Thursday 17 September 2015

----- ।। उत्तर-काण्ड ४० ।। -----

बुधवार, १६ सितम्बर, २०१५                                                                       

वात्स्यायन  महिमन साथा । बोले मृदुलित हे अहि नाथा ॥ 
हरन भगत कर  पीर दुखारा । किए कीरत जो बिबिध प्रकारा ॥ 
वात्स्यायन मुनि महिमान्वित होकर अति मृदुल स्वर में बोले -- फणीश्वर ! जो भक्त जनों की पीड़ा का हरण कर विविध प्रकार की कीर्ति किया करते हैं | 

श्रवण कथा सो रघुनन्दन की । पूरन होत न मोरे मन की ॥ 
कथा कंज तुम कलित कमंडल । कंठ तालु सो करिहैं कल कल ॥ 
उन रघुनन्दन की कथा श्रवण से मेरे मन की आपूर्ति नहीं होती -अतृप्त रहने से उसे श्रवण करने की इच्छा और अधिक बढ़ जाती है यह कथा जल स्वरूप है और आप जल के गृहीता कमंडल हैं आपके कंठ तालव्य से यह कथाजल कलकल कर प्रवाहित हो रही है | 

भयउ पिपास मोर जिग्यासा । तासु बिनहि साँसत मम साँसा ॥ 
जस जस तुम्ह  कंज कर दाईं । बढे पिपास अधिकाधिकाई ॥ 
मेरी जिज्ञासा पिपासा का स्वरूप ले चुकी है इस कथाजल से रहित होकर मेरी स्वांस कंठगत हो आती है | जैसे जैसे आप मुझे यह कथा कंज प्रदान करते हैं मेरी  जिज्ञासा रूपी पिपासा वर्द्धित होती चली जाती है | 

धन्य धन्य सो बेद निधेई ।  जग जीवन जन दरसन देई ॥ 
बिनास धरमि देहि परिहाई  । तजिअ  प्रान सौमुख रघुराई ॥ 
 वेदों को धारण करने वाले वह आरण्यक मुनि धन्य हैं जिन्हें जगजीवन  श्रीराम चंद्र जी ने दर्शन दिए | जिन्होंने इस विनाश धर्मी क्षणभंगुरी  देह का परित्याग कर प्रभु श्रीराम के सम्मुख प्राण त्यागे | 

नाथ कृपाँ कर मोह जनावा । मेधि हअ पुनि केहि पथ धावा ॥ 
गयउ कहु कहँ गहे कर केही । उपमातीत रमा प्रिय जेही ॥ 
हे नाथ ! कृपा  कर मुझे यह बोध करवाइये कि उस मेधिअ अश्व ने फिर किस मार्ग में गमन किया, वह कहाँ गया किसने उसका हरण किया उपमाओं से परे रमा के जो हृदयंगम हैं | 

किए आरती आरतिहर जिनके चरन जुहार । 
ऐसो कंत  के कीरति को बिध गहि बिस्तार ॥
काम-क्रोधादि छह: शत्रु,चरणों की वंदना कर जिनकी आरती किया करते हैं ऐसे कांत की कीर्ति का किस प्रकार विस्तार हुवा | 

बृहस्पतिवार, १७ सितम्बर, २०१५                                                                  

ससिकर सम मुनि गिरा तिहारी । रुचबर पूछ बहु मनहारी ॥ 
धीर प्रसांत धर्म धाम के । जग मंगल गुन ग्राम राम के ॥ 
हे मुनिवर आपकी वाणी शशिकिरणों के समान शीतल है | आप मनुहारपूर्वक व् अतिशय रूचि से मुझसे प्रश्न करते हैं | धीर प्रशांत धर्म के धाम स्वरूप जगके मंगलकारी श्रीराम के गुणसमूह को -

सुनिहु तुम्ह बहु देइ ध्याना । मानिहु मुनि जस देइ न काना ॥ 
लाह लहन बस अनभिग सोहीं । बारहि बार पूछेउ मोही ॥ 
ध्यानपूर्वक श्रवण किया तथापि  हे मुनिवर ! आप उन्हें अश्रुत मानकर लोभलब्धि व् अनभिज्ञता वश मुझसे वारंवार प्रश्न कर रहे हैं | 

सुभग कथा सो सुनु अब आगे । अलस प्रभात सूर जब जागे ॥ 
केहरि नाद बीर बहुतेरे । मेधि तुरग करि ताके घेरे ॥ 
इस सुन्दर कथा के आगे का वृत्तांत सुनिए भरी भोर में जब सूर्यदेव जागृत हुवे | सिंहनाद करते अनेकानेक वीर ने मेधीय तुरंग परिरक्षित किया हुवा था | 

