Wednesday 1 July 2015

----- ॥ उत्तर-काण्ड ३६ ॥ -----

बुधवार  ०१ जुलाई २०१५                                                                    

धूर धूसरित पद तल छाला । गौर बरन मुख भए घन काला ॥ 
सिथिल सरीर सनेह न थोरे । दरसन प्रभु लोचन पट जोरे ॥ 
धूल से धूसरित चरण और तल में छाले भरतजी का मुख गौर वर्ण से घन सा मलिन हो चला था | शरीर शिथिल हो गया था किन्तु मन में स्नेह अतिशय था प्रभु के दर्शन हेतु पलक पट लोचन से संयुग्मित थे | 


कुसल पथक संगत गहि राखिहि  । चित चितबन् चित्रकूटहि लाखिहि ॥ 
जावहि भरत जलद करि छायो । अस त सुखद पथ प्रभु  नहि पायो ॥
कुशल पथप्रदर्शक वह अपने संग लिए हुवे थे उनका ध्यान और दृष्टि चित्रकूट का ही लक्ष्य किए हुवे थी | भारत चले जा राहत हे बादलों ने छाया कर दी थी ऐसा सुखद पथ तो प्रभु को भी प्राप्त न हुवा था | 


दरसि बासि मग  मन संदेहा ।चाल सरिस सम  सील सनेहा ॥ 
बेषु न सो सँग  सिय नहि आहीं । रामु लखन हितु होंहि कि नाहीं ॥ 
उन्हें विलोक कर मार्ग में गांव वासियों को संदेह हो जाता उनकी गमनगति स्नेहशील  प्रभु श्रीराम चंद्र के जैसी ही थी किन्तु देह पर रामजी के जैसा तपस्वी वेश नहीं था और सीताजी भी संग में नहीं थी | ये रामलक्ष्मण के हितार्थी हैं अथवा नहीं | 


इतै भरत बन  चरन  प्रबेसे । उत किरात प्रभु दिए संदेसे ।। 
लोचन नीर भरे लघुभाई । चले तहाँ  जहँ सिय रघुराई ॥ 
इधर भरत के चरणों ने वन में प्रवेश किया उधर कोल -किरातों (आदिवासियों ) ने प्रभु को सन्देश दिया | लोचन में अश्रुधार भरे अनुज फिर वहां चले जहाँ सीता सहित भगवान श्री राम जी निवासरत थे || 

 
चले चरन भुज प्रभु पद ओरा । बरखिहि बारि पलक पट तोरा ॥ 
उठे नाथ  बहु पेम प्रसंगा । कहुँ पट कहुँ  धनु बान निषंगा ॥ 
चरण पठन पर संचारित है और भुजाएं प्रभु की ओर गतिमान है अश्रु वर्षा है की पलकों के पट रूपी किनारों  को तोड़ने पर आतुर हैं | नाथ उन्हें देख अत्यंत प्रेम से परिपूरित होके उठे तो कहीं पट कहीं धनुष कहीं बाण तो कहीं निषंग था || 


परे चरन  प्रिय भरत जस उर लिए कृपानिधान । 
राम भरत मिलन बरनन किन कबि जाइ बखान ॥ 
प्रिय भरत का जैसे ही पदार्पण हुवा कृपा के निधान ने उन्हें हृदय में धारण का लिया | राम भरत के  मिलाप का वर्णन का व्याख्यान करने में भला कौन कवि समर्थ है | 

बृहस्पतिवार, ०२ जुलाई २०१५                                                           

बिनयत भाल सिय पदुम पद धरे । परनत पुनि पुनि जोहार करे ॥ 
दिए असीस सिय बारहि बारा । उमगै उरस सनेह अपारा ॥ 
विनयवत मस्तक से भरत ने माता सीता के चरण ग्रहण कर प्रणाम अर्पित करते हुवे वारंवार अभिवंदन करने लगे | माता सीता भी उन्हें वारंवार आशीष देने लगीं उनके ह्रदय  भरत के प्रति अपार स्नेह उमड़ आया || 


  नभ सराहि सुर सुमन बरसइहिं । रघुनाथ तिनहु मात  भेंटइहि  ॥ 
परन पुंट जस सुमन समेटे । गुरु गुँह सानुज सों  तस भेंटे ॥ 
नभ में स्थित देवगण सुमानवर्षा कर उनकी प्रसंशा स्तुति करने लगे तदननतर रघुनाथ जी ने तीनों माताओं से भेंट की | पर्ण के सम्पुट जैसे पुष्पों को समेटे रहते हैं भगवान ने भी निषाद राज, गुरुवर व् सहोदरों को भुजाओं में उसी भांति समेटकर भेंट किए || 


गुरुहि सुरग पितु बास जनावा । रघुबर हरिदय  दुसह दुःख पावा ॥ 
भूसुत बहु बिधि  ढाँढस बँधाए  । कीन्हि काज प्रभु  बेद बताए  ॥ 
गुरुवर ने पिता के स्वर्गवास होने की सुचना दी, तब रघुवीर का ह्रदय दुसह दुःख से पीड़ित हो गया | ब्राम्हण मुनिदेव ने उन्हें बहुंत प्रकार से सांत्वना दी | तत्पश्चात  उन्होंने वेद विहित रीति सेपिता का कर्मकांड किया | 

बोले पुनि मुनि देत  दुहाई । भयो बहुंत बहुरौ रघुराई ॥ 
भरी सभा भित भरत निहोरे  । कहें उचित रघुबर कर जोरे ॥ 
तत्पश्चात  अतिशय गुहार लगाते हुवे कहा भगवान बहुंत हुवा अब लौट चलो | भरी सभा के मध्य भरतजी ने भी प्रार्थना लौट चलने की प्रार्थना की | तब करबद्ध होकर भगवान ने कहा आपका कहना उचित है | 

