Tuesday 21 February 2017

----- ।। उत्तर-काण्ड ५६ ।। -----

अति बिनैबत  धरत महि माथा । लषन प्रनाम करत रघुनाथा ॥ 
लखि अपलक अरु पलक न ठाढ़े । अबिलम मरुत बेगि रथ चाढ़े ॥ 
लक्ष्मण ने भूमि पर मस्तक नवा कर रघुनाथ जी को अत्यंत विनयपूर्वक प्रणाम किया |  उनकी ओर अपलक देखकर वह फिर एक क्षण भी नहीं रुके और अविलम्ब मारुति वेग के समान शीघ्रगामी रथ पर आरूढ़ हो गए | 

हिरन रस्मि करतल करषाई । सियहि आश्रमु चले अतुराई ॥ 
तेजस बदनु भावते जी के । रघुनाथ तनय अतिसय नीके ॥ 
रथ के घोड़ों की हिरण्यमय रश्मि को करतल में कर्षकर वह शीघ्रता से सीता के आश्रम को प्रस्थान कर गए | इधर रामचंद्र के अत्यंत शोभायमान पुत्रों के  मन को भाने वाले तेजस्वी मुख की ओर : - 

बिहँसि महर्षि ताहि पुर देखे |  बहोरि भर अनुराग बिसेखे ।
कहब बछरु धरु कण्ठ कूनिका । गाउ संगत सुर संगीतिका ॥ 
प्रफुल्लित होकर देखते हुवे वाल्मीकि जी विशेष अनुराग में भरकर बोले : -- 'वत्स ! वीणा धारण कर सुन्दर स्वर संगीतिका के संगत : -- 

सिउ सारद नारदहि सुहाना । रघुबरहि कृत चरित जग जाना  ॥ 
गुरु अग्या करतल बर बीना । गावहि हरिगुन गान प्रबीना ॥ 
शिव, शारद व् नारद को रुचिकर भगवान रामचंद्र जी के जगत प्रसिद्ध चरित्र का गान कारो | ' महर्षि के इस प्रकार आज्ञा देने पर उन बालकों ने करतल में वीणा धारण कर प्रवीणता पूर्वक हरि के गुणों का (इस प्रकार)गायन करने लगे | 

प्रगसो दानव दैत निकंदन प्रगसो हे नयनाभिराम । 
प्रगसो हे महि भारु अपहरन प्रगसो हे ललित ललाम ॥ 
कुकर्म महु लीन अति मलीन मन करे सबु मति कर बाम । 
दीन हीन सुख गुन बिहीन भए भरे हम धरे धन धाम ॥ 
हे दानव व् दैत्यों का विनाश करने वाई प्रकट होवो इ नयनाभिराम पकट होवो | हे पृथ्वी का भार हरण करने वाले ललित ललाम प्रकट होवो | कुकर्मों में संलग्न अत्यंत मलीन मन ने सभी की बुद्धि को विपरीत कर दिया है वह धन-धाम से परिपूर्ण होकर भी अहंकार में भरकर चूँकि सुख व् गुणों से रहित हो चले हैं इसलिए वह दरिद्रता व् दुर्दशा से ग्रस्त हैं | 

प्रगसो अनाथन केरे नाथ हे प्रगसो सिया बर राम । 
तरपत परबसु पियास मरत पसु बहत सुरसरि सबु ठाम । 
तुम बिनु खल दल बल गह भए भल पूर सब साधन साम ॥ 
भगति बिमुख जग कारन चरनहि भजहिं न करहिं प्रनाम ॥ 
हे अनाथों के नाथ सियावर रामचंद्र जी अब प्रकट हो जाइये | यद्यपि गंगा स्थान स्थान पर बहाई है तथापि परवश पशु प्यासे मरते तड़प रहे हैं | प्रभु ! आपके बिना दुष्टों के दल बल ग्रहण कर भले हो गए हैं और जीवन साधन से संपन्न हो चले हैं | हे जगकारण ! भक्तिविमुख संसार आपके चरणों में नमन  करता है न भजन  | 

खलदल दवन भुवन भय भंजन प्रगसो भानुकुल भाम । 
प्रगसो भगवन दुर्दोषु दहन अपहन मोह मद काम ॥ 
भ्रष्ट अचार अस भा संसार भए सबु अलस अलाम ॥ 
जहँ तहँ बाधि बिबिध ब्याधि जग करिअति अति छति छाम ॥ 
दुष्टों के दलों का दमन व् संसार के भय का भंजन करने हेतु हे भानुकुल के प्रकाश अब प्रकट हो जाओ | दुरदोषों का दहन करने व् काम मोह मदादि का अपहरण करने हेतु हे भगवान ! आप प्रकट होवो |  संसार में भ्रष्ट आचार ऐसा हुवा कि अब सभी आलसी  व् अलाल हो चले हैं और विविध प्रकार की आधि-व्याधियां जहाँ तहँ व्याप्त हैं वह विश्व को कष्टमय कर उसे अत्यंत क्षीण करने में संलग्न हैं | 

करि करि पाप कहैं  पाप नहि किछु गहैं मुए कठिन परिनाम । 
हे कमलारमन करो अवतरन करन बिस्व बिश्राम ॥   
तव मंगल करन लाए पथ नयन सब दिनु सब रितु सब जाम ॥  
हे अवतारी अवतार गहन बरो बपुष घन स्याम ॥  
पाप कर कर जो  ये कहते हैं पाप कुछ भी नहीं वे मृत्यु के पश्चात अपने उन पापों के कठिन परिणामो को भुगतते हैं | विश्व की शांति हेतु हे कमलारमन अब आप अवतरित होवो | आपकी मंगलकरनी के लिए ये नेत्र सभी दिन सभी ऋतू सभी समय आपकी प्रतीक्षा में संलग्न रहते  हैं | हे अवतारी ! अब अवतार ग्रहण कर घनस्याम निग्रह का वरण  करो 