महर्षि आश्रम सों निकसावा । फिरत नर्बदा तट पहिं आवा ॥ 
देउनिर्मित  देउपुर नाउब । भंवर मनोहर पथ तहँ गयउब  ॥ 
महर्षि के आश्रम से निकासित होकर वह अश्व भ्रमण करते नर्मदा नदी के तट पर आया व् मनोहारी मार्गों पर विचरण करते देवताओं द्वारा विरचित देवपुर नामक नगर में गया | 

फटिक मनि भीतिका धरि जहँ गहगहि गेह दुआरि । 
अधबर पाँख गवाँख लिए लखत रहइँ फुरबारि ॥ 
जहाँ नगरवासियों के गृह श्वेत मणियों से युक्त  भित्तिकाओं से निर्मित थे अर्ध पट लिए हुवे उसकी गवाक्ष सुन्दर वाटिकाओं का ही  लक्ष्य करते थे  | 

शुक्रवार, १८ सितम्बर, २०१५                                                                      

बास बास जस रजत अटाला । पास देस गह अतिगौ साला ॥ 
कंठनि जब कल कंकनि बाजे । रागिह जिमि छहुँ राग बिराजे ॥ 
प्रत्येक आवास रजत अट्टालिकाएं के सदृश्य थे जिसके पार्श्व में उत्तम गायों की शालाएं स्थित थीं | उनके कंठों में क्षुद्र घंटियां ऐसे ध्वनि करती मानो उनके कंठ में छहों राग विराजमान होकर रंजन कर रहे हों | 

गहे गोप गन गोपुर नाना । सो रचना नहि जाइ बखाना ॥ 
गचि पचि गज मुकुता के पाँती । खच रचि हरिन मनिक बहु भाँती ॥ 
उसके गोपुर ऐसे अनेकानेक आभूषणों से युक्त थे जिसकी रचना  का वर्णन से अतीत हैं | गज मुक्ताओं की पंक्तियाँ को ढालकर पच्चीकारी की गई थी जिसमें भांति-भांति हरिण्यमणि से खचित कर रचा गया था | 

 गहे गगन रस खन सस माला  । कर्षन सन सम्पन सब काला ॥ 
पद पद निर्झर नदि  नद ताला । गगन परसित परबत बिसाला ॥ 
गगन मेघों के जल से तो खेत-खंड धान्य से परिपूर्ण थे | कृषिकर्म के द्वारा वैभव से युक्त होकर वहां सभी काल सम्पन्न होते, विपन्नता किसी भी समय लक्षित नहीं होती   | चरण चरण पर झरने नदी नद व् सरोवर थे  उस नगरी को सौंदर्य प्रदान करती हुई गगनस्पर्शी विशाल पर्वत मालाएं थीं | 

रहैं बीर मनि नगर नरेसू  । धर्म सील तै  अघ नहि लेसू ॥ 
एक सुपूत ते राउ  के आही । नाऊ  रुक्माङ्ग अस ताही ॥ 
उस नगर के नरेश वीरमणि थे, धर्मशीलता से उनमें पाप रंचमात्र भी नहीं था | राजा का एक पुत्र था जिसका नाम रुक्माङ्गद् था | 

अमित बिक्रम अतुल अतिबल अचल सूर संग्राम । 
अमित्र घात तापत सदा देइ बिजअ परिनाम ॥ 
वह राजा असीम पराक्रमी, अतुलनीय बलवान व् संग्राम में अडिग रहने वाले शूरवीर थे | शत्रु को आघातों से आतप्त कर वह संग्राम को सदैव विजय में परिणित करते थे | 

शनिवार, १९  सितम्बर, २०१५                                                    

एक बार रमनीअ सँग माही ।  सो नृप सुत प्रमोद बन आही ॥ 
 मधुर कंठ तै श्रुतिसुखरागा ।  प्रमुदित मन बन बिहरन लागा ॥ 
 एक समय उसका वह राजपुत्र रमणियों के संग आमोद-प्रमोद हेतु प्रमोद वन गया | मधुर कंठ से  श्रुतिप्रिय गान करते  हुवे वह प्रमुदित मन से वन में विहार करने लगा | 

तेहि अवसर बर बुधवंता के  । राजधिराज जगत कंता के  ॥ 
सुहसील राज बाह बिसेसा । सोइ प्रमुद बन देस प्रबेसा ॥ 
उसी समय परमबुद्धिमान राजाधिराज जगत्कान्त श्रीरामचन्द्रजी का शोभाशील विशेष राजतुरंग उस प्रमोद वन प्रदेश में प्रविष्ट हुवा | 

