Sunday 31 July 2016

----- ।। उत्तर-काण्ड ५४ ।। -----

रविवार, ३१ जुलाई, २०१६                                                                                                 


तुम त्रिकाल दरसी रघुनाथा । बिस्व बदर जिमि तुहरे हाथा ॥ 
लोगहि चरन सरन जिअ जाना  । बोधिहौ मोहि सोइ बखाना ॥ 
हे रघुनाथ ! आप तो त्रिकाल दर्शी हो,यह चराचर विश्व आपके करतल पर रखे बद्रिका के समान है । लोकाचार के आश्रय आपने मुझसे ज्ञातित प्रसंग पूछा । 

तथापि प्रभो सबहि दिन जैसे । कहिहउ जसि करिहउँ मैं तैसे ॥ 
सिरोमनि तुम सबहि के राई । कहौं  बृतांत  सुनहु गोसाईं ।॥ 
तथापि प्रभु में सदैव की भांति आपकी आज्ञा का अनुशरण करूंगा ॥  आप सभी राजाओं के शिरोमणि हो  अत: हे स्वामिन  ! जो आपने पूछा मैं वह वृत्तांत कहता हूँ सुनिये  : -- 

सिरु पतिया सोहत अति भारी । प्रभो तुरग सो कृपा तिहारी ॥ 
पथ पथ पुर पुर पौरहि पौरे । बिरमन बिनहि भूमि बन भौंरे ॥ 
 प्रभो ! आपका कृपापात्र होकर भालपत्र के कारण शोभा को प्राप्त वह अश्व रहित पंथ-पंथ, नगर-नगर, द्वार-द्वार भूमि-भूमि, वन-वन  में व्यवधान से रहित होकर विचरता रहा ॥   

दिनकर कुल अस तेज प्रचंडा । निज बल केहि न होइ घमंडा ॥ 
पुरबल हय को गहिब न पारा । जो बल गरब गहिब सो हारा ॥ 
दिनकर वंश का पराक्रम ऐसा प्रचण्ड है कि उसके सम्मुख किसी भी राजा को अपने बल पर दर्प नहीं हुवा  । पहले तो किसी ने उस अश्व का हरण नहीं किया, जिसने किया वह परास्त हो गया ॥ 

प्रभो श्री चरनन सिरु नत सब नृप सहित समाज । 
जोग जुग पानि आनि लिए अरपिहि निज निज राज ॥ 
पुरजन परिजन पुत्र-पौत्र सहित वह नृप  प्रभु के श्री चरणों में अपना -अपना राज्य समर्पित कर विनय पूर्वक नतमस्तक हुवे ॥ 


गह सकै हय जोइ अवनीसा । अहहिं कहु त को असि बिजिगीसा ॥ 
जोइ दनुजपत दसमुख हंता । जानत  ए सोए जाकर कंता ॥ 
कहिए तो पृथ्वी पर ऐसा कोई राजा है, जो विजय की अभिलाषा से इस अश्व का हरण कर सके ?  यह संज्ञान करते हुवे कि जो दानवपति दशानन के विनाशक हैं वह इसके स्वामी हैं | 

प्रभो मनोरम तुरगम तोरे । पहुँचिहि अहिच्छत्रा पुर पौरे ॥ 
रुर रुचिर अति रमनीअ देसू । बीर सुमद तहँ बसैं नरेसू ॥ 
प्रभु ! आपका यह मनोहर तुरंग सर्वत्र विचरण करता हुवा अहिच्छत्रा  के द्वार पर पहुंचा | यह देश अत्यंत रमणीय, सुन्दर व् शोभावान था |  राजा सुमद वहां के वासी थे और वीर भी थे | 

सुनि सो प्रबसि अस्व एकु नीके । अहहि अवध पति रघुबर जी के ॥ 
कह सँवारन नगर निकेता । बहुरि सहित सुत सैन समेता ॥ 
उन्होंने जब सुना एक सुन्दर अश्व ने राज्य में प्रवेश किया है जो अयोध्यापति श्री रघुनाथ जी का है तब नगर और घरों को सुसज्जित  करने का आदेश दे कर वह स्वयं सेना को साथ लिए पुत्रों सहित :-- 

गए रिपुहन पहिं प्रभु पद सेबा ।  सबहि सम्पत समरपत देबा ॥ 
बड़ बड़ पत जा सहुँ नत होई । प्रनत तव पद सुमद प्रभु सोई ॥ 
शत्रुध्न के पास गए अपना अकंटक राज्य आपके चरणों  की  सेवा में   समर्पित कर दिया | ये हैं राजा सुमद जो बड़े-बड़े राज-प्रभुओं के द्वारा सेवित आपके चरणों को प्रणाम करते हैं | 

तव दरसन उर लाह लिए आयउ पाए पयाद । 
अजहुँ  डिठी निपात ताहि देवौ कृपा प्रसाद ॥    
ह्रदय में आपके दर्शन की अभिलाषा किए यह चलकर आए हैं | इनपर दृष्टिनिपात कर अपने कृपा प्रसाद से इन्हें अनुग्रहित कीजिए  |  

सोमवार, १ अगस्त, २०१६                                                                                                          

करिअ रवन गयउ जब आगे । निद्रालस बस रजस कन जागे ॥ 
धावत गयउ नगर ते दूरे । घेर गिरिबन गगन भरपूरे ॥ 
वह  अश्व जब रव करता आगे बढ़ा त्वनिरावपन्थ में निद्रा के वशीभूत धूलि  के कण जाग उठे |  वह अश्व द्रुत गति से दौड़ता हुवा नगर की दृष्टि से ओझल हो गया, धूलि कण पर्वत एवं वनों को घेरकर गगन में व्याप्त हो गए | 