जग संताप देइ ताप करै घोर घन घाम । 
आरत भूमि पुकारती प्रगसु हे रघुवर राम ॥ 
पापमयी इस विश्व का संताप घोर घाम कर कष्ट दे रहा है  आर्त पृथ्वी पुकार रही है हे रघुकुलश्रेश्ठ राम अब प्रकट हो जाओ |   

शनिवार, २५ फरवरी, २०१७                                                                       
कातर भूइँ  पाप ते भारी । धेनु रूप कीन्हि गोहारी ॥ 
पुनि दोनहु बालक बड़भागे । हरि अवतरन कथा कहि लागे ॥ 
पापों के बोझ से भारी हुई निरीह पृथ्वी धेनु रूप में भगवन का आह्वान करने लगी तदनन्तर सौभाग्यवान युगल बालक भगवद अवतरण की कथा कहने लगे | 

भाव भेद पद छंद घनेरे । पुन्यकृत चरित चितरित केरे ॥ 
धर्म धुरंधर बिधिकर साखी । भगवन भगति भाँति बहु भाखी ॥ 
भाव,भेद, पद व् छन्दों के अतिरेक से वह भगवन का पुण्यकृत चरित्र वर्णन करने लगे | उन्होंने विधि को साक्षी कर  धर्मधुरंधर भगवान श्रीरामचन्द्र की भक्ति का विविध प्रकार से उपाख्यान किया | 

भनत भनितिहि भदर भर भेसा । किए अबिरत पतिब्रत उपदेसा ॥ 
नेम बचन दृढ़ भ्रात स्नेहा । काल परे अनुहरि सब गेहा ॥ 
साधू वेश धारण किए उन बालकों ने कवितापाठ कर पातिव्रत का अविरत उपदेश किया | कालान्तर में नियम व् वचनों की दृढ़ता, भातृ स्नेह का यह अनुपम आख्यान गृह गृह में कहा जाने लगा | 

सुबिरति जति गुरु भगति बखाना । अनुगम अनुपम सबहि बिधाना ॥ 
दरसिहि जहँ साईँ समुहाना । सेबक नीति मूरतिमाना ॥ 
सुन्दर विरक्ति के सह गुरु भक्ति का व्याख्यान किया जो सभी प्रकार से अनुपमेय व् अनुकरणीय है | जहाँ स्वामी सम्मुख दर्शित हुवे वहां सेवक नीति  मूर्तिमान हो गई | 

निबध निपुण नय नीति सुरीति । निगदिहि निर्मल प्रीति प्रतीति ॥ 
सुन्दर रीतियों,नीतियों व् नेतृत्व का कुशल प्रबंधन कर निर्मल प्रेम व् विश्वास का वर्णन किया | 

कलि कलुष बिभंजन करत पापीजन निज हाथ । 
भू भय हरन पाप दमन दंड दिये रघुनाथ ॥ 
कलि की कलुषता का विभंजन करते हुवे पापीजनों को  पृथ्वी का भय हरण व् उसके पापों का दमन करने वाले श्री रघुनाथ ने अपने हाथों से दंड दिया | 

रविवार, २५ फरवरी, २०१७                                                                                       

गाएँ सुमधुर बाँध सुर दोई । मंत्र मुग्ध सब श्रुत सुखि होईं ॥ 
परे मूर्छि सिद्ध गंधर्बा । हतचित चकित सुराग सुर सर्बा ॥ 
दोनों यमजों ने सुमधुर स्वर आबद्ध ऐसा गान किया कि मंत्र मुग्ध हो सभी श्रोताओं के कर्ण तृप्त हो गए | उनके सुन्दर रागों से देवता चकित होकर स्तब्ध रह गए, सिद्ध गंधर्व तो जैसे मूर्छा को ही प्राप्त हो गए | 

सुनत सहित अनगन  महिपाला । होइहिं मोहित जगद कृपाला ॥ 
मोह मगन मन धीर न धीरा । आनंद घन नयन बह नीरा ॥ 
उन्हें श्रवण कर अगणित राजाओं के साथ जगद कृपाल श्रीरामचन्द्र जी भी मोहित हो गए | उनका मोह में निमग्न चित्त धैर्य का त्याग कर दिया आनंद के अतिरेक से उनके नेत्र अश्रुधारा बहाने लगे  | 

पुनि पंचम सुर गान अधीना । प्रेम सरित  बहि होइहिं लीना ॥ 
रह अस्थमबित हिलहिं न डोलहिं । चित्र लिखित सम अबोल न बोलहिं ॥ 
 पंचम स्वर गान के अधीन उनसे प्रेम सरिता बही तो वह उस सरिता में निमग्न हो गए | वह स्तंभित हुवे अविचल से उल्लेखित चित्र के समान मौनमुर्ति के सदृश्य हो चले | 