बाँध सिख बदन सुबरन पाँती । दमकिहि देहि धौलगिरि भाँती ॥ 
चँवर चामि कर  चारु चरचिता । तासों दरसिहि कछुक हरिता ॥ 
वदन शेखर (मस्तक ) पर स्वर्णमयी पत्रिका विबन्धित कर उसकी देह हिमालय पर्वत सी दैदीप्यमान हो रही थी |  कुमकुम चर्चित चर्म को पूंछ के केशगुच्छ से  हिलाने-डुलाने के कारण उसके दीप्ती में यत्किंचित पीतम वर्ण भी दर्शित होता था | 

गहि गति अस सो जमणिमन् जमन  । करिहि बिनिंदित जमनगत पवन ॥
 हरिद असम सम  ग्रास मुख धरे । तासु सरूप कौतुहल भरे ॥
उस तीव्रगामी अश्व की परिचालन गति वायु की  वेगशीलता को भी तिरस्कृत करती थी | पन्ना के जैसे  हरिणमय ग्रास को मुख में धारण किए उसका स्वरूप कौतुहल जनित था | 

मंगल मौली  मण्डलित  सोहित सुबरन पाँति । 
सब रमनी चित्रबत भई चितबत चित्रकृत  कांति ॥ 
मंगल मौली से परिणद्ध  होकर उसपर स्वर्णमयी पत्रिका सुशोभित हो रही थी उसकी अद्भुद कांति को विलोक कर राजपुत्र की सभी रमणियाँ चित्रवत हो गईं | 

रविवार, २१ सितम्बर, २०१५                                                                                   

निरखत ताहि नृप सुत  रमनिआ । बोलिहि मधुरिम कहए ए बतियाँ ॥ 
हिरन्मय पाति भाल बँधाए । तासु बिकिरन रबि किरन  लजाए ॥ 
उसे देखकर राजपुत्र की स्त्रियां मधुरिम वाणी से ये वचन बोली -- आह !  भाल पर आबद्ध यह हिरण्यमय पत्रिका !  इसकी विकिरणों से तो रवि की किरणे भी लज्जित हो रही हैं | 

अलौकिकलोक  नयनाभिरामा । धौल बरन तन  करन स्यामा ॥ 
मनोज ओज मुख अति मन मोहि । अस सुन्दर हय केहि कर होहि ॥ 
अलौकिक आलोक से युक्त यह नयनाभिराम धवल वर्णी देह उसपर श्यामवर्ण के कर्ण से सुशोभित  कामदेव के जैसा इसका तेजस्वी मुख-मंडल अत्यंत ही मनमोहक है, ऐसा सुन्दर अश्व किसका होगा ? 

कोटि रतन कृत कलित कलापू । सही किरन सो गहि कर आपू ॥ 
लीलाबन चितबन् बिलसावा । कुंवर कमनीअ नयन लसावा ॥ 
इसकी पूंछ करोड़ों रत्नों की कला से विभूषित है प्रियतम ! किरण सहित आप इस अश्व को ग्रहण कर लीजिए | राजकुमार का क्रीड़ाशील चित्त विलासित हो  उठा  उसके आकांक्षा पूरित नेत्र चमक गए | 

श्रुत तिय बचन मुदित मन साथा । लीलहिं गहि कर एक ही हाथा ॥ 
बँध्यो पाति करज धर देखे । सुघर सुथर आखर कछु लेखे  ॥ 
स्त्रियों के वचनों को श्रवण कर  प्रमुदित मन के सह क्रीड़ा करते हुवे उसने एक हाथ से उस अश्व की रश्मियाँ थाम ली |हस्तांगुलियों में धारण कर वह भाल पर आबद्ध पत्रिका का अवलोकन करने लगा उसमें सुन्दर स्पष्ट अक्षरों से कुछ उल्लेखित किया गया था   | 

बल बल करतल कास कर लसए रतन की रासि । 
बाँच बाँच रमनीअ सहुँ उपहासत करि हाँसि ॥ 
वलयित किरण की रत्न-राशि का प्रकाश उसके करतल को दैदीप्त कर रहा था वह राजकुमार अपनी स्त्रियों के सम्मुख उस पत्र का पाठ कर उसका उपहास करते हुवे हंसा | 

