>> गांय तो नहीं किन्तु उसके गोमय से फलीभूत हुवे पीपल के वृक्ष अहिर्निश प्राणवायु उत्सर्जित करते है | भारतीयों को एक गांय एक बैल एक कुंआ थोड़ा सा चारा दे दीजिए वे सहारा मरुस्थल को भी हरीभरी वनस्थली में न परिवर्तित कर दें तो उन्हें भारतीय मत कहिएगा
>> अच्छा होगा कि सत्ताधारी वर्तमान दलगत चुनाव पद्धति को समय रहते संशोधित कर ले अन्यथा भारत का जन सामान्य संविधान में आमूलचूल परिवर्तन के साथ व्यवस्था परिवर्तन के मार्ग का चयन करने निकल पड़ेगा.....
>> क्या किसी धर्मावलम्बियों के आराध्य देव के लिए निकृष्ट शब्दों का प्रयोग करना उचित है ? क्या इससे किसी की धार्मिक भवानाओं को ठेस नहीं पहुंचती ? क्या यह भारतीय दंड सहिता की धरा २९५ (क ) के अंतर्गत दंडनीय अपराध नहीं है......?
>> यह धनवानों को अधिक धनवान बनाकर धनाढ्यता व् दरिद्रता की खंदक को और अधिक गहरी करने का षड़यंत्र था ,अब काला रुपया एक सहस्त्र से दो सहस्त्र का स्वरूप लेकर अधिक सहजता से लोगों की मुट्ठी में बंद हो रहा है.....
>> पृथ्वी परजीवन निरंतर क्षीण होता जा रहा है यदि जनमानस का तंत्र है तो फिर उत्तम यही होता कि सत्ताधारी जनमानस के नाम पर कोई वनस्थली विकसित करती जिससे उन्हें प्रदूषण से छुटकारा मिलता
किन्तु दील्लीवालों को तो हाथी-घोड़ों की मूर्तियां चाहिए.....
>> हेतु एक वृहद् वंशावली की आवश्यकता होगी... वो कहाँ से लाएंगे.....?
>> रेशमी तन पे खादी मिलती बिड़ला जी के थाने में
>> यदि विपक्षी दल महापुरुषों के उत्तम विचारों वाली नदी की एक धारा ही है तो फिर प्रधानमन्त्री सहित सत्ताधारी दल वहीँ न जाके टर्र-टर्र कर लेते...राम मंदिर और गौरक्षा के नाम ये नया परनाला बहाने की क्या आवश्यकता थी.....
>> विद्यमान के शासन तंत्र ने जनमानस को यही मंत्र दिया है
'नारे -लगाओ -पेड़ बचाओ' 'झंडे उठाए सडको पे आओ पर्यावरण बचाओ'
ऐसे बचेगा पर्यावरण ?
>> जन साधारन देख येह रह जाएँगे दंग |
सबदल यूँ मेलाएँगे मेलें जूँ सब रंग ||
>> गराँ बार इस बसरे-औकात के सितम ने..,
अच्छे खासे आदमी को लाचार कर दिया.....
>> बेगाने मुल्क में अब्दुल्ला दीवाना.....
>> each person runs after food.....
>> साहित्य लोकसेवा के लिए तो पत्रकारिता केवल धनार्जन के लिए ही की जाती है | 'मीडिया ' वस्तुत: पत्रकारिता का विकृत स्वरूप है |सत्ताधारियों की महिमा मंडित करने के कारण विगत वर्षों से इसमें धनागम अधिक हो गया है इस कारण अब इस विधा में झोलाछाप पत्रकार की बाढ़ सी आ गई | देश-प्रदेश में महाभारत चल रही होती है और इनके पत्र चंद्रकांता के अय्यारों का चरित्र चित्रण से काले हुवे मिलते हैं.....वो फ़ारसी में एक कहावत है न. ... 'कोयले की लूट मची अशर्फीयों पर छाप' अर्थात जब काले हीरों की लूट मची हो तब ये कागदी नोटों की चिल्ल्पों को छाप रहे होते हैं.....
वर्तमान में कुछ हिंदी के यांत्रिक समाचार चरणों ने हिंदी की चिन्दी चिन्दी करके रख दी है ''दिस इस हिंदी न्यूज एन्ड यू आर वाचिंग इलेक्सन पोल '' ये तो इनकी हिंदी है \
>> भारत में यदि जातिगत समाज का आर्थिक विश्लेषण किया जाए तो अभी भी वैश्य सर्वाधिक सम्पन्न समाज है तत्पश्चात अन्य है | पिछले दिनों अनुसूचित जाति व् जनजाति के आंदोलन में धन बल प्रबल होता दिखाई दिया | यदि ब्राह्मण वर्ग कोई आंदोलन करे तो उसे ऐसे प्रदर्शन के लिए वैश्य का सहयोग लेना पडेगा | ये व्यास पीठ वाले भी पैसे वाले अवश्य हैं किन्तु इनके ब्राह्मण होने पर संदेह है.....
