Thursday, 4 August 2016

----- ॥ दोहा-पद॥ -----

घनक घटा गहराए जिमि भोर लखइ नहि भोर । 
झूलए झल जल झालरी मुकुताहल कर जोर ॥ 

बारि बरसात डारि डारि फुर पात अँगना अमराई फरे |  
जर नूपुर गुँजात थरी थरी देखु सखि हरि हरु रँग भरे || 
खेह खेह भए कनक देह ससि कनि कर मनि मोतिया धरे | 
कंठि माल कटि करधनिया जिमि धरनि के  कर कँगना परे || 


भावार्थ : - हे सखी ईश्वर जलवर्षा कर रहे हैं जिससे डाल-डाल पर पुष्प-पत्र पल्ल्वित हो उठे आँगन की अमराइयाँ फलीभूत हो गईं | जल रूपी नूपुर का मधुर गुंजन करते हुवे ईश्वर ने प्रत्येक स्थली को हरे रंग से भरकर हरिण्मय कर दिया है | अन्न- कणिकाओं के मणि मोतियों को धारण किये खेत की देह मानो स्वरणमयी हो गई है ( अथवा गेहूँ से परिपूर्ण हो गई है ) इन स्वर्णमय खेतों से ऐसा प्रतीत होता है मानो  कंठ-माल, करधनी, कंगन धारण कर धरती ने श्रृंगार किया हो | 

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (06-08-2016) को "हरियाली तीज की हार्दिक शुभकामनाएँ" (चर्चा अंक-2426) पर भी होगी।
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    हरियाली तीज की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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