पुनि महर्षि दोनहु सुत तेऊ । कृपा समेत इ बचन कहेऊ ॥ 
तुम्हरी मति अस बल सँजोई । कि नीति कुसल नहि तुअ सहुँ कोई ॥  
तदनन्तर महर्षि वाल्मीकि ने दोनों सीतापुत्रों से कृपापूर्वक यह वचन कहे -- 'तुम्हारी बुद्धि ने ऐसा बल संकलित किया है कि तुम्हारे जैसे नीतिकुशल कोई नहीं है | 

अजहुँ पहिचानउ  तेहि ए पूजनिय पितु तुहार । 
जाइ करिहौ तिनकेप्रति, पुत्रोचित ब्यबहार ॥ 
अब तुम इनका परिचय प्राप्त करो ये तुम्हारे पूज्य पिता है, जाओ ! तुम इनके प्रति पुत्रोचित व्यवहार करो | '

सोमवार, २६ फरवरी, २०१७                                                                        

सुनि मुनि बचन आएँ दुहु आगे । बिनय भाउ ते चरनहि लागे ॥ 
मातु कर करि करि सेउकाई । भए निर्मल हरिदै दुहु भाई ॥ 
मुनि के वचनों को श्रवण कर दोनों आगे आए और विनय भाव लिए वह उनके चरणों से लग गए | माता की सेवा करते हुवे वह दोनों बंधू निर्मल ह्रदय हो चले थे | 
 नत सिरु पद देखि रघुराई । प्रेम मुदित दुहु लिए उर लाई ॥ 
सुत सुरूप महुँ मूरतिमाना । प्रगसि धर्म मम किए अनुमाना ॥ 
उन्हें अपने चरणों में नतशिश हुवा देख प्रेममुदित रघुवर ने दोनों को हिदाय से लगा लिया | और यह अनुमान लगाया कि पुत्र स्वरूप में यह मेरा धर्म है जो मूर्तिमान होकर प्रकट हुवा है | 

सहज मनोहर मुख अति नीके । दोउ तनय श्री रघुबर जी के ॥ 
सभा बिराजित सकल समाजा । नगर नारि नर सुर मुनि राजा ॥ 
रघुवर जी के वे दोनों पुत्र सहज मनोहर है उनका मुख अत्यंत शोभनीय है | सभा में विराजित नगर नरनारी देवताओं,मुनियों व राजाओं का समस्त समाज-

चितवहि सचकित तिन्हनि ओरा । चितए  चकित जिमि चंदू चकोरा ॥ 
मानेउ सत्य सरिस सती की । पति भगति श्री जानकी जी की ॥ 
की आश्चर्य युक्त दृष्टि उनकी ओर ऐसे दर्शनाभिरत थी जैसे चकित चकोर चन्द्रमा के मुख का दर्शन करता है | उन्होंने सत्य सरिस सटी श्री जानकी जी की पति भक्ति का अनुमोदन किया | 

कहत सेष मुनि लषन पुनि, गवन  रिषि तपोधाम । 

दीन्हि असीस सिय चरन सिरु धरि करत प्रनाम ॥  
शेषजी कहते है मुने ! फिर भ्राता लक्षण मुनि वाल्मीकि के उस तपोद्दाम को गए, जब उन्होंने माता सीता के चरणों में नतमस्तक होकर प्रणाम निवेदन किया तो उन्होंने उन्हें आशीर्वाद दिया | 

शुक्रवार, १० मार्च, २०१७                                                                                     

निरख बिनयसील लछमन आए । सुनि पुनि जानकी जानि बुलाए ॥ 
जोरे हृदयँ लोचन कर पानी । कहहि ससनेह करुनित बानी ॥ 
विनयशील भ्राता लक्ष्मण को आया देख रघुबर का बुलावा श्रवण कर हृदय के जल को नेत्रों में भरकर करुआमयो वाणी से स्नेहपूर्वक कहा -- रघुकुल कैरब मोहि त्यागे । दिए बियोग घन किए बन आगे ॥ 
एहि गुह गोचर घर घन घोरे । करिअहिं नाथ सुहरिदय मोरे ॥ 
रघुकुल कुमुद ने मुझे त्याग कर वियोग देते हुवे यह सघन वन भेंट किया | यह गुहाओं व् वनमें वचरण करने वाले जंतुओं का यह घनघोर गृह को सौहृदयी नाथ ने मेरा गृह किया | 

त्यागु जोग बहुरि अपनाई । एहि जग केहि सुहाव न भाई ॥ 
चरनन्हि तृन पात फल फूला । परे भूमि न चढ़ेउ बहूला ॥ 
जो त्याग योग्य हो उसे फिर स्वीकार्य करना हे बंधू ! संसार में यह किसी को भी प्रिय न होगा | चरणों में निवेदित तृण पत्र पुष्प फल यदि भूमि पर गिर जाएं तो वह पुनश्च अर्पित नहीं होते | 

चलौं अजहुँ कस कहउ अतेवा । मोरे भाग न प्रभुपद सेबा ॥ 
रहिहउँ आश्रमु बाल्मिकी के । सुरति धरत नित रघुबर ही के ॥ 
अब मैं उनके पास कैसे जाऊं एतएव यह निवेदन  मेरे भाग्य में प्रभु के चरणों की सेवा नहीं है | ह्रदय में नित्य श्रीरघुनाथ का स्मरण करते हुवे मैं मुनिवर वाल्मीकि जी के आश्रम में ही रहूंगी | 

सुनत लछमन सियहि बचन मातु कहत गोहारि । 
हतासवांस लए पुनि  कातरि डीठ निहारि ॥  
माता जानकी के वचनों को सुनकर भ्राता लक्ष्मण ने माता कहकर (लौटने की ) प्रार्थना की फिर हताश्वास लेकर उन्हें असहाय दृष्टि से देखा | 