बहुरि सुबाहु नगर पगु धारा । जोहि जोइ बल सबहि प्रकारा ॥ 
तेहि के सुत दवन सुभ नामा । गहए ताहि त भयउ संग्रामा ॥ 
तदनन्तर उसने उस सुबाहु की नगरी में प्रवेश किया जो सभी प्रकार के बल से संपन्न था  | सुबाहु के पुत्र का शुभ नाम दवन था | उसने उस श्रेष्ठ अश्व को पकड़ लिया िर तो युद्ध छिड़ गया | 

जूझत मुरुछा गहि महि परयो । पुष्कल बिजै कलस कर धरयो ॥ 
तब महतिमह राउ सुबाहू । आयउ खेत भरे उर दाहू ॥ 
युद्ध करते हुवे वह मूर्छित हो कर धराशायी हो गया विजय कलश पुष्कल के हाथ की शोभा बना | तब  ह्रदय में विद्रोह की ज्वाला भरे महातिमह राजा सुबाहु का  रणक्षेत्र में आगमन हुवा  | 

चले समुह गरजत हनुमंता । भिरिहि तासु सो नृपु बलवंता ॥ 
ताकर ग्यानु श्राप बिलोपा । रहे न सुधि किछु उर भर कोपा ॥ 
वीर हनुमान गरजते हुवे उनका सामना किया बलवान राजा उनसे भीड़ गया | उनका ज्ञान श्राप से विलुप्त हो गया था ह्रदय में क्रोध भरा था इस हेतु उनका चित्त चेतना से रहित था |  

द्युति गति गत अति बलवत मारि चरन हनुमान । 
लगे श्राप दुराए गयो बहुरिहि गयउ ग्यान ॥  
विद्युत् की गति सी शीघ्रता का प्रदर्शन कर हनुमंत ने उनपर अपने चरण से बलपूर्वक प्रहार किया, इस प्रहार से उनका श्राप दूर हो गया और गया हुवा ज्ञान लौट आया |

मंगलवार, ०२ अगस्त, २०१६                                                                                            

पुनि सो महिपत प्रभु कर सेबा । सौंपि चरन निज सरबस देबा ॥ 
समर कला सब बिधि कुसलाया । प्रनमत बिनय बत जोइ राया ॥ 
तब उस राजा ने प्रभु के सेवार्थ आप श्री के चरणों में अपना सर्वस्व सौंप दिया | समर कला में सभी प्रकार से निपुण जो विनय पूर्वक आपको प्रणाम कर रहे हैं, 

जाकर गाँठिल तुंग सरीरा । अहहि सुबाहु सोइ रनधीरा ॥ 
दया डिठी करि प्रभो निहारी । किजो तापर स्नेहिल बारी ॥ 
जिनकी देह हष्ट-पुष्ट व् अंग-अंग सौष्ठव को प्राप्त हैं यह  रणधीर यह राजा सुबाहु हैं | हे प्रभु ! आप दया दृष्टि से इनका विलोकन कर इनपर स्नेह की वर्षा कीजिए | 

तदनंतर मेधीअ तुरंगा । चोख चरत इब भयउ पतंगा ॥ 
आयउ देउ नगर संकासा । सुहा गहि अति बसिहि केलासा ॥ 
तदननतर वह यज्ञ सम्बन्धी अश्व तीव्र गति से गमन करते हुवे गगनचर होकर हवा से बातें करते देवनगरी के निकट पहुंचा | भगवान शिव जी के   निवासित होने के कारण वह नगरी अत्यंत सुशोभित हो रही थी | 

तहँ घटे सो बिदित सबु काथा । आए इहाँ आपहि रघुनाथा ॥ 
मिलिहि बहुरि बधि बिद्युन्माली । सत्यवान नृपु बहु बलसाली ॥ 
स्वयं आपके पदार्पण से हे रघुनाथ ! वहां जो कुछ घटित हुवा वह सब कथा आपको विदित है | तत्पश्चात विद्युन्माली दैत्य का वध किया गया फिर अति बलशील राजा सत्यवान से मिले |   

आगिल कल कुंडल नगर चपरित चरण धराए ॥ 
भए समर सुरथ संग सो सब प्रभु तोहि जनाए ॥
आगे जाने पर अश्व के आतुर चरणों ने  कुण्डल नामक शोभनीय नगर में पधारे | प्रभो! वहां भी जो कुछ घटित हुवा वह सब आपको ज्ञात है |  

बुधवार, ०३ अगस्त, २०१६                                                                                             

बहुरि कुंडल नगर ते छूटा । बिचरत चहुँ दिसि बिनहि अगूँटा ॥ 
अजहुँ गहिब न केहि बरबंडा । निज बल करिअ न कोउ घमंडा ॥ 
कुण्डल नगर से निकलकर वह अश्व चारों दिशाओं में निर्बाध स्वरूप में विचरण करने लगा  अपनी बलशीलता पर फिर किसी ने घमंड नहीं किया और किसी वीर ने उसका हरण नहीं किया | 

भँमरत चपल चरन जबु फेरे । तेहि औसर सघन बन घेरे ॥ 
पहुंचसि प्रभु तव तुरग मनोरम । बाल्मीकि केर नीक आश्रम । 
पृथ्वी का चपलता पूर्वक  भ्रमण करते हुवे  आपका वह मनोहर तुरंग लौटते समय घने वनों से घिरे वाल्मीकि जी के रमणीय आश्रम में पहुंचा | 

