Friday 3 April 2015

----- ॥ उत्तर-काण्ड ३० ॥ -----

बृहस्पतिवार, ०२ अप्रेल, २०१५                                                       

अनन्दातिरेक मगन भयऊ ।  राज भार पुनि सुत कर दयऊ ॥ 
सजा  देहि तप साजु समाजू । बंदि गुरुपद चले बन राजू ॥ 
और वह आनंद के अतिरेक में निमग्न हो गए  | राज्य का भार पुत्र के हाथों में सौंप कर उन्होंने अपनी  देह को तप सामग्रियों के समाज सुसज्जित किया और फिर गुरु के चरणों में प्रणाम कर वह स्वयं तपस्या करने वन को चले गए | 

तहाँ भगति पूरित हरिदय  ते । भए भगवन्मय तापाश्रय  ते ॥ 
गहन अतीव साधना साधे । रिसि  केसउ के चरन अराधे ॥
वहां वह भक्ति पूरित हृदय से  तप का आश्रय करते हुवे भगवन्मय हो गए तथा  भगवान ऋषिकेश की आराधना करते हुवे अत्यंत गहन साधना करने लगे | 

बिरत बिषय भव भोग त्यागे । भगवन पदुम चरन मन लागे ॥ 
बन भूमि तपोमय सब कोई । सकल बात तप तेजस जोई ॥
विषयों से विरक्त होकर उन्होंने संसारिक भोगों को त्याग दिया,अब उनकी भगवान के पद्मचरन में अनुरक्ति हो गई | उस वन भूमि में सभी तपोमय थे उनका सब कुछ तप के तेजस्व से युक्त था | 

तप प्रभाव निष्पाप कहाई । महिपत परम धाम को पाईं ॥ 
पितु जब तेजस जान अव्रोहि । सत्यबान निज धर्म बल सोहि ॥ 
तप के प्रभाव से राजा निष्पाप होकर परम धाम को प्राप्त हो गए | पिता के तेजस्वी यान में परम धाम चले जाने पर सत्यवान ने भी अपने धर्म बल से -

दसरथ नंदन सिय के पी को । किए संतोखित रघुबर जी को ॥ 
प्रसन्न चित रघुनाथ बिहाने । बच्छर अबिचल भगति प्रदाने ॥ 
दशरथनन्दन सीतापति भगवान हसरीराम चंद्र जी को संतुष्ट कर लिया | प्रसन्नचित भगवान रघुनाथ ने फिर  उस भक्त वत्सल को अपने चरणों की अविचल भक्ति प्रदान की | 

जग्य करता पुरुख जो कोटि कोटि पुन जोइ । 
अस अबिचल भगतिहि जोग, अतिसय  दुर्लभ होइ ॥ 
यज्ञकर्ता पुरुष को करोड़ों पुण्यों के संग्रह के द्वारा भी ऐसी अविचल भक्ति का प्राप्त करना अतिशय दुर्लभ है |  

शुक्रवार ०३,अप्रेल, २०१५                                                                 

 तपोमई  तेजस बिस्तारै । नीपजनत नित दिवस निखारे ॥ 
नित प्रति दृढ़ चेतस सो राई  । प्रभु अवतार  कथा बैठाईं   ॥ 
उनके विस्तारित तपोमय तेज  में दिनों दिन  उज्जवलता उत्पन्न होने लगी हैं  | वे प्रतिदिन सुस्थिर चित्त से सम्पूर्ण लोकों को पवित्र करने वाली श्री रामावतार जी की कथा का आयोजन करते हैं  | 

जेहि कथा गहि अस प्रभुताईं । तीनहुँ लोक पबित करि आईं ॥ 
तपमय हरिदे दया द्र्व भरे ।  पर पीरा सहुँ चित्कार परे ॥ 
इस कथा की प्रभुता ऐसी है जो तीनों लोकों को पवित्र कराती आई है | सत्यवान के हृदय में दया-द्र्व भरा था, पर-पीड़ा से वह चीत्कार उठते हैं  |

 रघुबर रागि रहेउ न कोई ।अगुसर प्रभु पद पूजिहि सोई ।। 
अष्ट बरस जोई बय जोई  ।  बयोधस कि बय बिरध जो होइ ॥ 
 जो रघुबर के चरणानुरागी नहीं थे उनकी भक्ति को देखकर वह भी अग्रसर होकर प्रभु के चरणों का पूजन करने लगे | जो आठ वर्ष से ऊपर की अवस्था का हो मध्य अवस्था का हो अथवा वृद्ध हो, 