>>ब्राह्मणो की दशा भी अब दयनीय हो चली है, अर्थ आधारित इस व्यवस्था में लोग या तो धनी हैं या निर्धन, या अति धनी हैं या अति निर्धन | अति निर्धन वर्ग अब धनी तथा
अति धनी वर्ग हेतु अस्पृश्य हो चला है, लोकतंत्र की लोक व् राज्य सभा में इनका प्रवेश निषेध है, यहाँ ऐसा कोई सदस्य या प्रतिनिधि नहीं है जो निर्धन रेखा के नीचे आता हो.....
>> बिलकुल ! हमें ये नहीं भूलना चाहिए ये उन्ही का डी.एन.ए. है जिन्होंने इस देश को सहस्त्र से भी अधिक वर्षों तक अपना दास बनाए रखा था.....
>> निर्धन रेखा के नीचे जीवन यापन करते सामान्य वर्ग के एक बिजली मिस्त्री की साधन-हीन बेटी, राष्ट्रीय पात्रता चिकित्सकीय प्रवेश परीक्षा (नीट) में ३०० अंक प्राप्त करके भी चिकित्सक नहीं बन सकती जबकि अनुकूलित वातावरण में काजू बादाम खाती हुई निम्न जाति किन्तु उच्च आय वर्ग की बेटी १९० अंक प्राप्त करके भी चिकित्सक बन जाती है.....ये कैसी विडम्बना है..... ?
>> 'साहित्य वास्तव में उत्तम व् कल्याणकारी विचारों का लिपिबद्ध संग्रह है |' निरक्षर, अशिक्षित व् असाहित्यिक में मूलभूत अंतर है, अध्ययन ही नहीं अपितु साहित्य के श्रवण मात्र से भी कोई व्यक्ति साहित्यिक हो सकता है | २१वीं शदी का पूर्वार्द्ध काल निरक्षर होकर भी साहित्यिक था कारण कि वह साहित्य का श्रवण करता था |
>> विशिष्ट कार्य करने वाले अथवा विशिष्ट स्वभाव वाले मानव वर्ग के समूहों को ही कदाचित समाज व् किसी विशेष धार्मिक मत के अनुयायियों को संप्रदाय या समुदाय कहा जाता है | वास्तव में हमने समाजों अथवा सम्प्रदायों के विघटन को ही सामाजिक अथवा सांप्रदायिक चेतना समझ लिया है | वर्तमान में भारत ही नहीं अपितु अन्य राष्ट्रों के कर्णधार भी लगभग सा'हित्य-शुन्य' (illiterate)हैं इसलिए वह सदैव संप्रदाय व समाज की खिचड़ी पकाते हुवे लक्षित होते हैं | सामाजिक व्यवस्था पर आधारित राष्ट्रों का अस्तित्व चिरस्थायी रहा है साम्प्रादायिक राष्ट्रों की आयु केवल एक सहस्त्र वर्ष की ही है, समाज व् सम्प्रदाय हीन राष्ट्र अभी-अभी अभ्युदित हुवे हैं, इनका अस्तित्व कबतक रहता है यह देखने वाली बात है.....
>> श्याहो-श्याह शबो-सुबहो शफ़क़ शफ़्फ़ाक़ करे कोई.., ऐ जरींगर जमीने-हिन्द तिरा दामन चाक करे कोई..,
के फ़स्ले गुल बहारा से सर- ओ- पा तू सब्ज़े पोश..,
गरज़ अपनी में तुझको ग़र्क़-ओ-ज़र्दो ख़ाक करे कोई.....
>> 'उपवास' हिन्दू धार्मिक उपासना की एक पद्धति है, सत्ता के लिए जितना अधिक दुरूपयोग हिन्दू धर्म का हुवा है उतना कदाचित ही किसी धर्म का हुवा हो , और उसपर खेदजनक विषय यह है कि इसका दुरूपयोग करने में अन्य धर्म के अनुयायी भी पीछे नहीं हैं.....
>> भगवद भगति के साधन अनसन अरु उपवास |
सत्ता लौलुप केर कर अजहुँ भयो उपहास ||
भावार्थ : - अनशन और उपवास भगवान की भक्ति के साधन है | जबसे सत्ता के लालचियों द्वारा इन साधनों का दुरूपयोग किया जाने लगा है तब से ये उपहास का विषय हो गए हैं |
>> 'सामाँ सौ बरस का, पल की खबर नहीं.....'