शनिवार, ११ मार्च, २०१७                                                                              

कहत लछमन सुनहु महतारी । लाए  नयन मग होइहि हारी ॥ 
बुला पठइँ प्रभु बारहि बारा । सेष रुचिरु जस होइ तिहारा ॥ 
और पुनश्च कहा हे माता सुनिए ! प्रभु आपकी प्रतीक्षा कृते हुवे शिथिल हो गए हैं वह वारंवार आपको बुला रहें हैं शेष जैसी आपकी रूचि  | 

मन क्रम बचन चरण रति होई । कहहु मातु परिहरहि कि सोई ॥ 
सुकुता गह बसि मनि सम रूपा । दीप जोति रबि किरन सरूपा ॥ 
मन कर्म  व् वचनों से जिसकी चरणों में अनुरक्ति हो कहिए माता क्या वह त्याग योग्य है ? जिस प्रकार सीप में मोती बसती है ,  दीप में  ज्योति बसती है , सूर्य में बसी किरण बसती है  

बसिहि देह जिमि जिअ के नाई । नाथ तोहि तस हृदयँ बसाईं ॥ 
(तथापि ) पति अपराधु पति ब्रता नारी । धरिअ उरस न मनहि महुँ घारी ॥ 
जिस प्रकार शरीर में प्राण बसते हैं हे माता  रघुवर के ह्रदय में आप उसी प्रकार बसी हुई हैं  | तथापि पति के किए अपराध को पतिव्रता नारी न तो ह्रदय में धारण करती है न ही मन में समाहित करती है | 

करउँ बिनति पुनि पुनि जुग हाथा । चढ़ि स्यंदन चलहु मम साथा ॥ 
मानिहि पति सिय देउ समाना । अकनि सोइ सबु बचन बिहाना ॥ 
में वारंवार यह करबद्ध विनती करता हूँ आप रथारूढ़ होकर मेरे साथ चलिए |  पति को देवता समान मानने वाली सीता ने लक्ष्मण उन सभी वचनों को धैर्य पूर्वक श्रवण किया 

प्राति प्रतीति पुकारि उत मुनि तिय कहि  अनुहारि । 
प्रभु परिहरि गति न दूसरि चलि अस नीति बिचारि ॥  
उधर प्रेम और विश्वास की पुकार तो इधर मुनिपत्नी के कहे का अनुशरण, प्रभु के अतिरिक्त और दूसरी गति भी तो नहीं है ऐसी नीति विचारकर माता सीता चल पड़ीं | 

बुधवार, २९ मार्च, २०१७                                                                                            

बेदिन मुनिगन करिअ प्रनामा । चढ़ि रथ सिरु नत तापसि बामा ॥ 
सुमिरि मनहि मन रघुबर नामा । परस पद लिए दरस मन कामा ॥ 
विद्वान मुनिजनों को प्रणाम  तपस्वी वामाओं वह रथारूढ़  हो गईं,  रघुवरजी के नाम का स्मरण कर  मन ही मन में उन्हे चरण स्पर्श कर उनके दर्शन की मनोकामना की | 

सील सनेहिल भूषन साजै । सहज सुहावन बसन बिराजै ॥ 
भाउ प्रबन मन बेषु बनावा ।  उदयित बिधु निभ बदन सुहावा ॥ 
शील व् स्नेह के भूषणों से सुसज्जित कर उन्होंने सहजता के सुन्दर वस्त्रों को धारण किया हुवा था | मन को भावप्रवणता का वेश दिए उनका मुखमंडल उदय होते चन्द्रमा के समान सुशोभित हो रहा था | 

यहु मंगल मूरति ममता की । सदा सहाय सीम समता की ॥ 
होइ लगाउब केहि न काहू । रोकइँ  न चहत कहत न जाहू ॥ 
ममता की यह मंगलमूर्ति सदा सहाय होने वाली समता की यह सीमा से भला किसे अनुरक्ति न होगी तथापि उन्हें रोकने की अभिलाषा किसी को नहीं थी न जाने हेतु कोई कोई कहता नहीं था | 

गहि गहि बहियाँ लपटहि डगरी । अजहुँ दूरि न पिय केरि नगरी ॥ 
चलहि स्यंदन चरन अतूरी । होइँ तपु बन नयन ते दूरी ॥ 
डगरी यद्यपि बाहें पकड़ पकड़ कर लपटाती | अब प्रियतम की नगरी अधिक दूर  नहीं थी रथ के चरण अत्यातुर संचालित हो रहे थे अब तपोवन दृष्टि से ओझल हो चुका था | 

पारग घन बन गिरि मनियारी । तुरतै दरसिहि अवध दुआरी ॥ 
नाघि नगरि चलि जाति निहारी । भरिअ बिलोचन बरसिहि बारी ॥ 
सघन वनों व्  चमकते गिरि को पार कर तत्क्षण ही अवध का प्रवेशद्वार दर्शित होने लगा  भरे नेत्रों से जलवर्षा करते भरे नेत्रों से अयोध्या को देखते हुवे नगरी उलाँघते चली जा थी|  

प्रबसित सो पावन पुरी, पहुँचिहि सरजू तीर । 
रहें बिराजित आपहीं जहँ गुरु सन रघुबीर ॥ 
अयोध्या की उस पावन पुरी में प्रविष्ट होकर फिर वह सरयू नदी के उस तट पर पहुंची जहाँ रघुनाथ जी गुरुजनों के साथ स्वयं विराजित थे | 

