Thursday 11 October 2018

----- ॥ दोहा-द्वादश ७ ॥ -----,

असन बसन बर भूषना बैसे सब जग चाहि | 
ता हेतु श्रम करम अजहुँ करब चाहि को नाहि || १ ||
भावार्थ : - वर्तमान समय के जनमानस को उत्तम उत्तम भोजन, उत्तम उत्तम वस्त्र,  भव्य भवन बैठे बैठे ही चाहिए | इस हेतु आवश्यक परिश्रम करना कोई नहीं चाहता |  वास्तविक उत्पादन हेतु परिश्रम की आवश्यकता होती है परिश्रमहीनता के कारण ही आज पृथ्वी की संचित सम्पदा तीव्रगति से निष्कासित हो रही है,  अधिकाधिक आपदाएं इस निष्कासन का ही दुष्परिणाम है | 

करमचंद कह आपुनो करता जग बहु काम | 
आदि सुखप्रद होइब न त अंत भलो परिनाम || २ || 
भावार्थ : - वर्तमान विश्व अतिशय कार्यान्वयन कर स्वयं को करमचंद सिद्ध करता दर्शित हो रहा है | किन्तु उसके कार्यों के आदि में कष्टप्रद आपदाएं और अंत में दुखद विनाश है   | 

कर उदार न साँच मुखी मन महुँ दया न धर्म | 
अजहुँ मानस ढोर भया करता कुत्सित कर्म || ३ || 
भावार्थ : -न हाथ से उदार न मुख में सत्य न मन में दया-धर्म,  वर्तमान का जनमानस अपनी मानवी मर्यादाओं को विस्मृत कर निंदित कर्म करता हुवा पशुता से भी इतर हो चला है | 

भगवन अंत मैं एक हैं बिलग बिलग हैं ग्रन्थ | 
ताहि पहि पहुँचावन हुँत बिलग बिलग हैं पंथ || ४ | 
भावार्थ : - ईश्वर अंतत:  एक ही हैं | उनकी उपासना  के नियम व् पद्धति की व्याख्या कर उन तक पहुंचाने वाले  ग्रन्थ व् पंथ भिन्न भिन्न हैं | संसार में  कतिपय लोग इन ग्रंथों व् पंथों के विरोधी भी रहे हैं पंथ से यात्री का गंतव्य तक पहुंचना सरल होता है और यातायात नियम के अनुपालन से यात्रा सुरक्षित व् मंगलमय होती हैं | कई पंथ खड्डे वाले तो कई राजपथ भी होते हो, खड्डे वाले पथ को सुधार करना चाहिए और राजपथ पर गति नियंत्रित होनी चाहिए |  सत्य, दया, दान, व् तप-त्याग ये चार चरण गंतव्य तक पहुंचने हेतु अनिवार्य हैं ऐसा संतजनों का कहना है |  

धरम पंथ कर परब जस तीर तीर तरु छाए | 
भगवद सदन सरन थरी सिथिर परे सुख दाय || ५ || 
भावार्थ : - धार्मिक उत्सव धर्म रूपी पंथ के कगारों पर के वृक्ष हैं व् देवालय शरण स्थली हैं जो जीवन यात्रा में शिथिल हुवे यात्री को छाया व् शरण प्रदान कर उसकी शैथिल्यता दूर कर देते हैं | 

धारि बिहुन अस धारिनी  पुरुख बिहुन जस नार | 
नाउ बिहुन पतवार के धार बिहुन तलवार || ६ || 
भावार्थ : -    जिस प्रकार पुरुष विहीन नारी, पतवार विहीन नौका और धार विहीन तलवार रक्षा करने में असमर्थ होती है उसी प्रकार सेना रहित देशभूमि रक्षा करने में उसी प्रकार असमर्थ होती है | 

सब देही हरिदय बसा सब देही महुँ प्रान | 
जैसी पीरा आपनी तैसी पर कइ जान || ७ || 
भावार्थ : - सभी के देह में ह्रदय बसा है सभी की देह में प्राण बसे वह मनुष्य पशु अथवा पेड़-पौधे ही क्यों न | हम पराई पीड़ा को भी अपनी पीड़ा के सदृश्य अनुभूत कर तदानुसार व्यवहार करें | 

तीनि भूतिक प्रलयंकर अगन पवन अरु पानि | 
धीर धरे जे लाह दए बिगरे सब बिधि हानि || ८ || 
भावार्थ : - संसार में तीन भूत प्रलयंकारी है अग्नि, वायु और जल |शांत अवस्था में ये लाभदायक होते हैं और क्रोधित अवस्था में ये सभी प्रकार से हानि कारित करते हैं | 

चारि घरी का जीउना दो दिन का संसार |
जोवन में जिउ लागिया जुग लग का जोगार || ९ ||

भावार्थ : - यह संसार मात्र दो दिवस का है उसमें जीवन कुल चार घडी का है और मनुष्य नामक जीव युगों तक के भोग्य पदार्थ संकलित करने में लगा है |


बिटप न काटि निबारिये बिटप नही कछु लेय |
दुःख ताप जौ आप सहे औरन को सुख देय || १० ||
भावार्थ : - वृक्षों को मत काटिये ! वृक्ष किसी से कुछ नहीं लेते, वृक्ष तो वह देव हैं जो स्वयं तो दुःख व् संताप सहते हैं व् औरों को सुख देते हैं |

बिटप सों तपसि दानि नहि बिटप सरिस नहि देउ |
सब सेउ तेउ जगत मैं बड़ी बिटप कर सेउ || ११ ||
भावार्थ : - वृक्ष के समान कोई देवता नहीं है, वृक्ष के समान कोई नहीं दानी है, वृक्ष के समान कोई तपस्वी नहीं कोई तपस्वी है | संसार में सब सेवा से बढ़के वृक्ष की सेवा है |







2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (13-10-2018) को "व्रत वाली दारू" (चर्चा अंक-3123) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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