | सूर्य की प्रथम किरणों का आलिंगन करती हुई जिसकी गगनचुम्बी शिखाएँ हैं |
बस्ति बस्ति रहेउ बसत नव पाहन जुग सोह |
अबर बसन बिन बास जब रहे सघन बन खोह || ७ ||
भावार्थ : - पाषाण से नवपाषाण युग में प्रवेश करते हुवे वह भारत तब बस्तियों में निवासरत था, जब अन्य देश के निवासी वस्त्र व् आवास से रहित होकर सघन वनों के भीतर गुफाओं में रहा करते थे ||
करष भूमि करषी कर लच्छी बसी निवास |
भाजन सों भोजन करे होत अगन बसबास || ८ ||
भावार्थ : -- भूमि को कर्ष कर जब इस देश ने कृषि का आविष्कार किया और भूमिपर व्याप्त धन रूपी लक्ष्मी घरों में निवास करने लगी तब विश्व अर्थ व्यवस्था से परिचित हुवा | भाजन में भोजन करना विश्व ने इस देश से ही सीखा | इस देश ने ही अग्नि का प्राकट्य किया और उसे घरों में बसाया |
प्रगति के पुनि पथ रचत ताम धातु करि टोह |
अगजग धातु जुगत करे टोहत काँसा लोह || ९ ||
भावार्थ : - तांबा, कांसा लोहादि धातुओं की खोज करके विश्व को धातुमय करते हुवे इस देश ने उस प्रगति पथ की रचना की |
बरन हीन जग रहे जब आखर ते अग्यान |
भूषन भूषित भाष ते लेखे बेद पुरान || १० ||
भावार्थ : - शब्दहीन यह विश्व जब अक्षरों से भी अनभिज्ञ था तब इस देश ने स्वर-व्यंजनों व् अलंकारों द्वारा विभूषित भाषा से वेद पुराण जैसे ग्रन्थ लिखे | औपनिवेषिक शोषण के कारण यह देश अशिक्षित होता चला गया |
हल हथोड़े गढ़त जगत जुगत करे कल यंत्र |
मानस जन कहतब रचे जन संचालन तंत्र || ११ ||
भावार्थ : - जब इस देश ने हल हथौड़े गढ़े तब यह विश्व यन्त्र-संयत्र से युक्त हुवा | समूह में निवासित मानव समुदाय को 'जन' सम्बोधित करते हुवे 'जन संचालन तंत्र' की रचना की | राजतंत्र एवं लोकतंत्र इस देश की ही परिकल्पना थी |
धर्मतस सीख देइ सो जग में पावन ग्रन्थ || १ ||
भावार्थ : - जो ग्रन्थ मनुष्य का मार्गदर्शन करते हुवे उसे ईश्वर के पास पहुंचाता हो | जो ग्रन्थ धर्म का अनुशरण कर मनुष्य को सत्य, दया, दान के सह त्याग व् तपस्या की शिक्षा देता हो वह ग्रन्थ पवित्र होता है.....
जो ग्रन्थ अपना देश, अपनी मातृभूमि छुड़वाता हो वह ग्रन्थ पवित्र नहीं होता.....
अजहुँ के चालि देख पुनि जनमानस कू लेख |
अगहुँ धरम सम होइगा संविधान निरपेख || २ ||
भावार्थ विद्यमान समय की चाल का निरिक्षण व् जनमानस का अवलोकन करके ऐसा प्रतीत होता है कि आगे आगे धर्म के समान संविधान भी निरपेक्ष होने लगेगा |
करत पराई चाकरी करतब तासु अधीन |
होत जात निज देस सो होइब देस बिहीन || ३ ||
भावार्थ : - पराए देशों की चाकरी करते करते उसे अपने अधीन करने वाले, देशवाल होते हुवे भी देश से विहीन हो कर दुत्कारे जाते हैं ||
आन देस अनगढ़ होत रहँ जब नंग धडंग |
रहे सुघड़ एहि देस तब गहे सैन चतुरंग || ४ ||
भावार्थ : - अन्य राष्ट्र असभ्यता को प्राप्त होकर जब अशिक्षित व् नग्नावस्था में थे, तब सभ्यता की परकाष्ठा को स्पर्श करते हुवे यह भारत चतुरंगिणी वाहिनी का धरता हुवा करता था |
धर्म वट धुजा पट धरे रहे सीव के संग |
पथ पथ चरन पखारती तीनी जलधि तरंग || ५ ||
भावार्थ : - धार्मिक एक रूपता की ध्वजा को धारण किये यह देश सीमाओं से चिन्हित था | तीन समुद्रों से उठती तरंगे पथ पथ पर इसके चरणों का प्रक्षालन करती थी |
हिममंडित मौली मुकट हृदय जमुना गंग |
प्रथम किरन करि आलिँगन गगनपरसते श्रृंग || ६ ||
भावार्थ : - जिसका ह्रदय गंगा -यमुना जैसी नदियों के पावन जल रूपी रक्त की वाहिनियों से युक्त है | हिम मंडित हिमालय जिसके मस्तक का मुकुट है | सूर्य की प्रथम किरणों का आलिंगन करती हुई जिसकी गगनचुम्बी शिखाएँ हैं |
बस्ति बस्ति रहेउ बसत नव पाहन जुग सोह |
अबर बसन बिन बास जब रहे सघन बन खोह || ७ ||
भावार्थ : - पाषाण से नवपाषाण युग में प्रवेश करते हुवे वह भारत तब बस्तियों में निवासरत था, जब अन्य देश के निवासी वस्त्र व् आवास से रहित होकर सघन वनों के भीतर गुफाओं में रहा करते थे ||
करष भूमि करषी कर लच्छी बसी निवास |
भाजन सों भोजन करे होत अगन बसबास || ८ ||
भावार्थ : -- भूमि को कर्ष कर जब इस देश ने कृषि का आविष्कार किया और भूमिपर व्याप्त धन रूपी लक्ष्मी घरों में निवास करने लगी तब विश्व अर्थ व्यवस्था से परिचित हुवा | भाजन में भोजन करना विश्व ने इस देश से ही सीखा | इस देश ने ही अग्नि का प्राकट्य किया और उसे घरों में बसाया |
प्रगति के पुनि पथ रचत ताम धातु करि टोह |
अगजग धातु जुगत करे टोहत काँसा लोह || ९ ||
भावार्थ : - तांबा, कांसा लोहादि धातुओं की खोज करके विश्व को धातुमय करते हुवे इस देश ने उस प्रगति पथ की रचना की |
बरन हीन जग रहे जब आखर ते अग्यान |
भूषन भूषित भाष ते लेखे बेद पुरान || १० ||
भावार्थ : - शब्दहीन यह विश्व जब अक्षरों से भी अनभिज्ञ था तब इस देश ने स्वर-व्यंजनों व् अलंकारों द्वारा विभूषित भाषा से वेद पुराण जैसे ग्रन्थ लिखे | औपनिवेषिक शोषण के कारण यह देश अशिक्षित होता चला गया |
हल हथोड़े गढ़त जगत जुगत करे कल यंत्र |
मानस जन कहतब रचे जन संचालन तंत्र || ११ ||
भावार्थ : - जब इस देश ने हल हथौड़े गढ़े तब यह विश्व यन्त्र-संयत्र से युक्त हुवा | समूह में निवासित मानव समुदाय को 'जन' सम्बोधित करते हुवे 'जन संचालन तंत्र' की रचना की | राजतंत्र एवं लोकतंत्र इस देश की ही परिकल्पना थी |
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