एकादसी ब्रत करिहि कराहीं । बिष्नु प्रिया तिन सेव सुहाहीं ॥ 
श्रीधर चरन चढ़े बर माला । कंठ कलित कर बरे भुआला ॥ 
उनसे वह एकादशी का व्रत करवाते और स्वयं भी करते हैं | तुलसी की सेवा उन्हें अत्यंत प्रिय है , लक्ष्मी पति के चरणों में चढ़ी उत्तम माला  उनके कंठ में सैदेव अलंकृत रहती है  | 

अस तपसी नृप सोंहि जब रिषि महरिषिहू कर जोहिं । 
साधारन जन हेतु तब पूजित काहु न होहिं ॥ 
ऐसे तपस्वि राजा के सम्मुख जब सभी ऋषि-महर्षि भी करबद्ध रहते तब साधारण लोगों हेतु भी  वह फिर क्यूँ न पूजित हों | 

शनिवार,०४ अप्रेल, २०१५                                                                 

रमारमन के सुमिरन सोइहि । सत्यबान सुचि  सुधि मन होइहि ॥ 
राघौ सुजसु घन रसु बरखाए । कलुषि कलिमल धूवत दूराए ॥ 
रमारमण श्रीहरि के स्मरण से मन शुद्ध व् पवित्र हो गया है रघुवीर  के सुयश की घन वर्षा ने उसे पापों व् क्लेशों से मुक्त कर दिया है  | 

सकल अमंगल गयउ नसाईं । अगज जगज लग मंगल छाईं ॥ 
श्रुतत अनी आगमनु सँदेसा ।राज सिँहासन छाँड़ नरेसा ॥ 
संपूर्ण अमंगल नष्ट हो गए और राज्य में दूर दूर तक मंगल छाया हुवा है  | श्री राम चंद्र जी की सेना के आगमन का सन्देश सुन सत्यवान नरेश राजसिंहासन त्याग देंगे | 

अद्भुद तुरग लेइ चिन्हारिहि । अचरम गति इहँ आन पधारिहि ॥ 
मन ही मन  सुमिरत श्री रमना ।अकण्टकु राज धरि तव चरना ॥ 
उनके अद्भुद तुरंग को पहचान कर वह अचिराम गति से यहाँ पधारेंगे | मन ही मन भगवान श्री राम का समरण करते हुवे वह अपना अकंटक राज आपके चरणों में अर्पित कर देंगे | 

सुबुध सुमति छन भर उरगाई । बहुरि मुख रसरि बोल बँधाई ॥ 
लखमन जो तुअ  पूछ बुझावा ।प्रसंग सँग मैं कहत सुनावा ॥ 
सुबुद्धि सुमति ने क्षणभर विश्राम कर फिर कहा -- 'वीर लक्ष्मण ! आपने जो प्रश्न किया था वह मैने सप्रसंग आपको कह सुनाया | 

कहत अहिपत बिप्रबर बहुरि सो हय बिसमय कारि। 
सत्यबान पुरी पौरी, भीत चरन पैठारि॥ 
भगवान शेष जी कहते हैं -- हे विप्रवर ! ततपश्चात वह विस्मयकारी अश्व फिर सत्यवान के नगर की ड्योढ़ी के अंतर में प्रवेशित हुवा | 

सोम/मंगल ०६/०७ अप्रेल,२०१५                                                                       

भरे कल भरन बरन बिसेखे । पुरजन जब बाजि प्रबिसत देखे ॥ 
सचकित सब महिपत पहि गयऊ । प्रबसित के समाचार दयऊ ॥ 
पुरजनों ने जब उत्तम आभूषण से अलंकृत विशेष वर्ण के अश्व को नगर में प्रवेश करते देखा तब सब चकित होते हुवे राजा सत्यवान के पास गए और उन्हें अश्व प्रवेश का समाचार दिया | 