शुक्रवार , ३१ मार्च, २०१७                                                                            

 लखनु सहित सो परम सुभागी । उतरि जाइ तहँ प्रभु पग लागी ॥ 
परसत पिय पद पदुम परागा । बिरागिनि मन भरीं अनुरागा ॥ 
लक्ष्मण सहित वह परम सौभाग्यवती रथ से लक्ष्मण के साथ उतरी और वहां जाकर प्रभु के चरणों में नतमस्तक हो गईं | प्रियतम के पद्म चरणों के परागों को स्पर्श कर उस वैरागिणि का मन अनुराग से भर उठा | 

भर आँचरहि नयन जर मोती । मिलहि मिलहि जिमि दीपक जोती ॥ 
मिलइ बिभो सहुँ जगद बिभूती॥ मेलिहि मुकुता मनि सहुँ सूतीं || 
नेत्रों के अश्रुमुक्ताओं को आँचल में भरकर वह प्रियतम से ऐसे मिली जैसे दीपक से ज्योति मिलती हों | जगद विभु से जगद्विभूति का ऐसे मिलन हुवा जैसे सीप से मुक्तामणि का मिलन होता है | 

जानकी साथ जानकि नाथा । दुनहु निज मरजाद के साथ ॥ 
दरसत बदन मनोहर पिय के । ससि सरि सीतर भए हिय सिय के ॥ 
जानकी संग जानकी नाथ थे दोनों ही अपनी मर्यादाओं के साथ थे  प्रियतम के मनोहर मुख का दर्शन कर सीताजी का ह्रदय चन्द्रमा के समान शीतल हो गया था | 

सुर तरंगिनि बहीं चलि आईं । होत सतीरथ सिंधु समाई ॥ 
सुर तरंगिनि श्री गंगा बही आई और सुतीर्थ होते हुवे सिंधु में समाहित हो गई | 

नूपुरामुखर पद अवध पधरयो प्रनता जन नत माथ रे । 
जगन्निवास वरदवास भए जग नाथ जानकी साथ रे ॥ 
 हे हंस धुनी कल वादिनी केहि कृति कुसल करतल गहौ । 
गाउ सुमधुर साध सबहि सुर वद को सुखप्रद श्रुति कहौ ॥ 
नूपुर की ध्वनि करते चरण अवध में पधारे तो प्रणता  जन उन चरणों में नतमस्तक हो गए यह कहते हुवे कि जगन्नथा जगन्मयी जानकी साथ हुवे,जगन्निवास वर दायक वास हो चला है | हे हंस ध्वनि कल वादिनी वीणा !  तुम किसी कलाकुशल का करतल ग्रहण करो और समस्त स्वरों को साध्य कर गान करते हुवे कोई कर्णप्रिय श्रुति कहो | 

साधक गन सुरसाधहीं करुनाहू करुनाइ । 
करुनाधीन करुनानिधि रामु सिया समुहाइ ॥ 
साधकगणों ने सुर साधा तो करना भी करुणामय हो गई इस करुणा के अधीन हुवे करूणानिधि श्री राम चंद्र जी से उन्मुख हुई | 

सोमवार,०३ अप्रेल,२०१७                                                           


बनहि बिपति बिबरन नहि पूछहिं । आरत बदन बरन सबु बरनहि ॥ 
बीतै दिवस न जामिनि बीती । दीप धुजा बस रस रस रीती ॥ 
वन की विपत्तियों का विवरण नहीं पूछा, आर्त मुख पर का वर्ण सारा विवरण वर्णित कर रहा था | न दिवस व्यतीत होता न रात्रि ही व्यतीत होती वह तो दीपक की शिखा धारण किए शनै शनै रिक्त होती चली जाती | 

अगजग लग जोतिर जस जागे । जागिहि दीप पलक न लागे ॥ 
कहिय दहिय हिय पियहि बिहीना । सियहि जियहि जिमि जल बिनु मीना ॥ 
संसार भर में ज्योति की कीर्ति जागृत करते दीपक के प्रज्जवलित रहते तक पलकें नहीं लगती | दहता हृदय यह वर्णन कर रहा था कि प्रिय से विहीन सिय ऐसे जीवित थी जैसे वह जल विहीन मीन हो |

तलफत भए छन कल्प समाना । घनबर अल्प न लाइ मलाना ॥ 
नैन निराजन आँज अँजोरे । घोरिहि घेर निसा घन घोरे ॥ 
तड़पते हुवे क्षण भी जैसे कल्प के समान हो गया था किन्तु वह मुख पर रघुवर के प्रति तनिक भी म्लान नहीं लाती | निरंजन नयन अंजन युक्त होते तो घनघोर निशा घेर कर उस अनजान को स्वयं में घोल लेती | 

जियति धरि जियँ पियहि जिय जानी । मन तनि सोच न हानि ग्लानी ॥ 
प्रभु छबि हरिदै दरपन लाखे  । पूजि चरन मन मंदिर राखे ॥ 
प्राणाधार को ही प्राण मानकर प्राण संजोए जीवति रहीं | मन में यत्किंचित भी हानि ग्लानि नहीं थीं | ह्रदय को दर्पण वह प्रभु की छवि विलोक कर मन के मंदिर में प्रतिष्ठित किए नित्य उनकी चरण-वंदना करती रही | 

