Friday, 13 April 2018

----- ॥ दोहे-पद ॥ -----

-----|| जंगल की शवयात्रा || -----

स्वार्थांध होइ के मानस किए षड़यंत्र | 
मुए बनराजि दाह करन चले परिस्थिति तंत्र || 

भावार्थ : - वस्तुत: यह जंगल की शवयात्रा है | स्वार्थ-साधन की पूर्ति में अंधे हुवे मानव द्वारा किए गए षड़यंत्र के फलस्वरूप पृथ्वी के वन-विपिन चल बसे | उनका अंतिम संस्कार करने पारिस्थितिक- तंत्र चल पड़ा है, आप भी आइये !

राजा हुवे बहुतेरे और मंत्री भी अब लाख हुवे..,
मायावी देह किए ये भी चिता पर राख हुवे.....

राजा भयउ बहुतेरे मंत्री भए अब लाख |
मायावी देही धरे ताहि चिता करि राख || १क ||

राजा भयउ बहुतेरे मंत्री भयउ बहूँत |
सब पहिरन कर पाहुना सब खादन के भूत || १ख ||

भावार्थ : -  संसार में राजा बहुतेरे हुवे मंत्री भी अब बहुंत हो गए, सर्व सुरक्षित होने के पश्चात भी इनकी गति वही हुई जो अन्य जनों की हुई |  समस्याएं नए नए रूप धारण कर जनसामान्य के सम्मुख आती रही किन्तु ये उनका निवारण करने के अन्यथा केवल खाने और पहनने में लगे रहे  |



शोला शोला आसमाँ सुर्ख़े-रू -अफ़ताब |
शबे सिताबा शर्र लगे हयाते आब सराब || १ ||
भावार्थ : -  सूर्य के ज्वाला मुखी हो जाने से अम्बर मानो अंगारों से ही युक्त हो गया है  | रात्रि में चंद्र ज्योत्स्ना भी चिंगारी सी प्रतीत होने लगी हैं तृष्णा शांत न होने का कारण जीवन दायी जल भी एक छल लगता है |

आह! ये तपन ऋतु !!

सब्ज़ सब्ज़ हर ज़मीं हो बाग़ बाग़ हर बाग़ |
ए तारीके हिन्द तिरा बुझे न शबे चराग़ || २ ||

अचरजु भरी एक नैया तापर तरुवर छाँउ |
ए भैया बिनु खेवैया कहु पहुँचए कस ठाँव || ३ ||

कठिन कटुकी काठि के देहि तापर तरुवर छाँव |
ए री नैया बिनु खेवैया कहु जैहउ कस गाँव || ४ ||
भावार्थ : - एक तो तुम्हारी देह ही अत्यंत कठोर काष्ठ की है, उसपर पाप रूपी भारी वृक्ष की छाँव है, अरे नैया कहो तो फिर कर्णधार के बिना तुम गाँव कैसे जाओगी ?


धन धाम सुख सम्पद पर भए एक कर अधिकार |
जनता तोरे राज मैं राम करे रखवार || ||

भावार्थ : - देशीय नहीं अपितु वैश्विक सम्पति भी एकाधिकार से ग्रस्त होकर अब यत्किंचित लोगों के अधीन हो चली है | हे जनता ! तेरा शासन यदि ऐसा ही रहा तो फिर जनसामान्य की भगवान ही रक्षा करेंगे |



सीतल बहु नभ चन्द्रमा, तासे सीतल हेम।
क्रोध अगन बुझावै तौ, सबसे सीतल प्रेम ॥

भावार्थ  -- नभ में स्थित चन्द्रमा अत्यधिक शीतल है उससे भी शीतल हिम(बर्फ) है ।
यदि क्रोध की लगाई आग बुझाने में समर्थ हो तो प्रेम उनसे भी शीतल कहलाता है ॥



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अग्यानी का अभिमान, जूँ रावन के सीस ।
गिरे बिनिइत बानी के बान लगे जब तीस ॥ ५ ||

भावार्थ : - अज्ञानी का घमंड रावण के शीश के सदृश्य हैं । जब विनम्र वाणी के तीस बाण लगते हैं तो ये स्वत: ही नीचे गिर जाते हैं  ॥
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दूध मिलाई जोर के, जामन दिये जमाए ।
सुथरे सुत माखन मिले, बिगरे काम न आए ॥

