बुधवार, २४ अगस्त, २०१६
सिय केर सुचितई मानद हे । तव सहुँ छदम न कोइ छद अहे ॥
न तरु हमहि न देवन्हि सोंही । यह कछु मन महुँ भरमन होंही ॥
हे मानद ! सीता की शुद्धि के विषय में आपसे न कोई दुराव है न छिपाव | तत संबंध में न हम से और न देवताओं से ही कुछ गोपनीय है | यह जन-मानस के मन का भ्रम मात्र ही था |
हरहि तमस जिमि प्रगस पतंगा । दूरए मन निभरम ता संगा ॥
कहत सेष मुनि जगद निधाता । भगवन जद्यपि सरब ग्याता ॥
जिस प्रकार सूर्य उदयित होकर अन्धकार का हरण कर लेता है, उसी प्रकार उक्त घटना से यह भ्रम भी दूर हो गया | शेष जी कहते हैं : -- हे मुनि! जगत विधाता भगवान यद्यपि सर्वज्ञाता हैं
तद्यपि मुनि एहि बिधि समुझायउ । सुनि असि अस्तुति सहुँ सिरु नायउ ॥
लषन सोंहिं बोलिहि एहि बाता । सुमित्र सहित कृत करिहु ए ताता ॥
तद्यपि वाल्मीकि मुनि ने उनका प्रबोधन किया मुनि वर की ऐसी स्तुति श्रवण कर प्रभु नतमस्तक होकर लक्ष्मण से बोले :--हे तात ! तुम सुमित्र का संग प्राप्त कर यह कर्तव्य करो;
सती सिया पहिं चढ़ि रथ जाहउ। जमल सहित तुर आनि लिवाहउ ॥
करएँ जुग कर बिनति सब कोई । करौ सकार अजहुँ सुत दोई ॥
तुम रथारूढ़ होकर युगल पुत्रों सहित धर्माचारिणी सीता को ले आओ | सब लोग करबद्ध होकर मुझसे विनति कर रहे हैं कि आप अपने दोनों पुत्रों को स्वीकार करें |
मोर अरु मुनि केर कही कहियउ तहँ सब बात ।
अवध पुरी लेइ अइहौ कहत मात हे मात ॥
माता माता की गुहार करते हुवे तुम मेरे तथा महर्षि वाल्मीकि द्वारा कहे इन वचनों को निवेदन कर उन्हें अयोध्या पुरी ले आना |
अहो भगवन अजहुँ मैं जइहौं । सीअहि मातु कहत समुझाइहौं ॥
सुनिहि जो तुहरे प्रिय सँदेसा । आनि पधारन सो एहि देसा ॥
अहो भगवन ! माता जानकी के प्रबोधन हेतु मैं तत्काल प्रस्थान करता हूँ आप महानुभावों का सन्देश श्रवण कर यदि वह यहाँ पधारने के लिए : --
आइहि मोर संग सिय माई । होइहि तबहि सुफल मम जाई ॥
अस कह लखनउ आगिल बाढ़े । प्रभो अग्या सोंहि रथ चाढ़े ॥
मेरे साथ आती हैं मेरी यात्रा तभी सफल होगी | रामचंद्र जी से ऐसा कहते हुवे लक्ष्मण आगे बढकर उनकी आज्ञा से रथारूढ़ हो गए |
अरु मुनिबर के सिस लय संगा । सुमित्र सहित रथ भयउ बिहंगा ॥
प्रिय प्राना पति अति परम सती । होहि केहि बिधि मुदित भगवती ॥
और मुनि शिष्यों को साथ लेकर सुमित्र सहित वह रथ विहंग के समदृश्य हो गया | पति को प्राणों से भी अधिक प्रिय परम सती भगवती सीता किस प्रकार प्रसन्न होंगी |
बिकलित मन मानस अस सोचिहि । कबहुँ हरष करि कबहुँ सकोचिहि ॥
एहि बिअ बिचहुत मति बिरझाईं । अतुर परन कुटि देइ दिखाई ।
ऐसा विचार करते लक्ष्मण के व्याकुल मनोमस्तिष्क में कभी हर्ष होता कभी संकोच होता | इन दोनों भावों के बीच उनकी मति उलझ रही थी | शीघ्र ही उन्हें सीता की पर्ण-कुटिया दिखाई देने लगी |
एहि दसा पैठि रथ चरन पथ श्रमु गयउ सिराए ।
तुरतई पुनि जगन मई जननि देइ देखाए ॥
इसी दशा में रथ के चरणों ने वहां प्रवेश किया | कुटिया को दर्शकर पथ जनित शिथिलता जाती रही, जगन्मयी जननी के भी तत्काल ही दर्शन हो गए |
रविवार, २८ अगस्त, २०१६
भय अस्थिर रथ चरन तरायल । तुरै तरिय तरु मंडित अस्थल ॥
सिथिरीभूत सीतहि नियराए । कहत ए लखन कण्ठ भर ल्याए ॥
रथ के वेगवान चरण स्थिर हुए शीघ्रता पूर्वक रथ से उतरे | शिथिलित लक्ष्मण वृक्षों से सजी हुई स्थली पर माता सीता के समीप गए, यह कहते उनका कंठ भर आया कि
पूजनिअइ हे पेम परिमिता । हे भगवति अति सुभग परिनिता ॥
हे आर्ये हे मंगल करनि । बिभव अपार भव सागर तरनि ॥
हे अपरमित प्रेम से पूज्यनीय ! हे देवी भगवती | हे अत्यंत सौभाग्य शाली स्वामिनी ! हे आर्ये ! हे कल्याणमयी ! हे वैभववान संसार रूपी अपार सिंधु की नौका !
बहोरि कातर रूप निहारे । बोधत अस गहि पद महि पारे ॥
सियहि बत्सल पेम के साथा । बिहबल होति लम दुहु हाथा ॥
कातर दृष्टि से निहारकर ऐसा सम्बोधन करते फिर वह उनके चरणों में गिर पड़े | जानकी माता वात्सल्य प्रेम से विह्वल होकर दोनों हस्त प्रलंबित किये |
नहि नहि कहति नयन भर पानी । उठइ लषन अति करिअ ग्लानी ॥
भरिअ सोहाग रहिअ बिरागी । तासों एहि बिधि पूछन लागी ॥
और अश्रु पूरित नेत्रों से नहीं नहीं कहते अतिशय ग्लानि करते लक्ष्मण को उठाया और सौभाग्य से परिपूर्ण होकर भी संसार से विरक्त वह साध्वी इस प्रकार प्रश्न करने लगी --
जौ बेहड़ बन मुनि महर्षि प्रियकर महतिमह तपसि जन के ।
ब्याल कराल जौ भालु बाघ अरु केहर कुंजर गन के ॥
कंदर खोह अगम अगाध नदीं नद जो बिनहि रबि किरन के ।
कंटक कांकर गहबर मग अँधेरि छादित जौ तरुवन के ॥
जो विकट वन मुनियों, महर्षियों व् महानतम तपस्वियों को प्रिय है जो विकराल हिंसक जंतुओं, भालुओं, सिंहों व् हाथियों का है | जहाँ सूर्य की किरणों से विहीन अगम्य घाटियां, गुहाएँ, अगाध नदी व् पर्वत है | जिसका मार्ग कंकड़ों, कांटो से युक्त होने के कारण दुर्गम और वृक्षों के आच्छादन से अन्धकारमय है |
हरिअहि हय हेरिहि केहि, तव डग डगर भुराए ।
दूरत नगर सौम्य हे कहौ इहाँ कस आए ॥
क्या किसी ने भगवान श्रीराम के अश्व का हरण कर लिया है ? हे सौम्य ! उसकी शोध में नगर से दूर होते क्या तुम्हारे चरण पथभ्रमित हो गए ? कहो तो यहाँ किस हेतु आगमन हुवा ?
बृहस्पतिवार ०१ सितम्बर, २०१६
मातु गरभ गह सुकुतिक रूपा । उद्भयउ मनि मुकुता सरूपा ॥
अराधित देउ मोरे नाथा । अहहि न धनि सुख सम्पद साथा ॥
माता के शुक्तिक रूपी गृह से मणि मुक्ता स्वरूप में उद्भवित होने वाले मेरे आराध्य देव, मेरे नाथ सुख की सम्पदा से धनि तो हैं न ?
सजल नयन पुनि कहि हे नागर । जग अपकीरति कारन रघुबर ॥
कि राखन साँच मोहि त्यागे । होइँ कुपथ चर प्रजा न आगे ॥
सजल नेत्रों से फिर सीता ने कहा हे देवर ! जग अपकीर्ति के कारण अथवा सत्य की रक्षा के लिए रघुवर ने मेरा त्याग कर दिया इस हेतु कि भविष्य में कहीं प्रजा कुपंथ गामी न हो जाए |
दय बन करिअब बिरहन मोही । त्याज काज सौंपि प्रभु तोही ॥
होइ ताहि सों एहि संसारा । तासु बिमल कीरत बिस्तारा ॥
मेरे परित्याग का कार्य तुम्हें सौंपा और मुझे विरहणी बनाकर वन दिया | यदि इससे इस संसार में उनकी विमल कीर्ति विस्तृत होकर : --
जुग जुग लग अस्थिर कृत होईं । तासों बड़ संतोष न कोई ॥
अजहुँ होउँ किन मैं बिनु प्राना । रहएँ जसोधन प्रान निधाना ॥
युग युग तक स्थिरकृत हो तब इससे बड़ा कोई संतोष नहीं है | मैं प्राण हीन क्यों न हो जाऊं किन्तु मेरे प्राण निधान यशस्वी रहें यह मेरी अभिलाषा है |
मोर नयन हरि पेम पियासे । यह मन मंदिर बरें दिया से ॥
रुचिर बसन मनि भूषन साजे । मंजुल मूरति रूप बिराजे ॥
मेरे नेत्र हरि प्रेम के प्यासे हैं जो मेरे मन मंदिर में दीपक बनकर प्रज्जवलित हैं जहाँ वह सुन्दर वेश व् मणि आभूषण से सुशोभित मनोहर मूर्ति रूप में विराजित हैं |
अह दयालु परम कृपालु कौसल्या महतारि ।
अहहि न सकुसल अनंदित अवध सहित सुत चारि ॥
अहो ! मुझ पर दया व् कृपा रखने वाली माता कौसल्या चारों पुत्र सहित अयोध्या में कुशल व् प्रसन्न तो हैं न ? उन्हें कोई कष्ट तो नहीं है ?
