Monday, 21 July 2025

----- || दोहा -विंशी 19|| ----,

 बेचे पोथी ग्रन्थ को,को बेचे भगवान |

बनिहर ताहि जानिए जो, बेचे श्रद्धा ज्ञान ||१||  

: -- कोई पोथी ग्रन्थ विक्रय कर रहा है कोई भगवान की मूर्तियां विक्रयित कर रहा है जो श्रद्धा व ज्ञान का विक्रय कर्ता हो वही उत्तम विक्रेता कहलाने योग्य है | 


काम क्रोध मद लोभ सह, पोथक पेशि प्याज | 
संग दुर्ब्यसन ए बिषय, आतुर देइ त्याज ||२||  
:-- काम क्रोध मद लोभ सहित लहसुन शाक आदि की अधखिली कलियाँ अन्डक मांस, प्याज के साथ यदि कोई दुर्व्यसन है तो ये विषय यथा शीघ्र त्याग देने योग्य हैं..... 
पोथी =लहसुन पेशि,छोटी कलियाँ, अन्डक, मांस पिंड 

गली गली कि बैठ बिके,गौरस सदा सुहाए l 
सुनहु कबीरा कतहुं भी,मदिरा बिकत बुराए ll३|| 
:-- भ्रमरण करते अथवा किसी पण्य प्रतिष्ठान में, गौरस का विक्रय किसी भी स्थान पर श्रेष्ठ है किंतु हे कबीर दास ! सुनिए मदिरा का विक्रय किसी भी स्थिति में निकृष्ट है. . . . .

:-- भ्रमरण करते अथवा किसी पण्य प्रतिष्ठान में, गौरस का विक्रय किसी भी स्थान पर श्रेष्ठ है किंतु हे कबीर दास ! सुनिए मदिरा का विक्रय किसी भी स्थिति में निकृष्ट है. . . . .

असन बासन बास बसन सह साधन साधेय ।
लगे सकेरन येय बस और न जिउ का धेय॥४|| 
:-- भोजन वस्त्र आवास निवास के साथ इन्हें साधने हेतु साधन के संकलन में समाप्त होते जीवन का और कोई ध्येय नहीं रहा.....
:--अन्नवस्त्राश्रयादिसङ्ग्रहात् परं जीवनस्य लक्ष्यं नास्ति किम् ......?

सपत रँग के धनुष धरे उदय भयो सुर भानु ।
बरखा बरसत हर लियो सीतल कियो कृषानु ॥५|| 
:--सप्तवर्ण का धनुष धारण किए सूर्यदेव प्रकट हुए, वर्षा ने जल वर्षाकर उस धनुष का हरण कर लिया और सुर्य के क्रोध स्वरूपी अग्नि को शीतल कर दिया.....

:--सप्तवर्णधनुषं धारयन् सूर्यदेवः प्रादुर्भूतः। वर्षा जलवृष्ट्या धनुः अपहृत्य सूर्यस्य क्रोधस्य अग्निं शीतलं कृतवान् ।

कतहुँ घने घनकार ते चलत कुलिस किरपान | 

कतहुँ घने घनसार ते चलत बूँद के बान ||६||  

:-- कहीं घने घनकार से बिजलियों की कृपाण चल रही है कहीं घन के जल से बूंदों की बाण चल रहे है 

:-- कुत्रचित् सघनमेघात् विद्युत्खड्गः प्रहरति, क्वचित् मेघात् जलबिन्दुबाणाः प्रवहन्ति....


कतहुँ काल घन कर कलित चलत कुलिस किरपान |

कतहुँ गहन घन सार ते चले बूँद के बान ||७||  

: -- कहीं काले मेघों के हाथ में विभूषित विद्युत रूपी कृपाण चल रहे हैं कहीं गहन गहन की जल बिंदु के बाण चल रहे हैं \.... 

असन बासन बास बसन सह साधन साधेय ।
लगे सकेरन येय बस और न जिउ का धेय ॥८|| 
:--भोजन वासन आवासावास के सह इनके साध्य साधनों के संकलन में जीवन समाप्त हो रहा है, क्या इसके अतिरिक्त जीवन का और कोई ध्येय नहीं रहा.....? 
:--अन्नवस्त्राश्रयादिसाधनानुसन्धानेन जीवनं समाप्तं भवति। किम् इदमतिरिक्तं जीवनस्य अन्यत् प्रयोजनं नास्ति ?
अर्थात :-- खाने पहनने रहने के साथ इनके साधक साधनों का संग्रहण के अतिरिक्त क्या जीवन का और कोई ध्येय नहीं है.. . ..?
अन्नवस्त्राश्रयादिसङ्ग्रहात् परं जीवनस्य लक्ष्यं नास्ति किम् ......?

अब तौ सावन दैं नहीं बिरहा को अस्थान ।
कोने बैठ बिचारे सो छेडुँ कौन सी तान ॥९|| 
:--: - - आजकल सावन में विरह का कोई स्थान नहीं रहा... दो चार दिवस की औपचारिक रीति पूरित किए यह विरह स्वयं विरह हुआ एक कोने में बैठा विचार करते कहता है अब कौन सी तान लगाऊँ... .