महमन रामहि बाजि पँवारे । पारगमन इहँ आन पधारे । 
सत्रुहन चहुँ पुर रखिहहि तेहीं । जासु हरन सकिहि न जग केही ।। 
(उन्होंने कहा ) महामना ! श्री राम जी का मेधीय  अश्व नगर द्वार के पारगम्य होकर यहाँ आ रहा है, शत्रुध्न उसकी चारों और से रक्षा कर रहे हैं | जिसका अब तक किसी ने भी हरण नहीं किया है | 

राम नाउ के आखर दोई । सुनत महिपत मुदित मन होई ॥ 
बोले मृदुलित मधुमय बानी । राम राउ मोरे हिय धानी ॥ 
और 'राम' नाम के ये  दो अक्षरों को सुनकर राजा के मन हर्षत हो उठा,वह मृदुल व् मधुरिम वाणी में बोले -- राम तो राजा हैं और मेरा ह्रदय राजधानी है,  मन सिंहासन  सोइ बिराजे  । भयौ सुभ ता  सोहि सब काजे ॥ 
लेइ संग मख बाजि बिसेखे ।ताहि अनुज मम नगरि प्रबेखे ॥ 
मेरे मन के सिंहासन में वही तो विराजित हैं मेरे सभी कार्य उनके द्वारा ही शुभ गति को प्राप्त करते हैं | उनके मेधीय अश्व को संग में लिए उनके अनुज मेरी नगरी में प्रविष्ट हुवे है | 

जिनके हरिदै हरि सुरत कबहुं बिसारत नाहि । 
अवसिहि सो दास हनुमत होइहि तिनके पाहि ।।  
जिनके ह्रदय हरी की समृति कभी विस्मृत नहीं होती वह दास हनुमंत भी अवश्य ही उनके आस-पास होंगे | 

होइहि उपनत जहँ प्रभु दासा ।मैं गमु रहिहउँ तिनके पासा ॥ 
बिसमय हय राखन हुँत जइहों ।  प्रभो चरन सेबक पद पइहौं ॥ 
जहाँ प्रभु के दास उपस्थित हुवे हैं, मैं भी वहां उनके पास जाता हूँ,तदनन्तर  आश्चर्य चकित करने वाले उस अश्व की रक्षा हेतु जाऊंगा और प्रभु के चरण - सेवक के पद को प्राप्त करूंगा | 

हिरन्मय मनि रतन बहुमूला  ।धन सम्पद प्रभु पद अनुकूला ॥ 
राज सहित मम सन लए आहू । सचिवन्हि आयसु देइ नाहू ॥ 
ततपश्चात राजा सत्यवान ने सचिव को आज्ञा दी कि प्रभु के चरणों  के अनुकूल बहुमूल्य हिरण्मय मणि-रत्न व् धनसम्पदा  राज्य सहित मेरे साथ ले आओ | 

राम नाउ सुमिरत मन माही ।चले राउ पुनि सत्रुहन पाहीं ॥
सत्यवान  निज हितकर जाने । सत्रुधन आए आपही धानी  ॥ 
मन में भगवान राम के नाम का समरण करते ततपश्चात राजा शत्रुध्न के पास प्रस्थित हुवे | उन्हें अपना हितैषी जानकर शत्रुध्न स्वयं ही राजधानी पहुँच गए  | 

इत महिपत सबिनय सब साथा ।आएँ अगुसर जोरत दुहु हाथा ।। 
नत मस्तक सत्रुहन पद गाही । सम्पन राज समर्पत दाहीं ॥ 
इधर राजा सबका साथ कर विनय पूर्वक उनकी करबद्ध आगवानी की, और नतमस्तक होते हुवे शत्रुध्न के चरण पकड़ लिए तथा अपना भरापूरा  राज्य उन्हें सौंप दिया | 

भगत बछर तिन  जान के गह कर सकल निधान । 
रुक्म नाउ तेहि सुत कर,सहर्ष दे प्रतिआन ।। 
सत्रुध्न ने उन्हें भक्तवत्सल जानकर उनकी समस्त निधियों को ग्रहण किया और रुक्म नाम के उनके पुत्र को सहर्ष लौटा दी | 

बृहस्पतिवार,०९ अप्रेल,२०१५                                                             

हिरन रतन मनि राज बिसाला । गए बहुरत भए मुदित भुआला ॥ 
मानत आपनि परम सुभागिहि । सकुचत हनुमत के उर लागिहि  ॥ 
स्वर्ण व् मणिरत्नों सहित विशाल राज्य को पुन : प्राप्त  कर नरश्रेष्ठ प्रसन्न हो गए स्वयं को परम सौभाग्यवान मानकर संकोच करते हुवे दास हनुमंत के हृदय से लग गए | 

