अधुनै केरि करतूती भाबि नगन जब होइ |
हाँस करत इतिहास को अनगढ़ कहि सब कोइ || १ ||
भावार्थ : - वर्तमान तभी सभ्य है जब भविष्य उसे सभ्य कहे | वर्तमान की भोगवादी करतूत से जब भविष्य पूर्व की भांति नग्नावस्था को प्राप्त हो जाएगा तब वह अपने इतिहास का उपहास करते हुवे उसे महा उजड्ड की उपाधि देगा ||
स्पष्टीकरण : - एक अनुमान के अनुसार यदि वर्तमान सुखसाधनों के उपभोग में इसी प्रकार प्रवृत्त रहा तो डेढ़ से दो सौ वर्ष के पश्चात् ईंधन व् ऊर्जा के सभी स्त्रोत समाप्त हो जाएंगे तब जीवन के अन्यान्य संसाधन भविष्य की पहुँच से दूर होते चले जाएंगे, उद्योगों एवं उनके अवशिष्ट से अधिकाधिक भूमि अनुपजाऊ हो जाएगी तब अन्न वस्त्र व् वास हेतु भी उसे अतिसय संघर्ष करना पडेगा.....
भूरि भूति भोग गह जग कछु खाए कछु पराए |
सुखसाधन कर सम्पदा निसदिन बिनसत जाए || २ ||
भावार्थ : - जिसप्रकार एक असभ्य को अतिसय भोजन मिले और वह उसे झूठा करते हुवे कुछ खाकर कुछ इधर उधर बिखरा कर उसे नष्ट कर दे, हमारा वर्तमान भी उसी प्रकार असभ्य है जिसे अतिसय साधन-सम्पति प्राप्त है वह उसे झूठा करके कुछ का उपयोग करता है कुछ का भोग करता है उसके इस नित्य उपभोग से वह दिनोदिन समाप्त होती चली जा रही है.....
बर बार भेस बनाए के नगरी गेह बसाए |
पसुतापन बिसराए बिनु तासु बिलग सो नाए || ३ ||
भावार्थ : - सार यह है कि सभ्रांत होने के लिए उत्तम-उत्तम आचार-विचारों की आवश्यकता होती है, उत्तम वेश भूसा धारण करके उत्तम नगरीय आवासों में निवास मात्र से सभ्यता नहीं आती, जबतक मनुष्य पाश्विकता का परित्याग कर बुद्धिवंत न हो तबतक वह पाषाण युग का ही वन मानुष है जो पशु के तुल्य है |
बर बर गेह बनाए के बर बार नगर बनाए |
तासु बसावन सीख बिनु जग अस्नेह न पाए || ४ ||
भावार्थ : - कंकड़ों व् पत्थरों से निर्मित परिसर को घर नहीं कहते सिंधु घाटी की सभ्यता से विश्व ने उत्तम उत्तम घर बनाना तो सीखा किन्तु घर बसाना नहीं सीखा, उसने उत्तम-उत्तम नगर बनाना तो सीखा किन्तु नगर -बसाना नहीं सीखा | इस अशिक्षा के कारण उसे घर का सुख व् स्नेह प्राप्त नहीं हुवा |
गेह सह जहँ गेहिनी गेह बहुरि सो गेह |
सुखकारि संतोष संग जहाँ बसत अस्नेह || ५ ||
भावार्थ : - " स्त्री-पुरुष के सम्यक एवं पारस्परिक सु-सम्बन्ध पारिवारिक इकाई का निर्माण करते है" जहाँ इस प्रकार की पारिवारिक ईकाई हो जहाँ सुख कारि संतोष के संग स्नेह का निवास हो, उसे घर कहते हैं |
सु-सम्बन्ध से परिजनों का प्रादुर्भाव होता है सम्बन्ध जितने पवित्र होंगे परिजन उतने अधिक होंगे,
चिकित्सक प्रथमतस निकट सम्बन्धियों के रक्त का ही परामर्श क्यूँ देते हैं.....?