शुकवार, ०२ सितंबर, २०१६
रिपुहन भरतादि सबहि भ्राता । अहहि न सकुसल सुमित्रा माता ॥
चाहिब अधिक् प्रान ते मोही । मम दुखारत रहँ न सुख सोंही ॥
शत्रुहन भरतादि सभी भ्राता कुशल हैं न ? और सुमित्रा माता सकुशल हैं न ? जो मुझे अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय मानती हैं जो मेरे दुःखी होने से जो स्वयं सुख का अनुभव नहीं करतीं |
कहौ अहैं कस पियतम मोरे । पूछत एहि जब करिय निहोरे ॥
लोचन अरु जल बोह न बोही । बालिहि लषमन पुनि सिय सोंही ॥
कहो तो मेरे प्रियतम कैसे हैं माता जानकी ने लक्ष्मण से जब यह प्रश्न निवेदन किया तब उनके नेत्र जल कभार को वहन न कर सके तब वह उनसे बोले : --
देइ सकुसल अहहि महराई । पूछत रहँ तुम्हरि कुसलाई ॥
सुमित सहित मातु कैकेई । आहि सकुसल सबहि हे देई ॥
' हे देवी ! महाराज कुशलपूर्वक हैं और आपकी कुशलता पूछ रहे हैं | सुमित्रा सहित माता कैकेई भी सकुशल हैं हे महारानी !
रहिब रागि अरु जो रनिबासा । करिअ निरंतर तोर सुखासा ॥
गुरुजन सहित सकल गुरुनारी । तुम होउ सुखारी ॥
राजभवन की अन्य सभी देवियाँ निरंतर आपके सुख व मंगल की कामना करती रहती हैं | आप जहाँ भी हैं वहां सुख पूर्वक रहें गुरुजन सहित सभी गुरुपत्नियों ने --
दए असीस जनि पेम अपूरे। तोर जिआ आपन जिअ भूरे ॥
तुहरे पदुम चरन सिरु नाई । कुसल प्रसन कृत दोनहु भाई ॥
आपको यह प्रेमपूरित आशीर्वाद दिया वह आपकी प्रसन्नता के लिए अपनी प्रसन्नता भूल गईं | दोनों भ्राताओं ने कुशल-प्रश्न के साथ आपके पदम् चरणों में प्रणाम निवेदन किया है|
रघुनन्दन कहत ए बचन नयन नीर भर लाए ।
पालि मम कहिअ गवन बन जानकिहि जाहु लिवाए ॥
महाराज श्री रघुनंदन यह कहते हुवे नयनों में जल भर लाए कि जो मेरे कथनों का शब्दश:अनुशरण कर वन गामी हो गईं तुम उस जानकी को लिवा लाओ |
शुक्रवार, १६ सितम्बर, २०१६
रघुकुल मनि अब रहएँ बुलावा । तोहि ल्यावन मोहि पठावा ॥
ह्रदयँ रहस प्रगसभव बानी । पोषत प्रीत पलकन्हि पानी ॥
रघुकुल मणि अब बुला रहें हैं आपको लेने के लिए उन्होने मुझे भेजा है | ह्रदय का रहस्य वाणी द्वारा व्यक्त हो जाता है पलकों का पानी प्रीति का पोषण करती है |
भरे कण्ठ यह कहिब भनीता । सुनहु सतीहि सिरोमनि सीता ॥
दीनदयाकर कृपानिधाना । जन जन कहत मोहि भगवाना ॥
उन्होंने भरे कंठ से यह वक्तव्य कहा है : -- ' हे सतीयों की शिरोमणि !हे सीते दीं दुखियों पर दया करने वाले, कृपा के निधान कहकर जन-जन मुझे ईश्वर स्वरूप कहते हैं |
मोर मते जौ जग करतारी । सौइ अदरस करम अनुहारी ॥
होइ रहेब जगत महुँ जोई । ताकर अदरस कारन होई ॥
किन्तु मैं कहता हूँ, जो परमेश्वर है वहभी अभी कर्मों में अदृष्ट काही अनुशरण करता है | जगत में जो कुछ होता है उसका स्वतन्त्र कारण अदृष्ट ही है |
तोर बरन खंडित भए चापा । कैकेई मति भरम ब्यापा ॥
पितहि मरन में बन गवनन में । दनुज कर तहँ तुहरे हरन में ॥
धनुष खंडित कर मेरे द्वारा तुम्हारा वरण करने में, कैकेई माता की बुद्धि भ्रमित होने में,पिता के स्वरारोहण में, हमारे वनगमन में, दानवों के द्वारा वहां तुम्हारे हरण में,
बँधेउब पयधि पार तरन में । सहाय कृत केर सहायन में ॥
समर समर औसर जब आईं ॥ कपि भल्लुक सबु होए सहाई ॥
सेतु बंधन में, समुद्र के पार उतरने में, मित्रों द्वारा सहायता प्रदान करने में, युद्ध-युद्ध में जब भी अवसर आया तब तब भालुओं और कपियों की सहयोग किया |
बधत दनु तुम्हरे मिलन में । अरु बहुरि मम पन अपूरन में ॥
निज बांधव सहुँ होइ सँजोगा । राज जोग करि प्रिया बियोगा ॥
रावण का वध और तुम्हारी प्राप्ति में, तदनन्तर मेरे प्रण की पूर्ति में, पुन : अपने बंधुओं से संयोग होने में, राजयोग के कारण तुम्हारे वियोग में,
निगदित कारज कर एकहि कारन अदरस होइ ।
पुनि सो होत मुदित जुगित करिअब हमहि सँजोइ ॥
उक्त कार्यों का एक मात्र ही अदृश्य कारण है अब वही अदृश्य पुन: हमारा संयोग करने हेतु प्रमुदित हो रहा है |
सोमवार , १९ सितम्बर, २०१६
जिन्ह सुधिजन के बिसद बिचारा । अदर्स करिहि सोइ अनुहारा ॥
भुगत भोग सो तासु नसावा । तुहरी भुगुति बन अपूरावा ॥
जिन्ह विद्वानों के उत्तम विचार होते हैं वह भी अदृष्ट का ही अनुशरण करते हैं | उस अदृश्य का भुक्तने से ही क्षय होता है, वन में रह कर तुमने अपना भुक्तान पूर्ण कर लिया ||
तुहरे प्रति मम सद अस्नेहा । बढ़तै गयउ नित निसंदेहा ॥
सोए नेह निंदक परहेला । अजहुँ तोहि सादर दए हेले ॥
सीते ! तुम्हारे प्रति मेरा अकृत्रिम स्नेह है निसंदेह वह निरंतर बढ़ता ही गया है | आज वही स्नेह निंदकों की उपेक्षा करके तुम्हें आदर सहित बुला रहा है |
सनेह सरित दोषु कर संका । लहत मलिनपन गहत कलंका ॥
दोषु धुरावत मिटिहि बिषादा । दए तबहि नेह रस असवादा ॥
स्नेह की सरिता दोष की आशंका मात्र से मलिनता को प्राप्त होकर कलंक से लिप्त हो जाती है | दोषों के परिष्करण से जब विषादों का निवारण हो जाता है स्नेह रस तभी माधुर्यता प्रदानकर्ता है |
दोषु धरिअब करिअ संदेहू । होत बिमल ते अबिमल नेहू ॥
देय बिपिन में तोहि त्यागा । भयउ बिसद अस मम अनुरागा ॥
कल्याणी ! दोषारोपण द्वारा संदेह करने पर निर्मल स्नेह भी मलिन हो जाता है | मैने तुम्हारा त्याग किया और वनवास देकर तुम्हारे प्रति मैने अपने अनुराग को शुद्ध ही किया है |
तजि अहो तुम्ह मोर तईं, करिहु न हृदय बिचार ।
निंदक राखन किया मैं सुबुध चरन अनुहार ॥
तुम मेरे द्वारा त्याग दी गई हो, ह्रदय में ऐसा विचार न करना | शिष्ट पुरुषों के मार्ग का अनुशरण करते हुवे मैने तो निंदकों की भी रक्षा ही की है |
रविवार, २९ जनवरी, २०१७