सोमवार, २१  सितम्बर २०१५                                                                           

सहचारिनि चकरब चहुँ पासा । राज कुँअरु हँस हँस अस भासा ॥ 
मोरे तात सौर जस होई । तासों  दूसर अबरु न कोई ॥ 
चारों ओर सहचारणियां से घिरा वह कुमार फिर इस भांति उद्भाषा -- मेरे पिता का जैसा शौर्य  है वैसा अन्य किसी वीर में नहीं है | 

मम पितु रहत जिअत जी ताही । जीतिहि रन  जग अस को नाही ॥ 
सुख सम्पद धन धाम निधाना । महि न को मम तात समाना ॥ 
इस जगत में तो ऐसा कोई नहीं है जो मेरे पिता के जीवित रहते संग्राम में विजय प्राप्त करे | मेरे पिता के समान सुख सम्पति  व् धन्य धान्य का भंडारी भी इस पृथ्वी पर कोई नहीं है | 

तापर सो अभिमानी राजा । अहो पाति अस लेख न लाजा ॥
भाल बँधाउब हय दिए हेला । निर्भय निलय नगर भित पेला ॥ 
उसपर यह अहंकारी नरेश अहो ! पत्रिका में ऐसा उल्लेखन करते उसे संकोच न हुवा ? भाल में पत्र आबद्ध कर अश्व के द्वारा ललकारते हुवे उस अभिमानी ने नगर-निलय में (नगर के हृदयस्थल में )किस निर्भीकता से प्रविष्ट की है ? 

पिनाकधर गिरिजापति संकर । तासु असीस जाके सिरोपर ॥ 
देउ दनुज निसिचर नर नागहु  । प्रनमत जिन बंदत पद लागहु ॥ 
जिसके शीश पर पिनाकधारी  (शंकरजी का धनुष )गिरिजापति शंकर का आशीर्वाद हो उसको देवता, निशाचारी राक्षस व् नर-नाग भी प्रणाम कर ते हैं और वंदना करते हुवे उसके चरण से संलग्न रहते हैं |  

मनिमय मौलि मुकुट धर चरना । राजधिराज मागेउ सरना ॥ 
बीर बलों मम पितु कर ताईं ।अस्व मेघ मख करिअ सुहाईं ॥ 
मणिमय मौलि मुकुट को चरणों में अर्पित कर राधिराज भी जिससे शरण की अपेक्षा करते हैं मेरे पिता समान बलवीर के द्वारा ही अश्वमेघ का आयोजन सुशोभित होगा  | 

भूषन  भूषित बाजि गहि   आनै भट एहि काल । 
तासु सरन अनुगमन करि बंध्या रह घुड़साल ॥ 
आभूषणों से विभूषित इस अश्व को इस समय मेरे सैनिक पकड़ कर ले आएं व् उनके पंथ का अनुगमन कर यह घोड़ा घुड़साल में विबंधित रहे | 

मंगलवार, २२  सितम्बर, २०१५                                                                       

गहे करज हिरण्मई पाँती  ॥ बीरमनि बर तनुज एहि भाँती ॥ 
चलि गहगह गह अगह तुरंगा । आए नगरु निज संगिनि संगा ॥ 
हस्तांगुलियों में हिरण्यमयी पत्रिका लिए  इस प्रकार वीरमणि का वह ज्येष्ठ पुत्र उत्साह से भरकर अग्राह्य तुरंग को ग्रहण कर अपनी संगिनियों के साथ वह नगर में चला आया  | 

मुदित मीर मन अतिहि उछाहू । लोभिन बिरहा लहि जस लाहू ॥ 
राज स्कंधन बन महुँ पायो । गहत किरन  मैं आन लवायों ॥ 
उसके मन में प्रसन्नता का समुद्र ऐसे उमड़ रहा था जैसे लाभ से वियोजित लोभी को अनायास लाभ प्राप्त हो गया हो | वन में प्राप्त हुवे राज स्कंध की रश्मियां ग्रहण किए में उसे ले आया हूँ  

बीस बाहु दस सीस बिनासक । अवध अधिराट् रघुकुलनायक ॥ 
राम चन्द्र जाके गोसाईं । लिखितै पतिया भाल बँधाई ॥ 
वींश बाहु दसशीश के  विनाशक, अवध के अधीश्वर, रघुकुलनायक राजा रामचन्द्रजी जिसके स्वामी हैं | उनके द्वारा लिखित यह पत्रिका अश्व के मस्तक से आबद्ध थी | 