भावार्थ : -- जिस प्रकार दूध की मलाई जोड़ कर फिर जोरण दे कर उसे जमाया जाता है उसी प्रकार पुत्र के गुणों को भी संचित कर उसे बढ़ावा दिया जाता है । सब कुछ ठीक रहा तो मलाई का माखन हो जाएगा और पुत्र के गुणों से सुख प्राप्त होगा, किन्तु बिगड़ने पर दोनों ही किसी काम के नहीं रहेंगे ॥
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सौ नाम धरे सरकार, सौ सौ हाथ जबान ।
तेरी फेरी फेर के, ले जावै मत दान ॥६ ||

सौ नाम होना = अनेक त्रुटियाँ होना
सौ हाथ जबाँ होना = चटोर होना, स्वाद लोलुप होना
भावार्थ : -- सरकार किसी की हो, उसमें अनेक त्रुटियाँ हैं,  स्वाद की लालची भी है अर्थात खाने खिलाने में उस्ताद है । चतुर इतनी है कि जिसको तूने फिरा दिया उसको भी फेर के तेरा वोट निकाल लेगी। अत: अपना वोट रूपी हीरा संभाल के रख ॥
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जोग जुग बहु चुग बिन कै, बिथुराए बिय बिचार ।
को बिकसे सो समउ पर, कोउ समउ सों पार ॥७ ||

भावार्थ : -- जोग परख कर  उत्तम स्वरूप में चयनित कर विचारों के बीज बिखराए हैं ।
इनमें से कुछ बीज तो समयानुसार ही अंकुरित हो जाएंगें, और कुछ को अंकुरित होने
में समय लगेगा ॥
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धन की देइ रूप सनेह, माया सरूप कराल ।
ता कर धर कन कन खेह, वा कर केर अकाल ॥

धन की देवी का रूप बहुंत ही स्नेही है और माया का स्वरूप बहुंत विकराल है । एक के हाथ से खेत अन्नकणों से भर जाते हैं, दुसरे के हाथों से अकाल पड़ जाता है॥
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पेट जूँ भँवरी सों हो, भँवर लेउँ मैं पीठ ।
ना रस लूँ मैं चिरपरा, ना रस लूँ मैं मीठ ॥

भावार्थ : -- पेट यदि भँवरा के सरिस हो जाए तो में इसे पीछे घुमा लूँ । फिर ना तो लावण्यता का मिठास चखूँ और ना ही मधुरता का लावण्य रखूँ ॥
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आपन कलुष सँवार कै, आपण मुख उघराएँ ।
आप कही ते मधुराए, पराए लोन लगाएँ ॥

भावार्थ : -- अपने पाप कर्म को संवार कर अपने ही मुख से कहने चाहिए ।
स्वयं के मुख  से कहे  हुवे पाप कर्म भी मधुरता उत्पन्न करेंगें दुसरे इसे
नमक मीर्च लगाते हुवे बड़ा चढ़ा कर कहेंगे ॥

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ज़रे-निगाराँ आशियाँ, तान दिये असमान ।
पल्क की तो ख़बर नहीं, सौ बरस का समान ॥

भावार्थ : -- सोने चांदी का मकान, ताना आसमान
एक पल की तो खबर नहीं की कब फूंक निकल जाए और सौ
साल का सामान संजो रखा है ॥
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पञ्च तत्व बन देहि धन, माया त्रिगुन मेलि  ।
हरिदै कुतुकि केलि रहा, चारि दिवस का केलि । १ ।

मानस जे जग जीउना, चारि दिवस के खेल ।
दौ दिन हिलमिल प्रीति करि, दौ दिन कारे हेल । २।

भावार्थ : -- माया की त्रिगुण (अर्थात सत, रज, तम ये तीन गुण ) के मेल एवं पञ्च तत्व के जोड़ से इस शरीर की रचना हुई है । जिसके अंतर में एक हृदय है जो कौतुहल कर चार दिवस के इस जीवन के कौतुक को प्रस्तुत कर रहा है । १ ।