बहुरि सुबाहु निज कंठ लगाए । हिलगत ताहि सों बहु  सुख पाए ॥ 
रामु भगत तहँ जेत पधारिहि । मेलि सबहि सों बाँधत बारी ॥ 
हनुमंत के पश्चात सत्यवान ने सुबाहु को कंठ से लगाया इन सब से मिलकर उन्हें अपार सुख की अनुभूति हुई तदनन्तर वहां जितने भी राम भक्तों का पदार्पण हुवा था वह क्रमानुसार उन सबसे मिले | 

संग लगे जब सत्रुहन जीके । जान हितू निज रघुबर ही के ॥ 
लोम हरष अस अधर सुहासे । जस मुकुलित कलि कुसुम बिकासे ॥ 
शत्रुध्न जी के साथ तब स्वयं को रघुनाथ जी का हितैषी जानकर उनका रोम रोम हर्षित सुहास से उनके आधार ऐसे खिल उठे  जैसे कोई मुकुलित कुसम कलि खिल रही है | 


बेगबान के पाउँ लगि  पाँखि  ।चरत बियत गत बिहंगम लाखि  ।। 
संग्राम सूर संग घेराए ।सत्रुहन्हु तुर गति पिछु पिछु आए ॥ 
वेगवान तुरंग के चरणों में जैसे पंख लग गए थे चलते हुवे वह अब आकाश में उड्डयन करते उडुगण की भाँती लक्षित हो रहा था | युद्धवीरों से घिरे शत्रुध्न भी तीव्र गति से उसके पीछे आए | 

उरे धूरि धूसरित घन छाए । टपटपात खुर  दूर दूराए ॥ 
अपने टापों की उडती धूल से धूसरित घन व्याप्त कर कुलांचे भरता वह दृष्टि से ओझल हो गया | 

बहुतक राजे अरु महराजे, कोटिक रथ सथ संग चरें । 
भयौ घन रजस पुनि चरन चरन सुमनस रेनु रस जस झरे ॥ 
चलि तुर पवन गहगहि गगन पताका पट प्रसरे  । 
कि तबहि मगपर अति भयंकर छाए तमि सम तम गहरे ॥ 
बहुसंख्यक राजा महाराजे करोड़ों रथों के साथ चले जा रहे थे | धूलि रूपी वह घन फिर पद पद पर पदुम पराग रूपी जल रस के जैसे झरने लगे |  उनके साथ पवन भी आतुरता से चलने लगी इस आतुर पवन का प्रसंग प्राप्त कर सेना का पताका पट भी हर्षोल्लास से प्रसरित हो रहा था कि तभी उस मार्ग पर गहन रात्रि के समान घोर अन्धकार छा गया | 

सियराम कथा निरंतर बरनै भगवन सेष । 
कहत मुनि तब सकल सैन गहबराइँ लौ लेष ।। 
सियाराम कथा का सतत वर्णन करते हुवे भगवान शेष ने कहा -- 'मुने ! उस समय शत्रुध्न की विशाल सेना थोड़ा सा घबड़ा गई | 

शुक्रवार १०अप्रेल २०१५                                                      

कवन स्वजन अरु कवन पराए । सुधि बुधिमनहु किछु समुझ न आए । 
तदनन्तर पाताल निबासी ।बिद्युन्माली नाउ पिसाची ॥ 
कौन अपना और कौन पराया है घने अन्धकार सी घिरी सेना में बुद्धिमान पुरुषों को भी यह ज्ञात  नहीं हो रहा था | तदनन्तर पाताल निवासी विद्युन्माली नाम का पिशाच-

चहुँ दिसि निसि चर के समुदाई ।घेर घिरे तहँ धमकत आईं ॥ 
जो लंकेसु सुहरिदै रहेउ ।हय हिरन किरन कर लिए गहेउ ॥ 
वहां आ धमका जो चारों ओर से निशाचरों का समुदाय उसे घेरे हुवे था | यह लंकापति रावण के सुहृदय था,   रश्मियों को ग्रहण कर फिर उसने वेगवान अश्व  को हरण कर लिया | 

