Sunday, 15 May 2016

----- ।। उत्तर-काण्ड ५२ ।। -----

सोमवार, ०९ मई, २०१६                                                                                      

माई तुहरे राज दुलारा । लरत लरत मुरुछित महि  पारा ॥ 
एकु हय तज निज मग बन आईं । छाँडिसि जिन्ह केहि महराई ॥ 
हे माता ! आपका राजदुलारा रणभूमि में संघर्ष करते करते धराशायी होकर मूर्छा को प्राप्त हो गया | एक अश्व है जो कदाचित अपना मार्ग परिहार कर  इस वन में आ निकला है किसी महाराजा ने जिसका त्याग किया है | 

पढ़ि पतिया ता सिरु संवराईं । रिसत पुनि बाँधेउ बरिआई ॥ 
गहे रसन हरन  करि लीन्हा । भले घर जनि बायन दीन्हा ॥ 
अश्व के मस्तक पर एक पत्रिका सुसज्जित थी जिसका वाचन करके वह रोष के वश हो गया तथा उसे बलपूर्वक बाँध लिया | हे जननी !उस अश्व की रसना ग्रहण कर उसने उस अश्व का हरण करके किसी महा समरवीर को ललकारा है | 

गहि चतुरंगिनि सेन बिसाला । धरिअ नाउ निज जगद कृपाला ॥ 
कहहि पाति सो नृप जग जाना । गरुत मान बहुतहि सनमाना ॥ 
वह महा समरवीर राजा एक विशाल चतुरंगिणी वाहिनी का स्वामी है उसने अपना नाम जगद्कृपाला रख रखा है | उक्त पत्रिका में वर्णित शब्दों के अनुसार वह राजा जगद प्रसिद्ध है तथा उसका मान सम्मान भी अत्याधिक है | 

बरजत हठि गहि रहइ तुरंगा । भय भयंकर समर ता संगा ॥ 
जोग बान  धनु रसन बिताना । काँपी भूमि सेष  अकुलाना ॥ 
वर्जना करने के पश्चात भी आपका पुत्र हठधर्मिता का अवलम्बन  कर उस अश्व को पकड़े रहा इस कारण उसका उक्त राजा की सेना के साथ भयंकर युद्ध हुवा | युद्ध क्षिति में वह धनुष की रसना तान कर जब बाणों का सन्धान करता तब धरती कांप उठती व्  धरती के धारणकर्ता शेष जी विचलित हो जाते | 

सम्मुख रिपुदल गंजन भारी । जीतिहि जग तापर महतारी ॥ 
तनुज तोर घन घोर जुझायो । करत पराजित मारि गिरायो ॥ 
उसके सम्मुख ऐसा विशाल सैन्य समूह था जिसने विश्व पर विजय प्राप्त की थी तथापि हे जननी ! तुम्हारे उस वीर पुत्र ने घनघोर संग्राम किया तथा उन सभी योद्धाओं को परास्त कर मार गिराया | 

तदनन्तर ते उठि धाइ लरिहि बहोरि बहोरि । 
लागि नयन परसिहि करन धुनुरु रसन सर जोरि ॥ 
ततपश्चात वह उठते दौड़ते वारंवार संघर्ष हेतु उद्यत होते, किन्तु लोचन से संलग्न होकर कर्णों को स्पर्श करते धनुष की प्रत्यंचा पर संयुक्त बाण : -

बुधवार, ११ मई, २०१६                                                                                           

बढ़ि चढ़ि रिपु पर करिहि प्रहारा । जीतिहि पुनि पुनि तनुज तिहारा ॥ 
आएँ जोइ को ता समुहाई । गिरी महि परि न त गयउ पराई ॥ 
शत्रुओं पर बढ़चढ़ कर प्रहार करते और तुम्हारे पुत्र की वारंवार विजय होती |  जो कोई योद्धा उसके सम्मुख आता वह धराशायी हो जाता या पीठ दिखाकर भाग खड़ा होता | 

दलनायक नृप मुरुछा देऊ  । बिहनई बिजै कलस गहेऊ ॥ 
परे भूमि कछु कल बिहाई । महिपत मुरुछा गयउ दुराई । 
उसने शत्रु दल के नायक राजा शत्रुध्न को मूर्छित कर अंतत: विजय कलस को प्राप्त किया | धराशयी हुवे जब कुछ समय व्यतीत हुवा तब उस भयंकर राजा की मूर्छा दूर हुई | 

करि करि केहरि नाद पचारा । करष पनच भर नयन अँगारा ॥ 
बधि लवनासुर सो सर जोरा । छाँड़त भयउ रवन घन घोरा  ॥ 
गयउ गगन गहि अगन अपारा । मेलि पवन भू चरन उतारा ॥ 
चरत बेगि पुनि हरिदै घाता । तव सुत पुकारेसि हा भ्राता ॥ 
अपनी पराजय देखकर उसकी आँखों में अंगारे भर आए वह सिंह नाद कर कर के तुम्हारे पुत्र को ललकारने लगा | फिर उसने लवणासुर का वध करने वाले बाण का संधान किया, प्रत्यंचा से निकल वह बाण अपार अग्नि से युक्त होकर घनघोर गड़गड़ाहट  करता हुवा गगन में चला, पवन का प्रसंग कर फिर वह भूमि पर उतरा व् तीव्र गति से चलते हुवे उसने लव के हृदय  को भेद दिया | विदीर्ण ह्रदय से आपका वह पुत्र हे भ्राता !  कहकर कुश को पुकारने लगा |  

सबल दल बादल अह भिरिहि एकल बाल बीर बलवान ते । 
पैसि हरिदै पुर बधि लवनासुर दिए मुरुछा तेहि बान ते ॥ 
कातर निहार महि गिरति बार जोग पानि जनि जनि जपयो । 
जुगत जगत महि  महतिमहिपत धर्म बिरुद्ध संग्राम कियो ॥ 
आह ! दल-बल से परिपूर्ण उस विशाल सेना ने एक वीर बलिष्ठ बालक से लोहा लेते हुवे लवणासुर का वध करने वाले बाण से ह्रदय विदीर्ण करके उसे मूर्छा प्रदान की | मूर्छित होते समय  कातर दृष्टि से हस्तबद्ध होकर जननी जननी का जाप करता हुवा फिर वह रण भूमि पर गिर पड़ा |  इस प्रकार संसार के उस महातिमहा भूमिपति ने धर्म विरुद्ध संग्राम किया | 

नीरज नीरज नयन में मन मंदिर में राम । 
अनुरनन चारु चरन में मुखरित नूपुर दाम ॥ 
जिनके मन मंदिर में भगवान राम का वास है ध्वनिमय नूपुर अलियों से जिनके कुमकुम चरण मधुर गुंजन किया करते हैं  (यह श्रवण कर) उन माता सीता के कमल नयनों में ओस रूपी जलमुक्ता बिम्बित होने लगे | 

शुक्रवार, १३ मई, २०१६                                                                                          


माल मुकुत कल  कंठ पुराई । गइ नदि कूल कलस भरि लाई ॥ 
परन कुटी गन अजिरन सींचे ।  बैसि जगज जनि तरु बर नीचे ॥ 
मुक्ता रूपी जलमाल्य उनके सुन्दर कंठ में परिपूर्णित हो गए | नदी तट से कलश भर कर लाईं वह जगज्जननी वन में स्थित पर्ण-कुटी के आँगन को सिक्त करते तरुवर के नीचे विराजित हो गई | 

गहबर गुहा बिटप घन घोरा । कंकर कंटक कठिन कठोरा ॥ 
बसि बट छाँह भई बनबासी । चातक पलक पिय प्रेम पियासी ॥ 
दुर्भेद्य गुहाओं, सघन वृक्ष समूहों व् कंकरो कंटकों से कठिन व् कठोर वन के मध्य वट की छाया में निवास कर वह वनवासी हो गई थीं | चातक पलकें प्रियतम के प्रेम की प्यासी थीं | 

तापस तिय  तन भेस बिराजा । मन अनुरक्त चरन रघुराजा ॥ 
लिखिहि बिधाता जोग बिजोगा । बसिहि महबन तजे सब भोगा ॥ 
तन पर तपस्वी स्त्रियों का वेश विराजित था, मन रघुनाथ जी के चरणों में अनुरक्त था, विधाता ने वियोग का योग लिख दिया था इस कारण भोगों का त्याग कर उस महावन में वास करना पड़ा | 

लसत तहाँ मुनि मंडल कैसे । बिकसि महजल पदुमदल जैसे ॥ 
सीस नवहि जनि सोहति कैसे । सोहहि लख्मी मूरति जैसे ॥ 
वहां मुनि मंडलियों की शोभा कैसी थी मानो महावन रूपी महासागर में पद्म दल विकसित हों |  शीश अवनत किए जगज्जननी कैसे सुशोभित थीं मानो मुनिमंडल रूपी पदुम दलों के मध्य मूर्तिमान महालक्ष्मी सुशोभित हों | 

करि केहरि बृक निकर कपिंदा । खग मृग घिरि तप मगन मुनिंदा ॥ 
सब साथहि एकु नाथ न साथा । सोइ साँथरि सोए बन गाथा । 
समुद्री जीव रूपी दंतैल हस्तियों,सिंहों, भेड़ियों व् वानर समूहों सहित पक्षियों तथा  हिरणों से  घिरे होने के पश्चात भी वह मुनिमंडली सदैव तपस्या में निमग्न रहते | वही दर्भ-शायिका थी वन गाथा भी वही थी साथी-संगी भी वही थे माता के दिए वनवास में जो उनके साथ थे उन एक नाथ का साथ उन्हें प्राप्त नहीं था |  

चित्त लीन पिय चरन में मृग लोचन आकास । 
राम अवध सिया बन में साँस साँस उछबास ॥ 
चित्त प्रियवर के चरणों में लीन था, मृगलोचन आकाश में स्थिर थे, माता सीता इस महावन में तथा श्री रामचंद्र जी अयोध्या में थे उनकी प्रत्येक स्वांस में विरहजनित उच्छवास का वास था | 

रविवार, १५ मई, २०१६                                                                                          


बिथरित दिनु राति जेहि भाँती । मातु बिरह गति कहि किंमि जाती ॥ 
बिभरत  नभ जब नयन बिहंगा । भारभूत भए जलज प्रसंगा ॥ 
दिवस से वियोजित रात्रि की भाँति माता सीता की विरह गति भी वर्णनातीत हो गई थीं  | नभ में भ्रमण करते उनके विहंग लोचन जलमुक्ता के प्रसंग से बोझिल  हो चले थे | 