काम क्रोध मद लोभ सह,पोथक पेशि प्याज | 
संग दुर्ब्यसन ए बिषय, आतुर देइ त्याज ||१०||
:-- काम क्रोध मद लोभ सहित लहसुन शाक आदि की अधखिली कलियाँ अन्डक मांस, प्याज के साथ यदि कोई दुर्व्यसन है तो ये विषय यथा शीघ्र त्याग देने योग्य हैं.....पोथी =लहसुन पेशि,छोटी कलियाँ, अन्डक, मांस पिंड.....

दंति जागे जनम परे,जनमत जागे जीउ | 

भव भूषन भेष भुजंग,केस जटा की जूट l 
ससि सिखर सीस गंगधर,कंठ काल कर कूट ll११|| 

परमेसर परमात्मा सकल धर्म का सार ।
परहित सरिस धर्म नहीं जिन माने संसार ॥१२|| 
 :-- परमेश्वर सभी धर्मो के सार स्वरूप है,परहित के समान कोई धर्म नहीं है,यह विश्वमान्य अभिमत है.....
:-- ईश्वरः सर्वेषां धर्मानां सारः अस्ति, अन्येषां साहाय्यं करणं इव धर्मः नास्ति, एतत् सर्वस्वीकृतं मतम् अस्ति।

तीरथ भगवद हेतु है भगत हेतु भगवान । 
सतसंगत सों गति कृतत तीरथि तीरथ मान ॥१३||  
:- -भक्तों के कारण भगवान है भगवान के कारण तीर्थ हैं, सत्संगति से प्राप्त सद्गति तीर्थी को तीर्थ के समान कर देती है.

दाए अगन संताप बरु, पाए पवन के पीर l 
अहिरनिस जरत दीप जो,सोइ रतन मनि हीर ॥१४||  
. . . . . :-- अग्नि द्वारा संतप्त होने तथा पवन द्वारा पीड़ित होने पर भी जो अहिर्निश प्रकाशित रहे वह दीपक हीरक माणिक्य सम रत्न के सदृश्य है... . . बरु = अवधि में भले ही, चाहे, अथवा
अग्निना तप्तोऽपि वातपीडितः अपि यः दीपः दिवारात्रौ प्रज्वलति सः हीरकमाणिक्यसमं रत्नम् इव भवति... ..

सद्गुन के सौंदर्य ते होत दरसनी रूप । 
दुरगुन जो कलुषाइआ, होतब काल कुरूप ॥१५||  
:--सद्गुणों के सौदर्य से रूप स्वरूप दर्शनीय हो जाता है वहीं दुर्गुणों की कलुषता को प्राप्त होकर यह दर्शनीय रूप कुरूप हो जाता है . . . . .
:-- सद्गुणम् सौन्दर्यं रूपं आकर्षकं करोति, यदा तु दुर्गुणाम् कलुषिताम् प्राप्य इदं आकर्षकं रूपं कुरूपं भवति। .

गली गली बारुनि बिके,गौरस बैठ बिठाए  | 
याको चौरस पाइया याको छूप छिपाए ||१६||  

यह चराचर जीउ जगत,सकल काल अधीन।
एक पूरन परमात्मा,तासु करम ते हीन॥१७|| 
 :-- यह समूचा चराचर जीव जगत काल केअधीन है एक परम परमेश्वर इस काल की गति से हीन होकर स्वतंत्र है . . . . .सर्वं सजीवं निर्जीवं जगदम् कालवशं वर्तते। एकः परमेश्वरः अस्य कालचक्रस्य प्रभावात् मुक्तः अस्ति। . . . .

मानस करतब करम में कसर करो कछु नाए l 
जो फल भाग बंधाइया सो तो कतहुं न जाए ll१८|| 
:-- मनुष्य को चाहिए कि वह फल की इच्छा से रहित हो निरंतर कर्तव्य योग्य कर्म करता रहे यदि फल उसके भाग्य में होगा तो वह उसे अवश्य प्राप्त होगा..... भगवान श्री कृष्ण

धेनु भाग बंधाए बिनु न दूध मलाया पाए l
करम मथानी मथे घृत जल ते निकसत नाए ll१९|| 
:-- भाग्य में कर्म विभाग रूपी धेनु बंधित हुवे बिना दुग्धासव प्राप्त नहीं होता, जल से घृत नहीं निकलता, इस प्रकार कर्म रूपी मथानी का मंथन व्यर्थ का परिश्रम सिद्ध होता है.....

उद्यम विभाग भाग बस ता फल करम बसाए l
करम मथानी मथे बिनु घिव निकसावत नाए ll२०|| 
:-- उद्यमों का विभाजन भाग्य के वशीभूत होता है और उसका फल कर्म के वशीभूत होता है भाग्य रूपी जोड़ को कर्मों की मथानी से मथे बिना घिव रूपी फल प्राप्त नहीं होता इसलिए मनुष्य को कर्म करते रहना चाहिए.....







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