गयउ माझ जूं बिटप समूहा । सुनहु तहँ जौ भयउ कौतूहा ॥ 
बीर बलो एकु बालकु आयउ । सोडस बरस बयस कुल पायउ ॥ 
और जैसे ही वह विटप समूह के मध्य भाग गया तबवहाँ जो कौतुहल हुवा उसे सुनिए | कुल षोडश वर्ष की अवस्था को प्राप्त वहां एक वीर बालक का आगमन हुवा | 

जति पटतर पट कर धनु धारा । रूप बरन रघुबर अनुहारा ॥ 
भाल बँधेउ पतिया पेख्यो । लिआ गहि पढ़ बतिया देख्यो ॥ 
उसका रूप-वर्ण आप श्री रघुनाथ का अनुशरण कर रहा था | जब उसने  अश्व के भाल पर आबद्ध पत्रिका का अवलोकन किया तब उसे हस्त-गत कर उसपर लेखबद्ध किये हुवे वक्तव्य को पढ़ा |  

घनक घटा गहराए जिमि भोर लखइ नहि भोर । 
सैन पाल काल जित असि करियो रन घन घोर ॥ 
गर्जती हुई घटाओं के गहरे हो जाने से जैसे भोर भोर रूप में परिलक्षित नहीं होती, उसने सैन्यपाल कालजित के साथ वैसा ही घनघोर संग्राम किया | 

बृहस्पतिवार, ०४ अगस्त, २०१६                                                                               

गह सो बीर तरल तलवारा । करा प्रहार धरातल पारा । 
बहुरि कला कृत एक ते ऐका । मारिब पुष्कल सहित अनेका ॥ 
उस वीर ने तीव्र धार से युक्त धारासार धारण कर  प्रहार करते हुवे उसे धराशायी कर दिया |  तत्पश्चात एक सी एक युद्ध कलाऐं करते हुवे अनेकानेक सैनिकों सहित पुष्कल को मार गिराया | 

रिपुदवनहु जबु ता सहुँ गयऊ । मर्माहत कृत मुरुछा दयऊ ॥ 
लह हरिदै दुःख दारुन दाहू । फरकेउ नयन अरु दुहु बाहू ॥ 
भ्राता   शत्रुध्न भी जब उसके  सम्मुख गए तब उसने मर्म पर आघात कर उन्हें भी मूर्छित कर दिया |  ( मूर्छा विगत होने पर )  ह्रदय में दारुण पीड़ा की दहन का अनुभव करके उनके नेत्र और दोनों भुजाएं फड़कने लगी | 

कोपहि असि जसि कोपि न काहू । दिए अघात करि मुरुछित ताहू ॥ 
होइ बीर सो हत चित जोंही । प्रगसि अबरु एकु बालक तोही ॥ 
फिर उन्होंने अब तक नहीं किया था ऐसा कोप किया, और आघात करते हुवे उस बालक को भी मूर्छित कर दिया | जैसे ही वह वीर हतचित्त हुवा वैसे ही वहां एक दूसरा बालक प्रगट हो गया | 

दरसन माहि दोउ एक रूपा । धनु कर जटा धर जति न भूपा ॥ 
दोउ एकहि एक होइँ सहाई । बहुरि जुगत दुहु करिब लड़ाई ॥ 
दिखने में उनका रूप एक जैसा था हस्तगत धनुष शिरोपर जटा न वह साधू थे न ही  क्षत्रिय थे | जब दोनों को  एक दूसरे का सहारा प्राप्त हुवा, तब फिर वह एकीभूत होकर संग्राम करने लगे |  

हय हस्ति बट अँट भट मरकट भरी चतुरंगनि सैन बिभो । 
फेरि बदन धुजा पट मुख धरी लटपट भय भर नैन बिभो ॥ 
उपटन चरन अह !घूँघट करी निरखिहि ऐंचा तैन बिभो ॥ 
धाई थरथरी कटि घट कर पिछु पछियावैं बैन बिभो । 

विभो !  हाथी घोड़ों से बटी एवं सैन्यदलों से अटी वानरों से भरीपूरी आपकी चतुरंगिणी सेना ध्वजा पट को अधरों में धारण किए भयार्त नेत्रों से मुख-मंडल  फेर कर चरणों में आघात के चिन्ह  लिए घुंघट किए हुवे उन बालकों पर तिर्यक दृष्टि का आक्षेप करती  कटती घटती थरथराती पीठ दिखाती भाग खड़ी हुई बालकों के बाण उसका पीछा कर रहे थे |  

किरीट कवच कल कुंडल मौलि मुकुट मनिहारी । 
सब सिंगार निहार सो हरि हर लियो उतारि । 
तत्पश्चात श्रृंगार पर दृष्टिपात कर उन बालकों ने  कंकण, कवच, सुन्दर कुण्डल, मनोहारी मौलिमुकुट आदि प्रसाधनों को उतारकर हरण कर लिया |

कर कोदंड कलित करे बले बलइ बल हार । 
अह सर्या कर धार सो, लेइ गयो चिन्हारि ॥ प्रभो 
प्रभो ! कोदंड को कलित करते हुवे हस्त बलि हारते उस चतुरंगिणी ने जो वलय (मुद्रिका ) वलयित की थी अहो !  उन उँगलियों (बाण)  को अपने हस्त में ग्रहण कर वह बालक उसे चिन्ह स्वरूप में ले गए |

वलय = दो दो पंक्तियों की सैनिक श्रेणी, मुद्रिका 
बल हार =  बलहार, बल का हार 
कोदंड = धनुष, भृकुटि 
शर्या = उंगली, बाण 