बटुक कहन रत कहरत बानी । घनकत श्रवन रंध्र महुँ आनी ॥ 
पलक पाँखि भू चरन उतारिहि । बालकन्हि हहरात निहारिहि ॥ 
इधर बाल सन्यासी  लव की मूर्छा के वृत्तांत का वर्णन कर रहे थे उधर उनकी आह मिश्रित वाणी माता सीता के श्रवण रन्ध्र में घन नाद करती हुई प्रवेश कर रही थी | बोझिल लोचन की पलक पंखि के चरण भूमि पर उतरे और शैथिल्य होते हुवे बालकों के मुख-पटल पर स्थिर हो गए | 

जगज जननी जानकी माता । धर धीरजु सुनि सब कहि बाता ॥ 
बिषाद बस भरि मनस ग्लानी । बोलि  नेहमय मंजुल बानी ॥ 
जगज्जननी जानकी माता नेधार्य धारण किए उनके कही सभी वार्ताओं को सुना | विषाद के कारण उनका मन ग्लानि से भर आया फिर वह स्नेहमयी सुन्दर वाणी से बोलीं   : -  

आहु निर्मम कवन सो राई । करि यह करतन दया न आई ॥ 
दल बिनु निर्बल बालक जोधा । निज बल मद ता संग बिरोधा ॥ 
'आह ! वह निर्मम राजा कौन है जिसे यह कृत्य करते हुवे लेशमात्र भी दया नहीं आई ? वह बाल योद्धा  दल से विहीन था इस लिए निर्बल था और उस राजा ने अपने बल अहंकार करते हुवे उसके साथ युद्ध किया ?

अधरम के कर मति मलिनाई । मम लरिका सों जाइ जुझाईं ॥ 
साँच असाँच न खलभल देखा । दलबादल बल पाए बिसेखा ॥ 
अधर्म के कारण  उसकी मति मलीन हो गई जो वह मेरे इस बालक के संग्राम करने पर उतारू हो गया ? उसने सत्य देखा ना असत्य, भला देखा न बुरा देखा, उसे विशाल सैन्य समूह का विशेष बल प्राप्त था |  

धिंगई धरासाई किए भेद हृदय दय बान । 
मदोद्धत बस आपुनो मन महुँ बहु बड़ जान ॥ 
ऐसे बल के माध में उद्यत होकर उस ऊधमी ने अपने मन में स्वयं को महान जाना  और बाण से ह्रदय विदीर्ण कर उस बालयोद्धा को धराशायी कर दिया | 
मम सुत प्रमथित मारि गिरइहीं । कहहु सो नृप अजहुँ कहँ जइहीं ॥ 
यह प्रभुता अरु यहु मनुसाई । प्रमदित छात्र करम बिसराई ॥ 
मेरे पुत्र को उत्पीड़ित कर मार गिराया बालको ! कहो तो वह राजा अब कहाँ जाएगा ? उसकी यही प्रभुता है यही मनुष्यता है अपने बल से प्रमत्त होते हुवे उसने क्षत्रिय कर्म को ही विस्मृत कर दिया ?'

एही बिधि सती जानकी माता । मुनि बालक सहुँ कहि रहि बाता ॥ 
बीर कुसहु तहँ ऐतक माही । महरिसि सहित कुटी पद दाहीं ॥ 
माता जानकी मुनि बालकों से इस प्रकार की बाते कह ही रहीं थीं इतने में ही वीर कुश भी महर्षि सहित वहां आ पहुंचे | 

निरख ब्याकुल मुख्य जननी के । द्र्वन् दीठ दारुन दुःख जी के ॥ 
तापस नयन गगन घन घारिहि । पाहन बदन नीर निर्झारिहि ॥ 
उन्होंने देखा, जननी का मुख व्याकुल है ,  ह्रदय में दारुण दुःख है दृष्टि दया से आद्र है, लोचन संताप से पीड़ित हैं इस पीड़ा ने घन का रूप ले लिया है जो पाषाण हो चुके उनके मुख-पटल पर जलवर्षा कर रहें हैं |  

करष गिरा करि बचन  कठोरा । बोलहि चितइ जननि की ओरा ॥ 
मोरे रहत तोहि पर ऐसे । आन परे विपदा कहु कैसे ॥ 
तब बालक कुश ने माता की ओर देखकर क्रोधावेश वाणी से यह  कठोर वचन कहे : - 'मुझ जैसे पुत्र के रहते आप पर ऐसी विपदा कैसे आन पड़ी ? 

संग्राम सूर बीरबर रिपु मर्दन लघु भ्रात । 
दरसि न मोहि कतहुँ कहा भाँवरही हे मात ॥ 
वीरों के शिरोमणि,  शत्रुओं का मर्दन करने वाला मेरा संग्राम शुर लघु भ्राता मुझे दिखाई नहीं दे रहा हे माता ! कहो क्या वह कहीं भ्रमण के लिए निकला है ? 

मंगलवार, १७ मई, २०१६                                                                                     

करुनामय मन धीर धराईं । बोलहि सोक सनेहिल माई ॥ 
रे सुत जहँ लग मोहि जनाया । त्यागिहि मेधि तुरग एकु राया ॥ 
करुणामय मन में धैर्य धारण किए शोक संतप्त माता ने स्नेहपूर्वक कहा : - पुत्र  ! जहाँ तक मुझे संज्ञात हुवा है वह मैं तुझसे कहती हूँ | एक राजा है जिसने यज्ञ सम्बन्धी अश्व का त्याग किया है | 

भँवर भूमि यहँ आ निकसाहीं । लव बरियात बांधेउ ताहीं ॥ 
रन कृत बिजित सबै संसारा । पिछु पिछु सो नृपु आन पधारा ॥ 
वह सम्पूर्ण पृथ्वी की परिक्रमा कर जब यहाँ आ निकला तब लव ने उसे बलपूर्वक बाँध लिया | संग्राम द्वारा अखिल विश्व पर विजय प्राप्त कर उस अश्व का   अनुगमन करते हुवे उक्त राजा ने भी यहाँ  पदार्पण किया | 

स्याम करन हरन जब जाना । तुहरे भ्रात संग रन ठाना ॥ 
बहोरि ता सहुँ आयउ जोई । जूझत मार् गिरायउ सोई ॥ 
श्याम कर्ण का हरण हुवा जानकर उसने  तुम्हारे भरता के साथ संग्राम किया | फिर तो उसके सम्मुख जो कोई भी आया उसने संघर्ष करते हुवे उन सभी को मार गिराया | 

मरियो जब रच्छक बहुतेरे । सबल दल बादल एकल घेरे ॥ 
नृपकर मुरुछित भयउ बिहाना । बाँधनि परियो उर गह बाना ॥ 
बहुतेरे रक्षक जब हताहत हो गए तब दल-बल से परिपूर्ण उसकी चतुरंगिणी सेना ने उस एकांगी बालक को घेर लिया अंतत : राजा द्वारा हृदय में बाण लिए वह मूर्छित होकर धराशायी हो गया और उसे बाँध लिया गया | 

मुनि बालक आएं बहोरि जोइ गयउ ता संग । 
तहँ जस दरसिहि तस मोहि कहि सो सकल प्रसंग ॥ 
उसके सहगामिन मुनि बालक यहाँ आए वहां उन्होंने जैसा देखा वह प्रसंग मुझे संपूर्णतः कह सुनाया | 

बुधवार, १८ मई,२०१६                                                                                                   

जोग समउ रे सुत तुम आयउ । ता सों मम उर कछु हरुयायउ ॥ 
बलवन बीर कवन सो नाहू । लए बालक तहँ जाइ जनाहू ॥ 
हे वत्स ! तुम उचित समय पर आए | तुहारे दर्शन से मेरा ह्रदय दुःख से कुछ  हल्का हुवा है | वह बलिष्ठ वीर राजा कौन है, इन मुनि बालकों के संग वहां जाकर यह ज्ञात करो | 

रिपुहु दमन रन भूमि पौढ़इउ । बरियात निज भ्रात छँड़ाइहउ ॥ 
कुस बीरोचित उत्तरु देबा । जननी जान अजहुँ तुम लेबा ॥ 
उक्त शत्रु को रण भूमि में धराशायी कर अपने भ्राता लव का बलपूर्वक  विमोचन करो | कुश ने वीरोचित उत्तर देते हुवे कहा : - हे जननी ! अब आप यह संज्ञान लें | 

तोरे सों तहँ मोर गयंदू । होहि मुकुत मम भ्रात विबंदू ॥ 
बोहित सैन होकि महि पाला । साधिहुँ तापर धनुष कराला ॥ 
आपकी सौगंध मेरे वहां पदार्पण से मेरा भ्राता अवश्य ही बंधन मुक्त होगा | राजा हो अथवा सेनापति हो उनपर कठिन कोदंड साधकर उनका लक्ष्य करूंगा | 

आवैं अमर देउ जो कोई । ता पुनि साखि रुद्र किन होई ॥ 
तीछ बान  बरु  मारिहुँ ओही । अजहुँ रोध न सकहिं को मोही ॥ 
कोई अमर देवता अथवा साक्षात रूद्र ही सम्मुख क्यों न आ जाएं में इन तीक्ष्ण बाणों से उनका स्वागत करूंगा इस समय मेरा अवरोध कोई नहीं कर सकता |  

समर भुइँ पौढ़ाए दहौं , करत ब्याकुल ताहि । 
भ्रात लवहि छड़ाए लहौं, रुदन करौ तुम नाहि ॥  
हे माता ! आप रुदन न करें में उन्हें व्याकुल करते हुवे रण-भूमि की धूल चटा दूँगा तथा भ्राता लव को मुक्त कर ले आऊंगा |   

 बृहस्पतिवार, ९ मई , २०१६                                                                                 

जो को सूर बीर रन रंगा | भिरिहि अबिचल सबल दल संगा || 
गहत मुरुछा गिरैं जब कोई |सोइ जगत कीरति कर होई || 
रण हेतु उत्कंठित कोई शूर- वीर यदि किसी विचलित हुवे बिना बलशाली सैन्य समूह से युद्ध करे ऐसे युद्ध में संघर्ष करते हुवे जो मूर्छा को प्राप्त होकर भूमि में गिर जाए वही योद्धा संसार में यशस्वी होता है | 

