Friday, 19 October 2018

----- ॥ दोहा-द्वादश ८ ॥ -----

 हरि मेलिते खेवटिया छाँड़ा नहीँ सुभाए | 
जीउ हते हिंसा करे दूजे कवन उपाए || १ || 
भावार्थ : - भगवान के दर्शन होने पर भी केवट जाति ने अपने स्वभाव का त्याग नहीं किया वह अब भी जीवों की ह्त्या कर हिंसारत है इसके इस स्वभाव को परिवर्तित करने की इससे बढ़ कर दूसरी कौन सा युक्ति होनी चाहिए  | 

गुरु मिलते दास कबीर छाड़ें हिंस सुभाए | 
भजन करत भए हरि भगत आपहि गुर कहलाए || २ || 
भावार्थ : - गुरु के मिलते ही कबीर दास ने हिंसा का परित्याग कर दिया फिर वह भजन कीर्तन में अनुरक्त हो हरि भक्त हो गए और स्वयं गुरु कहलाए | 

चरन साँचे पंथ चलें जुअते नहि धन धाम | 

दुनिआ कहत पुकारसी करते नहि कछु काम || ३ || 
भावार्थ : -पहले सन्मार्ग पर चलना मान सम्मान का विषय था और धन-सम्पति  भी संकलित हो जाती थी, अब सन्मार्ग पर चलकर धनसम्पति का संकलन कठिन हो गया है ऊपर से लोक-समाज अपमानित कर कहता है अरे ! कुछ कामवाम नहीं करते क्या ? 


पाछिन के अनुहार अस चलिया अधुना वाद | 
सील गया सनेह गया गई मान मरयाद || ४ || 
भावार्थ : - पाश्चात्य संस्कृति के अनुशरण से  ऐसे आधुनिक वाद का चलन हुवा कि लोगों में शीलता रही न परस्पर स्नेह ही रहा और मान और मर्यादा भी जाती रही | 

माता पिता गरब करत भेजो लाल बिदेस | 
बूढ़ भए तो कोस कहे बहुरत नहि रे देस || ५ || 
भावार्थ : - माता-पिता ही झूठा लोक सम्मान प्राप्त करने हेतु पहले तो गर्व करते अपनी संतान को विदेश भेजते हैं, फिर  जब बुढ़ापा आता है  तब देस नहीं लौटने पर आधी-व्याधि से घिरे उन्हें कोसते हैं | 'चंदन पड़िया चौंक में ईंधन सों बरि जाए' (संत कबीर ) चंदन होने पर भी वहां उनका उपयोग ईंधन के सदृश्य होता है | 

निग्रहित मन कृपन कर जो करिए मित ब्यौहार | 
करम अनुहारत पाइहैं सब निज निज अधिकार || ६ || 
भावार्थ : - सामर्थ्यवान यदि संयमित मन व् कृपण हस्त कर फिर मितव्यवहार करे तो कर्मानुसार सभी को अपना अपना अधिकार प्राप्त होगा और कोई भी अधिकारों से वंचित नहीं होगा | 

गगन परसति अटालिका काचे पाके गेह | 
कहबत माहि गेह सोइ जहाँ पले अस्नेह || ७ || 
भावार्थ : - ये गगनस्पर्शी अट्टालिकाएं, ये कच्चे-पक्के घर !! वस्तुत: घर वही है जहाँ स्नेह परिपोषित होता हो | 

   
  मातपिता बिनु गेह जहँ नेह बिहुन संतान | 
  सो बस्ती बनमानुष की सो तो जुग पाषान || ८ || 
भावार्थ : - जहाँ गृह मातपिता से रहित हों जहाँ संतान स्नेह से वंचित हो ऐसी बस्ती वनमानुषों की बस्ती है और वह काल पाषाण काल है | 

करनी बिहून कथनी करत श्रोता केर अकाल | 
करनी कथनी संग करि सो सुनी गई सब काल || ९ || 
भावार्थ : -करनी विहीन कथनी श्रोता का अकाल कराती है वहीँ यदि कथनी को करनी की संगती प्राप्त हो तो वह  सभी कालों ( भूत भविष्य वर्तमान )में सुनी जाती रही है | 

आन बसे परबासिआ बिगड़े तासहुँ देस   | 
बिगरे भोजन बासना बिगड़ गयो परिबेस || १० || 
भावार्थ : - जबसे पराए देशों के निवासी इस देश में आ बेस और यहाँ पराई संस्कृतियों का अनुशरण होने लगा तबसे यह साकारित देश विकृति को प्राप्त हो गया जिससे इसके देशाचार, आहार-विहार यहाँ तक की वेश भूषा और  भाषा भी विकृत हो गई  | 

जनता तेरे राज की महिमा अपरम्पार | 
दाता भेखारी कियो भेखारी दातार || ११ || 
भावार्थ : - हे जनता तेरे शासन की महिमा तो अपरम्पार है तूने सामर्थ्यवान को भिखारी और असमर्थ को दातार बना दिया  | 

बार लगे न भूति लगे कछु बिनसावन माहि | 
जग भर केरि जुगुति लगे पुनि बिरचावन ताहि || १२ || 
भावार्थ : - सृष्टिकर्ता की सृष्टि में कुछ विनष्ट करना हो तो न समय लगता न धन, किन्तु उसे पुनर्निर्माण करने में संसारभर की युक्तियाँ (धन श्रम समय आदि ) लग जाता है |  इसलिए कुछ  विनष्ट करने से पूर्व हमें सौ बार विचार करना चाहिए | 





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