शुक्रवार, ०५ अगस्त, २०१६                                                                                           



बाँध्यो गहिब दुहु कपि कंता । एकु सुग्रीव एकु हनुमंता ॥ 
कसियो बलइ रसरि कर जोरी । परन कुटिर लय गयो बहोरी ॥ 
तदनन्तर उन्होंने सुग्रीव तथा महावीर हनुमान इन दोनों कपि नाथों को बाँधते हुवे इनके दोनों हाथों को रसरी से बलपूर्वक कसते हुवे अपनी पर्ण-कुटिया में ले गए | 

तदनंतर कृपाकर आपही । मेधीअ तुरग देइ बहुरही ॥ 
मरनासन पुनि सैन जियावा । अह साँसत जिअ महु जिअ आवा ॥ 
तत्पश्चात हमपर कृपाकरते हुवे स्वमेव यज्ञ सम्बन्धी तुरंग को लौटा दिया,  और मरणासन्न सैनिकों को जब जीवन-दान दिया संकटापन्न सेना ने तब चैन की सांस ली | 

लेइ गहिब सो हय सिरु नाईं । आए सरन त्रिभुवन गोसाईं ॥ 
ऐतकहि प्रभो मोहि जनाया । जिन्हनि प्रगसित सहुँ कहि पाया ॥ 
हे त्रिभुवनके स्वामी ! अश्व लेकर अब हम लोग आपकी शरण में आ गए |  जितना घटना-क्रम मुझे ज्ञात है वह मैने आपके सम्मुख प्रकट कर दिया |   

कहत अहिपत सुनहु बिद्बाना । घटना बलि जस सुमति बखाना ॥ 
बाल्मीकि कर आश्रमु नीके । बसएँ सुत जहँ जानकी जी के ॥ 
शेष जी कहते हैं : -- 'हे विद्वान मुनि सुनो ! जहाँ जानकीजी के पुत्र  निवास करते थे महर्षि वाल्मीकि के मनोरम उस आश्रम की वार्ता काटे हुवे सुमति ने जिस घटनावली का वर्णन किया | 

कवन सो बीर प्रभु अनुमानिहि । जानपनी सब जान न जानिहि ॥ 
राघव मंदिर महमखु होई । दीन्ही चरन मुनि सब कोई ॥ 
उससे प्रभु को यह ज्ञात हो गया कि वह वीर कौन हैं | वह उनके ही पुत्रहीन हैं यह जान बुझ कर भी वह अज्ञानी बने रहे | राघव के मंदिर  में  महायज्ञ का आयोजन  हो रहा है सभी मुनिगण का वहां पधारे हुवे हैं | 

तहँ सहुँ आनि पधारिहि बाल्मीकि मुनि राए । 
सब बिधान अनुमान के, तासों पूछ बुझाए ॥  
उनके साथ मुनिराज वाल्मीकि का भी आगमन हुवा  तब सभी प्रकार से विचार करते हुवे प्रभुने उनसे प्रश्न किया | 

रविवार, ०७ अगस्त, २०१६                                                                                   

मुनि तुहरे कुटि मम सम रूपा । कवन जमलज जौ जति न भूपा ॥ 
धनुर बिधा महुँ परम प्रबेका । समर कला कृति एक ते ऐका ॥ 
मुने ! 'आपकी कुटिया में मेरे समरूप युगल किशोर कौन हैं जो न यति हैं और न ही क्षत्रिय हैं | सुमति के कथनानुसार जो धनुर्विद्या में अत्यंत प्रवीण हैं जिन्होंने युद्ध की एक से बढ़कर एक कलाओं का प्रदर्शन किया |'

सचिउ सुमति मुख बरनै जैसे । होइ कहहु को चकित न कैसे ॥ 
किए मुरुछित रिपुहन समुहाई । हति खेत खेलाइ खेलाई ॥ 
सचिव सुमति ने जिस प्रकार से वर्णन किया कहिए तो फिर कोई चकित कैसे न हो ?  शत्रुध्न के सामना करने पर भरी रणभूमि में उन्होंने उसे   घायल करते हुवे खेल ही खेल में मूर्छित कर दिया | 

बाँधि लियो हँसि हँसि हनुमंता । छाँड़ दियो कसि तुरग तुरंता ॥ 
कौतुक उपजिहि मन किन काहू । बालकन्हि सब चरित सुनाहू ॥ 
महा बलशाली हनुमंत को  सरलता पूर्वक बाँध लिया तथा बांधे हुवे अश्व को  तत्काल मुक्त भी कर दिया | चित्त में कौतुक की उत्पत्ति फिर क्यों न हो | मुनिवर अब आप उन बालकों के चरित्र का परिचय दीजिए | 

बाल्मीकि मुनि कहए स्वामी । नराधिपत तुम अन्तर्यामी ॥ 
तुम निधान ग्यान गुन सीला । जानिहु प्रभो सबहि नरलीला ॥ 
तत्पश्चात वाल्मीकि मन ने कहा : -- हे नाथ ! आप ज्ञान गुण व् शील के निधान हैं प्रभो !  मनुष्यों की सभी लीलाएं आपको ज्ञात हैं |  

पूछेउ मोहि कहौं सो तुहरे मन परितोष । 
गहौ चरन कर दिजो छम जान कतहुँ मम दोष ॥ 
तथापि आपने कौतुकवश मुझसे प्रश्न किया है आपके मन की संतुष्टि के लिए उत्तर देता हूँ यदि मेरा कोई दोष परिलक्षित हो तब मैं चरण पकड़ कर आपसे प्रार्थना करता हूँ आप मुझे  क्षमा प्रदान कीजिएगा |  