गुरहि  दिए अग्या सिर  धारिहौं । सुरग बसे पितु कहि  कस टारिहौं ॥ 
एहि  बिधि बीते बासर चारी  । बहुरन सब जन कहि कहि हारी ।। 
मैं गुरु की आज्ञा सादर स्वीकार  करता हूँ किन्तु हे देव मैं स्वर्गवासी पिता के कथनों की अवमानना कैसे करूँ | इस प्रकार चार दिवस व्यतीत हो गए सभी भगवान को लौट चलने को कह कर श्रांत हो गए | 

गुरु अग्या सिरुधार किए गहै  राम बन राज । 
पितु कही अनुहार तजे कौसल राज समाज ॥ 
तब गुरुवर की आज्ञा शिरोधार्य किए भगवान ने  वन के राज का कार्यभार ग्रहण किया और पिता की आज्ञा का अनुशरण करते हुवे अयोध्या के राजपाट का त्याग कर दिया | 

शुक्रवार, ०३ जुलाई, २०१५                                                                  

सेवौंउँ अवध पुर अवधि लगे । देवउ प्रभो मोहि सिख सुभगे ॥ 
कहे भरत तुअ जगत भरोसो । पालन  पोषन करिहौ मो सो ॥ 
अवसर देखकर भरतजी ने कहा हे प्रभो ! मैं आपके वनवास की अवधि पूर्ण होने तक अवध का सेवन कर सकूँ मुझे ऐसा कोई सदोपदेश दीजिए तब रामजी ने कहा हे भरत तुम संसार के भरोसे रहना मेरे समान ही प्रजा का  पालनपोषण करना | 

परजन परिजन  गह कानन की । हमरी चिंता बिरधाजन की ।। 
मातु सचिउ गुरु  सिख सिरु धरिहौ । पहुमि प्रजा के  पालन करिहौ ॥ 
परजन,पुरजन, गृह, कानन सहित हमारी चिंता तो वृद्ध जनों की है तुम केवल मात-पिता और गुरु वशिष्ट की  शिक्षा सिरोधार्य कर भूमि और उसकी प्रजा का पालन करना | 

देइ कहत अस प्रभु पद पाँवरि । राम नाम के जस दुइ आखरि ॥ 
किए कर संपुट धरि सिरु राखा । प्रजा प्रान जामिक जिमि लाखा ॥ 
तदनन्तर भरत ने प्रभु से उनकी चरण पादुकाएं मांगी जो राम नाम के दो अक्षरों के समान थी उन्हें अपने हस्त्य अंजुली में धारण कर उन्होंने शीश पर प्रितिष्ठित किया और  प्रजा के प्राण-रक्षक के सदृश्य माना || 

चारि दिवस पिछु अवध पुर आए । जनक राज तहँ रहें पधराए ॥ 
सौंपि सचिव गुर भरतहि राजू । चले तिरहुत साजि सब साजू ॥ 
चार दिवस के पश्चात भरजी अवधपुर आए वहां जनक राज जी राज्य का भार ग्रहण किए हुवे थे | सचिवों गुरुजनों और भरत को राज सौंप वह अपनी साज-सामग्रियों  के साथ  वैदेह लौट गए | 

बसत भरत पुनि भयौ बिरागे । घटै तेजु कछु देह न लागे ॥ 
नंदिगांव कुटि करत निबासिहि  । धार मुनिपट सुख भोग उदासिहि ॥ 
वहां भरतजी वैराग्य मन से निवास करने लगे शरीर का तेज क्षीण हो गया देह को कुछ लगता नहीं था  | नंदीग्राम में उनकी निवास कुटिया थी मुनियों का वेश धारण किए वह सांसारिक भोगों से विरक्त हो चले थे | 

मन मंदिर कर मूरति जिहा नाम सिय राम । 
नित पूजत पद पाँवरी करए प्रजा के काम ॥ 
मन मंदिर में  सीताराम की मूरत और जिह्वा पर उनका  नाम धारण किए वह  प्रभु की चरण पादुकाओं का नित्य पूजन करते हुवे प्रजा की सेवा करते || 

शनिवार ०४ जुलाई,२०१५                                                                     
भरत प्रीत प्रभु प्रियबर रूपा ।कहा जेहि निज मति  अनुरूपा ॥ 
कीन्ह प्रभु जो बन अति पावन । सुनहु चरित मुनि सो मन भावन ॥ 
भरत यदि प्रीत थे तो प्रभु प्रियवर स्वरूप थे यह राम -भरत मिलाप का प्रसंग मैने अपनी बुद्ध अनुसार कहा | मुने ! वन में प्रभु ने जो पावन लीलाएं की अब उस  मनभावन चरित्र का भी श्रवण करो | 

सुरप सुत पुनि रूप धरि कागा ।हतत चोँच सीता पद लागा ॥ 
चहे लेन सठ प्रभु बल परिखा । सींक धनु सायक दिए भल सिखा ॥ 
 देवराज इंद्र के मूर्ख पुत्र जयंत ने कौंवें का रूप धारण कर माता सीता के चरणों में चोंच मारी (इस पंक्ति के साथ तुलसी कृत राम चरित मानस विशेष मर्यादा को प्राप्त हुई वाल्मीकि रामायण में यह चोंच ह्रदय पर लगी थी )| वह दुष्ट प्रभु के  बल का परिक्षण करना चाहता था | प्रभु ने  अपने धनुष पर सींक के बाण से उसे भली सीख दी | 

भ्रात लखमन जानकी साथा । रहत बारह  बरसि लग नाथा ।। 
बहुरि दिवस एक मन अनुमाने । चितकूट अब मोहि सब जाने ॥ 
भ्राता लक्ष्मण व् जानकीजी के साथ प्रभु को वन में निवास करते द्वादश वर्ष हो गए | तदनन्तर एक दिवस उन्होंने मन में यह विचार किया कि अब चित्रकूट में सभी मुझसे परिचित हो गए हैं | 

बसे मुनिहि बन माँगि बिदाईं । अनुसर पुनि अत्रि  आश्रमु आईं ॥
किए अस्तुति बर सुन्दर बानी । भाव पूूरित भगति रस सानी ॥ 
वन में निवासित मुनिजनों से प्रस्थान की आज्ञामांग कर वह  अत्रि मुनि के आश्रम में आए जहाँ मुनिवर ने सुन्दर वाणी से भगवान की स्तुति की जो भावों से परिपूर्ण और भक्ति रस में अनुरक्त थी | 