किए अट्हास चले करि चोरी । हय बिरमन बिहुरत बरजोरी । 
छन महुँ बिनसे घन अँधियारा ।लहेउ गगन बदन उजियारा ॥ 
यह चोरन कर अट्टाहस करता चला, अश्व ठहरता और लौटने हेतु बल लगाता | क्षण भर में सघन अन्धकार  नष्ट हो गया जिससे गगन का वदन भी उज्जवल हो गया | 

दूरत धूरि  प्रभा कर छायो । धौला गिरबर  जस दरसायो ॥ 
केहि न जब किछु आनए लेखे । सबहि एकु एकहिं पूछ देखे ॥  
धूलि भी समाप्त हो गई और उसपर जैसे ही सूर्य व्याप्त हुवा,वह पर्वत श्रेष्ठ हिमालय के जैसा दर्शित होने लगा | जब किसी को कुछ समझ नहीं आया तब शत्रुध्न आदि सभी वीर एक दूसरे से पूछने लगे | 

 कहँ यमन कहँ तासु किरन हरन  करे को ताहि  । 
का हरानत के हरिदै,मरनिहि के भय नाहि ॥ 
हरि कहाँ है ? उसकी किरणें कहाँ हैं ? क्या उसे किसी ने हरण कर लिया है ? क्या हरण कर्त्ता के हृदय में मृत्यु का भय नहीं है ? 

रविवार १२ अप्रेल २०१५                                                                        

कोउ किछु कहि  कोउ किछु कहई | बतहि मैं सब लयलीन रहईं ॥ 
कि तबहि तहाँ निसाचर राई | जुधिक जूथ सन देइ दिखाई ॥ 
कोई कुछ कहता तो कोई कुछ | सभी वार्तालाप में तल्लीन थे कि तभी वहां निशाचर पति विद्युन्माली सैन्य समूह के साथ दिखाई दिया | 

को गजको है बाहि बिराजे ।बाहु बली मुख सूरता साजे ॥ 
बिद्युन्माली  बैसि बिमाना ।घेरिहि चहुँ दिसि दनुज प्रधाना ॥ 
कोई हस्ती तो कोई हय पर विराजित था उन बाहुबलियों का मुख शौर्यता से सुसज्जित था | विद्युन्माली श्रेष्ठ विमान पर आसित था प्रधान-प्रधान दनुज उसे चारों ओर से घेरे हुवे थे | 

गहे दनुज मुख दंस कराला । लमनि दाढिका घनि बिकराला ॥ 
ते सबहि तहँ ऐसेउ लाखिहि । मानहु सत्रुहन अनि लए भाखिहि ॥ 
दनुजों के मुख कराल दंष्ट्र से युक्त थे उसपर  घनी-लम्बी  विकाराल दाढ़ी थी | वे सब वहां ऐसे दर्शित हो रहे जैसे कि वह शत्रुध्न की सेना का तत्काल भक्षण कर देंगे | 

सैनि सत्रुहन सूचित कीन्हे ।को हरक हय हरन करि लीन्हे ।। 
जोइ उचित हो सोइ  कीज्यो ।हमरे जोग आयसु दीज्यो ॥ 
सैनिकों ने शत्रुध्न ने तत्संबंध में सुचना दी कि किसी हरानक ने अश्व को हरण कर लिया है | अब जो उचित है वही कीजिए और हमारे योग्य आज्ञा कहिए | 

श्रुति उदन्त अस सत्रुहनहि  बदन भयउ अंगारि । 
दोइ  नयन अंगार भरि हरिअरि करि दहकारि ॥ 
ऐसे समाचार श्रवणकर शत्रुध्न का मुखमण्डल अगींठी के सदृश्य हो गया था अंगारों से भरे दोनों नेत्र धीरे -धीरे धधक रहे थे | 

सोमवार १३ अप्रेल २०१५                                                                     

हलबल पलकिन पँखी हिलोले । पाए पवन बल भभकत बोले ॥ 
इहँ सूरवाँ कवन अस होई । हरे हमारे मेधि हय जोई ॥ 
हिल्लोल करती पलक पंखी से पवन का बल प्राप्त कर वह भभकते हुवे बोले -- 'यहाँ ऐसा कौन शूरवीर है जिसने हमारे मेधीय अश्वका हरण किया है ?'