होइ बिमुख जो समर पराना | तिन्ह कर  हुँत कलंक न आना || 
खत सेष श्रुत कुस के बचना | भई मुदित मुनि बर सुभ लछना || 
भयवश जो दृष्ट-पृष्ट होते हुवे समर विमुख हो जाए उसके समान कोई दुसरा कलंक नहीं है | शेष जी कहते हैं : - हे मुनिवर ! कुश के वचनों को श्रवण कर शुभलक्षणा सीता जी प्रमुदित हो गईं | 

नाना आयुध दय  उर लायो | बिजै हेतु निज आसिर दायो || 
कहि पुनि समर खेत सुत जाहू | मुरुछित लवनहि लेइ छँड़ाहू || 
 नाना प्रकार के आयुध से देकर उसे ह्रदय से लगा लिया |  विजय हेतु अपना आशर्वाद देते हुवे उन्होंने कहा : - 'हे पुत्र ! संग्राम भूमि को प्रस्थान करो और मूर्छित लव को मुक्त कर लाओ |'

जननी कर अनुसासन पायो |  तन कल कुंडल कवच चढायो  || 
सँवरत बाहु सिखर धनु बाना | परस चरन बहु बेगि पयाना || 
जननी की आज्ञा प्राप्त कर वीर कुश ने तन पर कवच कुण्डल धारण किये कन्धों को धनुष बाण से  सुसज्जित किया तत्पश्चात माता के चरणों को स्पर्श कर वह तीव्र गति से प्रस्थित हुवे |

दीठ दगध अँगार धरत चरत पयादहि सोए  | 
समर काम संग्राम भू , द्रुत गत उपनत होए ||  
नेत्रों में जलते अंगारे लिए डग भरते हुवे वह भी समरोद्यत होकर द्रुत गति से संग्राम भूमि में उपस्थित हुवे | 

रविवार, २२ मई, २०१६                                                                                      

पैसत तहँ लव देइ दिखाई । तब लगि मुरुछा गयउ बिहाई ॥ 
जूझत जिन्ह रिपुहन्हि दाया । रसरि बस रथ रहेउ बँधाया ॥ 
अंत: स्थल में प्रवेश करते ही उन्हें लव दिखाई पड़े तब तक उनकी मूर्छा दूर हो चुकी थी जो संघर्ष करते हुवे शत्रुओं द्वारा प्रदान की गई थी उस समय वह रसरि के वशीभूत रथ से विबन्धित थे | 

देखि रन भू भ्रात कुस आयो । प्रमुदित भए मन बदन लसायो ॥ 
पाए पवन जिमि दहन दहाईं । दरसि सहोदर तसहि सहाई ॥ 
रणभूमि में भ्राता कुश का आगमन हुवा देखकर लव का मन प्रफुल्लित हो गया मुख पटल प्रदीप्त हो उठा |  लव को अपने सहोदर का सहयोग भी उसी प्रकार प्राप्त हुवा जिस प्रकार पवन का सहयोग प्राप्त कर अग्नि प्रज्वलित हो उठती है | 

रथ सो आपनु आप छँड़ावा । रन हुँत छुटत बान सम धावा ॥  ॥ 
रिपु समूह रहि चहुँ दिसि ठाढ़े । करात बिकल लव साहस गाढ़े ॥ 
रथ से स्वयं को मुक्त करते हुवे संग्राम हेतु प्रत्यंचा से छूटे हुवे बाण के जैसे  दौड़ पड़े | शत्रुओं का सैन्य समूह सभी दिशाओं में डटा था लव ने अदम्य साहस का परिचय देते हुवे उन्हें व्याकुल कर दिया | 

प्राग दिसा ते कुस बढ़ि आगे । सकल बीरन्हि मारन लागे ॥ 
कोपत लव पाछिन दिसि तेईं । हनत सबहि उत्पीरन देईं ॥ 
कुश पूर्व दिशा से आगे बढ़े समस्त वीरों को हताहत करना आरम्भ किया |  लव भी कोप में भरकर पश्चिम दिशा से आघात करते हुवे सबको उत्पीड़ित करने लगे | 

एक पुर लव कर सिली मुख, दुज सों कुस के बान ॥ 
सबल सैन सही न सकीं साँसत में भए प्रान ॥ 
एक छोर से लव के भाले बरछी दूसरे छोर पर कुश के सायक, इस पराक्रम को बलवती सेना सह नहीं सकी, उसके प्राण सांसत में आ गए |  

बर बर आयुध ढार प्रहारिहि । सबु बीरबर समर हिय हारिहि ॥ 
गहबर गरुअ पलक हरुआई । दरसिहि बिनु पत तरु के नाई ॥ 
वह बड़े बड़े आयुध प्रक्षेपित कर प्रहार करने लगे परिणाम स्वरूप उस चरण के संग्राम में  शत्रु पक्ष के सभी वीरों का साहस जाता रहा | भरी भरकम वह सेना क्षण मात्र भारहीन होकर पत्रहीन वृक्ष की भांति दृष्टिगत होने लगी | 

तोय निधि जूँ तरंग उताला । तासम भयउ कटकु बिसाला ॥ 
होत छुभित रन भँवर समाईं । छतवत इत उत गयउ पराई ॥ 
उत्ताल तरंगों से युक्त समुद्र के समान वह सेना भी क्षतविक्षत होकर क्षुब्ध हो गई और संग्राम रूपी भंवर में समाती हुई इधर-उधर भाग चली | 

कोउ समर हुँत ठाढ़ न होईं । अकाल मरन चहत नहि कोई ॥ 
तेहि समउ रिपुगन दमनंता । समर जीत संताप दयंता ॥ 
सबके ऊपर आतंक छा गया था युद्ध भूमि पर कोई बलवान  स्थिर न हो पाया अकाल मृत्यु की चाह किसी को नहीं थी | उसी समय शत्रुओं को संताप देने वाले संग्राम जीत शत्रुध्न 

जाकर रूप लवहि सम लागिल । तासु जुझावनु हुँत बढ़ि आगिल ॥ 
चितइ चितब ता सम्मुख आवा । गयउ निकट सो पूछ बुझावा ॥ 
लव के समरूप प्रतीत होने वाले कुश से युद्ध करने के लिए आगे बढे | उसे देखते हुवे वह हतप्रभ से  उनके सम्मुख आए और समीप जाकर पूछा : - 

लरिहु स कहु कवन तुम्ह हे रे मह बलवान ।
रूप रंग माहि अहहू निज लघु  भ्रात समान ॥ 
महावीर !  वीरता का इस भांति प्रदर्शन करने वाले महावीर ! तुम कौन हो ?  रूप-रंग में तुम अपने भ्राता लव के ही समदृश्य हो | 

मंगलवार, २४ मई, २०१६                                                                                                 

गहिहउ सुत बल बाहु अपारा । कवन गाँउ क का नाउ तिहारा ॥ 
कवन जननि को जनिमन दाता । कहहु स्याम मनोहर गाता ॥ 
पुत्र ! तुमने भुजाओं में अपार बल संजोया हुवा है | तुम किस गाँव के हो है ? तुम्हारा शुभ नाम क्या है ? पुत्र ! तुमने भुजाओं में अपार बल संजोया हुवा है | हे श्याम वपुर्धर ! कहो तुम किस गाँव के हो है ? तुम्हारा शुभ नाम क्या है ? तुम्हारे माता कहाँ है ? तुम्हारे जन्मदाता कौन हैं ? 

पाति ब्रता धर्म अनुपाला । जनक सुता सिय के हम बाला ॥ 
बाल्मीकि मुनि पाल्यो ताता । पूजौं तासु चरन दिनु राता ॥ 
कुश ने कहा : - हे राजन ! हम पातिव्रत्य-धर्म की पालनहारी जनक पुत्री जानकी के बालक हैं | मुनिवर वाल्मीकि जी ने हमारा पालन-पोषण किया है अहिर्निश हम उनके चरणों का पूजन करते हैं | 

दुःख पर हमहि जन्म जो देबा । करत  सदा सो जनि कर सेबा ॥ 
घन बन गोचर हम बनबासी । मुनिबर कुटिया रहए सुपासी ॥ 
हम घनघोर वन में विचरण करने वाले वनवासी हैं |  कष्ट पूर्वक हमें जिसने जन्म दिया सदैव उस जननी की सेवा करते हुवे हम मुनिवर की ही कुटिया में सुखपूर्वक निवास करते हैं | 

सब बिधि बिद्या माहि प्रबीना । बाल्मीकि गुरुकर दीना ॥ 
तासु नाउ लव कुस मम नाऊ । अब तुम निज परचन दौ राऊ ॥ 
हमें सभी  प्रकार की विद्याओं में प्रवीणता प्राप्त है जो गुरुवर वाल्मीकि  द्वारा प्रदत्त की गई है | मेरा नाम कुश है व् इसका नाम लव है | हे राजन ! अब  अपना परिचय देते हुवे कहो तुम कौन हो ?