मानव की सांसारिक जीवनी केवल चार दिवस की है, दो दिवस राग किया दो दिवस द्वेष । २ ।

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पाथ मिले पहाड़ रचे, पद पद पथतर खाँच ।
मिलत मसि धानी पथ मुख, पत पत को दिए राँच ॥

भावार्थ : -- आदि कवि ब्रम्हा जी को जब जल, वायु एवं अग्नि ( सूर्य) प्राप्त हुवे तो उन्होंने चरण-चरण पर पत्रों को खचित करते हुवे पहाड़ रच दिए जैसे ही पथ के मुहाने पर मसि धानी मिली तो पत्तों पत्तों को रंग दिया ॥
उसी प्रकार साहित्यकारों ने भी साधन उपलब्ध होते ही, पत्थर मिले तो पत्थर पहाड़ मिले तो पहाड़ पर चिन्ह अंकित कर दिए, जैसे ही मसि पथ धानी से परिचय हुवा तो पत-पत्रों को रच दिया अब यह संगणक मिला है !
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रागी ह्रदय भेस भरे, बिरागी धरे केस ।
कपट तापस लूट करे, धरे केस अरु भेस ॥

भावार्थ : -- अनुरागी ह्रदय नाना प्रकार के स्वांग रचता है । वैरागी  ह्रदय केश रचना रचित कर लेता है
किन्तु जो जो बनावटी, दांडाजिनिक, पाखंडी एवं ढोंगी स्वरूप के बैरागी होते हैं वे केश भी धरते हैं और
वेश भी भरते हैं ॥

कपट तापस भेस ज्यूँ, केचुलि काल भुजंग ।
लग लागि को छाँड़ दिये, लग लागि किये अंग ॥

भावार्थ : -- ढोंगी, पाखंडी, दांडाजिनिक  बैरागी का वेश सर्प की केंचुली के सदृश्य है कोई प्रीत किया तो
छोड़ दिया कोई वैर पड़ा पुन: धार लिया ॥

ते साधौ का कीजिये, जाके मन धन काम ।
बाहु पास छुरियाँ लिये मुख पे धारे राम ॥

भावार्थ : -- उन सज्जनों का सत्संग कैसा, जिनके मन में धन का लालच है । उनके मुख पर तो राम होता
है और बगल में छूरी होती है ॥

कपटी चारु चैल पहन, नाम धरे गुरुदेव ।
आपन तौ नीचे गिरे, संग गिरावै सेव ॥

भावार्थ : -- ढोंगी,पाखंडी,दांडाजिनिक बैरागी ने सुन्दर चोला पहना और नाम रखा गुरु देव । स्वयं तो नीचे
गिरा साथ में अपने सेवकों को भी ले गया ॥

कपट तापस साँप सरुप, बिषकर वाके गोठ ।
मत मति गति बिभ्रांत करे, मारे धन की चोट ॥

भावार्थ : -- ढोंगी,पाखंडी,दांडाजिनिक बैरागी, सांप के जैसे होते हैं और उनकी वाणी विषैली होती है, जिसका अर्थ अभिमत बुद्धि का नाश तो करते ही हैं साथ ही धन के भी लेवाल होती है ॥
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घर की नारि परदा दिए, तन की दिये न कोए ।
पाप सुमिरत राह चले, आगिन आगिन होए ॥

भावार्थ : -- घर की नारी को तो पर्दा दिए, देह की नाड़ी
को कोई पर्दा नहीं किया । राह चलते जब अजाब याद
आए तो बदन की नाड़ी  तेज होकर आगे आगे चलती
है ॥

बाँधे करधन प्रेम घट, घन घन रस सँजोएँ ।
रस रिता का लाह करे, पिया पियासा होए ॥

भावार्थ : -- यदि करधनी में प्रेम  का घट रखा है तो
उसमें अधिश: जल संजो के रखें, रस की रिक्तता से
लाभ  भी क्या  है  इससे तो प्रियतम प्यासा ही रह
जाता है ॥

बाह लहियाए लाग कौ, चाह गहियाए  राग ।
बूँद ठहिराए खेह के बाँह हरियाए साग ॥

भावार्थ : -- हवा से अग्नी धधकती है, चाह लगाने ही से
अनुराग गहरा होता है । बूंदों के  धहराने  ही से क्षेत्र की
भुजाओं में हरियाली लहलहाती है ॥