लखत लसनि सचिवन्हि  सम्बोधे । कहत सत्रुहन ए मोहि प्रबोधे ॥ 
अस सठ सथ कस लोहा लेहू । जुझावन जोतिहु केहु केहू ॥ 
फिर शत्रुध्न वहां उपस्थित सचिव से सम्बोधित होते हुवे बोले -- ' आप मुझे बोध कराइये कि ऐसे दुष्ट राक्षस के साथ हम कैसे लोहा लें, इस युद्ध में किस किस का नियोजन किया जाए | 

तेहि ते रनत बधन ललकाहि । ऐसेउ अजुधक कहु को आहि ॥ 
कहे सुमति जहँ लग में जाना । पुष्कल एकु महबीर महाना ॥ 
कहिए ऐसा कोई योद्धा है जो उससे युद्ध करते हुवे जो उसका वध करने के लिए उत्कंठित है ? सुमति ने उत्तर दिया --  महानुभाव ! हमारी सेना में पुष्कल ऐसा महान महावीर है, 

प्रकम्पनि  अमित कृतु तेजू । अमित्र तपन रन साज  सहेजू ॥ 
जय हुँत आतुर जुध हुँत उद्यत । तासु अबर लखमी निधि हनुमत ॥ 
उसमें कम्पित कर देने वाला अमित बुद्धि से युक्त तेज है | इनके अतिरिक्त शत्रु को संत्रास  करने वाली सैन्य सामग्रियों की रक्षा करने वाले लक्ष्मी निधि और वीर हनुमंत भी है जो उस राक्षस से लोहा लेने के लिए उत्साहित और विजय प्राप्त करने के लिए आतुर हैं | 

अन्यान्य अरु अहहि  लड़ाके । संग्राम कुसल बलबन बाँके ॥ 
अस्त्र घात महुँ सबहि प्रबेका । सस्त्र हस्त सब एक ते ऐका ॥ 
और भी कई ऐसे लड़ाके हैं जो संग्राम कौशल के सह महाबली शूरवीर हैं | अस्त्र घात में ये सभी प्रवीण हैं और ये सब एक से बढ़कर एक शस्त्रवेत्ता हैं| 
 कहत सुमति दनुपत हतन प्रण ले पान उठाए । 
जोई भरोसे आपने  सौमुख सोई आएँ ॥ 
तत्पश्चात सुमति ने कहा -- जिसको स्वयं पर विश्वास है वह वीर मेरे सम्मुख आए और दानव का वध करने का प्रण ले | 

मंगलवार,१४ अप्रेल २०१५                                                          

तब पुष्कल भइ ताहि अगूते  ।गहे पान निज भुज बल बूते ॥ 
बोले बलवन मुख भर रोसा ।ए सैनि अपने बाहु भरोसा ॥ 
तब पुष्कल उनके सम्मुख आए और अपने भुजाओं के सामर्थ्य पर दानव का वध करने का बीड़ा उठा लिया और मुख पर रोष भरे उस बलवान ने कहा --आपके इस सैनिक को अपनी भुजाओं पर विश्वास है | 

 जोग जान रन आयसु दीजो | महनुभाव मम प्रन सुन लीजो ||  
छाँडत धनु मम तेजस बाना । लगत दनु जौ मुरुछा न दाना ॥ 
महानुभाव ! योग्य जानकार मुझे आज्ञा दीजिए | अब मेरी प्रतिज्ञा भी सुन लीजिए- यदि मेरे धनुष के बाणों की तीक्ष्ण धार ने उस दानव पर आघात कर उसे मूर्छित न कर दिया,

तीख मुखी सर ह्रदय बसेऊ । दनुज हत होहि न महि खसेऊ ॥ 
चितरित चिनगी कन के नाई । दनुज दल होहि  न धरासाई ॥ 
यदि मेरे बाणों के तीक्ष्ण शिखर उस दनुज के ह्रदय में नहीं उतरे और वह हताहत होकर भूमि पर नहीं गिरा | यदि उसका सैन्य दल ज्वाला कण के समान छिन्न-भिन्न होकर धराशायी न हुई,

तो पुष्कल मम नाउ न होही ।कहिहौ पुनि कौ बीर न मोही ॥ 
मोर कही जो सत्य न होईं ।त मोहि पातक लागिहि सोई ॥ 
तो मेरा नाम पुष्कल न होगा और मुझे वीर भी कोई नहीं कहेगा | यदि मेरा कहा सत्य न हुवा तो मुझे वही दोष लगेगा - 