यदि विपक्षी दल मूर्तियां गढ़ने योग्य महापुरुषों के उत्तम विचारों वाली नदी की एक धारा ही है तो फिर प्रधानमन्त्री सहित सत्ताधारी दल वहीँ न जाके टर्र-टर्र कर लेते...राम मंदिर और गौरक्षा के नाम ये नया परनाला बहाने की क्या आवश्यकता थी.....
>> अच्छा होगा कि सत्ताधारी वर्तमान दलगत चुनाव पद्धति को समय रहते संशोधित कर ले अन्यथा भारत का जन सामान्य संविधान में आमूलचूल परिवर्तन के साथ व्यवस्था परिवर्तन के मार्ग का चयन करने निकल पड़ेगा.....
>> क्या किसी धर्मावलम्बियों के आराध्य देव के लिए निकृष्ट शब्दों का प्रयोग करना उचित है ? क्या इससे किसी की धार्मिक भवानाओं को ठेस नहीं पहुंचती ? क्या यह भारतीय दंड सहिता की धरा २९५ (क ) के अंतर्गत दंडनीय अपराध नहीं है......?
>> यह धनवानों को अधिक धनवान बनाकर धनाढ्यता व् दरिद्रता की खंदक को और अधिक गहरी करने का षड़यंत्र था ,अब काला रुपया एक सहस्त्र से दो सहस्त्र का स्वरूप लेकर अधिक सहजता से लोगों की मुट्ठी में बंद हो रहा है.....
>> पृथ्वी परजीवन निरंतर क्षीण होता जा रहा है यदि जनमानस का तंत्र है तो फिर उत्तम यही होता कि सत्ताधारी जनमानस के नाम पर कोई वनस्थली विकसित करती जिससे उन्हें प्रदूषण से छुटकारा मिलता
किन्तु दील्लीवालों को तो हाथी-घोड़ों की मूर्तियां चाहिए.....
>> हेतु एक वृहद् वंशावली की आवश्यकता होगी... वो कहाँ से लाएंगे.....?
>> रेशमी तन पे खादी मिलती बिड़ला जी के थाने में
>> यदि विपक्षी दल महापुरुषों के उत्तम विचारों वाली नदी की एक धारा ही है तो फिर प्रधानमन्त्री सहित सत्ताधारी दल वहीँ न जाके टर्र-टर्र कर लेते...राम मंदिर और गौरक्षा के नाम ये नया परनाला बहाने की क्या आवश्यकता थी.....
>> विद्यमान के शासन तंत्र ने जनमानस को यही मंत्र दिया है
'नारे -लगाओ -पेड़ बचाओ' 'झंडे उठाए सडको पे आओ पर्यावरण बचाओ'
ऐसे बचेगा पर्यावरण ?
>> जन साधारन देख येह रह जाएँगे दंग |
सबदल यूँ मेलाएँगे मेलें जूँ सब रंग ||
>> गराँ बार इस बसरे-औकात के सितम ने..,
अच्छे खासे आदमी को लाचार कर दिया.....
>> बेगाने मुल्क में अब्दुल्ला दीवाना.....
>> each person runs after food.....
>> साहित्य लोकसेवा के लिए तो पत्रकारिता केवल धनार्जन के लिए ही की जाती है | 'मीडिया ' वस्तुत: पत्रकारिता का विकृत स्वरूप है |सत्ताधारियों की महिमा मंडित करने के कारण विगत वर्षों से इसमें धनागम अधिक हो गया है इस कारण अब इस विधा में झोलाछाप पत्रकार की बाढ़ सी आ गई | देश-प्रदेश में महाभारत चल रही होती है और इनके पत्र चंद्रकांता के अय्यारों का चरित्र चित्रण से काले हुवे मिलते हैं.....वो फ़ारसी में एक कहावत है न. ... 'कोयले की लूट मची अशर्फीयों पर छाप' अर्थात जब काले हीरों की लूट मची हो तब ये कागदी नोटों की चिल्ल्पों को छाप रहे होते हैं.....
वर्तमान में कुछ हिंदी के यांत्रिक समाचार चरणों ने हिंदी की चिन्दी चिन्दी करके रख दी है ''दिस इस हिंदी न्यूज एन्ड यू आर वाचिंग इलेक्सन पोल '' ये तो इनकी हिंदी है \
>> भारत में यदि जातिगत समाज का आर्थिक विश्लेषण किया जाए तो अभी भी वैश्य सर्वाधिक सम्पन्न समाज है तत्पश्चात अन्य है | पिछले दिनों अनुसूचित जाति व् जनजाति के आंदोलन में धन बल प्रबल होता दिखाई दिया | यदि ब्राह्मण वर्ग कोई आंदोलन करे तो उसे ऐसे प्रदर्शन के लिए वैश्य का सहयोग लेना पडेगा | ये व्यास पीठ वाले भी पैसे वाले अवश्य हैं किन्तु इनके ब्राह्मण होने पर संदेह है.....