एक मात- पिता की संतति के मध्य वैवाहिक सम्बन्ध से रक्त में विकृत होता है, विकृत रक्त रोगों का जनक होता है |
माता, मातामह, परममातामह एवं पिता, पितामह अथवा परम पितामह के भ्राताओं भगिनों अथवा उनकी संततियों के मध्य वैवाहिक सम्बन्ध नहीं होना चाहिए |
भगवन पाहि पहुँचावै दरसावत सद पंथ |
धर्मतस सीख देइ जौ सोइ ग्रंथ सद ग्रन्थ || ६ ||
भावार्थ : - जो आप्त ग्रन्थ सद्पंथ दर्शाकर मनुष्य को ईश्वर के पास पहुंचाते हैं जो धर्म चर्या का कर्तव्यबोध कराते हुवे उसे सत्य, दया, दान के सह त्याग व् तपस्या की शिक्षा देते हैं वह ग्रन्थ सद्ग्रन्थ होते हैं |
नगर बहुरि सो नगर नहि जहाँ न हो सद्पंथ |
अनपढ़ भा सो नागरी पढ़े नहीँ सद ग्रंथ || ७ ||
भावार्थ : - वह नगर नगर नहीं जहाँ कोई सद्पंथ न हो | सद ग्रन्थ धर्मचर्या के कर्तव्य का बोध कराते हैं, जिसके द्वारा मनुष्य का पाश्विकता से परिष्करण होता हैं, शिक्षित होकर भी वह नागरिक अशिक्षित व् असभ्य हैं जो सद्ग्रन्थों का पठन-पाठन नहीं करते |
जहाँ साधुपद चारिता जहाँ धर्म उपदेस |
सोइ देस सुतीरथ सम सोइ देस सुदेस || ८ ||
भावार्थ : - जहाँ सन्मार्ग का चलन हो, जो धार्मिक उपदेशों से युक्त हो वह देश तीर्थ के समान है वही देश वास करने योग्य है |
यदि अपने देश में जीविका न हो तो क्या उसका त्याग कर देना चाहिए.....नहीं..... क्योंकि भूखे ही सही अपने घर में सभी राजा होते हैं दूसरों के घरों में दास.....वह राजा उत्तम है जिसके घर में प्रजा रूपी सभी जीवों को भोजन प्राप्त हो, वह क्रूर आचरण के द्वारा उत्पीड़ित न होकर सुखी हो.....
भीतर के संसार एक बाहिर के संसार |
भीतर धरम अधार है बाहिर कर्म अधार || ९ ||
भावार्थ : - मनुष्य के दो जगत होते हैं एक अंतर्जगत दुसरा बहिर्जगत | अंतर्जगत मानवोचित धर्म पर व् बहिर्जगत मानवोचित कर्म पर आधारित होता है |
सु-अचार सु-विचार संग कतिपय नेम निबंध |
अंतर बाहिर कर जगत सुरुचित रहत प्रबंध || १० ||
भावार्थ : - उत्तम आचार-विचार के संग कुछ नियम व् निबंध से हमारे अंतर-बहिर्जगत सुव्यवस्थित रहते हैं |
उत्तम आचार व् उत्तम विचार कहीं से भी प्राप्त हो उसे ग्रहण करना चाहिए.....
"जब अंतर्जगत में गहरी अव्यवस्था होती है, तब हम बहिर्-जगत व्यवस्थित नहीं रख पाते ॥"
----- ॥ विलियम शेख ॥ -----
"वैचारिक पतन से अंतर्जगत में गहरी अव्यवस्था होती है जिससे बहिर्जगत भी अव्यवस्थित रहता है ....."