फिरिहि बिकल बन धरिअ छिलावा । परिअहि निज चरनन तल घावा ॥ 
बारहि बार आपु बोलाईं | धरिअ देही रहि प्रान पठाई || 
कंटक युक्त चरणतलों में घाव ग्रहण किए व्याकुल हुई वन में फिरा करतीं | जब वारंवार आपने बुलाया देह तो धारण किए प्राण आपको प्रेषित करती रही | 

जाइ जहँ तहँ तुम्हहिं अहेरे । बिरहन  दए दुख दुसह घनेरे ॥ 
जहाँ जाती वहां उन्हें आपकी ही टोह रहती इस विरह ने इन्हें दुसह दुखों से व्याप्त कर दिया | 

बूड़हि नाहि तीरहि अह बिरहा उदधि अपारु । 
करनधार करु धार नहि को बिधि पाए न पारु ॥ 
न डूबती न तैरतीं आह ! यह विरह सागर कितना अपार था | कर्णधार का कराधार न था यह किसी प्रकार पारगम्य न होता | 

शनिवार, ०८ अप्रेल,२०१७                                                                     

गहइ बनहि घन सूल सलाका | कहइ बिनहि सबु देइ भलाका || 
दीन दसा दृग दरसि न जाई | बरसि कहसि हे नाथ दुहाई || 
वन के घनीभूत कष्ट व् पीड़ा कहे बिना ही सारा वृत्तांत कह रहे थे दृष्टि से उनकी दशा देखि नहीं जा रही थी  वह बरस कर कह रहीं थी हे नाथ ! दुहाई हो | 

देइ द्वारि पलक पट ढारे | राम राम हाँ राम गुहारे || 
दुइ छन होर हरुअ हिलोले | सूझ परइ न कहइ का बोलेँ || 
नेत्रों में पलक पट का द्वार देकर नयन गृह राम राम की ही पुकार रहे थे | दो क्षण ढहर कर वह पट धीरे से हिले तब प्रभु को सुझा ही नहीं कि अब क्या कहें क्या बोलें | 

आवत रसन बरन अवरूझे | रघुबर कुसल छेम पुनि बूझे || 
होइ कुसल कस जोइ अनाथा | सबहि मंगल नाथ तव साथा || 
जिह्वा में वर्ण आकर उलझ जाते फिर (किसी विधि ) रघुवीर ने उनका कुशल क्षेम पूछा | जो नाथ वियोजित हो वह भला कुशल कैसे हो सकती है हे नाथ ! सभी मंगल तो आपके साथ ही हैं माता ने कहा | 

रघुकुल दिनकर नयन अगासे | उदइ गहन बिरहन निसि नासे || 
कृत कृपा केतु भा भोर अलस | प्रेम पयस भरि हरिदय मानस || 
इस नयन रूपी गगन के सूर्य रघुकुल ही हैं जिसके उदय होते ही गहन विरह रात्रि का विनास हो गया | आपकी कृपा केतु के कारण दर्शन की अलस भोर हुई जिसने इस हृदय के मानसरोवर को प्रेम पियूष से भर दिया  | 

परम पेम मय हृदय ते कल कर कलस सँजोइ | 
धरि सीस महि गहि चरनहि अरपिहि सरसिज दोइ || 
फिर माता ने भूमि पर शीश रखा और प्रभु का चरणवन्दन कर अपने सुन्दर हस्तकलश में  परम प्रेम मय उस ह्रदय से संगृहीत लव-कुश रूपी दो सरोज अर्पित कर दिया 


पेम पूरित नैन जल जोरे । नाथ छमिबो दोषु जो मोरे ॥ 
बोलिअ बिकल बैन बैदेही । बिधि बध्यो सबु दोषु न केही ॥ 
प्रेम पूरित नेत्रों में जल भरे माता वैदेही ने व्याकुल वाणी से कहा -- नाथ ! यदि मेरा कोई दोष है तो उसे क्षमा प्रदान करें | 

एहु सुअवसरु कहिअ रघुनाथा । करिहउँ पूरन मख तव साथा ॥ 
नाइ माथ सहुँ बाल्मीकि के । आसिर बचन  लहे प्रिय जी के ॥ 
रघुनाथ जी ने कहा -- 'यह विधाता द्वारा रचित है इसमें किसी का दोष नहीं है अब इस शुभ अवसर पर में तुम्हारे संग यह यज्ञ पूर्ण करूंगा | 
नत मस्तक सहुँ ब्रम्ह रिसिहिं के । सुभगासीस गहीं सबही के ॥ 
कौसल्या कि मातु कैकेई । गईं प्रनमन सबु साधु देईं ॥ 
फिर सभी ऋषि-मुनियों के सम्मुख नतमस्तक हुईं और सभी का शुभाशीर्वाद ग्रहण किया | माता कौशल्या हो अथवा कैकेई हों वह सभी साधू देवियों को (सासों को ) प्रणाम करने गईं | 

पगु परसत उर रहँस न थोरे । देइ असीसहिं लेइ अँकोरे ॥ 
देखीं जब पगपरि बैदेही । भेंटि कैकेइ भईं सनेही ॥ 
उनके चरण स्पर्श करते ह्रदय में अपार हर्ष हुवा उन्हें अंक में भरकर उन्होंने आशीर्वाद दिया | जब वैदेही को अपने चरणवन्दन करते देखा तो उनसे भेंट करते माता कैकेईं स्नेहिल हो गईं | 