अनसूया सिया निकट बिठाई । नारि धरम के चरन जनाई ॥ 
नदी नीर बिनु पिय बिनु नारी । पूरन  सरूप होत पियारी ॥ 
 अनुसुइया ने सीताजी को निकास बैठाकर नारी धर्म के आचरणों का ज्ञान दिया | जिस प्रकार  नदी पानी से रहित होकर अपूर्ण होती है उसी प्रकार नारी भी प्रीतम से रहित होकर अपूर्ण होती है | ये पूर्ण स्वरूप को प्राप्त होकर ही सुशोभित होती हैं | 

चले बनही बन भगवन लखन जानकी संग । 
बिराध निपात आ तहँ रहै जहाँ सरभंग ॥ 
अब भगवान लक्ष्मण और जानकी को संग लिए वन ही वन चले जा रहे हैं | विराध का वध कर भगवान वहां आए जहाँ शरभङ्ग मुनि निवासरत थे ||  

रविवार, ०५ जुलाई, २०१५                                                                  

हरि पद गह मुनि भगति बर पाए । जोग अगन जर हरि  पुर सिधाए ॥ 
पीछु लखन आगें रघुराई । लागि चलि मुनि मनीष निकाईं ॥ 
हरि के चरण ग्रहण कर मुनि ने उत्तम भक्ति प्राप्त की फिर योगाग्नि  से स्वयं को दग्ध कर वह बैकुंठ को सिधार गए | आगे आगे रघुपति रामचद्रजी चले जा रहे हैं पीछे लक्ष्मण हैं मार्ग में मुनियों के समुदाय मिलता सो वो भी उनके संग चल पड़ता | 

दिए कुदरसन अस्थि पथ कूरे । पूछ मुनिन्ह नयन जल पूरे ॥ 
रहेउ रिषि जिन निसिचर भखने । करौं रहित कहि तिन तैं भुवने ॥ 
जब पंथ पर अस्थि पुंज के ढेरों का कुदर्शन हुवा, प्रभु ने मुनियों से उसका कारण पूछा तब उनके नेत्र अश्रुपूरित हो गए |  भगवान ने प्रण लिया कि निशिचरों ने जिन ऋषियों का भक्षण किया है मैं  भूमि को उनसे रहित कर दूंगा | 

कुम्भज के एक सिष्य सुजाना । देइ ताहि  दरसन भगवाना ॥ 
गन ग्यान कर दिए बरदाने । बहुरी कुम्भज रिषि  पहिं आने ॥ 
कुम्भज ऋषि के एक सुबुद्ध शिष्य सुतीक्ष्ण थे उन्हें भगवान ने दर्शन दिया और ज्ञान गुण का वरदान देकर तदनन्तर कुम्भज मुनि के पास आए |

आनै के जब कारन  कहेउ । चितब प्रभो मुनि अपलक रहेउ ॥ 
निसिचर मरन मंत्र गोसाईं । पूछेउँ मोहि मनुज के नाईं ॥ 
और जब अपने आगमन का कारण  कहा तब मुनि प्रभु को विलोकते हुवे हतप्रभ रह गए | उन्होंने कहा हे स्वामी ! आप मनुष्य के जैसे  मुझसे राक्षस के वध का मंत्र पूछ रहे हो | हे अन्तर्यामी ! आप तो सर्वज्ञाता हैं | 

बसौं कहाँ अब पूछ बुझाइहि  । दंडक बन प्रभु बसन सुझाइहि ॥ 
पंचबटी बहै गोदावरी । नदीं बन ताल गिरि  छटा धरी ॥ 
और अब यह भी प्रश्न करते हो कि में कहाँ निवास करूँ  ? मुनिवर ने उन्हें दण्डक वन में निवास करने का सुझाव दिया | प्रभु ने फिर पंचवटी में निवास किया जहाँ गोदावरी नदी प्रवाहित होती है जो नदी वन ताल तालाबों की छटा को धारण कर अतिशय रमणीय है | 

खग मृग वृन्दार वृंदी गुंजि मधुप सुर बंध । 
आन बसिहि विभो अस जस सुबरन बसिहि सुगंध ॥ 
मृगों, विहंगों के समुदाय से परिपूर्ण उस स्थली में कमल समूहों पर मधुकर मधुर स्वर में रवन करते  है इस प्रकार वीरभूमि (वंगाल )के दक्षिण में स्थित ऐसे सुन्दर वन में प्रभु इस भांति  निवासरत हुवे जैसे स्वर्ण में सुगंध का निवास हो जाए || 

सोमवार, ०६ जुलाई, २०१५                                                          

सूपनखा दनुपति के बहनी । तामस चरनी राजस रहनी ॥ 
पंचबटी आईं एक बारा । कही चितइ चित  लखन कुआँरा ॥ 
शूर्णपंखा दनुजपति रावण की भगिनी थी उसकी रहनी राजसी और चलनी तामसी थी | एक बार वह पंचवटी आई और भ्राता लक्ष्मण को स्तब्ध दृष्टि से देखते  हुवे बोली -- 

मम अनुरूप नारि  जग नाही । तुअ सरूप को नर नहि आही  ॥ 
बरन  लखन जब अवसर दीन्हि । लाघवँ श्रुति नासा बिनु कीन्हि ॥ 
संसार में मेरे अनुरूप कोई नारी नहीं है और तुम्हारे स्वरूप कोई नर नहीं है | लक्ष्मण को जब स्वयं के वरण का अवसर दिया, तब लक्ष्मण ने डहांक लगाकर उसे कर्ण व् नासिका से विहीन कर दिया || 