भावन ही ते भावना, भावन ही ते नेह ।
भावन के बीज उपजै, भावन ही के खेह ॥

भावार्थ : -- अनुसंधान,  कल्पनाओं  पर  ही आधारित
है, कोई अच्छा लगाने पर ही प्रेम होता है । इस प्रकार
समस्त  विचारों  के  बीज  चिंतन  की  भूमि  पर  ही
अंकुरित होते हैं ॥

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गहनहि जल डूबकी लिए,  घन कापर कर बाँध ।
अरन को बरन किये ये, सूरज है या चाँद ॥

भावार्थ : -- गहरे जल में डूबकी लगाते मेघ रूपी वस्त्रों की रश्मि डोर से
बांधे नीर को वरण करता हुवा यह सूर्य है, अथवा चाँद ?
,
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जनइत जनम गवाइँ कै, धरि गए मुख पै नाम ।
जनमनि जप लिए राइ कै, गाँठे केवल दाम ॥

जन्म दाताओं ने जन्म गँवा दिया और मुख पर  अपना नाम रख गए
किन्तु सन्तति राजा, नेता, धनी के नामों की माला जपते दिख रहे हैं
जन्म दाताओं की तो केवल सम्पति गथियाए हैं, नाम नहीं ॥

अर्थात : -- "जितना नाम  हम औरों  का  जपते हैं, उतना यदि अपने
मात-पिता  का जपे तो हमारा ही उद्धार हो जाए"
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चाह हिलग बैराग नहि, चाह बिलग अनुराग ।
चाह लाग लगाई है, चाह लगाई लाग ॥

भावार्थ : -- अभिलाषा से परिचित होने से बैराग्य नहीं होता,
अभिलाषा से अपरिचित रहने से अनुराग नहीं होता, यह
अभिलाषा ही है जो अनुराग उपजाति है, और यह अभिलाषा
ही है जो शत्रुता  उपजाति है ॥

अर्थात : - सत्ता हो या प्रेम "वस्तु की चाह से ही विषय में आसक्ति होती है"
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बानी मानस भेदिनी, चीन सकै तो चीन ।
काक पिक पेखे एक सम, बोलत लागे भीन ॥

भावार्थ : --  वाणी मनुष्यों का भेद देती है कि वह किस स्वभाव का है
यदि पहचान सको तो पहचानो कौंआ और कोयल देखने में एक जैसे
दिखते हैं किन्तु बोली ही से चिन्हांकित होते हैं ॥
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ऐतक ऊँचा बाड़िये, जेतक सीस सँजोए ।
नखत न काहु काम के, अनगिन गगन समोए ॥

भावार्थ : - उतनी ही उंचाई तक ही उठना चाहिए जितनी ऊँचाई
तक तन से सिर संयुक्त है आकाश ने नक्षत्र  अत्यधिक ऊंचाई
पर समाए हुवे हैं किन्तु किसी काम के नहीं है ॥
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तेरे धन की चाँदनी, देखे सब दिन रैन ।
कलुष करम की अंजनी, देखे तेरे नैन ॥

भावार्थ : -- तेरे धन के वैभव  का सुख तो  सभी मित्र एवं प्रियजनों को प्राप्त
होगा किन्तु उस धन को संचयित करने वाले कलुषित कर्म का फल तुझको
ही मिलेगा ॥
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जितै जगत मैं नाम हैं, उतै बिपरिते कार ।
गिरधर के कर बाँसुरी बजरंग के पहार ।

भावार्थ : -- जगत  में  जितने  भी  नाम है, अपने  अर्थ के विपरीत हैं
अर्थात आँख के अंधे और  नाम नयन  सुख टाइप के जैसे रि धरने
वाले के हाथ में बाँसुरी है और बज रंग= गीत-संगीत के हाथ में पहाड़
है और जैसे  रवण=रावण कोई और राम=मरा कोई और ॥
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मंडुक मुख मोरिही मैं, टर टर करत सुहाए ।
बाहन नीच कुचल मरे, गलियन बिच निकसाए ॥