सोमवार, ०८ अगस्त ,२०१६                                                                                        

जौ बेला तुम जनक किसोरी । प्रान समा सिय हियप्रिय तोरी ॥ 
दोषु बिनहि परिहर बन देहू । आनि न कबहु न केहि सपनेहू ॥ 
जिस समय आपने  ह्रदय को अत्यंत प्रिय अपनी धर्मपत्नी जनक किसोरी सीता को निर्दोष होने के पश्चात भी त्याग कर ऐसा वन वास दिया था जो कभी किसी ने स्वप्न में भी विचार नहीं किया | 

मन क्रम बच प्रभु पद अनुरागी । देहु गरभिनि सम्पद त्यागी ॥ 
बेहड़पन अत बनहि ब्यापा । बिहरत बिहरन करिहि बिलापा ॥ 
मन, कर्म और वचन से आपश्री के चरणों की अनुरागी आपके द्वारा त्यागी गई वह गर्भवती लक्ष्मी निबिड़तम वन में भटकती हुई आपके वियोग से दुखित होकर विलाप कर रही थी | 

ब्याल कराल बिहग बन घोरा । जग लग रयन बिलग न भोरा ॥ 
कातर कंठ करुना अस भारी । उपटन चरन चरिहि सुकुआँरी ॥ 
हिंसक जंतुओं एवं विकराल पक्षियों से सघनता से युक्त उस वन में ऐसा प्रतीत होता मानो  संसार में रात्रि  से प्रभात पृथक न होकर परस्पर एक हैं |  कातर कंठ में अत्यंत ही करुणा भरे घायल चरणों से वह सुकुमारी ऐसे वन में विचरण कर रही थी | 

पग बिनु डग मग रिपु बहु जाती । दहइ दारुन कुररि की भाँती ॥ 
दुःख आतुर अह बिलखति रोती । मुकुता गह मुख मुकुत पिरोती ॥ 
परिचालन से रहित वनमार्ग में चलने के कारण विविध प्रकार के कंटक उनके चरणों में समाहित होकर कठोर कुररी के जैसे पीड़ा दे रहे थे | आह ! दुःख से व्याकुल होकर रोती बिलखती सीप स्वरूप मुख में मुक्ता स्वरूप अश्रुबिंदुओं को पिरोती हुई : - 

दुखिया जनि गोसाईंया, निरखत बन मेँ ताहि । 
पुनि सादर निज परन कुटि लेइ गयो सँग माहि ॥ 
उस दुःखिनी को मैने जब उस वन में देखा हे स्वामी ! तब आदर सहित उसे मैं अपने साथ अपनी पर्ण-कुटिया में ले गया | 

मुनि बालक करनक चुगि ल्याए । करीर नठि सुठि कुटीरु बनाए ॥ 
तहँ दुहु जम कुल दीप जनावा । दीपित द्योति दहुँ दिसि छावा ॥ 
मुनियों के बालक पेड़ की पत्तियां, टहनी आदि संकलित कर लाए  तत्पश्चात उन्हें बांस संगठित करते हुवे एक सुन्दर कुटिया बना दी, वहां सीता ने  दोनों कुल दीपकों के जोड़े को जन्म दिया जो अपनी कांति से दसों दिशाओं को प्रकाशित कर रहे थे | 

एक कर नाउ कुस मैं राखेउँ । दूज लाल लव कहि भाखेउँ ॥ 
उजरै बिधु जिमि उजरै पाँखा । जुगल तनुज तिमि बढ़तै लाखा ॥ 
पहले बालक का नाम मैने कुश रखा तथा दूसरे लाल को लव कहकर सम्बोधित किया |  शुक्ल पक्ष में जिसप्रकार चन्द्रमा निरंतर वृद्धि को प्राप्त करता है उसी प्रकार ये दोनों जुटे कुमार भी वृद्धि को प्राप्त होते चले गए | 

चारिउं बेद सहित छहुँ अंगा । भयउ कुमार पढ़िय सब संगा ॥ 
दै बिद्या सब दिया जनेऊ । होए कुसल मुनि बालक तेऊ ॥ 
तदनन्तर इन दोनों बालकों ने अन्य मुनि बालकों के साथ छहों अंगो सहित चारों वेदों का अध्ययन किया | समस्त विद्या प्रदान कर यज्ञोपवीत संस्कार करते हुवे मैने इनका जनेऊ किया, प्रभु ! इन बालकों ने अन्य बालकों से अधिक प्रावीण्यता अर्जित की थी |  

आजुरबेद कि आयुध बेदा । सकल सास्त्र सहित सब भेदा ॥ 
करियउँ जगत निपुन रघुनाथा । बहोरि धरा माथ पर हाथा ॥ 
हे रघुनाथ ! यजुर्वेद हो कि आयुर्वेद हो रहस्यों सहित शस्त्र एवं समस्त शास्त्रों में इन्हें जब सर्वाधिक निपुण कर दिया तब इनके मस्तक पर हाथ रखते हुवे गुरुमंत्र देकर इनकी दीक्षा संपन्न की | 

षडज ते निषाद लग जब , सुर सरगम  कर जोग । 
मधुर मधुर गावहिं तब चितबहि चितबत  लोग ॥ 

षडज, मध्यम,गांधार से लेकर निषाद तक सभी सप्त स्वरों की संगती करके मधुरिम -मधुरिम गान करते तब इन्हें देखकर सभी लोग स्तब्ध हो जाते | 
बुधवार, १० अगस्त, २०१६                                                                                    