बिलखत गइ खर दूषन पाहीं । भ्रात पुरुख बल धिग धिग दाहीं ॥ 
पूछत कहनि कहि सकल सुनाए । बना सेन चढ़ि धूरि धुसराए ॥ 
वह रोती बिलखती खर दूषण के पास गई और भ्राता के पौरुष बल को धिक्कारा  और पूछने पर सारा वृत्तांत कह सुनाई | तब खरदूषण ने  धूल धूसरित करती सेना लेकर भगवान पर आक्रमण कर दिया | 

निसिचर अनी आन जब जानी । भरि सायक हरि दिए चैतानी ॥ 
कहे दूत खर दूषन जाई । करे कृपा समुझए कदराई ॥ 
निशिचर की सेना  के आगमन की सुचना प्राप्तकर प्रभु  ने सायकों से परिपूर्णित होकर उसे चेतावनी दी || दूत ने जाकर खरदूषण से भगवान की चेतावनी कही | प्रभु ने तो कृपा ही की थी किन्तु उसने उस चेतावनी को प्रभु की कायरता के रूप में लिया || 

 कहु सूल कृपान कहूँ संधान सर चाप ब्याप चले । 
नभ उरत निसाचर अनी  उपरतत जिमि फुँकरत साँप चले ॥ 
धनुष कठोर करे घोर टकोर रघुबीर डपटत दापते  । 
लगत सर चिक्करत उठत महि परत निसिचर निकर काँपते ॥ 
धनुष संधान कर प्रभु कहीं बाण कहीं त्रिशूल कहीं कृपाण को व्याप्त करते चले | नभ में उड्डयन करते उनके  बाण फुफकारते सर्प से निशाचर की सेना का निवारण करते  | अपने कठोर कोदंड  से घोर टंकार कर रघुवीर ने ललकारते हुवे जब उनका अवरोधन करते तब मस्तक पर बाण के आघात से उन उठते-गिरते निशिचरों का समूह चीत्कार कर कंपित हो उठता | 

मारे सकल दल गंजन लेइ समर प्रभु जीत । 
चितव सीता सुर नर मुनि सब के भय गए बीत ॥ 
अंत में सभी दलवीरों का वध कर प्रभु ने उक्त संग्राम में विजय प्राप्त की, इस विजय पर सीता जी रघुवर को विलोक रही हैं इस प्रकार पंचवटी में  देव मुनि खरदूषण आदि राक्षसों के भय से विमुक्त हो गए | 

मंगलवार, ०७ जुलाई, २०१५                                                                

निबरे रिपु सिर करिहि हुँअ हुँआ । लखि सुपनखाँ खर दूषन धुआँ   ॥ 
जाइ दसमुख प्रेरिहि बहु भाँति । करसि पान सोवसि दिनु राति ॥ 
शत्रुओं के धड़ से पृथक शीश  हुआँ हुअ की चिंघाड़  करने लगे, शूर्णपंखा खर दूषण का विध्वंश देखकर रावण के पास गई और उसे यह कहकर  बहुंत भांति से प्रेरित किया कि  तू मदिरा पान कर अहिर्निश निद्रामग्न रहता है | 

लोक बिनु रीति राज बिनु नीति । प्रनत बिनु प्रनति प्रनय बिनु प्रीति ॥ 
दुर्मत नृप अभिमान ग्याना । नासिहि चेतस मद रस पाना ॥ 
रीति रहित प्रजा व् नीति रहित शासन विनय रहित नमन व् अनुरागी रहित अनुराग के समान है | दुर्मत शासक को, अभिमान ज्ञान को व् मदिरापान चेतना को नष्ट कर देता है | 

तव सिर अराति कह  उभराई । रावनु रयन नीँद  नहि आई ॥ 

चला एकला जान चढ़ि आना । कपटी मृग मारीच पयाना ॥
शत्रु तेरे शीश पर खड़ा है यह कहकर सूर्पणखा तो चली गई किन्तु रावण को रातभर नींद नहीं आई |  कपट मृग मारीच को भेजकर वह एकाकी ही यान पर आरोहित होकर आया | 

रचित हिरन मनि हिरन मनोहर । निरखि सिआ बहु रीझिहि तापर ॥
कहति सुनहु रघुबीर कृपाला  ।आनै देहु रुचिर मृग छाला ॥
स्वर्ण व् मणियों से रचित उस मनोहर हिरण को देखकर माता सीता मुग्ध हो गईं | उन्होंने कृपालु  रघुवीर से कहा -- मुझे इस मृग की छाल लाकर दे दीजिए | 

धर चाप भाथ  बाँधि कटि, लछिमनु कह समुझाए । 
करेहु रखबारि सिअ कर इहँ निसिचर बहुताए ॥ 
तब श्रीराम जी ने धनुष हस्तगत कर तूणीर को करधन पर कसा और लक्षमण का प्रबोधन कर कहा --  यहाँ  निशिचरों की भरमार है अत: तुम सीताजी की रक्षा करना | 

बुधवार, ०८ जुलाई, २०१५                                                                           

प्रभु पिछु  कपटी मृग सहुँ धाया । माया कर गै दूर पराया ॥ 
कबहुँ त प्रगटत कबहुँ गुंठाए । कबहुँ दूरत कबहूँ नियराए ॥ 
तब भगवान पीछे तो अतिशय श्रृंगों से युक्त हिंसक मृग छलकपट करता हुवा आगे दौड़ा |  अपनी मायावी शक्ति का प्रयोग कर वह दूर निकल गया फिर कभी तो प्रकट हो जाता कभी वह अवगुंठित हो  जाता, कभी अत्यंत दूर दृष्टिगोचर होता तो कभी निकट दर्शी हो जाता | 

चढ़े घात करि घोर हँकारा । सुमरेसि राम लखन पुकारा ॥ 
करुन पुकारि सुनिहि जब सीता । जानि संकट भई भयभीता ॥ 
अंतत: वह भगवान के घात पर चढ़ गया और घोर शब्द करने लगा, मृत्यु के समय भगवान का स्मरण कर राम-लक्ष्मण,राम-लक्ष्मण पुकारने लगा | जब माता सीता ने मारीच की करुण  पुकार सुनी तब किसी संकट की आशंका से वह भयभीत हो गईं | 