रामानुज निज सैन बिसाला । अतिबुधि अतिबलि बहु बिकराला ॥ 
चहुँ दिसि रच्छत संगत ताहीं । हेलत आपनि पुर पेलाहीं ॥ 
राम के अनुज शत्रुध्न अपनी अति बुद्धिवंत अत्यंत बलवान अतिशय विकराल विशाल सेना लिए चारों दिशाओं से उसकी रक्षा कर रहे हैं और ललकारते हुवे वह हमारी नगरी में प्रविष्ट हुवे हैं || 

पतिआ  कही कहाउती कह जब गत पितु सोहि । 
महामति महाराज मन मनाग मुदित न होहि ॥ 
पत्रिका में उल्लेखित कथनों को कहते जब वह अपने पिता के पास गया तब बुद्धिमान राजा के मन में मनाग (थोड़ा)भी हर्ष न हुवा | 

बुधवार, २३ सितम्बर  २०१५                                                                       


देखिअ नृप निज सुत कर काजा । तेहि प्रसंसत  मन बहु लाजा ॥ 
कृत कर्तन कीरति जस गायो । चिन्तारत चित सोच समायो ॥ 
अपने पुत्र  की करनी  देखकर उसे प्रशंसा वचन कहते राजा का मन लज्जित हो रहा था  | पुत्र द्वारा किए गए कर्तन के कीर्ति गान से राजा का चिंतारत चित्त सोचने लगा | 

यह करतन तौ हरन समाना ।  आपन पो सठ अतिबलि जाना ॥ 
जासु  निकाइ सबहि को नीके । एहि तुरग तेहि बाहुबली के ॥ 
यह कार्य तो चोरी के समान है और वह  दुष्ट स्वयं को महाबली संज्ञापित कर रहा है जिनका आश्रय सब हेतु सुखद है  ये अश्व उन बाहुबली का है,--

गिरजा गौरी पारबती के । जो प्रीतम प्रिय कंत सती के ॥ 
सो संकर तिन पद सिरु नावा । देउ देउ  मह देउ कहावा ॥ 
जो गौरी गिरिराज कुमारी सती पार्वती जी के प्रियतम व् प्रिय स्वामी हैं वहभगवान शंकर भी जिनके चरणों की वंदना करते हैं और देवों के भी देव होकर महादेव की उपाधि प्राप्त करते हैं | 

बहुरि तेउ भगवन पहि आयो । निज सुत करनिहि कहत जनायो ॥ 
सकल बचन सुनि संभु सुहासे । भूपत हरर हरत अस भासे ॥ 
फिर वह राजा उन भगवान शंकर जी के पास आया और उन्हें अपने पुत्र की करनी से अवगत करवाया | समस्त वचनों को श्रवण कर भगवान शिव शम्भू हंस पड़े व् कम्पित व् उद्विग्न भूपति से इस प्रकार बोले -- 

तुम्हरे बर तनुभव कर भयऊ अद्भुद  काज । 
करिइहि सोइ करतन जस करिअब छत्री समाज ॥ 
तुम्हारे ज्येष्ठ पुत्र  का कार्य  अद्भुद है उसने वही कर्तन किया जो क्षत्रिय समाज को करना चाहिए | 

बृहस्पतिवार, २४ सितम्बर, २०१५                                                                        

राजधिराज परम बुधवंता । सिंधु सुता प्रिय जग भगवंता ॥ 
जगद जीवन जासु गोसाईं । तेहि मेधि हय हरण अनाईं ॥ 
वह राजाधिराज है परम बुद्धिवंत हैं सिंधुपुत्री के प्रिय जगदीश्वर, जगत के जीवन स्वरूप जिसके स्वामी हैं (तुम्हारा पुत्र ) उसके मेधीय अश्व को हरण कर ले आया | 

जासु नाउ जिहजपि जपि जागी । बिराग राग राग अनुरागी ॥ 
सार रूप जिन बेद बखाना । जो मोरे चित रहए ध्याना ॥ 
जिनके नाम का जाप कर जिह्वा चैतन्य होते हुवे भगवान की आसक्ति में अनुरक्त होकर संसार की आसक्ति से विरक्त हो गई | वेद जिनका सार स्वरूप में व्याख्यान किया करते हैं, जो मेरे चित्त में सदैव ध्यानस्थ रहते हैं | 

ताहि जवन लीन्ह गह किरना  । रन रंगन कीन्ह अपहरना ॥ 
एहि रनाङ्गन सुनु नरनाहा ।होइहि एक एहि बहु बड़ लाहा ॥ 
उनके यज्ञ संबधी अश्व के किरणों को ग्राह्य कर उनसे युद्ध का डंका बजाने हेतु उसका अपहरण किया | हे राजन सुनो! इस रणक्षेत्र में एक बड़ा लाभ यह होगा कि 