दोषु धरिअब करएँ निंदाई । तासु सब बिधि हमरि सुचिताई ॥
साधु चरित कर कहहिँ बुराइँहि । सो हतमति आपहि बिनसाइँहि ॥
देवि ! हम दोनों की जो निंदा की गई है इससे प्रत्येक अवस्था में हमारी शुद्धि होगी | जो मूर्ख शिष्ट पुरुषों के चरित्र को लेकर निंदा करते हैं वह स्वयंको ही नष्ट हो जाते हैं |
पूरन ससि निभ निसि उजयारी । उजबरित तस कीरति हमारी ॥
कृत करतब किरनन जस कासिहिं । दुहु कुल दिनकर सरिस प्रकासिहिं ॥
जिस प्रकार पूर्ण उज्ज्वलित चन्द्रमा रात्रि को प्रकाशयुक्त कर देता है उसी प्रकार हमारी कीर्ति भी उज्जवल चन्द्रमा है हमारे कृत कर्म उसकी किरणों के सदृश्य हैं हम दोनों के कुल सूर्य के समान प्रदीप्तवान हैं |
हमरे बिरद करहि गुन गाना । होहि बिसद मनि मुकुत समाना ॥
सुनहु सिया भव सिंधु अपारग । जाहि हमरी भगति सो पारग ॥
जो हमारी इस उज्जवल कीर्ति का गुणगान करेंगे वह नर नारी मणि व् मुक्ता के सदृश्य सदैव उज्जवल रहेंगे | हे सीते सुनो ! यह भव सिंधु से पार उतरना कठिन है किन्तु हमारी भक्ति से वह सहज ही पार हो जाएगा |
तोर गुन ते मुदित रघुनाथा । येहु सँदेसु दियो मम हाथा ॥
दरसन पदुम चरन निज नाथा । करिहु बिचार न चलिहउ साथा ॥
तदनन्तर लक्ष्मण ने कहा : - 'माते ! इस प्रकार आपके गुणों से प्रसन्न होकर रघुनाथ जी ने यह मेरे द्वारा यह सँदेश दिया है | एतएव अब आप अपने पतिदेव के चरण- दर्शन हेतु अन्यथा विचार न कर मेरे साथ चलिए |
धरत माथ पद पदुम परागा । करतब बहुरि भूरि निज भागा ॥
मातु सदय अब हरिदै कीजौ । मोहि लेइ गत आयसु दीजौ ॥
उनके पदुम चरणों की धूलि रूपी परागों को शिरोधार्य कर स्वयं को कृतार्थ करने के लिए हे माते ! अपने हृदय को उनके प्रति सदय बनाइये मुझे आपको लिए जाने की आज्ञा दीजिए
जगज जननी लए आपनि संगत दोउ कुमार ।
चलिहु बेगि प्रान पति पहि करौ न सोचु बिचार ॥
हे जगज्जननी ! अब अन्यथा विचार न करते हुवे दोनों कुमारों को अपने साथ लीजिए और शीघ्रता पूर्वक प्राण पति के पास चलिए |
मंगलवार, ३१ जनवरी,२०१७
भई सिथिर सुनु हे महरानी ।पथ निहारति रामु रजधानी ॥
चढ़ि गज बैठ अधरिया ऊपर । आगिल चलिअहि दुहु जुगल कुँअर ॥
हे महारानी सुनिये ! आपकी प्रतीक्षा करते भगवान श्रीरामकी राजधानी अयोध्या भी थकित हो गई है | दोनों युगल कुमार हस्ती की पृष्ठिका पर आसीन होकर आगे आगे चलेंगे |
चढ़िअ सिबिका कटकु सँग लागे । छाँह करिहि घन बन मग माँगे॥
रहिहु मध्य तुम बाहन आछे । चलिहौं मैं तव पाछहि पाछे ॥
आप सेना के साथ संलग्न सघन विपिन के दुर्गम मार्ग में इच्छानुसार छाया प्रदान करने वाली इस सुन्दर शिविका पर विराजित होकर उत्तम वाहनों के मध्य में रहिएगा और मैं आपके पीछे पीछे चलूँगा |
एहि बिधि अवधहि नगरि पधारउ । धरि पद रजस रजस उद्घारउ ॥
निज पिय ते मिलिहउ तहँ जाईं । मख अस्थरि दिसि दिसि ते आईं ॥
इस प्रकार अयोध्या की पावन पुरी में पधारे और अपने चरणों से वहां की धूलिका के कण कण का उद्धरण करें | वहां चलकर जब आप अपने प्रियतम श्रीराम से मिलाप करेंगी तब यज्ञ स्थली में दूर -दूर से आईं हुई :-
राज रागि संगत ऋषि नारी । हरषिहि बिरहन तापु बिसारी ॥
प्रनमत कौसल्या महतारी । छाइ तासु उर आनंद भारी ॥
राज-महिलाओं सहित सभी ऋषि-पत्नियां वियोग के संताप को विस्मृत कर हर्षित हो जाएंगी, जब आप माता कौसल्या को प्रणाम करेंगी तब उनका हृदय भी आनंद से पूरित हो जाएगा |
बाजनि बृंद बहु बिधि कर बाजिहि बिबिध बिधान ।
मधुर धुनि सौं सरस राग गाइहि मंगल गान ॥
राज-महिलाओं सहित सभी ऋषि-पत्नियां वियोग के संताप को विस्मृत कर हर्षित हो जाएंगी, जब आप माता कौसल्या को प्रणाम करेंगी तब उनका हृदय भी आनंद से पूरित हो जाएगा |
बुधवार, १ फरवरी, २०१७
हरि निवास श्री वासिहि जैसे । धूमधाम अरु होहि न कैसे ॥
तव सुभागम हेतु कल्याना । जाइ मनाइहि परब महाना ॥
हरि निवास में तो जैसे श्री का वास हो रहा है फिर वहाँ राग-रंजन क्यों न हो आपका शुभागमन कल्याण के हेतु है अतएव अयोध्या में समारोह पूर्वक आनदोत्सव मनाया जाएगा |
कहत सेष सुनि येह सँदेसा । कहइँ सिया एहि बचन बिषेसा ॥
अहहि जग पहि पदारथ चारा । अह रे मैं रिति सबहि प्रकारा ॥
शेष जीकहते हैं : - हे मुनिवर ! यह सन्देश सुनकर माता सीता ने यह वहां विशेष कहे कि यह संसार चार पदार्थों से युक्त है धर्म,अर्थ काम व् मोक्ष आह ! मैं सभी प्रकार से शुन्य हूँ |
दरिद दासि यह कहँ महराजा । समरिहिं मम तैं कहु को काजा ॥
पानि गहे जब मोहि बिहावा । जोइ मनोहरता तन छावा ॥
कहाँ यह दरिद्र दासी और कहाँ महाराज कहो तो भला मेरे द्वारा उनका कौन सा कार्य सिद्ध होगा ? पाणि ग्रहण कर जब उन्होंने मुझसे विवाह किया था तब उनके श्रीविग्रह जो मनोहरता ग्रहण किए हुवे था |
बसिहि रूपु सो हरिदै मोरे । ता सहुँ सब दिन रहि कर जोरे ॥
यह छबि उर कबहु न बिलगाई । तासु तेज सों दुइ सुत जाई ॥
उनका वह स्वरूप मेरे हृदय भवन में बसा हुवा हैं जिसके सम्मुख में नित्य हाथ जोड़े रही यह छवि मेरे हृदय से कभी वियुक्त नहीं हुई उनके तेज से मैने इन युगल पुत्रों को जन्म दिया |
अहहि कुँअर एहि बंस अँकोरे । हीर रुचिर बरु बीर न थोरे ॥
लहि बिसेख जुगता दुहु भाई । धनु बिद्या मह गह निपुनाई ॥
ये राजकुमार उनके वंश बीज के ही अंकुर हैं ये सुन्दर दो हीरे अत्यंत वीर हैं || निपुणता ग्रहणकर धनुर्विद्या में इन्होने विशेष योग्यता प्राप्त की है |
सघन बन बहु जतन तेउ पालि पौषि हौं ताहि ।
जाहु संग लए दुहु कुँअर पितु पहि काहे नाहि ॥
इस सघन विपिन में मैने इनका पालन-पोषण बड़े यत्न से किया है इनके पिता के पास तुम इन्हें ही क्यों नहीं ले जाते ?