मर्म बत कहि लखनहि  पठायो  । लल जिह किए पुनि  दसमुख आयो ॥
दयामई दनुपति जति जानी । दायन दान भीख लै आनी ॥ 
मार्मिक वार्ताकर उसने लक्ष्मण को भेजा तब स्वान का सा स्वभाव वरण किए दशानन आया | वेश तपस्वियों का था उसे दयामयी साधु मानकर माता दान देने हेतु भिक्षा ले आई | 

जति भूसा धर रथ बैठावा । हाँकि लिए सिय गगन पथ जावा ॥
 बिलखत नभगत मातु बिलापहि  । आरत धूनि चहुँ पुर ब्यापहि ॥  
उस पाखण्ड वेशी ने सीता जी को बलपूर्वक यान पर बैठा लिया तत्पश्चात गगनपथ पर उसका संचालन करते माता को ले चला |  गमन  करते हुवे बिलखती हुई माता विलाप करने लगी  उनकी आर्तध्वनि चारों ओर व्याप्त हो गई | 

रामहि राम पुकारति पथ अति आरति  सिय जात । 
जानकिहि जान जटाजू खाएसि घात छँड़ात ॥ 
 राम ही राम की पुकार करते हुवे वियतगत माता सीता को दुखान्वित संज्ञानकर जटायु (गीद्ध )उन्हें मुक्त करने के प्रयास में रावण के आघात से हताहत हो गया | 

 आए आश्रमु अनुज सहित, देखि जानकी हीन । 
भए ब्याकुल प्रभु अस जस होत बिनहि जल मीन ॥ 
श्रीराम अनुज सहित आश्रम पर आए जब उसे माता जानकी से विहीन देखा तब वह ऐसे  व्याकुल  हो गए जैसे जल से विहीन मीन व्याकुल होती है | 

बृहस्पतिवार, ०९ जुलाई, २०१५                                                                      

गह घन नैन पलक जल धारा  । बिलपत बिरहा हेर बिहारा ॥ 
हे नद निर्झर हे नग सयनी । दरसिहौ कतहुँ मम मृगनयनी  ।। 
नयनों में घन छा गए पलकें जलधारा बहाने लगी  भगवान का विरह बिलख उठा वह अपनी प्रिया को ढूंढते वन-वन विचरण करने लगे | 

खग मृग मधुकर बन बन पूछा । उतरहु भयउ उतरु सों छूछा ॥ 
बन लीकहु लषनहु नहि लेखे । परे हति तब गीधपति देखे ॥ 
खगों से पूछा, मृगों से पूछा, मधुकर से पूछा, वन वन को पूछा किन्तु किसी ने उत्तर नहीं दिया  उनकी पूछ से स्वयं उत्तर भी उत्तर से रिक्त हो गया |  वन की पगडंडियों में भी माता के चरण चिन्हों का अवरेखन  नहीं प्राप्त हुवा तब उन्हें हताहत पड़े गिद्धराज दृष्टिगोचर हुवे | 

सिया हरन गइ कहि पद लागा । हरि हरि मुख धरि देहि त्यागा ॥ 
तासु परम गति देइ उदारे । सबरीं आश्रमु चरन पधारे ॥ 
गीद्ध राज प्रभु के चरणों से लग गए माता हरण हो गई ऐसा कहकर मुख से भगवान राम का नाम जपते उसने शरीर त्याग दिया | गिद्ध होने के उपरांत भी  प्रभु ने उदार पूर्वक उसे परम गति प्रदान की, तदनंन्तर शबरी के आश्रम में भगवान का पदार्पण हुवा | 

मोर सरिस को सुभग न होई ।पखारत चरन लपटहि रोई ॥ 
मैं मतिमंद अधम मम जाता ।कह हरि री सुनु मोरी बाता ॥ 
शबरी भावों से विभोर हो गईं, नेत्रों से जलवर्षा करते वह भगवान के चरणों से वलयित होकर बोली -- भगवन ! मुझ जैसी कोई सौभाग्यी नहीं है में अल्पमति हूँ  मेरा स्वभाव भी अधम प्रकृति का है तथापि आपके दर्शन प्राप्त हुवे | भगवान बोले - हे री !मेरे वचनों को ध्यानपूर्वक सुन -

सो भद्रजन भव भाव बिहीना । धर्म बिहीन धनी सम दीना ॥
मधुर मधुर रूचि रूचि फल देहा । गहे रुचित प्रभु सहित सनेहा ।। 
संसार में जो भद्रजन है उत्तम स्वभाव के हैं किन्तु भक्ति-भाव से विहीन है | वह दान-धर्म से रहित धनी के समान है, एतएव उनसे तुम श्रेष्ठ हो | शबरी ने मीठे-मीठे फल दिए भगवान ने उन्हें रुचिपूर्वक व् स्नेह सहित ग्रहण किया | 

कहसि सबरीं  दोउ कर बाँधे । पंपा सरिह पुरी किष्कांधे ।। 
अहइ भास्करि जहँ के  राई । जाहु तहाँ प्रभु किजौ मिताई ॥ 
हाथ बांधे हुवे शबरी ने फिर कहा - पम्पा नदी के तट पर किष्किंधा नामक नगरी है, सुग्रीव (भास्करि)वहां के राजा हैं जाइये प्रभु उनसे मित्रता कीजिए | 
  सोइ बन पुनि तजत चले, मन मुख धरत बिषाद । 
लखन प्रतिपल बिरह बिकल कहत नेक संवाद ॥ 
तब प्रभु आरण्यक वन त्याग कर मन व् मुख पर अवसाद लिए  किष्किंधा वन की ओर चल पड़े | विरह से व्याकुल भगवन लक्ष्मण को प्रतिक्षण अनेकानेक संवाद कहते | 


शुक्रवार, १० जुलाई २०१५                                                                          

ऋष्यमूक परबत के सीवाँ ।  सचिव सहित तहँ रहे सुगीवाँ  ॥ 
पैठेउ सीँव जान  जुग  भाई । भयानबित हनुमंत पठाईं ॥ 
ऋष्यमूक पर्वत के तटवर्ती क्षेत्र पर सुग्रीव सचिव सहित निवास करते थे | युगल भ्राताओं के सीमा में प्रवेश करने से भयान्वित सुग्रीव ने उनकी थाह लेने हनुमत को भेजा | 

बिप्र सरूप तन रूप धराई । गयो तहाँ पूछत सिरु नाईं ॥ 

स्यामल गौर सुन्दर दोऊ । बिचरहु बन बन को तुम होऊ ।। 
हनुमानजी ने विप्र का रूप धारण कर वहां गए और नतमस्तक होकर प्रश्न किया -- आप का सुन्दर व् श्यामल गौर अंग है तथापि  वन वन विचरण कर रहें हैं आप दोनों कौन हैं ? 