हमहि भगत करि जिनके सेबा । देहि साखि दरसन सो देबा ॥ 
कामद घन दुःख दावानल के । पैह परस सो चरन कमल के ॥ 
हमारे जैसे भक्तों द्वारा सेवित रघुनाथ हमें साक्षात दर्शन देंगे और हमें दुःख रूपी दावानल हेतु कामनाओं को पूर्ण करने वाले मेघ के चरणों कमलों का स्पर्श प्राप्त होगा | 

काल प्रबंध सुभाग बस लब्धातिसय सँजोग । 
अजहुँ बहु जतन पूरबक, करिहु जवन के जोग ॥ 
अवसर के प्रबंधन से सौभाग्य वश हमें यह असाधारण संयोग प्राप्त हुवा, अब इस अश्व की  अत्यधिक यत्नपूर्वक रक्षा करना | 

शुक्र /शनि , २५/२६  सितम्बर, २०१५                                                                                            

ऐतक परहु मोहि संदेहा । रामानुज भट जाइ न लेहा ॥ 
जद्यपि रच्छित बहु तुअ ताहीं । तद्यपि बरियात लेइ जाहीं ॥ 
इतने पर भी मुझे संदेह है कि रामानुज शत्रुध्न के सैनिक इसे ले न जाएं | यद्यपि यह अश्व तुम्हारे द्वारा रक्षित है तद्यपि वह इसे बलपूर्वक ले जाएंगे | 

एही हुँत यहु मोरे मत नाहू । दुहु कर जुगत बिनयबत जाहू ॥ 
पुरजन परिजन निज सुत संगा । गहै किरन कर संग तुरंगा ॥ 
राजन ! इसलिए मेरा यह मत है कि तुम पुरजनों, परिजनों व् अपने पुत्र सहित की किरणे ग्रहण किए  हस्तबद्ध होकर विनम्रता पूर्वक जाओ | 

राज सहित लए  संत समाजा । दइहौ सौंपि तुरग  रघुराजा ॥ 
चरनारविन्द दरसन कीजो । परस नयन रज सिरु धर लीजो ॥ 
और संत समुदाय के साथ राज्य सहित वह अश्व रघुनाथ को अर्पित कर दो | उनके चरणारविन्द का दर्शन कर उसके पराग धूलिका को अपने नेत्रों से स्पर्शकर उसपर अपना मस्तक आधारित कर दो | 

सुनत संभु कर गिरा ग्यानी । कहि भूपति बिरुझन परि बानी ॥  
हरि  दरसन प्रभु को नहि चहहीं । पर मम छत्री धरम यह कहहीं ॥ 
भगवान शम्भु की ज्ञानमयी वाणी को श्रवण कर भूपति असमंजस में पड़ी वाणी से बोले - प्रभु ! हरि के दर्शन को कौन नहीं अभिलाषित होगा किन्तु मेरा क्षत्रिय  धर्म यह कहता है -- 

मानि पुरुष राखत अपनापा । राखै आपनि तेज प्रतापा ॥ 
अतुलित बुद्धि  बिक्रम बल संगा । हुँतै हवन रन होत पतंगा ॥ 
कि मानी पुरुष  स्वाभिमान का संरक्षण करते हुवे अपने तेज व् प्रताप की रक्षा करते हैं | अतुलनीय बुद्धि, बल व् पराक्रम के साथ पतंग होकर वह रण के हवन में अपनी आहुति दिया करते हैं | 

बिनु रन रिपु सरनापन्न जो कर चरन गहाए । 
अधीस मैं सो अधमतस अरु कादर कहलाए ॥ 

युद्ध के बिना शरणापन्न होकर जो हस्त शत्रु के चरण में नत होते हैं, राजाओं में वह अधमतस व् भीरु कहलाते हैं |  रविवार, २७ सितम्बर, २०१५                                                                                    

सहसा सरनग रिपु उपहासें । पाँवर पॉच कहत अस भासैं ॥ 
अधमी रन रननत भय खावै । सभ्येतर सम सीस झुकावै ॥ 
सहसा किसी के शरणागत होने से शत्रु उसका उपहास करते हैं और उसे मूर्ख व् अधम कहकर उद्बोधित कर कहते हैं,यह अधमी ने युद्ध संघर्ष से भयाक्रांत होकर अनार्य पुरुषों की भांति चरणों में नतमस्तक हुवा हैं | 