बुधवार, १५ फरवरी, २०१७
तप तैं निज इच्छा अनुहर के । अधर नाउ धर एकु रघुबर के ॥
मैं बिरहन अब एहि बन रहिहौं । कीरत कृत नित हरि गुन कहिहौं ॥
मैं विरहन तपस्या के द्वारा निज इच्छा के अनुसार अधरों पर रघुनाथ जी के नाम को धारण कर अब इसी वन में रहूंगी और उन हरि की कीर्ति का कीर्तन करते उनका गुणगान करूंगी |
जाइ तहाँ तुम पूजित जन के । अरु अवध कर आनंद घन के ॥
परस चरन कह मोर प्रनामा । कहिहु कुसल सब लए मम नामा ॥
महाभाग ! तुम वहां जाकर पूज्यनीय जनों सहित अयोध्या के आनंदघन श्री रामचन्द्र के चरणों को स्पर्श कर मेरा प्रणाम कहना और मेरा नाम लेकर मेरी कुशलता कहना |
होत बिनैबत बोलि सपेमा । पूछिहउ पुनि सबहि के छेमा ॥
बहोरि भरि अनुराग बिसेसा । दुहु बालकन्हि देइ अदेसा ॥
विनम्र होकर स्नेहिल वाणी से उन सभी की कुशल क्षेम पूछना | तदनन्तर माता ने विशेष अनुराग से भरकर दोनों बालकों को आदेश दिया |
रे बच्छर तुअ पितु पहि जाहू । दए आदर अतिसय सब काहू ॥
मातु बंधु गुरु कह पितु देबा । गहिब चरन करिहौ बहु सेबा ॥
अहो वत्स ! अब तुम अपने पिता के पास जाओ वहां सभी को अत्यंत आदर करते हुवे पिता को ही माता, बंधू, गुरु और देवता कहते उनके चरणों को पकडे उनकी सेवा शुश्रूता में संलग्न रहना |
मातु चरन होएब बिलग दोउ कुँअर चहँ नाहि ।
एहि इच्छा बिनु कहब किछु राख रहे मन माहि ॥
कुमार कुश और लव नहीं चाहते थे कि हम माता के चरणों से विलग हों | इस इच्छा को व्यक्त न कर उसे मन में ही रखा |
जनि अग्या सिरुधार के गहे एकहि एक हाथ ।
सिथिर चरन उपरि मन पुनि चलेउ लखमन साथ ॥
तदोपरांत जननी की आज्ञा शिरोधार्य कर एक दूसरे का हाथ पकड़े इच्छा न होते हुवे भी वे शिथिल चरणों से लक्ष्मण के साथ चल पड़े |
बृहस्पतिवार १६ फरवरी, २०१७
पहुंच तहाँ दुहु सियसुत नीके । गयउ नकट बाल्मीकि जी के ॥
गहिब गुरुपद रहिब जुगगाथा । गयउ लखमनहु तहँ तिन साथा ॥
वहां पहुंच कर सीता के दोनों सुन्दर बालक वाल्मीकि जी के निकट गए | करबद्ध होकर अपने गुरु की चरण वंदना की, लक्ष्मण भी उनके साथ गए |
सुमिरत अकथ अनामय नामा । प्रथमहि महर्षि करिअ प्रनामा ॥
बहोरि महर्षि लषन प्रसंगा । चलेउ दोउ कुँअर करि संगा ॥
हरि के अनिर्वचनीय नाम का स्मरण करते हुवे सर्वप्रथम महर्षि को प्रणाम किया | तब महर्षि और दोनों कुमारों एक साथ मिलकर लक्ष्मण के संग चल पड़े |
जान सभा भित कृपा निधाना । मानेउ मन न केहि बिधाना ॥
जागिहि दरसन कर अभिलासा । गयउ अतुरइ सबहि प्रभु पासा ॥
जब कृपा निधान भगवान को सभा में स्थित जाना, तब मन किसी भांति नहीं माना वह सभी अधीरतापूर्वक भरी सभा में प्रवेश करते हुवे प्रभु के निकट गए
बोलिहि बन जो बिरहनि माता । करि प्रनाम कहि सो सब बाता ॥
धूपित पंथ मिलहि जब छाहीं | सोक सँग तब हर्ष निपजाहीं ||
जब जब लखमन सिय सुधि करहीं । तब तब बारि बिलोचन भरहीं ॥
हरिदै थल जल भए दुइ भावा । भयउ मगन अरु तीर न पावा ॥
उन्हें प्रणाम करके वन में विरहिणी माता ने जो कुछ कहा था वह सब निवेदन कर दिया | सूर्य से आतप्त पंथ में जब प्रभु की छात्र-छाया प्राप्त हुई, तब शोक के संग हर्ष उत्पन्न हो गया लक्ष्मण जब जब सीता का चिंतन करते तब तब उनके नेत्रों में जल भर आता इस प्रकार जल व थल रूपी इन दोनों भावों में निमग्न ह्रदय को तट की प्राप्ति नहीं हुई |
कहत प्रभु रे सुनहु सखे बहुरि तहाँ तुम जाइ ।
महा जतन करि कै सियहि, आनिहु लए अतुराइ ॥
यह वृत्तांत श्रवण कर श्रीरामचंद्र जी ने कहा : - 'सखे ! तुम पुनश्च वहां जाओ और महान प्रयत्न करते हुवे सीते को यथाशीघ्र यहाँ ले आओ |''
शुक्रवार, १७ फरवरी, २०१७
लगि पद सबिनय दुहु कर जोरे । कहहु सिय ते ए बत कहि मोरे ॥
साँझ लखिहु न लखिहु तुम भोरा । करहु सघन बन तप घन घोरा ॥
चरणों में नतमस्तक होते हुवे हाथ जोड़कर सीता से विनयपूर्वक मेरी ये बातें कहना : - 'तुमने न भोर देखा न संध्या देखी और इस बेहड़ वन में घनघोर तप करने में लीन रहकर
देखिअ सुनिअ न जग बिन होइ । मम तै अबरु तकिहु गति कोई ॥
तुहरे हिय कछु प्रिय नहि जाना । सदा कहिहु पिय प्रान समाना ॥
मुझसे भिन्न उस गति का लक्ष्य कर रही हो जो कहीं देखि न सुनी गई हो जो संसार में हुई न हो ? तुम्हारे ह्रदय ने तो मुझे ही प्रिय समझा है तुमने सदैव मुझे प्राण पति कहा है |
जिअ बिनु देह नदी बिनु बारी । तैसिअ नाथ पुरुख बिनु नारी ॥
तनु धनु धाम धरनि पुर राजू । पत बिहीन सबु सोक समाजू ॥
जैसे बिना जीव के देह और बिना नीर के नदी है, वैसे ही हे नाथ ! बिना पुरुष के नारी है | देह, धन, धाम, पृथ्वी,नगर और पति के बिना स्त्री के लिए यह सब शोक के समाज हैं |
नाथ सबहि सुख साथ तिहारे । सरद बिमल बिधु बदनु निहारे ॥
पिय बिनु सुखद कतहु किछु नाही । रहसि चहत अजहूँ बन माही ॥
हे नाथ !आपके साथ रहकर आपका निर्मल चन्द्रमा के समान मुख देखकर मुझे संसार के सभी सुख प्राप्त होंगे | पति के बिना कहीं सुख नहीं होता यह तुमने ही कहा था तुम ही अब वन में रहना चाहती हो |
आपनि कहि बिसराए के पिया संग परिहारि ।
घन हठ हृदयँ बिचार करि सुनिहु न मोरि गुहारि ॥
अपने कथन की अवहेलना करके पति का साथ त्याग रही हो | हठ योग का आश्रय लेकर ह्रदय में मेरे त्याग का विचार करते तुम मेरी पुकार नहीं सुन रही हो |
शनिवार, १८ फरवरी, २०१७
जेहि बन अस्थरि रिषि मुनि मन भाइँ । निज इच्छा ते तहाँ तुम आइँ ॥
दरसत मुनि पूजिहु रिषि नारी । पूर भई अभिलाष तिहारी ॥
जो वनस्थली मुनियों के मन को प्रिय है वहां तुम स्वेच्छा से गई हो | जहाँ तुमने ऋषियों का दर्शन कर ऋषि पत्नियों का पूजन किया | तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण हुई |
अजहुँ नयन तव पंथ निहारिहि । निसदिन हिय सिय सियहि पुकारिहि ॥
आजु प्रीत यहु पूछ बुझाईं । तोहि काहे न देइ सुनाई ॥
अब मेरे नेत्र तुम्हारे आगमन की प्रतीक्षा कर रहे हैं मेरा हृदय नित्य सीता सीता की ही पुकार करता है आज मेरी प्रीति तुमसे प्रश्न कर रही है, मेरे ह्रदय की यह पुकार तुम्हें क्यों नहीं सुनाई देती |
पतिब्रतासति कतहुँ कि न होईं । गहि एकु पति गति अबरु न कोई ॥
होए सो जड़ चहे गुनहीना । धन बिहीन बिनु श्रम अतिदीना ॥
पतिव्रता सती कहीं भी क्यों न हो पति के अतिरिक्त उसकी अन्य कोई गति नहीं है जो मूर्ख अथवा गुणहीन हो चाहे धन व् उद्यम से विहीन होकर अत्यंत दीन हो |
ऐसेहु पति गुन सिंधु समाना । पावहि नतरु नारि दुःख नाना ॥
होइबी जो पति मन अनुकूला । सुनहु सिया सो सुखकर मूला ॥
ऐसा पति गुणहीन होने पर भी गुणों का सागर है अन्यथा पति से विहीन पत्नी नाना दुखों को प्राप्त होती है | यदि पति मनके अनुकूल हुवा, वह सुख का मूल है तब उसकी मान्यता के विषय में कहना ही क्या |
रहे हृदयँ गोसाइँया गहियबआदरु मान ।
सोइ जगदातम श्रीपति सह सिउ सती समान ॥
वह पत्नी के ह्रदय का अधिष्ठाता बनकर अतिसय आदर व् सम्मान को प्राप्त करता है | वही जगदात्म लक्ष्मी के नारायण व शिवा के शिव समान होता हैं |
सोमवार, २० फरवरी, २०१७
करहि कुलीन तिय कारज जेतु । होत सो सब पति तोषन हेतु ॥
पुर्बल परम पेम ते पोषा । रहा तुम्ह पर मैं परितोषा ॥
उत्तम कुल की स्त्रियां जितने भी मांगलिक कार्य कराती हैं वह सब पति के परितोषण हेतु ही होते हैं | परम प्रेम से पोषित होने के कारण मैं पहले से ही तुमसे संतुष्ट रहा हूँ |
पाइब बिरह प्रीति अरु गाढ़हि । एहि समय परितोषु अरु बाढ़हि ॥
जप तप तीरथ ब्रत कि त्यागा । दान दया यहु धर्म बिभागा ॥
विरह को प्राप्त होकर यह प्रीति और गहरी हो गई इस समय मेरा यह संतोष भी बढ़ गया है | जप, तप, तीर्थ, व्रत, त्याग दान व् दया यह धर्म के विभाग हैं |
करहिं जबहिं प्रसन्नचित मोही । सोई साधन सुफल तब होंही ॥
पद बंदन मम तोषन तेऊ । होइब पारितोषित सब देऊ ॥