सत सुर माल कण्ठ कर बीना । करिहि सांगत त भयउ प्रबीना ॥ 
पूर पनब जब बजएँ मृदंगा । रंजनए छहुँ राग सहुँ रंगा ॥ 
कंठ में सप्त स्वर मालिका एवं हस्त में वीणा के संगत से  इन्हें संगीत में भी प्रावीण्यता प्राप्त हुई | पणब  पूर्णित मृदंग का वादन होता तब गायन और वादन के साथ छहों राग अनुरक्त हो जाते | 

जुगल केरि अस कौसल देखा । होहि मोहि पभु हरख बिसेखा ॥ 
परम् मनोहर श्री रामायन । तासु नितप्रति करैं सो गायन ॥ 
दोनों कुमारों का कौशल्य देखकर जब सब विस्मित रह जाते प्रभु! तब मुझे विशेष हर्ष होता और में इनसे परम मनोहर रामायण-काव्य का गान कराया करता | 

जानत ए के होवनिहारा । पूरबल जिन्ह रचि मैं पारा ॥ 
मधुप निकर जस मधुबन झौरहिं । करत गान तिमि बन बन भौरहि ॥ 
भवितव्य का ज्ञान होने के कारण पूर्व में ही मैने जिसकी रचना कर दी थी |  जिस प्रकार मधुवन में भौंरों के समूह गुंजन करते फिरते हैं उसी प्रकार ये दोनों बालक भी इस रचना का गान करते वन-वन फिरा करते |  

कुसुम कली कुसुमित अति सौंहे। खंजन सहित मृगहु मन मौहें ॥ 
गावत लय गति अति मधुराई । श्रोतस श्रुत श्रुत श्रुति सुख पाई ॥ 
उनके गायन से पक्षी एवं मृग  भी सम्मोहित हो जाते कुसुम की कलियाँ पुष्पित होकर वन को सुशोभित कर देती  लय में विलीन होने पर जब उनका गायन अत्यंत ही मधुर हो जाता तब श्रोतागण इसे सुन- सुन कर परम आनंद की अनुभूति करते || 

श्रुति सो गायन  श्रुति सुख पावन बारि पति पुनि एक दिवा । 
गहेउ हाथ निज साथ पुनि बिभावरि पुरी गयउ लिवा ॥ 
जुगल मुकुल मंजुल मनोहर सुर सागर करि पार गए । 
पावन पबित तव मृदुल चरित गावनि देउ आयसु दए ॥ 
उस मधुरिम गायन को सुनकर अपने कर्ण को तृप्त करने के लिए फिर एक दिन वारि नाथ वरुण उन बालकों का हाथ पकड़ कर उन्हें अपने साथ विभावरी पूरी ले गए, वहां उन्होंने जब  आपके  पावन पवित्र मृदुल चरित्र का गायन करने की आज्ञा दी तब वह मंजुल व् मनोहर युगल किशोर उसका गान करते हुवे स्वरों के सागर को पार कर गए | 

जनमत भगवन लगन परि बादिहि बादल बृन्दु । 
नाथ नयन  लह चहँ गगन सिय मुख पूरन इंदु ||  
जन्म  के पश्चात जब आप श्री भगवान  का शुभलग्न हुवा तब वारि वृन्द वाद्य वृन्दों के जैसे वादन कर रहे थे |  उस समय रघु नाथ के श्री नयन गगन के सदृश  तथा माता सीता का श्री मुख पुर्णेन्दु होने को उत्सुक थे | 

बृहस्पतिवार, ११ अगस्त, २०१६                                                                               
बादिहि बादल बृन्दु अगासा । झरिहि झर झर बिंदु चहुँ पासा ॥ 
भर भर कलसि करषि कर देईं । पियत पयस बूझै न पिपासा ॥ 
आकाश में वारि वृन्द के वादन से जल बिंदु भी नीचे गिरते हुवे झरझर की झनकार से निह्नादित हो उठे  | इस संगीत रस को कलशों में भर भर कर वह श्रोताओं को मनुहार पूर्वक प्रदान करते, भरपूर रसपान के पश्चात भी उनकी मधुरता से कोई भी तृप्त नहीं होता |  

दरसै छटा पुरुट पट डारे । अरुन प्रभाकर करिहि बिलासा ॥ 
कोमल करज जलज जय माला । पहिरावत मुख लवन ललासा ॥ 
मेघ- ज्योति को सुनहरे पट का घूंघट करते देखकर सांध्य काल का सूर्य जैसे विलास कर रहा था | कोमल हस्तांगुलियों में स्थित जलज की जयमाला को  माता सीता द्वारा भगवान के कंठगत करते हुवे उनके मुख पर लावण्य क्रीड़ा करने लगा |  

गिरि गहबरु अरु फिरैं पयादे । कुपित जनि जब दियो बनबासा ॥ 
हरिअ हरानत हरि अरि हरियो । ल्याए हरि हरि करिअ बिनासा ॥ 
कोप के अग्नि कुंड में स्नान जब प्रभु को जब माता कैकेई ने वनवास दिया तब वह पैरों से चलते दुर्गम  गिरि अरण्यों में भटकते फिरे | वहां जब रावण ने चौर्यकरण द्वारा आप हरि की श्री का हरण कर लिया तब शनै: शनै:  दानवों का सर्वनाश करके आप उन्हें ले आए | 

बिमनस मुख सो रभस दुरायो । सरस रहस बस बरुन निवासा ॥ 
कंठ ताल नूपुर दल पूरे  । गावहि झनक झनक चौमासा ।  
सीता के सीता के लौटने का प्रसंग श्रवण कर सरसता के वशीभूत वरुण के निवास में श्रोतागणों के वैमनस्य मुखों से शोक दूर हो गया था | कंठ व् तालव्य में नूपुर दलों को पिरो कर फिर तो जैसे वर्षा ऋतू भी उन बालकों के संगत झनक झनक करते हुवे गायन करने लगी | 