जो हरि हर अरु हरा मैं,भेद दीठ धरहारि । 
अस खलजन होहि जोई पातक के अधिकारि ॥  
जो दोष विष्णु व् शिव में तथा शिव व् शिवा अथवा कल्याण और मुक्ति में भेद दृष्टि रखने वाले दुष्टों को लगता है | 

बुधवार,१५ अप्रेल, २०१५                                                                     

रघुबर पद दुइ पदमिन जोरी । अरु बहु निहछल भगतिहि मोरी ॥ 
निज आसिर सो मम सिरु धरिहीं । मोरी कहि बत पूरन करिहीं ॥ 
भगवान रामचद्र के चरण युगल पद्म हैं और इन चरणों में मेरी भक्ति निश्छल है  मेरे शीश अपना आशीर्वाद देकर वह मेरा कहा अवश्य ही पूर्ण करेंगे | 

पुष्कल प्रन  जब दिए निज काना ।हित कर बचन कहए हनुमाना ॥ 
सज्जन सुसील साधु सुजाना ।कीन्हेसि नित जासु ध्याना ॥ 
पुष्कल के प्रण को सुनकर महावीर हनुमंत ने कल्याणमय वचन कहे- 'सुशील साधू सज्जन व् ज्ञानी जिनका नित्य-निरंतर ध्यान करते हैं,

देवासुरहु नाइ निज माथा । सुमिरि गावहिं नाथ  गुन गाथा ॥ 
पूजत पद बर बर लोकेसा । कह हमरे पत अवध नरेसा ॥ 
जो भगवान रघुवीर के सम्मुख नतमस्तक होते हैं, देव व् असुर भी नतमस्तक होकर जिन नाथ के नाम का स्मरण कर उनका यशोगान करते हैं |  जगत श्रेष्ठ लोकेश्वर भी जिनके चरणों का पपूजन करते हैं यह कहते हुवे कि हमारे स्वामी तो अयोध्या पति ही हैं | 

सुमिरि सो नाथ  जो किछु कहिहौं। पन लहिहउँ सो साँचहि करिहौं ॥ 
राउ एकु बचन पूछउँ तोही । तृन तुल दनु तव सहुँ कहँ होही ॥ 
उन्हीं नाथ का स्मरण कर मैं प्रतिज्ञापूर्वक जो कुछ भी कहूंगा उसे सत्य करके दिखाऊंगा | राजन ! मैं  एक बात पूछता हूँ यह तृण तुल्य दनुज आपके सम्मुख कहाँ ठहरता है | 

बैसत इच्छा चरित बिमाना | तुंगासित नहि होत महाना || 
बान सोइ जो हरिदय उतरे| सौगंध सोइ जो पूर परे || 
इच्छा चारी विमान में बैठकर अथवा ऊंचाई पर आसित होने से कोई महान नहीं हो जाता | बाण वही है जो हृदय में उतरे, सौगंध वही है जो कही को पूर्त करे |  

ए रघुबर दासा हुँत जो तुहरी आयसु आहि । 
तो जाउँ कृपायतन रन भू भेंटन ताहि ॥ 
इस रघुवर के दास को यदि आपकी आज्ञा हो तो हे कृपायतन मैं रणभूमि जाकर उस राक्षस से मुठभेड़ करूँ  ? 

5 comments:

  1. अतीव सत्य एवं सुंदर .
    क्षेत्रपाल शर्मा

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  2. “ आपकी मेधा असाधारण है , जो प्रकृति प्रदत्त वरदान है “

    क्षेत्रपाल शर्मा ,
    Kpsharma05@gmail.com

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  3. " श्लेष श्लेष मे गुंथ रहे ,नीति अर्थ के सार ,
    पद है या दोहावली ,या वीणा की झनकार l "
    क्षेत्रपाल शर्मा

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  4. “ जननी जन्मभूमिस्च .........” वाल्मीकि . धन्य .धन्य

    क्षेत्रपाल शर्मा
    10.4.15

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  5. “ तिनका तिनका बीनकर( सींच कर) , देती तब आकार ( घर) ,
    यही बया ( पक्षी ) का घोंसला , यही बया का प्यार “
    क्षेत्रपाल शर्मा
    11.4.15

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