कहत कथा सब निज रघुराई । हनुमत परिचय  पूछ बुझाई ॥ 

मानसि ऊन प्रगस कपि रूपा । परे चरन  परचत जग भूपा ॥ 
अपनी व्यथित कथा का वर्णन करते रघुवीर ने महावीर हनुमान का परिचय पूछा | (ऊन मानना = दुखी होना )हनुमत दुखित होते वानर के अपने वास्तविक रूप में प्रकट हुवे | जगद-ईश का परिचय प्राप्त कर वह उनके चरणों से संलग्न हो गए | 

अनुज सहित निज नाथ समेले । जान हिती हितु सादर मेले ॥ 

हनुमत अगन साख जब दाना । लखन सकल इतिहास बखाना ॥ 
 तदोपरांत भ्राता लक्ष्मण सहित उन्हें अपने राजा सुग्रीव से मैत्री करवाई | वीर हनुमंत ने अग्नि  की साक्ष्यी देकर उस मैत्री को दृढ़ किया तब लक्ष्मण ने समस्त इतिहास का व्याख्यान किया  | 

हमहि देखि परबस नारि रामहि राम पुकारि । 
अस कह कपि पति दिए तुरै दीन्हि जो पट डारि ॥ 
हाँ !  परवश हुई एक  नारी राम राम की पुकार करती मुझे दर्शित हुई थी, ऐसा कहकर कपिपति सुग्रीव ने तत्काल ही  माता का गिराया वस्त्र खंड श्रीराम को सौंप दिया | 

बसेउ बन कवन कारन पूछे अब रघुनाथ । 
कह सो बालिहि संग  जौ बीती आपनि साथ ॥ 
अब भगवान ने पूछा - हे सुग्रीव तुम राजा होकर इस वन में क्यों निवासित हो ? तब कपिराज सुग्रीव ने बाली के साथ अपने ऊपर व्यतीत समस्त प्रसंग कह सुनाया | 

शनिवार, ११ जुलाई, २०१५                                                                           

करहि सदा हितु हितुहि हिताई । निबेर कुपथ सुपंथ चराई ॥ 
सुग्रीव प्रीत प्रतीती गाढ़ी । त रघुबर बालि बधबन बाढ़ी ॥ 
मित्र का यह स्वभाव है कि वह अपने मित्र का सदैव हित ही करे अहित न करे | यदि वह कुमार्ग गामी है तो  उसे सन्मार्गोन्मुखी करे | जब सुग्रीव की प्रेम व् विश्वास दृढ़ हो गया तब रघुवर बाली का वध करने हेतु अग्रसर हुवे | 

बहुरि समुख कपि नाथ पठेऊ । तर्जत ताहि  बालि गर्जेऊ ॥ 
रामु लखन कपिपति हितु जानी । जूझन चला महा अभिमानी ॥ 
तदनन्तर उससे मुठभेड़ हेतु सुग्रीव को भेजा | सुग्रीव के तर्जना करते ही बाली गर्ज उठा | राम-लक्ष्मण को सुग्रीव का हितैषी जानकर भी वह अहंकारी उससे लोहा लेने निकल पड़ा | 

कहा  मम का दोषु गोसाईं । कहि हरी हरिहौ तिया पराई ॥ 
तब प्रभुकर गयऊ सो मारा । दरसि बिकल बहु बिलपत तारा ॥ 
उसने प्रभु से कहा -- प्रभु ! मेरा क्या दोष है ?  कहा तुमने पराई स्त्री का हरण किया इस हेतु में सुग्रीव के पक्ष में हूँ | भगवान के हाथों उसका अंत हुवा पति का अंत देख पत्नी तारा व्याकुल होकर विलाप करने लगी | 

प्रभु उपदेसत देइ ग्याना । जीव नित्य मोहित मन जाना ॥ 
दीन्हि  पुनि पद सकल समाजा । हरिप राजु अंगद जुबराजा ॥ 
प्रभु ने उसे ज्ञानोपदेश दिया जीव नित्य है केवल देह मृत्य एतएव मोह के वश होकर तुम मृत देह हेतु शोक न करो है | तत्पश्चात प्रभु की उपस्थिति में समस्त वानर समाज ने सुग्रीव को राज व् बाली पुत्र अंगद को युवराज के पद से विभूषित किया | 

तपस बिगत बरखा आइ ऋष्यमूक के पास । 
देवन्हि गुह रुचिर रचे, प्रबरषन किए निबास ॥ 
तापस ऋतु व्यतीत हुई वर्षाकाल का आगमन हुवा ऋष्यमूक के निकट पवरशां पर्वत की गुहाओं को देवताओं ने  सुरुचि पूर्वक सुसज्जित किया हुवा था, प्रभु ने वहां निवास किया | 

रविवार, १२ जुलाई, २०१५                                                                             

 जब ते दिग आगत गिरि बस्यो । दरप दसहु दिसि दिककर लस्यो ॥ 
कुञ्ज कुञ्ज मधुकर कल रागें । बन उपबन मन रंजन लागै ॥ 
दूर से आए अतिथि जब से गिरी पर निवासरत हुवे हैं देशों दिशाएं विशेष दर्प के साथ युवान होकर शोभान्वित हो रही हैं | कुञ्ज-कुञ्ज मधुकर सुन्दर रागों में गुंजन करने से वन-उपवन उदासीन मन प्रसन्नचित्त हो चला हैं | 