समुख सैन रामानुज केरी । गहगह गगन बजै रन भेरी ।। 
एहि समउ प्रभु उचित जो होई । जो मम हितकर कहअब सोई ॥ 
फिर सम्मुख जब रामानुज शत्रुध्न की सेना है गगन को गहराते रण-भेरी बज उठी है | प्रभु!  इस समय जो उचित हो और मेरे हित में हो आप वह कहें | 

मैं जन पाल अरु तुम्ह जग हिता । मैं तुहरे भगत तुम्ह रखिता ॥ 
मोरे करतब करत बिचारा । अस कह प्रभु पुर चितवनिहारा ॥ 
 मैं जनपालक हूँ और आप आप संसार के हितार्थी हैं में आपका भक्त हूँ और आप मेरे रक्षक हैं एतएव मेरे कर्त्तव्यों का विचार कीजिए ऐसा कहकर राजा ने प्रभु की ओर प्रश्न सूचक दृष्टि से देखा | 

सुनि नृप बत ससि मौलि बिहासे ।घन सम गहन बचन हँस भासे ॥ 
यह हय मम संरच्छक पइहीं । तुम्ह सो बरियात लए जइहीं ॥ 
नृप के वचन श्रवण कर शशिशेखर शिवजी विहसित हो उठे और हँसते हुवे ही मेघों से गंभीर वचन बोले -- इस अश्व ने मेरा संरक्षण प्राप्त किया है इसे तुमसे कोई बलपूर्वक ले जाए ?

कोटि देउ अस बल नहि राखे । तुहरे जुधा जुझावन लाखें ॥ 
ऐसा बल तो करोड़ों देवताओं में भी नहीं है, आपके योद्धा प्रभु से युद्ध की  प्रतीक्षा कर रहे हैं |    

आप रूप अवाईं इहँ जो प्रभु करवहि झाँकि । 
करिहउँ प्रनमन बिनयबत तासु चरन सिरु राखि ॥ 
यदि प्रभु यहाँ पधार कर अपने स्वरूप की झांकी करवाते हैं तब मैं सविनय  अपना मस्तक उनके चरणों में रखकर उन्हें प्रणाम करूँगा  | 

सोमवार, २८ सितम्बर, २०१५                                                                          

स्वामि सों सेबक रन ठाने । यह करतन को भल नहि माने ॥ 
रनै जोइ सो तो अधमाई । कहबत मैं यह कृत अन्याई ॥ 
स्वामी के साथ सेवक संग्राम करे इस कृत्य को कोई कल्याणकारी नहीं मानता | जो  इस भांति का युद्ध करता है वह योद्धा अधम प्रकृति का होता है कहावत में इस  कृत्य को अन्यायपुरित कहा गया है | 

सेष बीर भट मम हेतु हिना । अति अच्छम तृन सम तूल तुहिना ॥ 
धरौ चरन तुअहू रन खेता । अजहुँ भया मैं तुहरा हेता ॥ 
शेष जितने वीर योद्धा है वह मेरे लिए हीन होते हुवे  अति अक्षम व तृण के समतुल्य अतिशय तुहीन हैं | राजेंद्र ! अब तुम रणक्षेत्र में पदार्पण करो इस युद्ध में मैं तुम्हारा हितार्थी हूँ | 

मोर रहत अस बीर न अहहीं  । बलात बाजि रसन लए गहहीं ॥ 
आएँ चहें  किन त्रिलोकि नाथा । तुम्हरे सिरु अजहुँ मम हाथा ॥ 
मेरे रहते ऐसा कोई वीर नहीं है जो इस अश्व की रश्मि को बलात ग्रहण करने में समर्थ हो | चाहे त्रिलोकनाथ स्वयं ही क्यों न आ जाएं अब तुम्हारे शीश पर मेरा हाथ है (एतएव तुम्हारा कुछ भी अनर्थ नहीं होगा )| 

जोर  पानि तब कह जनपाला । तुम रच्छक तुम मम परिपाला ॥ 
छत्री हेतु यह भल मत होइहि । जस तुम कहिहउ करिहउँ सोइहि ॥ 
तब हस्त आबद्ध कर राजा ने कहा प्रभु ! आप मेरे रक्षक व् प्रतिपाल्य हैं | क्षत्री हेतु यही उत्तम मत है अब जैसा आप कहेंगे मैं वही करूंगा | 

इत रघुबर कर सैन दल, फिरत नगर चहुँ फेर । 
मग मग पग चीन्ह धरत  मेधि तुरग रहँ हेर ॥  
इधर रघुवर जी की का सैन्यदल नगरी में चारों ओर भ्रमण कर मार्गों में चरण न्यासित करते मेधीय तुरंग को शोध रहे थे | 