भूषन बासन बासना बाहिर के संभार |
भीतर के सम्भार बिनु दोनहु गहे बिकार || ११-क ||
भावार्थ : - वास व् वस्त्राभूषण बहिर्जगत की व्यवस्था के अंग है अंतर्जगत के वस्त्राभूषण के अभाव में दोनों जगत में विकार उत्पन्न हो जाता है |
दान बसन मन ताप तन साँच बचन के भेस |
दया ह्रदय करि बास यह अंतर के गनवेस || ११-ख ||
भावार्थ : - दान मन का तपस्या तन का सत्य वचन का वेश हैं | दया ह्रदय का वस्त्र है यह सब अंतर्जगत के गणवेश है |
जिस मनुष्य के अंतर्जगत को धर्म का आधार प्राप्त न हो वह असभ्य है.....
अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम |
दास मलूका कह गए सबके दाता राम ||
सुखसाधन कर सम्पदा निसदिन बिनसत जाए || २ ||
भावार्थ : - जिसप्रकार एक असभ्य को अतिसय भोजन मिले और वह उसे झूठा करते हुवे कुछ खाकर कुछ इधर उधर बिखरा कर उसे नष्ट कर दे, हमारा वर्तमान भी उसी प्रकार असभ्य है जिसे अतिसय साधन-सम्पति प्राप्त है वह उसे झूठा करके कुछ का उपयोग करता है कुछ का भोग करता है उसके इस नित्य उपभोग से वह दिनोदिन समाप्त होती चली जा रही है.....
बर बार भेस बनाए के नगरी गेह बसाए |
पसुतापन बिसराए बिनु तासु बिलग सो नाए || ३ ||
भावार्थ : - सार यह है कि सभ्रांत होने के लिए उत्तम-उत्तम आचार-विचारों की आवश्यकता होती है, उत्तम वेश भूसा धारण करके उत्तम नगरीय आवासों में निवास मात्र से सभ्यता नहीं आती, जबतक मनुष्य पाश्विकता का परित्याग कर बुद्धिवंत न हो तबतक वह पाषाण युग का ही वन मानुष है जो पशु के तुल्य है |
बर बर गेह बनाए के बर बार नगर बनाए |
तासु बसावन सीख बिनु जग अस्नेह न पाए || ४ ||
भावार्थ : - कंकड़ों व् पत्थरों से निर्मित परिसर को घर नहीं कहते सिंधु घाटी की सभ्यता से विश्व ने उत्तम उत्तम घर बनाना तो सीखा किन्तु घर बसाना नहीं सीखा, उसने उत्तम-उत्तम नगर बनाना तो सीखा किन्तु नगर -बसाना नहीं सीखा | इस अशिक्षा के कारण उसे घर का सुख व् स्नेह प्राप्त नहीं हुवा |
गेह सह जहँ गेहिनी गेह बहुरि सो गेह |
सुखकारि संतोष संग जहाँ बसत अस्नेह || ५ ||
भावार्थ : - " स्त्री-पुरुष के सम्यक एवं पारस्परिक सु-सम्बन्ध पारिवारिक इकाई का निर्माण करते है" जहाँ इस प्रकार की पारिवारिक ईकाई हो जहाँ सुख कारि संतोष के संग स्नेह का निवास हो, उसे घर कहते हैं |
सु-सम्बन्ध से परिजनों का प्रादुर्भाव होता है सम्बन्ध जितने पवित्र होंगे परिजन उतने अधिक होंगे,
चिकित्सक प्रथमतस निकट सम्बन्धियों के रक्त का ही परामर्श क्यूँ देते हैं.....?