भावार्थ : -- मेडक  का मुँह,  नाली में ही टर टराते हुवे अच्छा लगता है ।
गली में निकल कर बीच रस्ते उछल कूद करने से वाहन के नीचे आकर
मरने का खतरा रहता है ॥
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धन कामी की जीउनी, जस जल जीवन मीन ।
मेलत दोनौ जी उठें, तडपत दौनौ हीन ॥

भावार्थ : -- धन के लोभी का जीवन चरित्र इतना संक्षिप्त है,
जितना की जल में मीन का जीवन संक्षिप्त है धन और जल
के मिलते ही दोनों जी उठते हैं और उसके बिना तड़पने लगते हैं ॥
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तेरो जात तेरो पुत, तेरो धन गठियाए ।
तेरी देही बार कै, हाड़हु चूँग उठाए ॥

भावार्थ : -- तेरे जाते ही तेरा ही पुत्र तेरी संपत्ति हड़प कर तेरे
शरीर में आग लगा, तेरी हड्डियां भी चूग लेगा ॥
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शाह शाहे-शानी में, शादियाँ बादमान ।
शहर शहरी पानी में, बैठे आप मचान । १ ।

बिन घुंघरू का झुनझुना, दोलत बाजत नाए ।
बिन बुद्धि का पूतरा, पाथर ही कहिलाए | २ ।

भावार्थ : --  राजा ठाट-बाट सहित प्रसन्नता के ढोल बजाते स्वयं तो तम्बू तान के
मंच पर विराजमान है नगर और नागर पानी में डूब गए । 1  ।

जिस प्रकार बिना घुंघरू का झुनझुना हिलाने से बजता नहीं है । उसी प्रकार बिना
बुद्धि का पूत भी किसी काम का नहीं होते हुवे मुर्ख
ही कहलाता है । 2 ।

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नीर करै जब निर्मला, तौ मीन काहु बसाए ।
आँच सन देही धूले, साँचे मन धुलियाए ॥

भावार्थ : -- यदि जल तन निर्मल करने में समर्थ है तो फिर मीन में दुर्गन्ध क्यूँ आती है
वास्तविकता यह है कि ताप से तन निर्मल होता है और सच से मन निर्मल होता है ॥
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तेरो भीत तेल भरा, ढूँड रहा तू दीप ।
हीरा मिलता कोइरा, मोती मिलता सीप ॥

भावार्थ : --  जैसे हीरा कोयले में ही मिलता है और मोती सीप में ही मिलता है वैसे ही,
भान और भगवान तो तेरे भीतर ही बसे हैं, और तू उसे मंदिर मस्जिद में ढूँड रहा है॥

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नीचक करनी परिहरें, रह धन दान उदास
परिहरु दान द्रुत गति कर पैठत पीरित पास ॥

भावार्थ : -- धन का  दान न करते हुवे अपने धृष्ट एवं निकृष्ट कर्मों
 का त्याग करें क्योंकि धन के दान की अपेक्षा ऐसा त्याग त्याग
पीड़ितों के पास शीघ्रता पूर्वक एवं निश्चित ही पहुँचता है ॥

शाह शाहे-शानी में, शादियाँ बादमान ।
शाकी शाद पानी में, बैठे आप मचान । १ ।

बिन घुंघरू का झुनझुना हेलत बाजत नाए  ।
बिन बुद्धि का पूतरा, पाथर ही कहिलाए । २ ।

भावार्थ : -- राजा राजसी ठाट-बाट में, खुशी के बाजे बजाते तम्बू के नीचे स्वयं तो मंच पर विराजमान हैं
और फ़रियाद



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माटी मूर्तित मूरति, जीवन धन संचाए ।
अंत परे खंडित किये, जम लूट लेइ जाए ॥

भावार्थ : -- काया मिटटी से बनाई हुई एक प्रतिमा है,
जिसमें जीवन रूपी धन संचित है अंत आने पर उसे
खंडित कर, यमराज लूट कर ले जाता है ॥
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कहता भगवन डूबता, तू का डोबे मोए ।
एक दिन ऐसा आएगा में डोबूँगा तोए ॥

भावार्थ : - डूबते हुवे भगवान कह रहे हैं तू क्या मेरा नाश ।
करेगा  एक  दिन  ऐसा आएगा में तेरा सत्यानाश करूंगा ॥
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एक कोट एक पाल फिरै धरे बान मुख धार ।
बत्तीस पहरि तै घिरे दौ पटी के दुआर ?  । १ ।
उत्तर = मुख