कंज कलस कर  करधन धर के । नाचिहि बरखा छम छम कर के ॥ 
नीरज नुपूर गिरि गिरि आवा । समिट समिट  सरि सरित तलावा ॥ 
करधनी में जल कलश धारण किए बरखा भी नृत्याँगना सी छमछम करती नृत्य कर रही है | नूपुर सी जल बुँदे गिरती चली आ रहीं हैं इन नूपुरों को एकत्र कर-कर के  नदि, नद,ताल सभी भरपूरित हो गए हैं | 


छुद्र  
नदीं भरि चलीं तोराई । जिमि थोरहुँ धन खल इतराई ।। 
सकल महिका हरिन्मय होई । भए सब धनिमन दीन न कोई ॥ 
छोटी नदियाँ तटों को तोड़ती यूं हुई बह रही हैं जैसे थोड़े सा धन-वैभव और थोड़ी सी विद्या, प्रसिद्धि होते ही दुष्ट इतराते हुवे मर्यादाओं  का विभंजन करते हैं | समूची भूमि जैसे हरिणमय हो उठी | इंद्रदेव के जल वरदान से सभी अन्न-धन से भर पूरित होकर सभी धनि हो गए अब दरिद्र कोई नहीं रहा | 

कबहुँक गगन घटा घन  छाईं । कबहुँ किरन हरि चाप बनाईं ॥ 

बरखा  बरखत माँगि बिदाई । तासु बहुरत सरद  रितु आई ॥ 
कभी  घटाएं गगन पर छा जाती हैं तो कभी किरणे इंद्रधनुष रच देती हैं वर्षा ऋतु वर्षकर विदा माँगने लगी उसके प्रस्थान करते ही शरद ऋतु  का आगमन हुवा | 

पुष्कर  भयउ पुष्करी खग मग खंजन आए ।  
सस सम्पन्न महि सोह रहि हरि सिय सुधि नहि पाए ॥ 
जलाशय कमलपुष्पों से परिपूर्ण हो गए नभ मार्ग से प्रवासी पक्षियों भी आ गए | धान्य की बहुलता से धरती अत्यधिक सुशोभित हो रही है किन्तु भगवान श्रीराम को अब तक माता का कोई समाचार नहीं प्राप्त हुवा | 
  सोमवार, १३ जुलाई, २०१५                                                                   

राजतहि सुगीँवहु बिसरायो । भगवन लखन कुपित जब पायो ॥ 
गहे  बान  जब  धनुष चढ़ावा । तब अनुजहि बहुबिधि समुझावा ॥ 
राज्यासित होते ही सुग्रीव ने भी भगवान की मित्रता को विस्मृत कर दिया | ऐसा  विचारकर भगवान श्रीराम ने लक्ष्मण को कोप करते हुवे बाण को धनुष पर संधान करते हुवे देखा तब बहुंत भांति से प्रबोधन कर अनुज को शांत किया | 

यहां भगत हनुमंत बिचारे । राउ राम के काज बिसारे ॥ 
तेहि कहत सुगीँव  सुध पाईं । जहँ तहँ बानर दूत पठाईं ॥ 
यहाँ भक्त हनुमंत ने विचार किया  कि कपिनाथ ने रामजी का कार्य भुला दिया  | उनके चैतन्य करते ही सुग्रीव ने सीता जी की शोध  हेतु  वानर दूतों को इधर-उधर भेजा | 

कोप ज्वाल बर  लखमन आए । गहि कन त कपिपति अति अकुलाए ।। 

भयाभिभूत ताहि करि आगे । गत प्रभु  पहि रररत पद लागे ॥
लक्ष्मण कोप की ज्वाला से जलते हुवे आए उसकी चिंगारियों के चपेट में आकर कपिपति सुग्रीव व्याकुल हो उठे भय से अभिभूत हुवे वह लक्ष्मणजी को आगे किए प्रभु के पास गए और गिड़गिड़ाते हुवे उनके चरण पकड़ लिए | 

कहत बिनइबत सहुँ कर जोहा । नाथ बिषय सम मद नहि होहा ॥
जाहु कह कपि जूह चहुँ ओरे । सिए  सुध लिए बिनु को न बहोरे ॥
और करबद्ध होकर विनयपूर्वक बोले - नाथ ! सांसारिक विषयों के समान कोई मद नहीं है, में उन्हीं विषयों से मदोन्मत था और क्षमा याचना की  | तदनन्तर वानर समूह को  सीता जी की अन्वेषण  हेतु चारों दिशाओं में जाने का आदेश देकर सुग्रीव बोले -सीताजी का समाचार लिए बिना कोई भी न लौटे | 


पवन सुत पिछु बुला निकट प्रभु निज सेवक जान । 
कारज पटु तिन भान के, दिए मुद्रिका  कर दान ॥ 
प्रभु ने हनुमत जी को अपना सेवक मानकर निकट बुलाया और निपुण भानकर उन्हें अपनी मुद्रिका  देते हुवे कहा --

मंगलवार, १४ जुलाई, २०१५                                                                   

जाइहु दिग दिग चारिहुँ फेरा । लाइहु रे मम  सिअ के हेरा ॥ 
बिरति अवधि इत सुधि नहि सीता । मारिहि पति कपि भए भयभीता ॥ 
रे भाई ! तुम दिशा दिशा जाना तथा सभी ओर शोध कर मेरी सीता की टोह ले आना | सुग्रीव की मर्यादा अवधि व्यतीत हो गई किन्तु सीता शोधित नहीं हुई कपिराज प्राण दंड देंगे ऐसा विचार कर सभी वानर दूत भयभीत हो गए | 

पंथ पंथ बन पदचर देखे । रघुबर बधुटिहि कतहुँ न देखे ॥ 
कि तबहि अंगद सुधि कर धारे । सिय सत जोजन सागर पारे ॥ 
पंथ-पंथ छान लिए, वनों में चल कर देखा किन्तु रघुवर वधु के  कहीं दर्शन न हुवे | तभी अंगद को समाचार प्राप्त हुवा कि सीताजी समुद्र के उस पार सौ योजन की दूरी पर स्थित एक द्वीप में हैं | 