एक मात- पिता की संतति के मध्य वैवाहिक सम्बन्ध से रक्त में विकृत होता है, विकृत रक्त रोगों का जनक होता है |
माता, मातामह, परममातामह एवं पिता, पितामह अथवा परम पितामह के भ्राताओं भगिनों अथवा उनकी संततियों के मध्य वैवाहिक सम्बन्ध नहीं होना चाहिए |
भगवन पाहि पहुँचावै दरसावत सद पंथ |
धर्मतस सीख देइ जौ सोइ ग्रंथ सद ग्रन्थ || ६ ||
भावार्थ : - जो आप्त ग्रन्थ सद्पंथ दर्शाकर मनुष्य को ईश्वर के पास पहुंचाते हैं जो धर्म चर्या का कर्तव्यबोध कराते हुवे उसे सत्य, दया, दान के सह त्याग व् तपस्या की शिक्षा देते हैं वह ग्रन्थ सद्ग्रन्थ होते हैं |
नगर बहुरि सो नगर नहि जहाँ न हो सद्पंथ |
अनपढ़ भा सो नागरी पढ़े नहीँ सद ग्रंथ || ७ ||
भावार्थ : - वह नगर नगर नहीं जहाँ कोई सद्पंथ न हो | सद ग्रन्थ धर्मचर्या के कर्तव्य का बोध कराते हैं, जिसके द्वारा मनुष्य का पाश्विकता से परिष्करण होता हैं, शिक्षित होकर भी वह नागरिक अशिक्षित व् असभ्य हैं जो सद्ग्रन्थों का पठन-पाठन नहीं करते |
जहाँ साधुपद चारिता जहाँ धर्म उपदेस |
सोइ देस सुतीरथ सम सोइ देस सुदेस || ८ ||
भावार्थ : - जहाँ सन्मार्ग का चलन हो, जो धार्मिक उपदेशों से युक्त हो वह देश तीर्थ के समान है वही देश वास करने योग्य है |
यदि अपने देश में जीविका न हो तो क्या उसका त्याग कर देना चाहिए.....नहीं..... क्योंकि भूखे ही सही अपने घर में सभी राजा होते हैं दूसरों के घरों में दास.....वह राजा उत्तम है जिसके घर में प्रजा रूपी सभी जीवों को भोजन प्राप्त हो, वह क्रूर आचरण के द्वारा उत्पीड़ित न होकर सुखी हो.....
भीतर के संसार एक बाहिर के संसार |
भीतर धरम अधार है बाहिर कर्म अधार || ९ ||
भावार्थ : - मनुष्य के दो जगत होते हैं एक अंतर्जगत दुसरा बहिर्जगत | अंतर्जगत मानवोचित धर्म पर व् बहिर्जगत मानवोचित कर्म पर आधारित होता है |
सु-अचार सु-विचार संग कतिपय नेम निबंध |
अंतर बाहिर कर जगत सुरुचित रहत प्रबंध || १० ||
भावार्थ : - उत्तम आचार-विचार के संग कुछ नियम व् निबंध से हमारे अंतर-बहिर्जगत सुव्यवस्थित रहते हैं |
उत्तम आचार व् उत्तम विचार कहीं से भी प्राप्त हो उसे ग्रहण करना चाहिए.....
"जब अंतर्जगत में गहरी अव्यवस्था होती है, तब हम बहिर्-जगत व्यवस्थित नहीं रख पाते ॥"
----- ॥ विलियम शेख ॥ -----
"वैचारिक पतन से अंतर्जगत में गहरी अव्यवस्था होती है जिससे बहिर्जगत भी अव्यवस्थित रहता है ....."
भूषन बासन बासना बाहिर के संभार |
भीतर के सम्भार बिनु दोनहु गहे बिकार || ११-क ||
भावार्थ : - वास व् वस्त्राभूषण बहिर्जगत की व्यवस्था के अंग है अंतर्जगत के वस्त्राभूषण के अभाव में दोनों जगत में विकार उत्पन्न हो जाता है |
दान बसन मन ताप तन साँच बचन के भेस |
दया ह्रदय करि बास यह अंतर के गनवेस || ११-ख ||
भावार्थ : - दान मन का तपस्या तन का सत्य वचन का वेश हैं | दया ह्रदय का वस्त्र है यह सब अंतर्जगत के गणवेश है |
जिस मनुष्य के अंतर्जगत को धर्म का आधार प्राप्त न हो वह असभ्य है.....
अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम |
दास मलूका कह गए सबके दाता राम ||
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 6 सितंबर 2017 को लिंक की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
वाह ! बहुत सुंदर प्रस्तुति आदरणीया । बहुत खूब ।
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