लगिहु समर स्लाघा धर बीर सरिस तुम मोहि । 
गहिहु चौरंगी सेन पुनि हय हस्ती रथ रोहि ॥ 
तुम युद्ध की श्लाघा धारण करने वाले किसी वीर के समान प्रतीत हो | हय-हस्ति  से युक्त चातुरंगी वाहिनी से सुसज्जित होकर रथ पर आरोहित हो | 


शुक्र /शनि, ०८ ०९ जुलाई, २०१६                                                                                   


धौल धुजिनि धर यहु बर बाहा । कहहु तात तिन तजिहउ काहा ॥ 
जो जथारथ बीर तुम होहू । गहौ धनुर जूझौ मम सोहू ॥ 
तात ! कहो  तो धवल ध्वजा धारी इस श्रेष्ठ अश्व का किस हेतु त्याग किया है ? (संग्राम हेतु न) यदि तुम वास्तव में वीर हो तो धनुष उठाओ व् मुझसे संग्राम करो | 

अजहुँ बध करि डारिहुँ तोही । सिआ कुँअरु पुनि कहिहु न मोही ॥ 
रघुकुल दीपक एहि बलबाना । कुस कर कहि रिपुहन जब जाना ॥ 
मैने आज तुम्हारा वध करके तुम्हें  परास्त न किया तो फिर मुझे सीता कुमार मत कहना | यह बलवान रघुकुल का दीपक है कुश के कहे वचनों से जब शत्रुध्न को इसका संज्ञान हुवा : - 

भयउ तासु मन अचरजु भारी । गहे धनु भरि नयन अँगारी ॥ 
दरस ताहि करि कोपु प्रचण्डा । गहेउ कटुक कठिन कोदंडा ॥ 
तब उनके मन में भारी आश्चर्य हुवा व् उसके द्वार ललकारने पर अपार क्रोध कर कुश का लक्ष्य करके उन्होंने सुदृढ़ धनुष हस्तगत किया | 

बहोरि पाँख हो कि प्रतिपाखा । चलावहिं बिसिख लाखहि लाखा ॥ 
परस गगन निज धुजा पताका ।  चलेउ जुग जुग रसन सलाका ॥ 
फिर तो पक्ष हो अथवा प्रतिपक्ष दोनों लाखों लाख विशिखाएं चलाने लगे | प्रत्यंचा से संयुक्त हो होकर अपनी गगन स्पर्शी ध्वजा पताका से छूटकर  वह श्लाकाएँ : - 

घहरहि गहबर घन के नाई । ब्यापत छितिज नभ पर छाईं ॥ 
लाईं झरि बृष्टि रूप धरहीं । नयन नयन बहु बिस्मय भरहीं ॥ 
गंभीर घन की भांति गहराते हुवे नभ पर आच्छादित होकर क्षितिज में व्याप्त हो गई |  वृष्टि का रूपधारण कर उन्होंने बाणों की झड़ी सी लगा दी | उनका विलोकन कर वहां उपस्थित सभी के नेत्र अतिसय  विस्मय से भर गए | 

तबहि उद्भट सिआ कुँअर  धनुष रसन कर जोग । 
करषत नारायनास्त्र, रिपुपर करिहि प्रजोग ॥ 
उसी समय उद्भट जानकी नंदन ने प्रत्यंचा का संधारण कर धनुष खैंचा और शत्रु पर नारायण अस्त्र  का प्रयोग किया | 

सो सायकहु पीरा न दयऊ ।  मर्म भेद बिनु बिरथा गयऊ ॥ 
गहे धनुष दरसिहि जबु ताहीं । कोप ज्वाल नयन न समाहीं ॥ 
वह सायक पीड़ा देने में समर्थ न हो सका मर्म का भेदन किये बिना वह व्यर्थ हो गया | धनुष धारण किए कुश ने जब ऐसा देखा तब उनके नेत्रों में कोप की ज्वाला समाहित नहीं हो रही थी | 

कहत सियासुत सुनहु भुआला । गहिहु कंठ तुम बहु जयमाला ॥ 
सूर बीर बहु बहु बलवन्ता । संग्राम जीत तुम महमंता ॥
तदनन्तर जानकी नंदन ने शत्रुध्न से कहा : - हे राजन सुनो ! तुमने अपने कंठ में बहुंत सी विजय मालाएं ग्रहण की होंगी | अतिशय शूरवीरों एवं बलवन्तों से संग्राम जीतकर तुम महामंत की उपाधि से शोभित होंगे |

कटुक नरायनायुध किन होई । यह तोहि बाध सकै नहि कोई ॥ 
तथापि सुनु हे सुबुध सुजाना ॥  भुजा उठा मैं एहि पन ठाना || 
भयंकर नारायणास्त्र क्यों न हो यह क्या तुम्हें कोई अस्त्र बाधा नहीं पहुंचा सका तथापि हे हे ज्ञानवान सुबुद्ध सुनो ! अपनी भुजाएं उठाकर मैं यह  प्रतिज्ञा करता हूँ कि

अजहुँ कठिन त्रइ सायक सोही । झटति मार गिरइहौं न तोही ॥ 
जौ तन कोटि कोटि पुन तेऊ । दुर्लभ मानस जनम लहेऊ ॥ 
अब इन कठिन त्रैसायक से तत्काल ही तुम्हें धराशायी न  कर दूँ तो जो करोड़ों-करोड़ों पुण्यों के द्वारा प्राप्त हुई यह दुर्लभ मनुष्य-देह को प्राप्त कर 

मान बस करिहि निरादर लगिहि पाप जो ओहि । 
बिनु संसय लहउँ तव सहुँ आन लगै सो मोहि ॥ 
अभिमान के वशीभूत उसका अनादर करता है उस  पुरुष को लगने वाला पातक मुझे लगे और तुम्हारे सम्मुख यह प्रतिज्ञा संसय से रहित होकर कह रहा हूँ | 

ए चेतवनि चेतत सुनु राजा । पहुमि परन अब होउ समाजा ॥ 
करषत कुस ऐसेउ कहावा । गह करतल धनु बान चढ़ावा ॥  
"हे राजन ! मेरी इस चेतावनी को सावधानी पूर्वक सुनो | अब तुम  भूमि पर गिरने के लिए तैयार हो जाओ |  ऐसा कहकर कुश ने करतल में धनुष लिया और लेकर क्रोधित होते हुवे बाण का संधान किया | 

चलिहि गगन सो बान कराला । काल अगन सहुँ बदन ब्याला ॥ 
रिपुहन हरिदै भवन बिसाला । तकि अस जस प्रबिसिहि तत्काला ॥ 
कालाग्नि के समान ब्यालमुखी वह भयंकर बाण गगन में चल पड़ा और शत्रुध्न के विशाल ह्रदय भवन का ऐसे लक्ष्य करने लगा जैसे वह उसमें तत्काल ही प्रवेशित हो जाएगा | 

दरसत इत कुस सर संधानिहि । छोभत अति सो बहु रिस मानिहि ॥ 
सुमिरत मन ही मन रघुकंता । डारि दियो महि काटि तुरन्ता ॥ 
इधर  कुश को बाण का संधान करते हुवे देखकर शत्रुध्न अतिशय क्षुब्ध होकर अत्यधिक कोप में भर गए | मन-ही मन भगवान श्रीरामचन्द्र का स्मरण करके तत्काल उसका निवारण कर उसे भूमि पर गिरा दिया | 

कटत बिसिख करि कोप अपारा । भभुकत भए दुहु नयन अँगारा ॥ 
दमक दूज बान संधान के । परसिहि करन रसन बितान के ॥ 
विशिख के कटने से कुश को पुनश्च भारी क्रोध हुवा इस क्रोधाग्नि की भभक ने उनके दोनों नेत्रों में अंगारे भर गए,  दमकते हुवे उन्होंने दूसरे बाण का संधान किया और  प्रत्यंचा को खैंच कर कारण तक ले गए | 

रिपु के हरिदै भवन निहारहि । भेदन मर्म रहेउ बिचारहि ॥ 
रिपुदवनु तेहि काटि गिरायो । नयन अगन अरु प्रबल दहायो ॥ 
शत्रु के हृदय भवन का लक्ष्य कर वह उसे भेदन करने का विचार कर ही रहे थे कि शत्रुध्न ने उसे भी काट गिराया | नेत्रों में भरी क्रोधाग्नि और भी प्रबलता से  दहकने लगी | 

लखि लखि लाल ललाम ते, भयउ सेंदुरी रंग । 
गिरिहि पल्किनि पाँखुरिया उठिहि त छुटिहि पतंग ॥ 
मस्तक के ललामी तिलक चिन्ह से परिलक्षित उनके वह नेत्र सिंदूरी रंग के हो गए | पलक-पंखुड़ियां जब उन नेत्रों पर गिरकर उठती तब उनसे पतंगे छूटने लगते | 

सुमिरत निज जनि पद नत माथा ।  पुनि  तीसर सायक गहि हाथा ॥ 
सोच करत रहेउ मन माही । अरिहन काटि निबेरन ताहीं ॥ 
नत-मस्तक मुद्रा में अपनी जननी के चरणों का स्मरण कर कुश ने तीसरा बाण लिया | शत्रुध्न मन - ही मन  काटकर उसके निवारण का विचार कर ही रहे थे कि : - 

तबहि बान सो परसत बाहू । धँसेउ उरसिज सोर न काहू ॥ 
स्त्रवत रुधिरु करिहि अति घायल । आह रिपुहंत  गिरिहि अवनि तल ॥ 
तभी वह बाण उनकी भुजाओं को स्पर्श करता हुवा उनके हृदय में कब  जा धँसा इसका किसी को आभास भी नहीं हुवा | गहरे आघात  के कारण  रुधिर स्त्रवित होने लगा | अहो ! शत्रुध्न भूतल पर गिर पड़े | 

खात अघात परेउ भरि छारा । कटकु बीच भए हाहाकारा ॥ 
भरे बिपुल बल बाहु बिसाला । भयउ जयंत कुस तेहि काला ॥ 
चोटिल शत्रुध्न के गिरने से चारों ओर धूल व्याप्त हो गई  उन्हें गिरता देखकर सेना के मध्य हाहाकार होने लगा | उस समय अपनी भुजाओं में भरे विपुल बल पर गौरान्वित होने वाले कुश की विजय हुई | 

जब रिपुदवनु परे महि पायो  । बीर सिरुमनि सुरथ अनखायो ॥ 
कहत सेष मुनि संजुग साजू । बहुरि सहित सब सैन समाजू ॥ 
शेष जी कहते हैं : - मुने ! जब वीरों के शिरोमणि राजा सुरथ ने शत्रुध्न को  भूमि पर गिरा देखा तब वे अत्यधिक क्रुद्ध हुवे |  सैन्य समाज सहित यौद्धिक  उपकरणों से युक्त होकर फिर उन्होंने : - 

बिचित्रित अति बिसमय जनक मनिमय दिब्य अनूप । 
रतिवर रथ राखि सौमुख, तमकि चढ़े सो भूप ॥  
 एक अनुपम, अद्भुत  एवं अति विस्मयकारी मणिमय रथ लिया और उस सुन्दर रथ पर उद्वेग पूर्वक आरोहित हो गए  | 





















 

    




Friday, 22 April 2016

----- ।। उत्तर-काण्ड ५१ ।। -----

शुक्रवार,२२ अप्रेल, २०१६                                                                                 

प्रथम तुम रथारोहित होहू । तव सों पुनि लेहउँ मैं लोहू ॥ 
तुहरे दिए रथ गहत बीरबर । रन कारन जो चढिहउँ तापर ॥ 
सर्वप्रथम  तुम रथ का आरोहण करो तत्पश्चात में तुम्हारे साथ युद्ध करूंगा | लव ने कहा : -- हे वीरवर ! तुम्हारा दिया रथ स्वीकार्य कर उसपर आरोहित होकर संग्राम करता हूँ,