मेरे अर्थात ईश्वर के प्रसन्न होने पर ही ये साधन सफल होते हैं | मेरे संतुष्ट होने पर सम्पूर्ण देवता भी संतुष्ट हो जाते हैं |
मम कहि नाहिन तनिक सँदेहू । अबरु बचन इब मृषा न ऐहू ॥
देखिअ द्रबित रूपु नरहरी के । कहेउ लषन धीरजु धरी के ॥
मेरे कथन पर किंचित मात्र भी संदेह नहीं है अन्य वचनों के सामान यह भी मृषा नहीं सत्य है | नरहरि का द्रवित रूप देखकर लक्ष्मण ने धैर्य धारण करते हुवे कहा : --
सिया अनाई हेतु कहिहु जोइ जोइ रघुराइ ।
कहिहउँ सबिनय बना अति भल सोइ सोइ तहँ जाइ ॥
माता सीता को लिवा लाने के उद्देश्य से आपने जो जो बातें कहीं वह सब बातें मैं वहां जाकर और भली प्रकार से उन्हें विनयपूर्वक निवेदन करूँगा |
सिय केर सुचितई मानद हे । तव सहुँ छदम न कोइ छद अहे ॥
न तरु हमहि न देवन्हि सोंही । यह कछु मन महुँ भरमन होंही ॥
हे मानद ! सीता की शुद्धि के विषय में आपसे न कोई दुराव है न छिपाव | तत संबंध में न हम से और न देवताओं से ही कुछ गोपनीय है | यह जन-मानस के मन का भ्रम मात्र ही था |
हरहि तमस जिमि प्रगस पतंगा । दूरए मन निभरम ता संगा ॥
कहत सेष मुनि जगद निधाता । भगवन जद्यपि सरब ग्याता ॥
जिस प्रकार सूर्य उदयित होकर अन्धकार का हरण कर लेता है, उसी प्रकार उक्त घटना से यह भ्रम भी दूर हो गया | शेष जी कहते हैं : -- हे मुनि! जगत विधाता भगवान यद्यपि सर्वज्ञाता हैं
तद्यपि मुनि एहि बिधि समुझायउ । सुनि असि अस्तुति सहुँ सिरु नायउ ॥
लषन सोंहिं बोलिहि एहि बाता । सुमित्र सहित कृत करिहु ए ताता ॥
तद्यपि वाल्मीकि मुनि ने उनका प्रबोधन किया मुनि वर की ऐसी स्तुति श्रवण कर प्रभु नतमस्तक होकर लक्ष्मण से बोले :--हे तात ! तुम सुमित्र का संग प्राप्त कर यह कर्तव्य करो;
सती सिया पहिं चढ़ि रथ जाहउ। जमल सहित तुर आनि लिवाहउ ॥
करएँ जुग कर बिनति सब कोई । करौ सकार अजहुँ सुत दोई ॥
तुम रथारूढ़ होकर युगल पुत्रों सहित धर्माचारिणी सीता को ले आओ | सब लोग करबद्ध होकर मुझसे विनति कर रहे हैं कि आप अपने दोनों पुत्रों को स्वीकार करें |
मोर अरु मुनि केर कही कहियउ तहँ सब बात ।
अवध पुरी लेइ अइहौ कहत मात हे मात ॥
माता माता की गुहार करते हुवे तुम मेरे तथा महर्षि वाल्मीकि द्वारा कहे इन वचनों को निवेदन कर उन्हें अयोध्या पुरी ले आना |
अहो भगवन अजहुँ मैं जइहौं । सीअहि मातु कहत समुझाइहौं ॥
सुनिहि जो तुहरे प्रिय सँदेसा । आनि पधारन सो एहि देसा ॥
अहो भगवन ! माता जानकी के प्रबोधन हेतु मैं तत्काल प्रस्थान करता हूँ आप महानुभावों का सन्देश श्रवण कर यदि वह यहाँ पधारने के लिए : --
आइहि मोर संग सिय माई । होइहि तबहि सुफल मम जाई ॥
अस कह लखनउ आगिल बाढ़े । प्रभो अग्या सोंहि रथ चाढ़े ॥
मेरे साथ आती हैं मेरी यात्रा तभी सफल होगी | रामचंद्र जी से ऐसा कहते हुवे लक्ष्मण आगे बढकर उनकी आज्ञा से रथारूढ़ हो गए |
अरु मुनिबर के सिस लय संगा । सुमित्र सहित रथ भयउ बिहंगा ॥
प्रिय प्राना पति अति परम सती । होहि केहि बिधि मुदित भगवती ॥
और मुनि शिष्यों को साथ लेकर सुमित्र सहित वह रथ विहंग के समदृश्य हो गया | पति को प्राणों से भी अधिक प्रिय परम सती भगवती सीता किस प्रकार प्रसन्न होंगी |
बिकलित मन मानस अस सोचिहि । कबहुँ हरष करि कबहुँ सकोचिहि ॥
एहि बिअ बिचहुत मति बिरझाईं । अतुर परन कुटि देइ दिखाई ।
ऐसा विचार करते लक्ष्मण के व्याकुल मनोमस्तिष्क में कभी हर्ष होता कभी संकोच होता | इन दोनों भावों के बीच उनकी मति उलझ रही थी | शीघ्र ही उन्हें सीता की पर्ण-कुटिया दिखाई देने लगी |
एहि दसा पैठि रथ चरन पथ श्रमु गयउ सिराए ।
तुरतई पुनि जगन मई जननि देइ देखाए ॥
इसी दशा में रथ के चरणों ने वहां प्रवेश किया | कुटिया को दर्शकर पथ जनित शिथिलता जाती रही, जगन्मयी जननी के भी तत्काल ही दर्शन हो गए |
रविवार, २८ अगस्त, २०१६
भय अस्थिर रथ चरन तरायल । तुरै तरिय तरु मंडित अस्थल ॥
सिथिरीभूत सीतहि नियराए । कहत ए लखन कण्ठ भर ल्याए ॥
रथ के वेगवान चरण स्थिर हुए शीघ्रता पूर्वक रथ से उतरे | शिथिलित लक्ष्मण वृक्षों से सजी हुई स्थली पर माता सीता के समीप गए, यह कहते उनका कंठ भर आया कि
पूजनिअइ हे पेम परिमिता । हे भगवति अति सुभग परिनिता ॥
हे आर्ये हे मंगल करनि । बिभव अपार भव सागर तरनि ॥
हे अपरमित प्रेम से पूज्यनीय ! हे देवी भगवती | हे अत्यंत सौभाग्य शाली स्वामिनी ! हे आर्ये ! हे कल्याणमयी ! हे वैभववान संसार रूपी अपार सिंधु की नौका !
बहोरि कातर रूप निहारे । बोधत अस गहि पद महि पारे ॥
सियहि बत्सल पेम के साथा । बिहबल होति लम दुहु हाथा ॥
कातर दृष्टि से निहारकर ऐसा सम्बोधन करते फिर वह उनके चरणों में गिर पड़े | जानकी माता वात्सल्य प्रेम से विह्वल होकर दोनों हस्त प्रलंबित किये |
नहि नहि कहति नयन भर पानी । उठइ लषन अति करिअ ग्लानी ॥
भरिअ सोहाग रहिअ बिरागी । तासों एहि बिधि पूछन लागी ॥
और अश्रु पूरित नेत्रों से नहीं नहीं कहते अतिशय ग्लानि करते लक्ष्मण को उठाया और सौभाग्य से परिपूर्ण होकर भी संसार से विरक्त वह साध्वी इस प्रकार प्रश्न करने लगी --
जौ बेहड़ बन मुनि महर्षि प्रियकर महतिमह तपसि जन के ।
ब्याल कराल जौ भालु बाघ अरु केहर कुंजर गन के ॥
कंदर खोह अगम अगाध नदीं नद जो बिनहि रबि किरन के ।
कंटक कांकर गहबर मग अँधेरि छादित जौ तरुवन के ॥
जो विकट वन मुनियों, महर्षियों व् महानतम तपस्वियों को प्रिय है जो विकराल हिंसक जंतुओं, भालुओं, सिंहों व् हाथियों का है | जहाँ सूर्य की किरणों से विहीन अगम्य घाटियां, गुहाएँ, अगाध नदी व् पर्वत है | जिसका मार्ग कंकड़ों, कांटो से युक्त होने के कारण दुर्गम और वृक्षों के आच्छादन से अन्धकारमय है |
हरिअहि हय हेरिहि केहि, तव डग डगर भुराए ।
दूरत नगर सौम्य हे कहौ इहाँ कस आए ॥
क्या किसी ने भगवान श्रीराम के अश्व का हरण कर लिया है ? हे सौम्य ! उसकी शोध में नगर से दूर होते क्या तुम्हारे चरण पथभ्रमित हो गए ? कहो तो यहाँ किस हेतु आगमन हुवा ?
बृहस्पतिवार ०१ सितम्बर, २०१६
मातु गरभ गह सुकुतिक रूपा । उद्भयउ मनि मुकुता सरूपा ॥
अराधित देउ मोरे नाथा । अहहि न धनि सुख सम्पद साथा ॥
माता के शुक्तिक रूपी गृह से मणि मुक्ता स्वरूप में उद्भवित होने वाले मेरे आराध्य देव, मेरे नाथ सुख की सम्पदा से धनि तो हैं न ?
सजल नयन पुनि कहि हे नागर । जग अपकीरति कारन रघुबर ॥
कि राखन साँच मोहि त्यागे । होइँ कुपथ चर प्रजा न आगे ॥
सजल नेत्रों से फिर सीता ने कहा हे देवर ! जग अपकीर्ति के कारण अथवा सत्य की रक्षा के लिए रघुवर ने मेरा त्याग कर दिया इस हेतु कि भविष्य में कहीं प्रजा कुपंथ गामी न हो जाए |
दय बन करिअब बिरहन मोही । त्याज काज सौंपि प्रभु तोही ॥
होइ ताहि सों एहि संसारा । तासु बिमल कीरत बिस्तारा ॥
मेरे परित्याग का कार्य तुम्हें सौंपा और मुझे विरहणी बनाकर वन दिया | यदि इससे इस संसार में उनकी विमल कीर्ति विस्तृत होकर : --
जुग जुग लग अस्थिर कृत होईं । तासों बड़ संतोष न कोई ॥
अजहुँ होउँ किन मैं बिनु प्राना । रहएँ जसोधन प्रान निधाना ॥
युग युग तक स्थिरकृत हो तब इससे बड़ा कोई संतोष नहीं है | मैं प्राण हीन क्यों न हो जाऊं किन्तु मेरे प्राण निधान यशस्वी रहें यह मेरी अभिलाषा है |
मोर नयन हरि पेम पियासे । यह मन मंदिर बरें दिया से ॥
रुचिर बसन मनि भूषन साजे । मंजुल मूरति रूप बिराजे ॥
मेरे नेत्र हरि प्रेम के प्यासे हैं जो मेरे मन मंदिर में दीपक बनकर प्रज्जवलित हैं जहाँ वह सुन्दर वेश व् मणि आभूषण से सुशोभित मनोहर मूर्ति रूप में विराजित हैं |
अह दयालु परम कृपालु कौसल्या महतारि ।
अहहि न सकुसल अनंदित अवध सहित सुत चारि ॥
अहो ! मुझ पर दया व् कृपा रखने वाली माता कौसल्या चारों पुत्र सहित अयोध्या में कुशल व् प्रसन्न तो हैं न ? उन्हें कोई कष्ट तो नहीं है ?