बुधि बिबेक बिग्यान निधाना । रीछ पति कहि  बुला हनुमाना ॥ 
पार बसे  खल सिंधु अपारा  । कहँ पुनि  कपिबर गह बल भारा ॥ 
रीछ पति जांबवंत ने बुद्धि विवेक व् विज्ञान के निधान हनुमान को बुलाकर कर कहा : -सीताजी का हरण करने वाला वह दुष्ट अपार सिंधु के पार निवासित है यह श्रवण कर कपि में श्रेष्ठ व् महान बलशाली हनुमंत जी ने कहा --

देउ उचित दिग दरसन मोही । रघुबर कारज पूरन होही ॥ 
महबीर कहतेउ  अस बाता । गगन पंथ पुनि दरसिहि जाता ॥ 
हे तात ! आपने मेरा यथोचित मार्दर्शन किया अब रघुवीरजी  का कार्य अवश्य ही पूर्ण होगा |  ऐसा कहते ही  महाबली हनुमंत गगन वीथिका से गमन करते दर्शित हुवे | 

बार बार रघुबीर सँभार तीर गिरि जब चरन धरे । 
जलनिधि ताक तब कह मैनाक तासु थाक हरन करे ॥ 
देखिउ जात अहिन्हि के मात सुरसा एहि बात कही । 
दीन्ह असन सुरगन मोहि मुख प्रबिसि जावन दै नहीँ ॥ 
वारंवार रघुवीर जी का स्मरण करते समुद्र तट पर स्थित एक सुन्दर गिरि पर उतरे | समुद्रनिधि ने उन्हें देखकर मैनाक पर्वत से कहा आप उसकी शिथिलता दूर कर दो | नागसुकि की माता सुरसा ने उन्हें जाते हुवे देख यह वचन उद्धृत किए - आज देवताओं ने मुझे भोजन प्रदत्त किया है और उसने मुख में प्रवेश के बिना हनुमंत को जाने नहीं दिया | 

षोडस जोजन मुख करि हनुमंत भए बत्तीस | 
सुरसा के मुख एक बढे त बढ़े दूनै  कीस || 
सुरसा ने अपने मुख को षोडस योजन  (चार कोस )तक प्रस्तारित किया तब हनुमंत द्वात्रिंशत् के हो गए | इस प्रकार सुरसा का मुख जितना बढ़ता हनुमंत जी उससे दुगुना आकार ग्रहण कर लेते | 

जूँ सत जोजन मुख करी  हनुमत भए रत्तीश । 
पठइ पुनि बाहिर आए माँगि बिदा नत सीस ॥ 
अंत में ज्योंही उसने सौ योजन (चार कोस )का मुख प्रस्तारित किया, हनुमंत जी रत्तीभर के हो गए  और उसके मुख में प्रवेशित होकर तत्काल ही बाहिर आ गए फिर उसे प्रणाम कर विदा मांगी | 

बुधवार, १५ जुलाई, २०१५                                                                         

रहइ सिंधु निसिचरि भयंकर । गहइ छाँय घरि खाए गगनचर ।  
ताहि मारि पुनि आगहु बाढ़े । देख  गिरबर धाए तुर चाढ़े ॥ 
सिंधु में भयंकर निशाचरी रहती थी  जल में छाया देखकर ही वह पक्षियों को पकड़ करके उनका भक्षण किया करती थे | उसका वध कर हनुमंत जी आगे बढे  वहां एक  उत्तंग पर्वत को दर्श उसपर एक छलांग में ही आरूढ़ हो गए | 

पार सिंधु एकु  दुरग बिसेखा । कनक कोट करी लंका देखा ॥ 
चौपुर चौमुखि बाट  सुबट्टा ।  अतिबल  निसिचर सैन सुभट्टा ॥ 
उस पर्वत से  उन्हें एक दुर्ग दर्शित हुवा जो सिंधु के उस पार था, कनक के परकोट से घिरी एक नगरी दर्शित हुई वह लंका नगरी थी | चौमुखी रचना लिए उसमें सुन्दर मार्ग थे जिसके चारों ओर पणाया स्थित थीं | वह अतिबलशाली शूरवीरों से युक्त निशाचरों की सेना से युक्त थी | 

बरनि  नहि जाए बाजि  बरूथा । गनि  न जाए पदचर रथ जूथा ॥ 
सैल माल गह देह बिसाला । बन उपबन बहु सुन्दर ताला ।। 
जिसका वर्णन न हो सके वहां ऐसे वर्णनातीत अश्व समूह थे जिनकी गणना न हो सके ऐसे अगणित रथ समूह थे | विशालाकृति की पर्वत मालाएँ थीं मनोहर  तालों से युक्त अतिशय रमणीक वन उपवन थे || 


कोटिन्ह  भट चहुँ दिसि रच्छहीं । धेनु महिषा मनु खल भच्छहीं ॥ 
पुनि हनुमत सुमिरत जग भूपा । पैठ नगर धर अति लघु रूपा ।। 
करोड़ों सैनिक दुर्ग की चारों ओर से सुरक्षा कर रहे थे वह राक्षस गाय -भैस और मनुष्य का भक्षण किया करते थे | तत्पश्चात  हनुमत ने अत्यंत ही लघु स्वरूप धारण कर भगवान जगन्नाथ का स्मरण किया और नगर में प्रवेशित हुवे | 


मंदिर मंदिर सोध किए, निरिखिहि कतहुँ न मात । 
 देखि तुलसिका बृंद तहँ, भई हरष की बात ॥ 
भवन-भवन में शोधन किया किन्तु माता कहीं दर्शित नहीं हुई | तब एक स्थान पर उन्हें तुलसी  का समूह दृष्टगत हुवा जो उस लंका नगरी में एक हर्षपूरित दृश्य था | 






























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