त लगिहिं बहुतक पातक मोही । बिजय सिद्धि मम सिद्ध न होहीं ॥ 
जद्यपि जति मुनि सम ममभेसा ।जूट जटालु जटिल कृत केसा ॥ 
तो मुझे गहन दोष ही लगेगा इस दोष के कारण मेरी विजय सिद्धि के सिद्ध नहीं होगी | यद्यपि मेरा वेश ऋषि-मुनियों का है मेरी केशाकृति जटिल जटाजूट है | 

तथापि छतरिय धर्म हमारा । करैं सदा हित सत्कृत कारा ॥ 
हम स्वयमही निसदिन दाहैँ । दिया लेइँ सो बम्हन नाहैं ॥ 
तथापि हमारा क्षत्रिय धर्म सत्कृत करते हुवे सदैव कल्याण करता है | हम स्वयं ही नित्यप्रति दानादि शुभकर्म किया करते हैं | जो दिया हुवा स्वीकार्य करे हम वह ब्राह्मण नहीं हैं | 

मोर दसा कर करिहु न चिंता । तुहरे रथ करि देउँ भंजिता ॥ 
होहिहु तुम्हहि पयादित पाएँ । भयो जस तव पुरबल दल राए ॥ 
मेरी दशा की तुम चिंता न करो तुम्हारा रथ में अभी भंजित किए देता हूँ | इससे तुम भी पदचारी चमूचर हो जाओगे जैसे तुम्हारे पूर्व सेनापति हुवे थे | 

पुनि रन हेतु पचारिहु मोही । ताते भल कहु बत का होही ॥ 
धर्मतस लव केरे बखाना । धीर जुगत कहिबत दे काना ॥ 
बल में मैं तुम्हारे समतुल्य हो जाऊंगा तब तुम मुझे युद्ध के लिए ललकारना कहो इससे अच्छी बात भला क्या हो सकती है | लव  के धर्म व् धैर्य से युक्त वचन श्रवण कर : --  

पुष्कल तब बहु बेर लग चितबत चितवहि ताहि । 
करिए कहा कहा न अजहुँ समुझ परे कछु नाहि ॥ 
पुष्कल का बहुंत देर तक विस्मित चित्त से उसका अवलोकन करते रहे | अब क्या किया जाए और क्या न उन्हें  समझ नहीं पड़ा | 

चेतत धरि कर चापु उठावा । पनच चढ़ावत पुनि दरसावा ॥ 
कोपत लवहु बानु अस मारे । किए छन दोउ खण्ड महि डारे ॥ 
सचेत होते हुवे हाथ में धनुष उठाया, पुष्कल को  धनुष उठाते देखकर कुपित लव ने  बाण मारा व्  क्षणमात्र में उसे द्विखंड करके भूमि पर गिरा दिया | 

गहे धनुष अपरंच बहोरी । औरु लगे जबु  करषन डोरी ॥ 
तब लगि उदयत सो बलवाना । करिहि भंजि तृन समतुल जाना ॥ 
जब पुष्कल दुसरा धनुष धारण कर उसकी प्रत्यंचा कसते तब तक उस क्षुब्ध बलवान ने उसे भी तृण के समान विभंजित कर दिया | 

धनुष हस्त कटि कसत निषंगा । हँसत हँसत किए रथहु बिभंगा ॥ 
भए धनु छिनु महु छीती छाना । भिरिहि ता संग बेगि बिहाना ॥ 
कटि में निषंग व् हस्त में  धनुष कसते लव ने रथ को भी सरलता पूर्वक भंजित कर दिया | महात्मा लव के द्वारा अपने धनुष को क्षणमात्र में छिन्न -भिन्न हुवा देख फिर वह उनके साथ बड़े वेग से  युद्ध करने लगे | 

कबहुँ त  लव बढ़ बढ़ सर छाँड़े । कबहुँक पुष्कल अगहन बाढ़े ॥ 
नयन भवन ज्वाल कन जागे ।  अतीव बेगि जुझावनु लागे ॥ 
कभी तो लव अग्रसर होकर बाणों का प्रहार करते कभी पुष्कल उनसे भी आगे की और बढ़ आते | नयन भवन में क्रोध रूपी ज्वाला कण उत्पन्न होने लगे अब वह और भी अधिक वेग से युद्ध करने लगे | 

बहोरि लव लवलेस महुँ तीरत बान निषंग । 
दरसिहि दंतारि अस जस, को बिषधारि भुयंग ॥ 
तदनन्तर लव ने क्षण मात्रा में ही निषंग से एक बाण खैंचा, उसकी दन्तावली ऐसे दर्श रही थी जैसे वह कोई विषधारी भुजंग हो | 

शनिवार, २३ अप्रेल, २०१६                                                                                        

बान रूप सो बिषधरि नागा  । करषत जूँ धनु  रसन त्यागा ॥ 
फुंकरत फन लहरात परावा । धँसे भरत सुत उर दए घावा ॥ 
लव ने धनुष की प्रत्यंचा से ज्योंही उस बाण रूपी विषधर का  त्याग किया वह  फुफकारते फन से लहराकर दौड़ पड़ा और  भरत कुमार को गहरा आघात देते हुवे उनके हृदय में समाहित हो गया | 

बीर सिरोमनि मुरुछा गहयउ । पीर परे मुख महि गिरि गयऊ ॥ 
गयउ अधोगत कटक मनोबल । भयउ हताहत दलपत पुष्कल ॥ 
बाण लगने से वीर शिरोमणि का मुख पीड़ा से भर गया फिर वह मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े | दलपति वीर पुष्कल के हताहत हो गए इस समाचार से सेना का मनोबल गिर गया | 

हत चेतस गिरि दिए देखाई । पवन तनय तुर लेइ उठाईं ॥ 
करभर बाहु सिखर धर ताहीं । आयउ पुनि रामानुज पाहीं ॥ 
पुष्कल को चेतना शुन्य हुवा देख पवन-तनय ने तुरंत ही उन्हें उठा लिया  और  हाथों से उनको अपने कंधे पर धारण किया तत्पश्चात वह रामानुज शत्रुध्न के पास आए | 

अंकबारि करि तासु सरीरा  । अरपिहि चरन त भयउ अधीरा ॥ 
पितिया सोंह न गयउ बिलोका । करिहि प्रलाप चित्त गह सोका ॥ 
उनके अचेत शरीरका आलिंगन कर, रामानुज शत्रुधन के चरणों में अर्पित करते हुवे वह अधीर हो उठे ॥पितिया से पुष्कल की दशा देखि न गई, शोक विह्वल चित्त से वह घोर विलाप करने लगे |  

नयन गगन दुःख घन गहरायो । पल्किन झलझल जल झलरायो ॥ 
जगिहि कोप बिजुरी बिकराला । दमक दमक मुख जगइँ ज्वाला ॥ 
नेत्ररूपी गगन  में  दुःख  के बादल  गहरा  गए  पलकों से झल झलकर जल  वर्षा होने लगी  | इस वर्षा से  कोप रूपी विकराल ज्योति प्रकट हुई इसकी गंभीर गर्जना ने शत्रुध्न के मुखमण्डल की ज्वाला को जागृत तो कर दिया | 

हतास्वासश्रय सिरु नायो । का करैं अजहुँ समुझि न पायो ॥ 
तत्छन सत्रुहन मन कछु लेखे । पुनि पवन सुत हनुमत मुख देखे ॥ 
किन्तु निराशा के आश्रय होकर फिर उन्होंने अपना शीश झुका लिया ,आगे कौन सी नीति अपनाई जाए उन्हें यह  समझ नहीं आया । उसी समय शत्रुध्न  ने मन ही मन कुछ मंथन किया, फिर वायु नंदन हनुमान का मुख की ओर देखने लगे ॥ 

बहुरि आयसु देत कहइँ महा बीर हनुमंत  । 
समर भूमि अब राउरे  जाएँ लेउ लव प्रान ॥ 
तत्पश्चात उन्होंने आज्ञा देते हुवे कहा : - 'हे महावीर हनुमंत ! संग्राम भूमि में प्रस्थान कर अब आप ही लव के प्राण हरें | 

मंगलवार, २६ अप्रेल, २०१६                                                                                      

जिनके ग्यान  अमित अनंता । मरुति नंदन दास हनुमंता ॥ 
रिपुहन अग्या सो गुनवंता । कोपत रन भुइँ गयउ तुरंता ॥
जिनका ज्ञान अमित व् अनंत है वह महा गुणवंत मारुती नंदन दास हनुमंत अरिहंत की आज्ञा का अनुशरण करते हुवे कुपित होते तत्काल रण भूमि पर उपस्थित हुवे | 

पैस तहाँ बल पौरुष जागिहि  । बेगि लवहि सैं जूझैं लागिहि ॥ 
सीध बाँध सिरु माथ निहारिहि । लच्छ करत एकु बिटप प्रहारिहि ॥ 
वहां प्रविष्ट होते ही उनका बल पौरुष जागृत हो गया वह वेग पूर्वक लव से संग्राम करने लगे | फिर लव के शीश और मस्तक का संदर्शन करते हुवे  उसका लक्ष्य कर उनके  ठीक सामने एक विटप का प्रहार किया |  

भँभरत निज पर आवत देखा । छाँड़ेसि सोउ बान बिसेखा ॥ 
बज्र घोष इब गरज अपारा  । मुख भरि सतक टूक करि डारा ॥ 
भँवरते हुवे वृक्ष को अपने सम्मुख आते देख उन्होंने भी एक विशेष बाण चलाया | वज्र उद्घोष के समान  भयंकर गर्जना करते उस बाण ने वृक्ष को अपने मुख में भरकर उसके शत खंड कर दिए |

गहि गहि गरु गरु भूधर खण्डा । झपटत झट सिरु मारि प्रचंडा ॥ 
देइ गिरि खन घाउ पर घावा । लह लस्तकि लव हस्त उठावा ॥ 
तब हनुमंत  भारी-भारी शिलाखंड उठा उठाकर तीव्रता पूर्वक प्रचंड प्रहार करने लगे | ये गिरीखण्ड लव को घाव पर घाव दिए जा रहे थे उसके निवारण हेतु लव ने धनुष की मूठ पकड़कर उसे हाथ से उठाया | 

