Friday, 16 September 2016

----- ॥ दोहा-द्वादश 1॥ -----

लघुवत वट बिय भीत ते उपजत बिटप बिसाल । 
बिनहि बिचार करौ धर्म पातक करौ सँभाल ॥ १ ॥ 
भावार्थ : -- एक लघुवत वट बीज के भीतर से एक विशाल वृक्ष उत्पन्न होता है । अत: पुनीत कार्य करते समय उसके छोटे बड़े स्वरूप का विचार न करें । पतित कार्य करते समय उसके छोटे बड़े स्वरूप का सौ बार विचार करें । क्षुधावन्त की क्षुधा को शांत करने के लिए अन्न का एक दाना भी पर्याप्त होता है यह एक दाना खेत में पहुँच जाए तो फिर अनेक से अनेकानेक होकर भंडार भरने में समर्थ होता है ॥  अपात्र को दिया गया एक अभिमत, दाता के नारकीय पथ को प्रशस्त करता है ॥

" संकल्प हीन मनोमस्तिष्क ही विकल्प का चयन करता है " 

जो कारज कृत कठिनतम बढ़ि बढ़ि कीजिए सोइ । 
ताहि कृतब का होइया करिअ जाहि सब कोइ ॥ २ ॥ 
भावार्थ : -- जिन पुनीत कार्यों को करना कठिन हो वह पुण्य प्रदाता कार्य होते हैं अत: उन्हें करने के लिए सदा उद्यत रहना चाहिए । जो सरल हों जिसे सभी करते हो ऐसे सत कार्य पुण्यदायक नहीं होते ॥ 

सो धर्म केहि काम कर जौ जन करै अकाम | 
बिरवा बुवावै न एकहु बैठा खावै आम || ३ || 
भावार्थ : -- वह धर्म संसार के किसी काम का नहीं जो अपने अनुयायियों को कर्म से अलिप्त कर उन्हें अकर्मण्य बनाता हो | जिसकी आम खाने में तो रुचि हो पेड लगवाने में नहीं | 

सो धर्मि केहि काम कर जौ तन करै अकाम | 
बिरवा बुवावै न एकहु बैठा खावै आम || ४ || 
भावार्थ :-- वह अनुयायी भी संसार में किसी काम के नहीं जो अपने शरीरको कर्म से अलिप्त कर उसे अकर्मण्य बना देते हों | जिसकी आम का रसास्वादन करने में रूचि हो किन्तु अपने शरीर से पेड लगवाने में नहीं || 

सीस उतारी जब तेउ डारि दियो सद ग्रंथ | 
कर सत करतब छाँड़ियो  धरिअत चरन कुपंथ || ५ || 
भावार्थ ;-- जब से शिरोधार्य सद्ग्रन्थ अधस्तात होकर त्याज्य हो गए तब से चरण कुपपंथगामी और हस्त कृत कर्मों से विमुख हो गए  ||

आया तू संसार में देख पके पकवान | 
निसदिन खावन में रहा बिछुरे तन ते प्रान || ६ || 
भावार्थ :--कर्मों में संलिप्त जीवन की कहानी लंबी होतीहै | कर्मसे अलिप्त जीवन की कहानी केवल एक पंक्ति में संकुचित होकर रह जाती है | जीवन चरित्र ऐसा हो जिसपर ग्रन्थ लिखा जा सके ऐसा न हो कि मात्र इतना लिखे ;--  "संसार में आया था, पके पकवान देखा ,खाया और चला गया....." 

मानस देहि जनम लियो,रहियो अपनी कान | 
हरा भरा जग करा नहि करो न मरु अस्थान || ७ || 
भावार्थ :--  मनुष्य देह में जन्मे जीव को चाहिए कि वह अपनी मर्यादा में रहे |
संसार को हरा-भरा  नहीं किया कोई बात नहीं उसे मरुस्थल में परिवर्तित न करे |
उसने पुण्य नहीं किया कोई बात नहीं वह पाप तो न करे |



जल के संगत कीजिये, हरियाली ते हेत |
मरत भूमि न त होइही चहुँपुर रेतहि रेत || 8 || 
भावार्थ : - 'जल ही जीवन है' हमें जल-संरक्षण के संगत सदैव हरियाली के लिए उत्प्रेरित रहना चाहिए | यदि हरियाली की उपेक्षा की गई तो यह भूमि मृतप्राय होकर जीवन से रहित मरुस्थल में परिवर्तित हो जाएगी तब इसके चारों ओर मिट्टी के स्थान पर रेत ही रेत व्याप्त रहेगी | 

जाके पंथ पहुँच बिना सो पहुंचे दरबार | 
बोलिए तो स्वान कहे भूकन दे झकमार || ९ ||  

भावार्थ : - ये लोकतंत्र के नाम पर चल रहे भ्रष्टतंत्र का ही चमत्कार है कि जिनके पथ पहुँच से विहीन है वह सत्ता में पहुँच गए है और पहुंचे हुवे पर शासन कर रहे है | यदि इन्हें कोई कुछ बोले तो ये उन्हें कुत्ता कहकर दुत्कारते हुवे कहते हैं भूँकने दो ! संविधान अपना कौन सा कुछ बिगाड़ लेगा | 

दया धर्म बिरोधी भए सत्ता पर आसीन |
अगजग सो पथ चालिआ जो पथ पहुँच विहीन || १० ||


भावार्थ : - दया और धर्म का विरोध करने वाले सत्ता पर आसीन हो गए हैं, इनका अनुशरण करते हुवे अब लोग उस पथ पर चल पड़े हैं जो पथ कहीं नहीं जाता |



मैं मैं कर आसन गहे अधमस की पहचान | 
तू तू कर पाछे रहे उत्तम तिनको जान ||११ || 
भावार्थ : - योग्यता मैं मैं की संकीर्ण विचार धारा से मुक्त होती है |  मैं मैं के साथ कोई पद, आसन अथवा सिंहासन प्राप्त करना यह निकृष्ट अधिष्ठाता के लक्षण है, तू तू करते जो सबसे पीछे रहता है वह इन प्रपंचों के हेतु उत्तम अधिष्ठाता होता है | 



घूँघट ते मरजाद भलि नर नारी को होए | 
बँध रहे न निरबँध रहे भले नेम कर जोए  || १२ || 

भावार्थ : - घूँघट से ही सद्चरित्र का गठन होता है यह आवश्यक नहीं |  नर हो अथवा नारी या नाड़ी इनके लिए घूँघट से मर्यादा उत्तम है | ये न तो बंधन में रहे न स्वच्छंद रहे तथा उत्तम नियम व् रीति का पालन करे ( तभी इनमे शील व् सदाचार का गठन संभव है ) 

संत  कबीरदास जी ने भी कहा है : -
जो कामिनि परदै रहे, सुनै न गुरुगुण बात । 
सो तो होगी कूकरी, फिरै उघारे गात ॥ 518 ॥
भावार्थ : - यदि स्त्री घूंघट में रहे तो गुण व् ज्ञान वाली बातें नहीं सुनती, लज्जाहीन रहे तो उसका स्वभाव स्वान के अनुरूप हो जाता है | 

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (18-09-2016) को "मा फलेषु कदाचन्" (चर्चा अंक-2469) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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