शुकवार, ०२ सितंबर, २०१६
रिपुहन भरतादि सबहि भ्राता । अहहि न सकुसल सुमित्रा माता ॥
चाहिब अधिक् प्रान ते मोही । मम दुखारत रहँ न सुख सोंही ॥
शत्रुहन भरतादि सभी भ्राता कुशल हैं न ? और सुमित्रा माता सकुशल हैं न ? जो मुझे अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय मानती हैं जो मेरे दुःखी होने से जो स्वयं सुख का अनुभव नहीं करतीं |
कहौ अहैं कस पियतम मोरे । पूछत एहि जब करिय निहोरे ॥
लोचन अरु जल बोह न बोही । बालिहि लषमन पुनि सिय सोंही ॥
कहो तो मेरे प्रियतम कैसे हैं माता जानकी ने लक्ष्मण से जब यह प्रश्न निवेदन किया तब उनके नेत्र जल कभार को वहन न कर सके तब वह उनसे बोले : --
देइ सकुसल अहहि महराई । पूछत रहँ तुम्हरि कुसलाई ॥
सुमित सहित मातु कैकेई । आहि सकुसल सबहि हे देई ॥
' हे देवी ! महाराज कुशलपूर्वक हैं और आपकी कुशलता पूछ रहे हैं | सुमित्रा सहित माता कैकेई भी सकुशल हैं हे महारानी !
रहिब रागि अरु जो रनिबासा । करिअ निरंतर तोर सुखासा ॥
गुरुजन सहित सकल गुरुनारी । तुम होउ सुखारी ॥
राजभवन की अन्य सभी देवियाँ निरंतर आपके सुख व मंगल की कामना करती रहती हैं | आप जहाँ भी हैं वहां सुख पूर्वक रहें गुरुजन सहित सभी गुरुपत्नियों ने --
दए असीस जनि पेम अपूरे। तोर जिआ आपन जिअ भूरे ॥
तुहरे पदुम चरन सिरु नाई । कुसल प्रसन कृत दोनहु भाई ॥
आपको यह प्रेमपूरित आशीर्वाद दिया वह आपकी प्रसन्नता के लिए अपनी प्रसन्नता भूल गईं | दोनों भ्राताओं ने कुशल-प्रश्न के साथ आपके पदम् चरणों में प्रणाम निवेदन किया है|
रघुनन्दन कहत ए बचन नयन नीर भर लाए ।
पालि मम कहिअ गवन बन जानकिहि जाहु लिवाए ॥
महाराज श्री रघुनंदन यह कहते हुवे नयनों में जल भर लाए कि जो मेरे कथनों का शब्दश:अनुशरण कर वन गामी हो गईं तुम उस जानकी को लिवा लाओ |
शुक्रवार, १६ सितम्बर, २०१६
रघुकुल मनि अब रहएँ बुलावा । तोहि ल्यावन मोहि पठावा ॥
ह्रदयँ रहस प्रगसभव बानी । पोषत प्रीत पलकन्हि पानी ॥
रघुकुल मणि अब बुला रहें हैं आपको लेने के लिए उन्होने मुझे भेजा है | ह्रदय का रहस्य वाणी द्वारा व्यक्त हो जाता है पलकों का पानी प्रीति का पोषण करती है |
भरे कण्ठ यह कहिब भनीता । सुनहु सतीहि सिरोमनि सीता ॥
दीनदयाकर कृपानिधाना । जन जन कहत मोहि भगवाना ॥
उन्होंने भरे कंठ से यह वक्तव्य कहा है : -- ' हे सतीयों की शिरोमणि !हे सीते दीं दुखियों पर दया करने वाले, कृपा के निधान कहकर जन-जन मुझे ईश्वर स्वरूप कहते हैं |
मोर मते जौ जग करतारी । सौइ अदरस करम अनुहारी ॥
होइ रहेब जगत महुँ जोई । ताकर अदरस कारन होई ॥
किन्तु मैं कहता हूँ, जो परमेश्वर है वहभी अभी कर्मों में अदृष्ट काही अनुशरण करता है | जगत में जो कुछ होता है उसका स्वतन्त्र कारण अदृष्ट ही है |
तोर बरन खंडित भए चापा । कैकेई मति भरम ब्यापा ॥
पितहि मरन में बन गवनन में । दनुज कर तहँ तुहरे हरन में ॥
धनुष खंडित कर मेरे द्वारा तुम्हारा वरण करने में, कैकेई माता की बुद्धि भ्रमित होने में,पिता के स्वरारोहण में, हमारे वनगमन में, दानवों के द्वारा वहां तुम्हारे हरण में,
बँधेउब पयधि पार तरन में । सहाय कृत केर सहायन में ॥
समर समर औसर जब आईं ॥ कपि भल्लुक सबु होए सहाई ॥
सेतु बंधन में, समुद्र के पार उतरने में, मित्रों द्वारा सहायता प्रदान करने में, युद्ध-युद्ध में जब भी अवसर आया तब तब भालुओं और कपियों की सहयोग किया |
बधत दनु तुम्हरे मिलन में । अरु बहुरि मम पन अपूरन में ॥
निज बांधव सहुँ होइ सँजोगा । राज जोग करि प्रिया बियोगा ॥
रावण का वध और तुम्हारी प्राप्ति में, तदनन्तर मेरे प्रण की पूर्ति में, पुन : अपने बंधुओं से संयोग होने में, राजयोग के कारण तुम्हारे वियोग में,
निगदित कारज कर एकहि कारन अदरस होइ ।
पुनि सो होत मुदित जुगित करिअब हमहि सँजोइ ॥
उक्त कार्यों का एक मात्र ही अदृश्य कारण है अब वही अदृश्य पुन: हमारा संयोग करने हेतु प्रमुदित हो रहा है |
सोमवार , १९ सितम्बर, २०१६
जिन्ह सुधिजन के बिसद बिचारा । अदर्स करिहि सोइ अनुहारा ॥
भुगत भोग सो तासु नसावा । तुहरी भुगुति बन अपूरावा ॥
जिन्ह विद्वानों के उत्तम विचार होते हैं वह भी अदृष्ट का ही अनुशरण करते हैं | उस अदृश्य का भुक्तने से ही क्षय होता है, वन में रह कर तुमने अपना भुक्तान पूर्ण कर लिया ||
तुहरे प्रति मम सद अस्नेहा । बढ़तै गयउ नित निसंदेहा ॥
सोए नेह निंदक परहेला । अजहुँ तोहि सादर दए हेले ॥
सीते ! तुम्हारे प्रति मेरा अकृत्रिम स्नेह है निसंदेह वह निरंतर बढ़ता ही गया है | आज वही स्नेह निंदकों की उपेक्षा करके तुम्हें आदर सहित बुला रहा है |
सनेह सरित दोषु कर संका । लहत मलिनपन गहत कलंका ॥
दोषु धुरावत मिटिहि बिषादा । दए तबहि नेह रस असवादा ॥
स्नेह की सरिता दोष की आशंका मात्र से मलिनता को प्राप्त होकर कलंक से लिप्त हो जाती है | दोषों के परिष्करण से जब विषादों का निवारण हो जाता है स्नेह रस तभी माधुर्यता प्रदानकर्ता है |
दोषु धरिअब करिअ संदेहू । होत बिमल ते अबिमल नेहू ॥
देय बिपिन में तोहि त्यागा । भयउ बिसद अस मम अनुरागा ॥
कल्याणी ! दोषारोपण द्वारा संदेह करने पर निर्मल स्नेह भी मलिन हो जाता है | मैने तुम्हारा त्याग किया और वनवास देकर तुम्हारे प्रति मैने अपने अनुराग को शुद्ध ही किया है |
तजि अहो तुम्ह मोर तईं, करिहु न हृदय बिचार ।
निंदक राखन किया मैं सुबुध चरन अनुहार ॥
तुम मेरे द्वारा त्याग दी गई हो, ह्रदय में ऐसा विचार न करना | शिष्ट पुरुषों के मार्ग का अनुशरण करते हुवे मैने तो निंदकों की भी रक्षा ही की है |
रविवार, २९ जनवरी, २०१७