बान बृष्टि कृत रज रज कीन्हि । उठैं धूरि कछु दरस न दीन्हि ॥ 
धुर ऊपर घन धूसर छायो । रन रंगन तब अति घहरायो ॥ 
और बाण वृष्टि करके उन भूखंडों को कण-कण कर दिया इन कणों से उठती धूल से कुछ दर्शित नहीं हो रहा था | धुर -ऊपर घनी धूसरता व्याप्त हो गई तब रण का उत्साह और अधिक गहन हो चला | 

लूम केस बलि लाँगुली हनुमत  पुनि लमनात । 
अहि निदरित कुंडली कृत सियसुत लेइ लपेटि ॥ 
हनुमान जी ने केशावली झूलती पूँछ को प्रलंबित किया तत्पश्चात  सर्प को भी लज्जित करने वाली कुंडली की समाकृति कर उसमें  जानकीपुत्र लव को लपटा लिया | 

चरन सरोज जनि जानकी के । सुमिरत मन मन मारि मुठीके ॥ 
बाँधेउ लवहि कुंडलित पूँछी । मुकुत तासु कस बल सहुँ छूँछी ॥ 
यह देख लव ने मन ही मन  अपनी माता जानकी के चरण सरोज का स्मरण किया व् हनुमान जी की पूँछ पर मुष्टिका से प्रहार किया |  इस प्रहार से कुंडलित पूँछ को बड़ी व्यथा हुई जिससे कस-बल से विहीन होकर उसने लव को मुक्त कर दिया |  

छूटत बहुरि बीर बलवाना । तमक ताकि तकि तकि हनुमाना ॥ 
बान बूंदि बरखावन लागे  । बोलि धार बन प्रान त्यागें ॥ 
विमोचित होते ही उस वीर बलवान ने  तमतमाते हुवे हनुमान जी की ओर देखा और उनका लक्ष्य करते बाण बूंदों की बौझार करने लगे | बौझार धारा का सरूप धारण कर हनुमान जी से  बोली : - 'अब प्राण त्याग ही दें | ' 

बनावरी लव केरि चलाई । देह पीर भा बहु दुखदाई ॥ 
सकल बीरबर केर निहारे । हनुमत मुरुछा गहि महि पारे ॥ 
लव की चलाई हुई बाणावली से हनुमान जी के देह को अत्यंत कष्टकारी पीड़ा होने लगी  | सभी वीरों पर दृष्टिपात करते हुवे फिर वह मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े | 

लव सम बान  त्याजन माही । तहँ अबरु को दरसहि नाही ॥
चरत सो ऐसेउ चहुँ  दीसा ।  लगे बधन बधछम अवनीसा ॥ 
बाणों के संचालन अतिसय निपुण थे उनके समान अन्य कोई योद्धा वहां  दर्शित नहीं पड़ रहा था | उनके बाण चारों दिशाओं में चलते हुवे वध के योग्य राजाओं का वध करने लगे | 

हनुमत मुरुछित भए मुने समाचार जब आहि । 
कहत सेष अरिहंत तब सोक सिंधु अवगाहि ॥ 
शेष जी कहते हैं : - मुने ! जब हनुमान जी की मूर्छा का समाचार आया, तब राजा शत्रुध्न शोक के सिंधु में डूब गए | 

बृहसपतिवार, २८ अप्रेल, २०१६                                                                          
रव रुर नूपुर चरनन पूरे ।  स्याम मनिसर रतनन कूरे ॥ 
हिरन मई रथ रसन मनोहर । बहुरि रिपुहन बैस ता ऊपर ॥ 
ध्वनिमय नूपुर से परिपूरित सुन्दर चरणों एवं नीलम व् हीरे जैसे रत्नों से जड़ित मनोहर रश्मि से युक्त स्वर्णमयी रथ पर विराजित होकर अब शत्रुध्न : -

चले आपहि बीर सन जोरे । सहुँ बलि समबल रंग न थोरे ॥ 
जहँ अति निपुन बीर बर बंका । आए गए तहँ बजा रन डंका ॥ 
स्वयं ही वीर सैनिको को साथ लिए  युद्ध हेतु उस स्थान को चले, सम्मुख उनके समान ही बलवान योद्धा थे इस लिए उत्कंठा अत्यधिक थी | फिर रण का डंका बजाते वह वहां गए जहाँ  अति निपुण परम वीर लव उपस्थित थे | 

मुनि दरसिहि पुनि दिरिस अनूपा । एकु सुकुँअरु रघुबर समरूपा ॥ 
सीस जटा जुट सोहहिं कैसे । रघुनंदन बन होहहिं जैसे ॥ 
मुने ! तदनन्तर उन्हें यह अनुपम दृश्य दर्शित हुवा कि लव श्रीरामचन्द्रजी के समरूप एक कुमार है जिसके शीश पर जटा- जूट ऐसे सुशोभित हो रही थी, जैसे रघुनन्दन स्वयं ही वन में सुशोभित हो रहें हों | 

चरन त्रान बिनु जति जस भेसा । होत नरेस न अहहि नरेसा ॥ 
सिलीमुखाकर करधन कस्यो । मनोहरायत उरसिज लस्यो ॥ 
चरण त्राण से विहीन थे यति के सदृश्य उनका वेश था वह नरेश न होकर भी नरेश थे | करधनी में शिलिमुख की निधियां कसी हुई थीं मनोहर आयातित उनका वक्ष था | 

तिलक माथ तेजस बदन नयन अरुन अभिराम । 
कल केयूर कलित कर धनु दाहिन सर बाम ॥ 
मस्तक पर तिलक, तेजस्वी मुखमण्डल, अरुणाभिराम नयन थे,  केयूर से सुशोभित दाहिने हस्त में धनुष व् वाम हस्त में बाण था | 

नीलोत्पल सम स्यामल देहि । अहा मनोहर सुकुँअर कस एहि ॥ 
रघुकुल मनि सम धरे सरूपा । न त यहु भूसुर नहि यह भूपा ॥ 
नीले उत्पल के समान इसकी स्यामल देह है, अहा ! यह सुकुमार कैसा मनोहर प्रतीत होता है, इसने रघुकुल मणि श्री रामचंद्रजी जैसा स्वरूप धारण किया हुवा है यह न तो ब्राह्मण ही है न यह कोई क्षत्रिय राजा है | 

बहुरि कवन सो बलबन आहीं । कहि रिपुहंत सोच मन माही ॥ 
रे मम बच्छर कवन तु होहू । लेंन तुले हमरे सन  लोहू ॥ 
फिर यह बलवान कौन है ?' मन में ऐसा विचार कर शत्रुध्न बालक से बोले : - 'वत्स ! तुम कौन हो ? जो रणभूमि हमसे लोहा लेने पर उतारू हो |  

नगन उत्कट भट मारि गिराए । केत न केत गए खेत पराए ॥ 
तोहि कवन जनि जनक जनावा । तव सों सुभग सील न पावा ॥ 
तुमने नगण्य योद्धाओं को मार गिराया है कितने ही उत्कट वीरों को रणभूमि में पीठ दिखाने हेतु विवश किया | तुम्हारे जैसा सुशील व् सौभाग्यशाली कोई नहीं है, तुम्हें किस जननी-जनक ने जन्म दिया है ?

एही चरनतुम  भयउ जयंता । सुनु मम बचन बीर बलवंता ॥ 
जगत बिदित का नाउ तिहारे । जानिचहैं सब जानन हारे ॥ 
युद्ध के इस चरण में तुमने विजय प्राप्त की, एतएव हे वीर बलवंत ! अब मेरे वचनों को सुनो |  तुम्हारा लोक-प्रसिद्ध नाम क्या है सभी जिज्ञासु यह जानने के लिए उत्कंठित हैं | 

भरि नयन अचरजु रिपुहन पूछि प्रसन एहि भाँति । 
उतरु देत लवनहि बदन कहे गहे सुभ सांति ॥ 
शत्रुध्न ने आश्चर्य पूरित दृष्टि से जब  इस प्रकार के प्रश्न किए हुवे लव के तब मुख-मंडल पर शांति का आवरण आच्छादित किए लव ने उनका उत्तर देते हुवे कहा : - 

शनिवार, ३० अप्रेल, २०१६                                                                                     

देस गाँउ बन नगरी गेहू । नाम पिता कुल ते का लेहू ॥ 
हो जो तुम आपहि बलवंता । मम सों जूझत होउ जयंता ॥ 
देश ग्राम वन नगर घर,  मेरे नाम, कुल व्  पिता से तुम्हारा क्या औचित्य ? यदि तुम स्वयं ही बलशील हो तब मुझसे संग्राम कर विजय प्राप्त करो | 

निज भुज दल बल पौरुष गहिहउ । बरबट बाजि छँड़ा लै जहिहउ । 
नहीं ठाव बल पौरुष भाई । छाँड़ै पाति बाजि गह जाई ॥ 
यदि तुम्हारी भुजाएं बलपौरुष हैं तो बलपूर्वक अपने अश्व को विमोचन कर ले जाओ | और यदि तुममें किंचित भी शक्ति नहीं है तब यह अश्व यह पत्रिका को विस्मृत कर अपने राज्य प्रस्थान करो | 

अस कहि उद्भट बीर बिहाना । अनेकानेक बान संधाना ॥ 
माथ भुजा दल तकि तकि छाँती । तजत प्रहार करिहि बहु  भाँती ॥ 
ऐसा कहने के पश्चात उस उद्भट वीर ने अनेकानेक बाण का संधान किया शत्रुध्न के मस्तक भुजादल व् वक्षस्थल को लक्षित कर उनका त्याग करते  नाना कलाओं का प्रदर्शन के द्वारा उनपर प्रहार करने लगे  | 

जान बिनहि तब लव कर ताता । तिरछत भौंह कोप भर गाता ॥ 
करष  सरासन रसन चढ़ावा । सन्मुख लव अरु दरस रिसावा ॥ 
लव के पिता के नाम का संज्ञान किए बिना तिरछित भृकुटि कर शत्रुध्न की देह कोप से भर गई,  तब धनुष खैंच कर उन्होंने प्रत्यंचा चढ़ाई तथा रुष्ट मुद्रा में सम्मुख उपस्थित लव पर दृष्टि की |  

करतल फेरब करिहिं पुनि गगन भेदि टंकारि । 
अस जस दमकिहि दामिनी करिहि धूनि घन भारि ॥  
प्रत्यंचा पर करतल फेर कर फिर गगन भेदी टंकार किया | टंकार की ध्वनि ऐसी थी जैसे दमकती हुई दामिनी से ध्वनमय होकर गंभीर मेघ गर्जना कर रहे हों | 