देइ असीस उर उदधि उमगि पेमानुराग । 

दुहु सुत सहित चीर जियौ रहिहौ भरिअ सुहाग ॥ 
उन्हें आशीर्वाद देते ह्रदय सिंधु में अनुराग उमड़ पड़ा दोनों पुत्रों सहित चिरंजीव होकर सौभाग्यवती रहो | 

मंगलवार,११ अप्रेल,२०१७                                                                     
रामचंदु कर प्रिय परिनीता | पतिव्रति सति साध्वी सीता || 
परिजन सहित सबहि पहिं जाई | कीन्हि प्रनाम अति हरषाई || 
भगवान श्रीरामचन्द्र जी की प्रियपरिणीता पतिव्रती सटी साध्वी सीता परिजन सहित सभी के पास गईं और अत्यंत हर्षित होकर उन्हें प्रणाम किया | 

कुंभज आइ देखि जूँ सीया | मुदित भयो सो नहीं कथनीया || 
रघुबरहि दिसि बाम बैठारे | अरु सुबरन मइ मूरति टारे || 
मुनि अगस्त्य को ज्योंही माता सीता का आगमन दर्शित हुवा वह जिस प्रकार प्रमोदित हुवे वह अकथनीय है | स्वारंमयो मूर्ति को विस्थापित कर रघुवर के वामदिशा में उन्हें विराजित किया गया | 
  बैसिहि बेदि रामु बैदेही | सोभा सकै न  कहि मुख केही || 
बैसि बिभो जनु जगद बिभूति | प्रगसहि भू नव नव भव भूती || 
यज्ञ वेदी पर विजयजीत भगवान रामचंद्र व् माता सीता की शोभा किसी भी मुख से वर्णनातीत है | जगद विभु व् जगद विभूति को विराजमान देख भूमि नव-नवल भूतियाँ प्रकट करने लगीं | 

अपूरहि पौर पुर नर नारी | भए नभ थल कोलाहल भारी ||  
चहेउ  दीठि सबु एकहि बारा | रामसिया के मिलइ निहारा || 
पुर नर नारियां पुर में पौड़ी तक आपूरित थे नभ व् थल में भारी कोलाहल हो रहा था | सभी दृष्टियों की यही अभिलाषा थी की एक बार रामसीता के दर्शन प्राप्त हो जाएं | 

गहि कमंडल मुनि मंडल पुनि किए समिदाधान | 
जुगे पानि निर्मल बानि करिहि अनल अह्वान || 
मुनि मंडल ने कमंडल ग्रहण कर फिर समिधा का आधान किया | और करबद्ध होकर निर्मल वाणी से अग्नि देव का आह्वान करने लगे | 

रविवार,१६ अप्रेल,२०१७                                                                                            

करसि बेदु धुनि अति  मृदु बानी | बहसि मंद जिमि नदि के पानी || 
सरस वती मुनि कंठ बिराजिहि | करन लगे रघुबर मख काजहि || 
अत्यंत मृदुल वाणी से वह ऐसे वेद धवनि करने लगे जैसे किसी सरिता में मद्गति से जल प्रवाहित हो रहा हो | सरस्वती मुनियों के कंठ में विराजित हो गईं और वह रघुवर जी के यज्ञकार्य करने में सलंग्न हो गए | 

पुनि परम बुधि सुधि साधु  सुभाए | गुर बसिष्ठ सोंहि पूछ बुझाए || 
दरसिहि बेद सोइ सबु भयऊ | अबर कवन करतब रहि गयऊ || 
तदोपरांत परम बुद्धिमन्त सुधित साधू स्वभाव गुरु वशिष्ठ से पूछने लगे | जो वेद में दर्शाया गया है वह सब कर्मकांड पूर्ण हुवा अन्य कौन सा  कर्तव्य शेष है ? 

एहि मह मख हे गुर गोसाईँ | बोलिहि गहबरु घन के नाई || 
जाग जोग सब काजु अपूरे | राखिहि जौ भूसुर परिपूरे || 
फिर गुरुवर वशिष्ठ गंभीर मेघ के समान वाणी से बोले - 'स्वामी ! यज्ञ सम्बन्धी सभी कार्य पूर्ण हुवे अब जो ब्राह्मणों को संतुष्ट करें 

अजहुँ बिधिबत करिहु सो पूजन  | श्रुतत रघुपत एहि श्रुति सुख बचन || 
कुंभज परम पूजनिअ जाने | पूजत ताहि प्रथम सनमाने || 
आप विधिवत वह पूजन करिए | यह कर्णप्रिय वचन श्रवण कर रघुपति ने मुनि अगस्त्य को परम पूज्यनीय जानकर अभिनन्दन करते हुवे सर्वप्रथम उनका सम्मान किया | 

उदार रूप नाना बिधि तनु मनु भावनु चीर | 
गज रथ तुरग धेनु धरनि हिरन जड़ित मनि हीर || 
उदार रूप होकर तन को मन को रुचित प्रतीत होने वाले वस्त्र, हस्ती, रथ, तुरंग, धेनु, भूमि, स्वर्णजड़ित मणि मालाएं- 

मंगल दायक बस्तु गहि दीन्हि बहुतक भार | 
कृत कृत प्रभु मुनि तिय सहित कीन्हि अति सत्कार || 
और भी अन्य मांगलिक द्रव्यों से भरे बहुतक भारों का दान किया |  मुनियोंसहित उनकी धर्मपत्नियों को कृतार्थ कर प्रभु ने उनका अत्यंत सत्कार किया | 