दोषु धरिअब करएँ निंदाई । तासु सब बिधि हमरि सुचिताई ॥
साधु चरित कर कहहिँ बुराइँहि । सो हतमति आपहि बिनसाइँहि ॥
देवि ! हम दोनों की जो निंदा की गई है इससे प्रत्येक अवस्था में हमारी शुद्धि होगी | जो मूर्ख शिष्ट पुरुषों के चरित्र को लेकर निंदा करते हैं वह स्वयंको ही नष्ट हो जाते हैं |
पूरन ससि निभ निसि उजयारी । उजबरित तस कीरति हमारी ॥
कृत करतब किरनन जस कासिहिं । दुहु कुल दिनकर सरिस प्रकासिहिं ॥
जिस प्रकार पूर्ण उज्ज्वलित चन्द्रमा रात्रि को प्रकाशयुक्त कर देता है उसी प्रकार हमारी कीर्ति भी उज्जवल चन्द्रमा है हमारे कृत कर्म उसकी किरणों के सदृश्य हैं हम दोनों के कुल सूर्य के समान प्रदीप्तवान हैं |
हमरे बिरद करहि गुन गाना । होहि बिसद मनि मुकुत समाना ॥
सुनहु सिया भव सिंधु अपारग । जाहि हमरी भगति सो पारग ॥
जो हमारी इस उज्जवल कीर्ति का गुणगान करेंगे वह नर नारी मणि व् मुक्ता के सदृश्य सदैव उज्जवल रहेंगे | हे सीते सुनो ! यह भव सिंधु से पार उतरना कठिन है किन्तु हमारी भक्ति से वह सहज ही पार हो जाएगा |
तोर गुन ते मुदित रघुनाथा । येहु सँदेसु दियो मम हाथा ॥
दरसन पदुम चरन निज नाथा । करिहु बिचार न चलिहउ साथा ॥
तदनन्तर लक्ष्मण ने कहा : - 'माते ! इस प्रकार आपके गुणों से प्रसन्न होकर रघुनाथ जी ने यह मेरे द्वारा यह सँदेश दिया है | एतएव अब आप अपने पतिदेव के चरण- दर्शन हेतु अन्यथा विचार न कर मेरे साथ चलिए |
धरत माथ पद पदुम परागा । करतब बहुरि भूरि निज भागा ॥
मातु सदय अब हरिदै कीजौ । मोहि लेइ गत आयसु दीजौ ॥
उनके पदुम चरणों की धूलि रूपी परागों को शिरोधार्य कर स्वयं को कृतार्थ करने के लिए हे माते ! अपने हृदय को उनके प्रति सदय बनाइये मुझे आपको लिए जाने की आज्ञा दीजिए
जगज जननी लए आपनि संगत दोउ कुमार ।
चलिहु बेगि प्रान पति पहि करौ न सोचु बिचार ॥
हे जगज्जननी ! अब अन्यथा विचार न करते हुवे दोनों कुमारों को अपने साथ लीजिए और शीघ्रता पूर्वक प्राण पति के पास चलिए |
मंगलवार, ३१ जनवरी,२०१७
भई सिथिर सुनु हे महरानी ।पथ निहारति रामु रजधानी ॥
चढ़ि गज बैठ अधरिया ऊपर । आगिल चलिअहि दुहु जुगल कुँअर ॥
हे महारानी सुनिये ! आपकी प्रतीक्षा करते भगवान श्रीरामकी राजधानी अयोध्या भी थकित हो गई है | दोनों युगल कुमार हस्ती की पृष्ठिका पर आसीन होकर आगे आगे चलेंगे |
चढ़िअ सिबिका कटकु सँग लागे । छाँह करिहि घन बन मग माँगे॥
रहिहु मध्य तुम बाहन आछे । चलिहौं मैं तव पाछहि पाछे ॥
आप सेना के साथ संलग्न सघन विपिन के दुर्गम मार्ग में इच्छानुसार छाया प्रदान करने वाली इस सुन्दर शिविका पर विराजित होकर उत्तम वाहनों के मध्य में रहिएगा और मैं आपके पीछे पीछे चलूँगा |
एहि बिधि अवधहि नगरि पधारउ । धरि पद रजस रजस उद्घारउ ॥
निज पिय ते मिलिहउ तहँ जाईं । मख अस्थरि दिसि दिसि ते आईं ॥
इस प्रकार अयोध्या की पावन पुरी में पधारे और अपने चरणों से वहां की धूलिका के कण कण का उद्धरण करें | वहां चलकर जब आप अपने प्रियतम श्रीराम से मिलाप करेंगी तब यज्ञ स्थली में दूर -दूर से आईं हुई :-
राज रागि संगत ऋषि नारी । हरषिहि बिरहन तापु बिसारी ॥
प्रनमत कौसल्या महतारी । छाइ तासु उर आनंद भारी ॥
राज-महिलाओं सहित सभी ऋषि-पत्नियां वियोग के संताप को विस्मृत कर हर्षित हो जाएंगी, जब आप माता कौसल्या को प्रणाम करेंगी तब उनका हृदय भी आनंद से पूरित हो जाएगा |
बाजनि बृंद बहु बिधि कर बाजिहि बिबिध बिधान ।
मधुर धुनि सौं सरस राग गाइहि मंगल गान ॥
राज-महिलाओं सहित सभी ऋषि-पत्नियां वियोग के संताप को विस्मृत कर हर्षित हो जाएंगी, जब आप माता कौसल्या को प्रणाम करेंगी तब उनका हृदय भी आनंद से पूरित हो जाएगा |
बुधवार, १ फरवरी, २०१७
हरि निवास श्री वासिहि जैसे । धूमधाम अरु होहि न कैसे ॥
तव सुभागम हेतु कल्याना । जाइ मनाइहि परब महाना ॥
हरि निवास में तो जैसे श्री का वास हो रहा है फिर वहाँ राग-रंजन क्यों न हो आपका शुभागमन कल्याण के हेतु है अतएव अयोध्या में समारोह पूर्वक आनदोत्सव मनाया जाएगा |
कहत सेष सुनि येह सँदेसा । कहइँ सिया एहि बचन बिषेसा ॥
अहहि जग पहि पदारथ चारा । अह रे मैं रिति सबहि प्रकारा ॥
शेष जीकहते हैं : - हे मुनिवर ! यह सन्देश सुनकर माता सीता ने यह वहां विशेष कहे कि यह संसार चार पदार्थों से युक्त है धर्म,अर्थ काम व् मोक्ष आह ! मैं सभी प्रकार से शुन्य हूँ |
दरिद दासि यह कहँ महराजा । समरिहिं मम तैं कहु को काजा ॥
पानि गहे जब मोहि बिहावा । जोइ मनोहरता तन छावा ॥
कहाँ यह दरिद्र दासी और कहाँ महाराज कहो तो भला मेरे द्वारा उनका कौन सा कार्य सिद्ध होगा ? पाणि ग्रहण कर जब उन्होंने मुझसे विवाह किया था तब उनके श्रीविग्रह जो मनोहरता ग्रहण किए हुवे था |
बसिहि रूपु सो हरिदै मोरे । ता सहुँ सब दिन रहि कर जोरे ॥
यह छबि उर कबहु न बिलगाई । तासु तेज सों दुइ सुत जाई ॥
उनका वह स्वरूप मेरे हृदय भवन में बसा हुवा हैं जिसके सम्मुख में नित्य हाथ जोड़े रही यह छवि मेरे हृदय से कभी वियुक्त नहीं हुई उनके तेज से मैने इन युगल पुत्रों को जन्म दिया |
अहहि कुँअर एहि बंस अँकोरे । हीर रुचिर बरु बीर न थोरे ॥
लहि बिसेख जुगता दुहु भाई । धनु बिद्या मह गह निपुनाई ॥
ये राजकुमार उनके वंश बीज के ही अंकुर हैं ये सुन्दर दो हीरे अत्यंत वीर हैं || निपुणता ग्रहणकर धनुर्विद्या में इन्होने विशेष योग्यता प्राप्त की है |
सघन बन बहु जतन तेउ पालि पौषि हौं ताहि ।
जाहु संग लए दुहु कुँअर पितु पहि काहे नाहि ॥
इस सघन विपिन में मैने इनका पालन-पोषण बड़े यत्न से किया है इनके पिता के पास तुम इन्हें ही क्यों नहीं ले जाते ?