बाल मरालहि दए जस त्रासा  । छूट रसन सर चलिअ अगासा ॥ 
पाए  पवन ज्वाल कन जागे । जाज्वलमन जलावन लागे ॥ 
उस बाल हंस को त्रस्त करते हुवे से प्रत्यंचा को त्याग कर आकाश में बाण  चलने लगे वहां वायु का प्रसंग प्राप्त होने से उनमें ज्वाला कण जागृत हो गई ज्वाला के ये कण जाज्वलमान होते हुवे पीड़ा देने लगे | 

बलवन अदुतिय बल दरसावा । पलक समन करि देइ बुझावा ॥ 
तदनन्तर सो बाल मराला । छाँड़ेउ कोटि बान  कराला ॥ 
किन्तु बलवंत बालक ने भी अद्वितीय बल का प्रदर्शन करते हुवे क्षणमात्र में ही उन सभी सायकों रूपी अग्नि का शमन कर दिया | तदनन्तर उस बाल हंस ने करोड़ों विकराल बाण छोड़े | 

घटाटोप करि गगन पुरायो । चहुँ पुर काल घटा घन छायो ॥ 
तकि तकि किए ऐसेउ प्रहारा । रिपुहन अचरजु भयउ अपारा ॥ 
बाणों की घनघोरता गगन में व्याप्त हो गई वह चारों ओर बाण रूपी  घनी घटाएं से आच्छादित हो गया  | लक्ष्य कर कर के उनसे  वृष्टि रूपी ऐसा  प्रहार किया जिसे  देखकर शत्रुध्न के आश्चर्य की सीमा न रही | 

खैंच धनुष रजु श्रवन  प्रजंता । दिए निबेर सब काटि तुरंता ॥ 
देखि कटत सब जब निज बाना । सकलत गुरुबर देइ ग्याना ॥ 
फिर सरासन की रसना  को श्रवण पर्यन्त खैंचा और समस्त सायकों  काटकर उनका तत्काल ही निवारण कर दिया | अपने सभी सायकों को कटा हुवा देखकर फिर कुश के अनुज लव ने गुरु के दिए ज्ञान को संकलित किया : -

रिपुहन केर कठिन कोदंडा । घात बेगि किए खण्डहि खंडा ॥ 
धरनि भयउ जस मानुष हीना । धनुधर भय तस धनुष बिहीना ॥ 
और शत्रुध्न के सुदृढ़ धनुष पर वेगपूर्वक आघात करके उसे खंड-खंड कर दिया | वह धनुर्धारी धनुष से विहीन होकर ऐसे हो गए जैसे धरती  मनुष्य से विहीन हो गई हो | 

दूसर धनु धरे सर जूँ प्रचरन उद्यत होहिं । 
स्यन्दनहु करि बिभंजन तीछे सरगन सोंहि ॥ 

अन्यतर धनुष से वे ज्योंही बाण के प्रचालन हेतु उद्यत हुवे त्योंही लव ने तीक्ष्ण बाण समूह से उनके रथ का भी विभंजन कर दिया | 

रविवार, ०१ मई, २०१६                                                                                                    

बाजि कुंजर कठिन कोदंडा ।  कौटुम सहित भयउ खन खंडा ॥ 
भंजि स्यंदन दूज ल्याईं । आन धनुष कर ताल समाईं ॥ 
हय हो हस्ती हो कि सुदृढ़ सरासन हो सभी अपने कौटुम्ब सहित खंड-खंड हो गए | रथ के विभंजित होने पर शत्रुध्न दुसरा रथ ले आए, करतल में भी अपर धनुष समा गया | 

कोप भरि बहु बान दस मारे । तीछ मुख धरि लवहि पुर बाढ़े ॥ 
साँस सँभारन पलक न देवा । सँहारत हिय जीय के लेवा ॥ 
उस समय अत्यंत कोप में भर कर उन्होंने दस बाण चलाए, तीक्ष्णमुखी वह बाण लव की ओर बढे | हृदय का संहार कर प्राण लेने वाले वह बाण शत्रु को सतर्क होने के लिए क्षण मात्र भी नहीं देते | 

सिमटि सिमटि तब मन भय माने । पत आयसु ते गयउ पराने ॥ 
तत् छन गाँठिनु बाँधनि बारे । लवहि भयंकर छुरप पबारे ॥ 
सम्मुख मन संकुचित होकर भयभीत हो उठे उन बाणों का प्रभाव ऐसा था | प्रतिकार में गाँठ बंधे हुवे भयंकर क्षुरप्र के प्रहार ने उनका तत्काल ही निवारण कर दिया | 

घात चढ़न रहि जोग न कोई | भयउ बिभंजित भय जस होई ॥ 
पुनि लवहि एकु बान बिकरारा । अरध चन्द्रमा बदनाकारा ॥ 
लव पर आघात करे ऐसी योग्यता किसी बाण में नहीं थी | शत्रुध्न के बाणों  से उत्पन्न भय भी जैसे विभंजित सा हो गया |  तत्पश्चात लव द्वारा त्यागा हुवा एक अर्धचंद्र मुखाकृति वाला विकराल बाण : -

धावत जात समात गात सत्रुहनहि हरिदै भवन भेद धँसे । 
भीतहि पैसि त  करिअ  हताहत देत भयंकर पीर त्रसे  ॥ 
मुख पीर भरे धनु पानि धरे रथ पीठक नीचु गिर परे । 
सकल जुगती होइ गयउ बिफल अबिचल लव टारे न टरे ॥ 
तीव्र गति से परिचालन करता शत्रुध्न की देह में समाहित हो गया और हृदय भवन भेदते हुवे उनके अंतर में जा धंसा | अंतर भेदन से वह चोटिल हो गए इस चोट ने उन्हें भयंकर पीड़ा से त्रस्त कर दिया |  धनुष हस्तगत किए पीड़ाभरा मुख लिए वह रथ के पीठासन से नीचे गिर पड़े | युद्ध के इस चरण में अविचल लव को विचलित करने की उनकी सभी युक्तियाँ विफल सिद्ध हुईं | 

विजयार्थि राजधिराज रिपुहन मुरुछा घारि । 
रन हुँत उद्यत होत सब  लव पर करिहि प्रहारि ॥ 
शत्रुध्न के मूर्छित होने पर विजय की प्रत्यासा लिए समस्त राजाधिराज ने  रण हेतु उद्यत होते हुवे लव पर आक्रमण कर दिया | 

मंगलवार, ०३ मई, २०१६                                                                                                  
को छुरप को मुसल लय आने । केहि भयंकर सर संधाने ॥ 
को परिघ लिए बाढिहि आगें । छेपत गगन प्रहारन लागे ॥ 
कोई क्षुरप्र तो कोई मुशल ले आया किसी ने भयंकर बाण का संधान कर लिया | कोई परिघ लिए आगे बढ़ा व् आकाश में उसका प्रक्षेपण करके प्रहार करने लगा | 

कुंत प्रास को परसु प्रचंडा । सूल कृपान कोउ गिरिखंडा ॥ 
सब नृप नानायुध धरि धाईं । एही बिधि लव पर करिहि चढ़ाईं ॥ 
कोई बरछी कोई भाला तो कोई प्रचंड परसु कोई त्रिशूल कोई कृपाण तो कोई गिरीखण्ड लिए बढ़ा,  इस  प्रकार सभी नृप नानायुध लिए दौड़ पड़े और लव पर भारी आक्रमण होने लगा | 

घाउ बजा चारिहुँ दिसि घेरी । रिपुदल खरभर भयउ घनेरी ॥ 
देखि अधरम सील रन तिनके । मारि दस दस बानु गन गिन के ॥ 
रण का डंका सा बजाते हुवे उन्हें चारों दिशाओं से घेर लिया गया रिपुदल की ओर से अत्यंत दुष्टता होने लगी  | लव ने जब उनका अधर्म पूरित संग्राम  देखा तब दस-दस बाण समूह से सबको घायल कर दिया | 

बनावरी लव केरि चलाई । छतवत इत उत जुगि महराई ॥ 
खात अघात होइ सब घायल । बान मरायल थकि अंतर बल ॥ 
लव  की चलाई बाणावली वह सभी एकत्रीभूत महाराजा क्षतिग्रस्त होकर छिन्न-भिन्न हो गए | आहत होते हुवे वह सभी घायलवस्था को प्राप्त हो गए थे,  बाणों की मार से उनका आत्मबल भी शिथिल हो चुका था |  

केतक क्रोधी धराधिप हतबत गयउ पराए । 
क्रोध बिसरत डरपत पुनि रन भू बहुर न आए ॥ 
कितने ही क्रोधी राजा रणभूमि से पलायन कर गए, क्रोध को विस्मृतकर भयवश वह संग्राम हेतु फिर नहीं लौटे | 

बुधवार, ०४ मई २०१६                                                                                            

औरब भूपत केत न केता । हरिदै धरे परे रन खेता ॥ 
जागे रिपुहन ऐतक माही । गै मुरुछा सुध बुध बहराही ॥ 
अन्यान्य कितने ही भूपति ह्रदय पर हाथ रखे रण भूमि पर धराशायी हो गए | इतने में ही शत्रुध्न जागृत हुवे मूर्छा भांग होते ही उनकी चेतना लौट आई | 

देखि हताहत सकल नरेसा । जूझत भयउ जीव अवसेसा ॥ 
बहुरि बरबट महाबलि सोहैं । पालि सँभारत होइँ अगौहैं ॥ 
जब उन्होंने सभी राजाओं को हताहत देखा संग्राम करते हुवे जिनका सर्वस्व चला गया था केवल प्राण ही शेष बचे थे, तब सैन्य टुकड़ी की सहेज करते उस वीर बलवंत के संग युद्ध हेतु वह स्वयं अग्रसर हुवे | 

बोलि बचन आवत समुहाईं । धन्य धन्य तुम रे मम भाई ॥ 
दरसन में तुम बालक जैसे ।  जूझिहु जा सों होइहु तैसे ॥ 
और उस बाल युद्ध के सम्मुख आकर बोले -- ' बंधू ! तुम धन्य हो ! दर्शन में तुम बालक जैसे हो किन्तु जिससे तुम संग्राम करते हो वीरता में उसी के समान हो जाते हो | 