तिया सहित च्यवन रिषिहि पूजत भले बिधान | 
समदत सबहि सम्पद ते दिए बहु आदर मान || 
सपत्नी ऋषिच्यवन की भली भाँती पूजार्चना की | सभी प्रकार सम्पतियों से उनका अभिनन्दन करते ैश्य आदर सन्मान किया | 

मंगलवार,१८ अप्रेल,२०१७                                                                                         

एहि बिधि रहि रिषि महर्षि जेता | सकल तपसी ऋत्वजहि समेता || 
बस्तु अनेक सुभ मंगल करन | रूचिहि बिचार बहु पहिरावन || 
इस प्रकार अन्य जितने भी मुनि, ऋषि-महर्षि थे उन सभी तपस्वियों को ऋत्वजों सहित अनेक मंगलकारी  वस्तुओं से व् उनकी रूचि विचार कर अनेकानेक वस्त्रों -

भूषन भरे भार दए भूरी | देइ मान लीन्हि पग धूरी || 
दीनहीन दुखि अंधहि लोचन | देत धनहि  दुःख करत बिमोचन || 
व् भूषणों से भरे भार बहुतायत में दान से उनको मान देकर उनके चरणों की धूल ग्रहण की | जो असहाय अपंग थे निर्धन थे अन्धलोचन थे उन्हें धनादि देकर उनके दुःख का विमोचन करते गए | 

सुख सुसंपद सहित गोसाईँ | मधुर मधुर भोजन बिरताईं || 
दिए दान अस बेदु अनुहारे  | सबहि तोषु परिपोषनहारे  || 
सुन्दर सुख सम्पतियों सहित स्वामी ने मधुर-मधुर भोजन का वितरण किया | जो सभी को संतुष्ट व् परिपुष्ट करें वेदों का अनुशरण कर प्रभु ने ऐसा दान किया | 

आदर मान पेम पद पूजा | करिहि अस कि करि सकै न दूजा || 
रघुनन्दन कर दायन देखे | कुंभज मुनि भय मुदित बिसेखे || 
आदर मान व् प्रेम से चरणों का ऐसा वंदन किया जैसे कोई अपरंच न कर सके | रघुनन्दन का दायन देखकर मुनि अगस्त्य विशेष मुदित हुवे | 

अश्व नहावन सुभ घरि जानी | मँगावनु सुधा सरिबर पानी || 
रानिन्ह सहित चौसठु राईं | बहुरि अतुरै निकट बोलाईं || 
आश्वासनों की शुभ बेला जानकर सरोवरों से सुधाजल मंगवाने हेतु रानियों सहित चौसठ राजाओं को बड़ी ही आतुरता से निकट बुलाया | 
  नव सप्त सिंगार  सोंहि श्री सोहित सिय साथ | 
कनक कलसि कर धरे जल चले लेन रघुनाथ ||
 सोडष श्रृंगारो की शोभा से सुशोभित जगद विभूति माता सीता के साथ स्वर्णकलश हस्तगत किए रघुनाथ फिर जल लेने हेतु प्रस्थित हुवे | 

बृहस्पतिवार, २० अप्रेल,२०१७                                                                          

हिरन मई गागरि गहि हाथा | आगे सिया सहित रघुनाथा || 
धूपापत छाँहीँ के नाई | पाछु चले तीनिउ लघु भाई || 
स्वर्णमयी घघरी हाथ में लिए सीता के साथ रघुनाथ आगे थे धूप में आप्त की छाया के सदृश्य तीनों बंधू उनके पीछे चल रहे थे | 

मांडवी भरत संग सुहावै | उरमिला लखनु मन अति भावै || 
श्रुतिकीरति रिपुदवनु प्रसंगा | कांतिमति पुष्कल कै संगा || 
मांडवी भारत के संग सुशोभित थीं,  उर्मिला लक्ष्मण के साथ मनभावनी प्रतीत हो रहीं थीं |  शत्रुध्न के संग श्रुतिकीर्ति,  पुष्कल के संग कांतिमती सुशोभित थीं | 

लक्ष्मीनिधिहि कोमला साथा | मोहना के सोह कपि नाथा || 
सुरथहि संगत सुमनोहारी | उदधि धरे सबु भयउ कहारी || 
लक्ष्मिनिधि के साथ कोमला और सुग्रीव के साथ मोहना थीं | सुन्दर रथों के साथ सभी जल राशि को ढोने वाले बादलों के समान मंगल मनोहारी प्रतीत होते थे  | 

एहि बिधि रहि अरु जेतक रायो | बसिष्ठ रिषि जल लेन पठायो || 
सीत पुनीत पुण्य पयसु गही | सरजू तट गयउ सो आपहीं || 
इस प्रकार और भी जितने राजागण थे ऋषि वशिष्ठ ने सभी को जल लाने हेतु प्रेषित किया | शीतल पुनीत पुण्य पियूष को ग्रहणकर यह स्वयं भी सरयू के तट  पर गए | 

बाँचत बंदि बेदु बचन बहु बिधिबत तहँ जाइँ | 
किए अभिमन्त्रित तासु जल भए सो अरु सुभ दाइ || 

बंदिगण  वेदमन्त्रों का अत्यंत विधिवत वाचन करते वहां गए और उस तट को अभिमंत्रित किया तो वह और अधिक शुभप्रद हो गया | 

टिपण्णी : - रामश्वमेध की कथा श्रीमद पद्मपुराण से उद्धृत की गई है इस पुराण में सीताजी के भूमि में समाहित होने का  प्रसंग वर्णित नहीं है | 

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