बुधवार, १५ फरवरी, २०१७
तप तैं निज इच्छा अनुहर के । अधर नाउ धर एकु रघुबर के ॥
मैं बिरहन अब एहि बन रहिहौं । कीरत कृत नित हरि गुन कहिहौं ॥
मैं विरहन तपस्या के द्वारा निज इच्छा के अनुसार अधरों पर रघुनाथ जी के नाम को धारण कर अब इसी वन में रहूंगी और उन हरि की कीर्ति का कीर्तन करते उनका गुणगान करूंगी |
जाइ तहाँ तुम पूजित जन के । अरु अवध कर आनंद घन के ॥
परस चरन कह मोर प्रनामा । कहिहु कुसल सब लए मम नामा ॥
महाभाग ! तुम वहां जाकर पूज्यनीय जनों सहित अयोध्या के आनंदघन श्री रामचन्द्र के चरणों को स्पर्श कर मेरा प्रणाम कहना और मेरा नाम लेकर मेरी कुशलता कहना |
होत बिनैबत बोलि सपेमा । पूछिहउ पुनि सबहि के छेमा ॥
बहोरि भरि अनुराग बिसेसा । दुहु बालकन्हि देइ अदेसा ॥
विनम्र होकर स्नेहिल वाणी से उन सभी की कुशल क्षेम पूछना | तदनन्तर माता ने विशेष अनुराग से भरकर दोनों बालकों को आदेश दिया |
रे बच्छर तुअ पितु पहि जाहू । दए आदर अतिसय सब काहू ॥
मातु बंधु गुरु कह पितु देबा । गहिब चरन करिहौ बहु सेबा ॥
अहो वत्स ! अब तुम अपने पिता के पास जाओ वहां सभी को अत्यंत आदर करते हुवे पिता को ही माता, बंधू, गुरु और देवता कहते उनके चरणों को पकडे उनकी सेवा शुश्रूता में संलग्न रहना |
मातु चरन होएब बिलग दोउ कुँअर चहँ नाहि ।
एहि इच्छा बिनु कहब किछु राख रहे मन माहि ॥
कुमार कुश और लव नहीं चाहते थे कि हम माता के चरणों से विलग हों | इस इच्छा को व्यक्त न कर उसे मन में ही रखा |
जनि अग्या सिरुधार के गहे एकहि एक हाथ ।
सिथिर चरन उपरि मन पुनि चलेउ लखमन साथ ॥
तदोपरांत जननी की आज्ञा शिरोधार्य कर एक दूसरे का हाथ पकड़े इच्छा न होते हुवे भी वे शिथिल चरणों से लक्ष्मण के साथ चल पड़े |
बृहस्पतिवार १६ फरवरी, २०१७
पहुंच तहाँ दुहु सियसुत नीके । गयउ नकट बाल्मीकि जी के ॥
गहिब गुरुपद रहिब जुगगाथा । गयउ लखमनहु तहँ तिन साथा ॥
वहां पहुंच कर सीता के दोनों सुन्दर बालक वाल्मीकि जी के निकट गए | करबद्ध होकर अपने गुरु की चरण वंदना की, लक्ष्मण भी उनके साथ गए |
सुमिरत अकथ अनामय नामा । प्रथमहि महर्षि करिअ प्रनामा ॥
बहोरि महर्षि लषन प्रसंगा । चलेउ दोउ कुँअर करि संगा ॥
हरि के अनिर्वचनीय नाम का स्मरण करते हुवे सर्वप्रथम महर्षि को प्रणाम किया | तब महर्षि और दोनों कुमारों एक साथ मिलकर लक्ष्मण के संग चल पड़े |
जान सभा भित कृपा निधाना । मानेउ मन न केहि बिधाना ॥
जागिहि दरसन कर अभिलासा । गयउ अतुरइ सबहि प्रभु पासा ॥
जब कृपा निधान भगवान को सभा में स्थित जाना, तब मन किसी भांति नहीं माना वह सभी अधीरतापूर्वक भरी सभा में प्रवेश करते हुवे प्रभु के निकट गए
बोलिहि बन जो बिरहनि माता । करि प्रनाम कहि सो सब बाता ॥
धूपित पंथ मिलहि जब छाहीं | सोक सँग तब हर्ष निपजाहीं ||
जब जब लखमन सिय सुधि करहीं । तब तब बारि बिलोचन भरहीं ॥
हरिदै थल जल भए दुइ भावा । भयउ मगन अरु तीर न पावा ॥
उन्हें प्रणाम करके वन में विरहिणी माता ने जो कुछ कहा था वह सब निवेदन कर दिया | सूर्य से आतप्त पंथ में जब प्रभु की छात्र-छाया प्राप्त हुई, तब शोक के संग हर्ष उत्पन्न हो गया लक्ष्मण जब जब सीता का चिंतन करते तब तब उनके नेत्रों में जल भर आता इस प्रकार जल व थल रूपी इन दोनों भावों में निमग्न ह्रदय को तट की प्राप्ति नहीं हुई |
कहत प्रभु रे सुनहु सखे बहुरि तहाँ तुम जाइ ।
महा जतन करि कै सियहि, आनिहु लए अतुराइ ॥
यह वृत्तांत श्रवण कर श्रीरामचंद्र जी ने कहा : - 'सखे ! तुम पुनश्च वहां जाओ और महान प्रयत्न करते हुवे सीते को यथाशीघ्र यहाँ ले आओ |''
शुक्रवार, १७ फरवरी, २०१७
लगि पद सबिनय दुहु कर जोरे । कहहु सिय ते ए बत कहि मोरे ॥
साँझ लखिहु न लखिहु तुम भोरा । करहु सघन बन तप घन घोरा ॥
चरणों में नतमस्तक होते हुवे हाथ जोड़कर सीता से विनयपूर्वक मेरी ये बातें कहना : - 'तुमने न भोर देखा न संध्या देखी और इस बेहड़ वन में घनघोर तप करने में लीन रहकर
देखिअ सुनिअ न जग बिन होइ । मम तै अबरु तकिहु गति कोई ॥
तुहरे हिय कछु प्रिय नहि जाना । सदा कहिहु पिय प्रान समाना ॥
मुझसे भिन्न उस गति का लक्ष्य कर रही हो जो कहीं देखि न सुनी गई हो जो संसार में हुई न हो ? तुम्हारे ह्रदय ने तो मुझे ही प्रिय समझा है तुमने सदैव मुझे प्राण पति कहा है |
जिअ बिनु देह नदी बिनु बारी । तैसिअ नाथ पुरुख बिनु नारी ॥
तनु धनु धाम धरनि पुर राजू । पत बिहीन सबु सोक समाजू ॥
जैसे बिना जीव के देह और बिना नीर के नदी है, वैसे ही हे नाथ ! बिना पुरुष के नारी है | देह, धन, धाम, पृथ्वी,नगर और पति के बिना स्त्री के लिए यह सब शोक के समाज हैं |
नाथ सबहि सुख साथ तिहारे । सरद बिमल बिधु बदनु निहारे ॥
पिय बिनु सुखद कतहु किछु नाही । रहसि चहत अजहूँ बन माही ॥
हे नाथ !आपके साथ रहकर आपका निर्मल चन्द्रमा के समान मुख देखकर मुझे संसार के सभी सुख प्राप्त होंगे | पति के बिना कहीं सुख नहीं होता यह तुमने ही कहा था तुम ही अब वन में रहना चाहती हो |
आपनि कहि बिसराए के पिया संग परिहारि ।
घन हठ हृदयँ बिचार करि सुनिहु न मोरि गुहारि ॥
अपने कथन की अवहेलना करके पति का साथ त्याग रही हो | हठ योग का आश्रय लेकर ह्रदय में मेरे त्याग का विचार करते तुम मेरी पुकार नहीं सुन रही हो |
शनिवार, १८ फरवरी, २०१७
जेहि बन अस्थरि रिषि मुनि मन भाइँ । निज इच्छा ते तहाँ तुम आइँ ॥
दरसत मुनि पूजिहु रिषि नारी । पूर भई अभिलाष तिहारी ॥
जो वनस्थली मुनियों के मन को प्रिय है वहां तुम स्वेच्छा से गई हो | जहाँ तुमने ऋषियों का दर्शन कर ऋषि पत्नियों का पूजन किया | तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण हुई |
अजहुँ नयन तव पंथ निहारिहि । निसदिन हिय सिय सियहि पुकारिहि ॥
आजु प्रीत यहु पूछ बुझाईं । तोहि काहे न देइ सुनाई ॥
अब मेरे नेत्र तुम्हारे आगमन की प्रतीक्षा कर रहे हैं मेरा हृदय नित्य सीता सीता की ही पुकार करता है आज मेरी प्रीति तुमसे प्रश्न कर रही है, मेरे ह्रदय की यह पुकार तुम्हें क्यों नहीं सुनाई देती |
पतिब्रतासति कतहुँ कि न होईं । गहि एकु पति गति अबरु न कोई ॥
होए सो जड़ चहे गुनहीना । धन बिहीन बिनु श्रम अतिदीना ॥
पतिव्रता सती कहीं भी क्यों न हो पति के अतिरिक्त उसकी अन्य कोई गति नहीं है जो मूर्ख अथवा गुणहीन हो चाहे धन व् उद्यम से विहीन होकर अत्यंत दीन हो |
ऐसेहु पति गुन सिंधु समाना । पावहि नतरु नारि दुःख नाना ॥
होइबी जो पति मन अनुकूला । सुनहु सिया सो सुखकर मूला ॥
ऐसा पति गुणहीन होने पर भी गुणों का सागर है अन्यथा पति से विहीन पत्नी नाना दुखों को प्राप्त होती है | यदि पति मनके अनुकूल हुवा, वह सुख का मूल है तब उसकी मान्यता के विषय में कहना ही क्या |
रहे हृदयँ गोसाइँया गहियबआदरु मान ।
सोइ जगदातम श्रीपति सह सिउ सती समान ॥
वह पत्नी के ह्रदय का अधिष्ठाता बनकर अतिसय आदर व् सम्मान को प्राप्त करता है | वही जगदात्म लक्ष्मी के नारायण व शिवा के शिव समान होता हैं |
सोमवार, २० फरवरी, २०१७
करहि कुलीन तिय कारज जेतु । होत सो सब पति तोषन हेतु ॥
पुर्बल परम पेम ते पोषा । रहा तुम्ह पर मैं परितोषा ॥
उत्तम कुल की स्त्रियां जितने भी मांगलिक कार्य कराती हैं वह सब पति के परितोषण हेतु ही होते हैं | परम प्रेम से पोषित होने के कारण मैं पहले से ही तुमसे संतुष्ट रहा हूँ |
पाइब बिरह प्रीति अरु गाढ़हि । एहि समय परितोषु अरु बाढ़हि ॥
जप तप तीरथ ब्रत कि त्यागा । दान दया यहु धर्म बिभागा ॥
विरह को प्राप्त होकर यह प्रीति और गहरी हो गई इस समय मेरा यह संतोष भी बढ़ गया है | जप, तप, तीर्थ, व्रत, त्याग दान व् दया यह धर्म के विभाग हैं |
करहिं जबहिं प्रसन्नचित मोही । सोई साधन सुफल तब होंही ॥
पद बंदन मम तोषन तेऊ । होइब पारितोषित सब देऊ ॥
मेरे अर्थात ईश्वर के प्रसन्न होने पर ही ये साधन सफल होते हैं | मेरे संतुष्ट होने पर सम्पूर्ण देवता भी संतुष्ट हो जाते हैं |
मम कहि नाहिन तनिक सँदेहू । अबरु बचन इब मृषा न ऐहू ॥
देखिअ द्रबित रूपु नरहरी के । कहेउ लषन धीरजु धरी के ॥
मेरे कथन पर किंचित मात्र भी संदेह नहीं है अन्य वचनों के सामान यह भी मृषा नहीं सत्य है | नरहरि का द्रवित रूप देखकर लक्ष्मण ने धैर्य धारण करते हुवे कहा : --
सिया अनाई हेतु कहिहु जोइ जोइ रघुराइ ।
कहिहउँ सबिनय बना अति भल सोइ सोइ तहँ जाइ ॥
माता सीता को लिवा लाने के उद्देश्य से आपने जो जो बातें कहीं वह सब बातें मैं वहां जाकर और भली प्रकार से उन्हें विनयपूर्वक निवेदन करूँगा |
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (26-08-2016) को "जन्मे कन्हाई" (चर्चा अंक-2446) पर भी होगी।
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श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'