तुहरे समर कला कुसलाता । केहि भाँति सो बरनि न जाता ॥ 
तिरछत भौं ए  कहत रजु जोरे । दरसिहु अजहुँ बिक्रम बल मोरे ॥ 
तुम्हारे युद्ध की कला- कुशलता वर्णातीत है | शत्रुध्न ने फिर भृकुटि  तिर्यक कर धनुष में  प्रत्यंचा कसते हुवे कहा --  अब मेरा पराक्रम देखो; 

भंजत तव दरप दरपन भूमि गिराऊँ तोहि । 
पूर न पाए जो मम पन कहहु न रिपुहन मोहि ॥ 
तुम्हारे दर्प का विभंजन कर तुम्हें भूमि पर गिराता हूँ | यदि मेरा यह प्रण पूर्ण न हो तो मुझे शत्रुध्न मत कहना | 

शुक्रवार, ०६ मई, २०१६                                                                                            
कहि अस सोइ बान गहि हाथा । लवनासुर बधेउ जिन साथा ॥ 
भयंकारि मुख दन्त कराला । दरसि जनु जम दूत  दंताला ॥ 
ऐसा कहकर उन्होंने वह बाण ग्रहण किया जिससे लवणासुर का वध हुवा था | भयविह्वल करने वाले मुख में  विकराल दन्त ऐसे दृष्टिगत हो रहा थे जैसे वह यमदूत की दन्तावली हो | 

रन उन्मत जोवत धनु जीवा । निरख माथ लोचन दर गीवाँ ॥ 
बहुरि निहारत हृदय दुआरा । तसु बिदारन करिहि बिचारा ॥ 
रणोन्मत्त  तेज पुंज मनिसर संकासा । चरत बान दहुँ दिसा  उजासा ॥ 
चलिए पवन तासन अतुराई । उठेउ धूरि बिपुल नभ छाई ॥ 

हहरत परबत पथ तरु साखी । फरकिहि पत पत उरि गए पाँखी ॥ 
निर्घातत नद उदधि उछाहीं । अकाल प्रलयकाल जनु आहीं ॥ 

दरसत रिपुहन रूप अस सुमिरहिं लव सो भ्रात । 
जो अजूह अजेय भएउ बयरिनु मार गिरात ॥ 

सबल दल सहुँ एकल निज पावा । बिसूरत  कंठ भरि आवा ॥ 
भाउ बिभोर भए यहु कहतेउ । एहि अवसर भ्रात तुम रहतेउ ॥ 

करतेउ को आधीन न मोही । उरझिहउँ में बंधु बिनु तोही ॥ 
लवहि बिचारत रहि एहि भाँती । तबहि मरमाघत गहि छाँती ॥ 

आन लगे सो बान ब्याला । अगन काल सरिबर बिकराला ॥ 
गह हरिदै कर मुख भर पीरा । मुरुछा लहत  गिरे महि तीरा ॥ 

बयरि बिदार निवारन हारे । मुरुछा गहि मुख मुकुल निहारे ॥ 
जीतिहि रन रिपुहन बलवंता । ताहि समउ तौ भयउ जयंता ॥ 

करधन बान सिरस्त्रान, धरे धुनुरु करताल । 
दरसन में महात्मना करतन में महिपाल  ॥ 

रविवार, ०८ मई, २०१६                                                                                       

रजता राज न अँगन न अंगा । चातुरंगनी सैन न संगा ॥ 
 रन उन्मत्त पत पाल न पाली । राम सरिस रामहि सम चाली ॥ 

साजि सकल अन्य साज समाजा । महि परि मुर्छित मुख अति भ्राजा ॥ 
बिनहि सयंदन पाएँ पयादा । सर गहि निलयन  नयन बिषादा ॥ 

रिपुहन बिभरम ताहि निहारिहि । चढ़ाए रथ लय गवंन विचारहि ॥ 
उरझित निज मित रिपु कर पासा । देखि बटुक गन भयउ निरासा ॥ 

बालक मन आरत अति भारी । गहइ निमिष महँ अति अँधियारी ॥ 
पुनि आश्रमु  सब गयउ तुरंता । मातु सिया कहि सकल उदंता ॥ 

कहत कहत संताप सों हुड़किहि हरिदै सिंधु । 
अलक पलक गहराए घन बरख उठे जल बिंदु ॥ 




































Wednesday, 13 April 2016

----- ॥ गीतिका ॥ -----

----- ॥ गीतिका ॥ -----
हरिहरि हरिअ पौढ़इयो, जो मोरे ललना को पालन में.,
अरु हरुबरि हलरइयो, जी मोरे ललना को पालन में., 

बिढ़वन मंजुल मंजि मंजीरी, 
कुञ्ज निकुंजनु जइयो, जइयो जी मधुकरी केरे बन में..... 

बल बल बौरि घवरि बल्लीरी,
सुठि सुठि सँटियाँ लगइयो लगइयो जी छरहरी रसियन में.....

 पालन में परि पटिया पटीरी, 
बल बल बेलिया बनइयो बनइयो जी मोरे ललना के पालन में..... 

दए दए उहारन ओ री अहीरी, 
सुरभित गंध बसइयो बसइयो जी मोरे ललना के पालन में.....


हरिहरि हरिअ  = धीरे से 
हरुबरि = मंद-मंद 
बिढ़बन = संचय करने 
मंजि-मंजीरी = पुष्प गुच्छ, कोपलें पत्र इत्यादि 
मधुकरी केरे बन = भौंरो के वन में- मधुवन 
बल बल बौरि घवरि बल्लीरी =  आम के बौर से युक्त लतिकाएं । बढ़िया से गुम्फित कर 
पटिया पटीरी =चन्दन की पटनियाँ 
बल बल बेलिया = घुमावदार बेलियां 
उहारन = आच्छादन 
अहीरी = ग्वालन 

हरिहरि हरि तर अइयो कौसल्या के अजिरन में 
अजहुँ न बेर लगइयो कौसल्या के अजिरन में 

दए दए उहारन  दए दए बहीरी  , 
सुरभित गंध बसइयो बसइयो जी कौसल्या के अजिरन में.....

बहीरी = बुहारना 

Sunday, 10 April 2016

                                       ----- ॥ सोहर ॥ -----

सखि गाओ री सोहर जी भइने सुअवसर 
कुँअर मनोहर जी सुनु अति सुन्दर दूल्हा बनइयो जी हो, 
                                                    रामा दूल्हा बनइयो जी हो..... 
करधन करधर पाटली परिकर अरु बर बर बसन बसइयो जी हो, 
                                                     रामा बसन बसइयो जी हो.....

कल किरीट कपाला कंकनि माला अरु मनिहर रतन सजइयो जी हो 
                                                     रामा रतन सजइयो जी हो.....

चारु चँवर हलरई सिरु छतर दसई के अरु हरियर तिलक लगइयो जी हो, 
                                                      रामा लगन करइयो जी हो..... 


झीनी झीनी रतिया ओरी चारू चंदनिया,
हरी भरी मनिया अरु धौरी धौरी मुतिया में मनहर पुरट पुरइयो जी हो 
                                                                 रामा पुरट पुरइयो जी हो.....
सो बंदन वारी बांध दुअरिया देहर देहर रचइयो जी हो 
                                        रामा  देहर रचइयो जी हो.....

हरिया चन्देरी अहिबेलि घेरी  निज पटतर पट पहरियों जी हो 
                                         रामा पट पहरइयो जी हो..... 

ताराबरी झलहरी झालरिया जननी के भवन ओरमइयो जी हो 
                                            रामा भवन ओरमइयो जी हो.....


कोई लुटावे लकोहरनु कोई रुपइया 

बाबा भइया ओ मइया अरु बहिनी भुजइया तूम धेनु गैय्यानु लुटइयो जी हो  
                                               रामा धेनु गैय्यानु लुटइयो जी हो.....  

ढोलु हनि पावत मुख संख पुरावत ऐ री मुरलिया बधावा बजइयो जी हो 
                                              रामा मुरलिया बधावा बजइयो जी हो.....

ललना चिरंजीउ हो ललना जुंग जुग जियो कहि कहि हिय हिलगइयो जी हो 
                                                                   रामा हिय हिलगइयो जी हो..... 

चरन जुहारी जो करिहि कुँवर त गोदिया भर घोड़िया चढ़इयों जी हो,   
                                                            रामा घोड़िया चढ़इयों जी हो.....   

बादिहि बादल बृन्दु अगासा । झरिहि झर झर बिंदु चहुँ पासा ॥ 
भर भर कलसि करषि कर देईं । पियत पयस बूझै न पिपासा ॥ 

बिमनस मुख सो रभस दुरायो । सरस रहस बस बरुन निवासा ॥ 
कंठ ताल नूपुर दल पूरे  । गावहि झनक झनक चौमासा ।  

 । हरषित जननी  दियो निकासा ॥ 

दरसै छटा पुरुट पट डारे । अरुन सुधाकर करिहि बिलासा ॥ 
कोमल करज जलज जय माला । पहिरावन मुख लवन ललासा ॥ 






----- ॥ सोहागी ॥ -----

हरि हरि कुँअरि पौढ़इयो जी करि पनित पलन में, 
ऐ री हरतरी न फेरइयो जी करि पनित पलन में, 
      
बिढ़वन मंजुल मंजि मंजीरी, 
कुञ्ज निकुंजनु जइयो, जइयो जी मधुकरी केरे बन में..... 

बल बल बौरि घवरि बल्लीरी,

सुठि सुठि सँटियाँ लगइयो लगइयो जी छरहरी रसियन में.....  

 पालन में परि पटिया पटीरी, 

बल बल बेलिया बनइयो बनइयो जी करि पनित पलन में..... 

दए दए उहारन ओ री बधूरी, 

सुरभित गंध बसइयो बसइयो जी करि पनित पलन में..... 


पनित करना =  सगुन हेतु प्रतिज्ञा 
हरतरी न फेरइयो = किए पर पानी न फेरना  
हरिहरि हरिअ  = धीरे से 
हरुबरि = मंद-मंद 
बिढ़बन = संचय करने 
मंजि-मंजीरी = पुष्प गुच्छ, कोपलें पत्र इत्यादि 
मधुकरी केरे बन = भौंरो के वन में- मधुवन 
बल बल बौरि घवरि बल्लीरी =  आम के बौर से युक्त लतिकाएं । बढ़िया से गुम्फित कर गांठ लगाना 
पटिया पटीरी =चन्दन की पटनियाँ 
बल बल बेलिया = घुमावदार बेलियां 
उहारन = आच्छादन 
अहीरी = ग्वालन