>>ब्राह्मणो की दशा भी अब दयनीय हो चली है, अर्थ आधारित इस व्यवस्था में लोग या तो धनी हैं या निर्धन, या अति धनी हैं या अति निर्धन | अति निर्धन वर्ग अब धनी तथा
अति धनी वर्ग हेतु अस्पृश्य हो चला है, लोकतंत्र की लोक व् राज्य सभा में इनका प्रवेश निषेध है, यहाँ ऐसा कोई सदस्य या प्रतिनिधि नहीं है जो निर्धन रेखा के नीचे आता हो.....
>> निर्धन रेखा के नीचे जीवन यापन करते सामान्य वर्ग के एक बिजली मिस्त्री की साधन-हीन बेटी, राष्ट्रीय पात्रता चिकित्सकीय प्रवेश परीक्षा (नीट) में ३०० अंक प्राप्त करके भी चिकित्सक नहीं बन सकती जबकि अनुकूलित वातावरण में काजू बादाम खाती हुई निम्न जाति किन्तु उच्च आय वर्ग की बेटी १९० अंक प्राप्त करके भी चिकित्सक बन जाती है.....ये कैसी विडम्बना है..... ?
>> 'साहित्य वास्तव में उत्तम व् कल्याणकारी विचारों का लिपिबद्ध संग्रह है |' निरक्षर, अशिक्षित व् असाहित्यिक में मूलभूत अंतर है, अध्ययन ही नहीं अपितु साहित्य के श्रवण मात्र से भी कोई व्यक्ति साहित्यिक हो सकता है | २१वीं शदी का पूर्वार्द्ध काल निरक्षर होकर भी साहित्यिक था कारण कि वह साहित्य का श्रवण करता था |
>> विशिष्ट कार्य करने वाले अथवा विशिष्ट स्वभाव वाले मानव वर्ग के समूहों को ही कदाचित समाज व् किसी विशेष धार्मिक मत के अनुयायियों को संप्रदाय या समुदाय कहा जाता है | वास्तव में हमने समाजों अथवा सम्प्रदायों के विघटन को ही सामाजिक अथवा सांप्रदायिक चेतना समझ लिया है | वर्तमान में भारत ही नहीं अपितु अन्य राष्ट्रों के कर्णधार भी लगभग सा'हित्य-शुन्य' (illiterate)हैं इसलिए वह सदैव संप्रदाय व समाज की खिचड़ी पकाते हुवे लक्षित होते हैं | सामाजिक व्यवस्था पर आधारित राष्ट्रों का अस्तित्व चिरस्थायी रहा है साम्प्रादायिक राष्ट्रों की आयु केवल एक सहस्त्र वर्ष की ही है, समाज व् सम्प्रदाय हीन राष्ट्र अभी-अभी अभ्युदित हुवे हैं, इनका अस्तित्व कबतक रहता है यह देखने वाली बात है.....
>> श्याहो-श्याह शबो-सुबहो शफ़क़ शफ़्फ़ाक़ करे कोई.., ऐ जरींगर जमीने-हिन्द तिरा दामन चाक करे कोई..,
के फ़स्ले गुल बहारा से सर- ओ- पा तू सब्ज़े पोश..,
गरज़ अपनी में तुझको ग़र्क़-ओ-ज़र्दो ख़ाक करे कोई.....
>> 'उपवास' हिन्दू धार्मिक उपासना की एक पद्धति है, सत्ता के लिए जितना अधिक दुरूपयोग हिन्दू धर्म का हुवा है उतना कदाचित ही किसी धर्म का हुवा हो , और उसपर खेदजनक विषय यह है कि इसका दुरूपयोग करने में अन्य धर्म के अनुयायी भी पीछे नहीं हैं.....
>> भगवद भगति के साधन अनसन अरु उपवास |
सत्ता लौलुप केर कर अजहुँ भयो उपहास ||
भावार्थ : - अनशन और उपवास भगवान की भक्ति के साधन है | जबसे सत्ता के लालचियों द्वारा इन साधनों का दुरूपयोग किया जाने लगा है तब से ये उपहास का विषय हो गए हैं |
>> 'सामाँ सौ बरस का, पल की खबर नहीं.....'
यदि विपक्षी दल मूर्तियां गढ़ने योग्य महापुरुषों के उत्तम विचारों वाली नदी की एक धारा ही है तो फिर प्रधानमन्त्री सहित सत्ताधारी दल वहीँ न जाके टर्र-टर्र कर लेते...राम मंदिर और गौरक्षा के नाम ये नया परनाला बहाने की क्या आवश्यकता थी.....
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (10-04-2017) को "छूना है मुझे चाँद को" (चर्चा अंक-2936) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'