मंगलवार, २९ सितम्बर, २०१५                                                                     

हेरइ हेर मिलै कहुँ नाही । रामानुजहु ऐतेक माही ॥ 
आनि लेइ निज सैन बिसाला । गहे सैनि बहु कोटि कराला ॥ 
सर्वत्र निरिक्षणोपरांत भी वह अश्व कहीं शोधित नहीं हुवा इतने में ही रामानुज शत्रुध्न करोड़ों विकाराल सैनिकों से युक्त अपनी विशाल सेना ले आए | 

हय हुँत सबन्हि पूछ बुझाहीं  । हेर कतहुँ हय मिलिहि कि नाहीं ॥ 
सुबरनी पतिका माथ बँधाए । सो मम दीठ किन दरसिहि नाए ॥ 
अश्व हेतु सभी से पूछताछ की  शोधन कर लिया ? वह अश्व कहीं मिला कि नहीं ? मस्तक पर स्वर्णपत्रिका आबद्ध किए वह मेरी दृष्टि से ओझल क्यूँ है ?

देइ उतरु का सूझ न आवै ।हरन कहत अनुचर सकुचावै ॥ 
बहोरि बिनै बचन के साथा । कहे नाथ सब अवनत माथा ॥ 
क्या उत्तर दिया जाए यह किसी को भी नहीं सूझ रहा था  पीछे चलने वाले अनुचर अश्व के अपहरण का सन्देश कहते संकोचित हो रहे थे  | 

तुर तुरंग सम तूल तुरंगा । भय उडुगन जिमि गगन बिहंगा ॥ 
हमहि सो कतहुँ दरस न देही । करिअहिं हरन सघन बन केही ॥ 
मन के समतुल्य वह तीव्रगामी तुरंग गगन चरों के समान जब विहंग हो गया फिर वह हमें कहीं दिखाई नहीं दिया इस सघन विपिन में कदाचित उसे किसी ने अपहृत कर लिया है | 

धरा गगन पव पलन के निरवन देइ अभास । 
कहि अस सकल दल गंजन फेर नयन चहुँ पास ॥ 
धरा व् गगन में अवस्थित पवन के पलायन से उत्पन्न ध्वनि यह आभास दे रही है चारों ओर दृष्टि फेर कर उन सभी वीरों ने ऐसा कहा | 


बुधवार, ३० सितम्बर, २०१५                                                                               

सिथिर बदन अनुचर  अलगाई । बहुरि सुमति सों पूछ बुझाईं ॥ 
इहाँ निबासिहि को नरनाहू । हमरे हय होइहि कस लाहू ॥ 
शिथिल मुख हुवे अनुचर जब मौन धारण कर लिया तब शत्रुध्न ने सुमति से पूछा -- ' यहाँ कौन राजा निवास करता है ? हमारा अश्व किस प्रकार प्राप्त होगा ? 

करै परहन जेहि हय आजू । गहै केतक सैन सो राजू ॥ 
केहि के बल मन भए न संका । ठानि  बजावन को रन डंका ॥ 
आज जिस राजा ने भी इस अश्व का अपहरण किया है उसके पास कितना सैन्यदल है , किसके बल पर उसे न भय है न हार की आशंका है? वह कौन है जिसने हमसे युद्ध करने का निश्चय किया है | 

एहि बिधि सत्रुहन सह महमाता । निगदित मंतु करत रहि बाता ॥ 
देवर्षि नारद ऐतक माहि । रन कौतुक तहाँ दरसन आहि ॥ 
इस प्रकार शत्रुध्नमंत्र निर्देशित कर अपने महामात्य के साथ वार्तालाप में मग्न थे  इतने में ही देवर्षि नारद इस युद्ध कौतुक के दर्शन हेतु वहां आए | 

रामानुज पुनि भयउ अगूता । किए आगत सत्कार बहूँता ॥ 
बतकहि मैं जस रह गोसाईं । रहे सो तेसेउ कुसलाई ॥ 
रामानुज अग्रसर हुवे और आगंतुक का अतिशय सत्कार किया | प्रभुश्रीराम जी के जैसे ही  शत्रुध्न  जी भी वार्ताकुशल थे | 

पलकन पल्लव पाँवड़े, श्रुति रंजन करि बानि । 
हय तैं सादर प्रस्न किए सौमुख जुग दुहु पानि ॥ 
पलक पल्लवों के पाँवड़े देकर सुमधुर वाणी से फिर शत्रुध्न ने उनके सम्मुख हाथ जोड़कर आदर सहित  अश्व से सम्बंधित प्रश्न किया | 

    

 

















             

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