अबरु अबरु अरु गीति ग्याता । हितु हिती गन सहित हे ताता ॥ 
श्रुत बरुनप निज परिजन साथा । राजस रहस सरस सो गाथा ॥ 

अस तो सरस् पयस बहु होईं । तोर चरित ते अधिक न कोई ॥ 
सकल श्रोतस श्रवनतहि जाइहिं । चरित पयस नहि पियत अघाईं ॥  
ऐसे तो  रसमय अमृत अतिसय हैं किन्तु आपके चरित्र से अधिक पावन कोई सुधा  नहीं है यह सुधा से भी अधिक सरस है  | सभी श्रोतागण इसे श्रवण करते ही चले गए किन्तु इस अमृतमय चरित्र का रसपान  से  उनकी पिपाशा शांत नहीं होती | 

बरुन लोक मैं गयउँ बहोरी । करे अगवान दुहु कर जोरी ॥ 
द्रवीभूत मम बंदन करियो । पेम भाव हिय पूर न परयो ॥ 
मै भी उत्तम वरुण लोक में गया वहां वरुण ने हाथ जोड़कर मेरा अभिनन्दन किया एवं द्रवीभूत होते हुवे  मेरी पूजा एवं वंदना की |  उस समय  उनका  प्रेमभाव इतना अत्यधिक था की वह से मेरे छोटे से ह्रदय में नहीं समाया  |

रागिन रंग बयस गुन सोंही । बरुन जुगल पर प्रमुदित होंही ॥ 
सुनि रघुकुल मनि तजहि सगर्भा । कहिहि एहि बिधि सिया संदर्भा ॥ 
वह उन युगल बालकों के गायन व् वादन की विद्या तथा उनकी अवस्था एवं  गुणों से अत्यधिक प्रसन्न थे | जब उन्होंने सुना कि रघुकुल के शिरोमणि ने सीता को सगर्भ त्याग  दिया है तब उन्होंने ने उनके सन्दर्भ में यह निवेदन किया : -- 

सिय सम जग को सती न होई । अहहि अस पति बरता न कोई ॥ 
होहि सो गुन संपन्न कैसे । जोहि महि ससि सम्पदा जैसे ॥ 
सीता के समान जगत में न तो कोई सती है और न ही कोई ऐसी पतिव्रता है वह तो सभी गुणों से ऐसे संपन्न है जैसे पृथ्वी धन-धान्य की सम्पदा के  सन्निधान से संपन्न होती है | 

सील बिरधा रूपवती रघुबर देइ बियोग । 
पतिब्रता सिय परम सती नहि त्याजन जोग ॥ 
शील, अवस्था, व् रूप की राशि को रघुबर ने वियोग दिया यह पतिव्रता परमसती सीता कोई त्याज्य योग्य है ? 

बृहस्पतिवार, १८ अगस्त, २०१६                                                                                   
                                                                                
समर बीर पुनि जुगल जनावा । कहहु त असि सुभाग कहँ पावा ॥ 
चारित तेउ सदेउ पुनीता । परिहर देँ अस जोग न सीता ॥ 
तदनन्तर उन्होंने संग्रामवीर पुत्रों को जन्म दिया कहिए तो ऐसा सौभाग्य कहाँ प्राप्त होता है ? चरित्र से जो सदा से पवित्र हैं उसे त्याग दिया जाए वह सीता इस योग्य नहीं है | 

ताहि कर हम सबहि सुर साखी । राम बिनु सिय बिहग बिनु पाखी ॥ 
जासु चरन नित चिंतत जेहीं । मिले तुरतै सिद्ध फल तेही ॥ 
जिसके हम सभी देवता साक्षी हैं | राम के बिना सीता पंख के बिना पक्षी की भांति है | जो भक्त सीता के चरणों का चिंतन करते हैं उन्हें तत्काल ही सिद्धि का प्रसाद प्राप्त होता है | 

जगत सृजन थिति लय किन होही । होत सब श्री संकलप सोंही ॥ 
जिन सोंहि भगवद ब्यौहारा । सो त मरित अमरित की धारा ॥ 
संसार की सृष्टि, स्थति एवं लय आदि क्यों न हो उन शोभा श्री के संकल्प से वह सभी कार्य होते हैं | भगवद व्यापार भी उन्हीं से संपन्न होते हैं सीता ही मृत्यु है सीता ही अमृत की धार है | 

प्रभु जौ सूर सिया संतापा । प्रभु जौ जलधि सिया जल भापा ॥ 
प्रभु जौ गहबर घन सिय बारी । प्रभु प्रिय सियहि पदारथ चारी ॥ 
प्रभु यदि सूर्य हैं तो  सीता उस सूर्य का संताप है, प्रभु यदि जलधि हैं तो  सीता जल वाष्प है  | प्रभु यदि मेघ हैं तो सीता वर्षा है प्रभु की प्रिय सीता ही धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष है | 

ब्रम्हा शिव पद सिय सों पावा । तासु सबहि दिक् पाल जनावा ॥ 
जगदधात हे सर्ब ग्याता । जगद पिता तुम अरु सिय माता ॥
ब्रह्मा एवं शिव का पद सीता द्वारा ही प्राप्त होता है हम सभी लोकपालों को वही उत्पन्न करती हैं | हे जगत के निधाता ! आप जगत पिता हैं व् सीता जगज्जननी हैं |  

जानतहउ प्रभो आपहु, सिय नित सुधिता आहि । 
सो तो प्रिय प्रान सम तव अरु को प्रिय कर नाहि ॥ 

सीता नित्य पवित्र हैं आपको भी इस बात का संज्ञान है  प्रभु ! वह  प्राणों  के समान प्रिय है उनके अतिरिक्त  आपको और कुछ भी प्रिय नहीं है |  

शनिवार, २० अगस्त, २०१६                                                                                 

नित पावन पबित सित जानत ए । प्रभु दिजौ मान जसि पुरबल दए ॥ 
साप संगत तव पराभावा । अस तौ जग को करिअ  न पावा ॥ 
जनक  किशोरी सीता  को सदैव से पावन व् पवित्र है यह संज्ञान कर प्रभु ! आप पूर्व की भांति उनका आदर करें | किसी श्राप के संगत आपका प्रभाव हो  ऐसा करने के लिए संसार में कोई भी समर्थ नहीं है | 

सुनु मुनि प्रभु पहि गत पद गहिहउ । जे सबहि मम कही बत कहिहउ  ॥ 
बरुन नाथ कह बहुंत प्रकारा । एहि बिधि प्रगसिहि मनस विचारा ॥ 
हे मुनि श्रेष्ठ वाल्मीकि जी सुनिए ! प्रभु के पास जाकर उनके चरणों में नतमस्तक होते हुवे मेरी कही ये उक्तियाँ उनसे निवेदन करिएगा | प्रभु ! इस प्रकार सीता स्वीकार्य के सम्बन्ध में वरुण नाथ ने भिन्न-भिन्न कथन करते हुवे अपने मन के विचार प्रकट किए थे | 

सिया सकार जोग गोसाईं । लोकपाल सब सम्मत दाईं ॥ 
यह तुहरे जुग राज दुलारे । करिहि चरित जब गान तिहारे ॥ 
हे स्वामी ! सीता स्वीकार्य योग्य है इस हेतु सभी लोकपालों ने अपनी सहमति दी है | आपके इन राज दुलारों ने जब आपके चरित्र का गान किया | 

अह नर रूप धरे नारायन । बरुन पति घर गाएं रामायन ॥
सुरासुर गंधरब किन होई । भयउ कौतुक बिबस सब कोई ॥ 
अहो ! वरुण नाथ के धाम में नर के रूप धारण किए नारायण की रामायण कथा का गान किया वह फिर तब सुर असुर व् गन्धर्व ही क्यों न हो सभी कौतुहल के वशीभूत हो गए | 

सुनत सुमधुर राम कथा मन बहु रोचन होंहि । 
सब कीन्हि बढ़ाई तहँ मुदित भ्रात कर दोइ ॥ 
आपके पुत्रों के मुख से सुमधुर रामकथा का श्रवणपान कर सबका मन आनंदित हो गया | इन  दोनों भ्राताओं की सबने मुक्त कंठ से प्रशंसा की | 

रविवार, २१ अगस्त, २०१६                                                                                      
लोकाधिप असीस जो देईं । तुहरे सुत सो सहरष लेईं ॥ 
रिषि महरिषि गन ते अधिकाई । दोउ मान जस कीरति पाईं ॥ 
लोकाधिपों ने  जो आशीर्वाद प्रदान किया था आपके पुत्रों ने उसे सहर्ष स्वीकार्य किया | उन्होंने ऋषि महर्षिगणों से अधिक सम्मान व् कीर्ति प्राप्त की |   

पुण्य श्लोक पुरुष बर साथा । होवत तीनि लोक कर नाथा ॥ 
एहि औसर गहिहौ घट काँचा । गहस धर्मि निभ करिहहु नाचा ॥ 
पुण्यश्लोक (पवित्र यशवान ) पुरुषों के शिरोमणि के सह त्रिलोक नाथ होने के पश्चात भी इस समय आप मिट्टी की देह धारण करके गृहस्थ धर्मी की सी लीलाएं कर रहें हैं | 

बिधा सील गुन भूषन धारे । गहन जोग दुहु तनुज तिहारे ॥ 
सिय सुधित अब सबहि पतियारे । कुँअरु सहित प्रभु ताहि सकारें ॥ 
विद्या, शील व् गुणों के आभूषणों को ग्रहण किये ये दोनों पुत्र स्वाकार करने योग्य हैं | जनक नंदिनी जानकी की पवित्रता पर अब किसी संदेह नहीं है | दोनों कुमारों सहित को  सीता भी स्वीकार्य करें | 

प्रान दान दए सैन जियाई । अहहि बहुतहि सुचित सो माई ॥ 
दीन बन्धु हे दया निधाना । प्रतीति हुँत एहि  साखि प्रवाना ॥ 
 जो प्राणों का दान देकर सेना को जीवित कर दे वह माता अत्यधिक पवित्र होती हैं | हे दीनों के बधु ! हे दया के सागर ! यह प्रसंग माता सीता की पवित्रता पर विश्वास करने के लिए प्रत्यक्ष प्रमाण है | 

पतित अपबित पुरुष हुँत पावन हर ए प्रसंग । 
सुबरन बहुरि सुबरन हैं होइहि केत कुरंग ॥ 
यह प्रसंग पतित पुरुषों को भी पावन करने वाला है | प्रभु! कांतिहीन क्यों न हो स्वर्ण तो स्वर्ण होता है |  

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (02-08-2016) को "घर में बन्दर छोड़ चले" (चर्चा अंक-2422) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बहुत सुंदर ... सुंदर कांड को नेट की दुनिया में लाने का आपका प्रयास प्रशंसनीय है ...

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