एक कोट एक पाल फिरै लपटे झूठे लार ।
बत्तीस पहरि ते घिरे फिर भी मारे मार ? । २ ।
उत्तर = नेता-मंत्री

भावार्थ : -- एक किले में एक राजा तेज नोक वाले बाण लेकर भ्रमण कर रहा  हैं ।
                 वह बत्तीस रक्षकों से घिरा है और किले के दो पाट के द्वार है । 1 ।

                 एक किले में एक राजा झूठ बोल बोल के घूम रहा है । वह बत्तीस रक्षको
                 से घिरा है, फिर भी मर जाता है ॥

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 पोथी पत्रक बधपंगति अंतर रेखित रेख ।
 आखर के कर संगति तहँ लिख लेखन लेख ॥

भावार्थ : --
पुस्तक में पत्रों की पक्तिबद्ध हैं, जिसके अंतस रेखाएँ रेखित हैं ।
 अक्षर पाठ का स्मरण करो फिर शब्दवियास कर लेख लिखो ॥


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 दीपक दीपक करी कै सकल भजैं अँधेर ।
ज्यौंहि दिनकर दिन करै परै लैजाएँ गेर ॥

भावार्थ : --
अधेरे में ही सब दीपक, दीपक भजतें हैं । जैसे ही सूर्य उदय हो जाता है
उसे उठा कर फेंक देते हैं ॥
अर्थात : -- आवश्यकता के आधार पर ही वस्तु की उपयोगिता रहती है ।
                  आवश्यकता सिद्ध होने  या अन्य कोई विकल्प उपलब्ध होने पर
                  वांछित वस्तु अनुपयोगी हो जाती है ॥      
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मानस देह रुधिर बले जों कापर की थान ।
काटि काटि कै बेचि दिए करे न कहुँ कर दान ॥

जे मनु रुधिर दान करे घड़े पून संचाए ।
आपन देहि पीर परै दान एहि काम आए ॥

भावार्थ : --
मनुष्य ने रक्त ऐसे लपेटे  है जैसे कोई कपडे का गट्ठर हो  ।
जिसे काट काट  के बेच तो दिया किन्तु दान नहीं कर रहा ॥

जो मनुष्य रक्त  का दान  करता है वह बहुत ही पुण्य का
संचय करता है । जब स्वयं को कष्ट होता है,  तो वही दान  काम आता है  ॥
              " रक्त दान -जीवन दान "
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मुख दै रसन करन श्रवन नैनन दरस सँसार ।
बैन बदनन मति मंथन अस भगवन तन सार ॥

भावार्थ : --
मुँह स्वाद लेने हेतु दिया कान सुनाने हेतु दिए, आख संसार
को देखे के लिए दीं ।  वाणी, अभिव्यक्ति हेतु दी,  बुद्धि विचार करने
हेतु प्रदान की, इस प्रकार ईश्वर ने मानव शरीर की रचना की ॥

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सीत तपन घन से रखन करपर सीस टिकाए..,
तन रखन ढँके बहु बसन मन के कौन ढँकाए.....

भावार्थ : --
ठंड, गर्मी और वर्षा से रक्षा हेतु सिर पर छाया कर ली,
शरीर की रक्षा के लिए बहुत प्रकार के वस्त्र धारण कर लिए,
किन्तु मन की विषय वासना को किससे ढँका ?
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आओ तुम कौ भरत खन के दरसन करवाएँ ।
जहँ हिम सैल सिर पावन सुर सरित बही आए ॥

मुँदरी पाछु धरे मनिक पंच करज फैलाए ।
धनद सम बर धनिक बनिक जहँ मँगते कहलाएँ ।।

बैसे जहँ अस राउ आसन  कारा धन गड़ियाए ।
झुठे लार लसे भासन बोले तौ उछराए ॥

कोटि के पहन परकोट कोटिक भवन टिकाए ।
गाँव गँवन कहते गोठ  इ लुक तंत्र है भाए ॥
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मानस जीवन सेतु सम बंधे दो ही छोर ।
एक मरनी ते एक जनम तापर सँस पद  दौर ॥
भावार्थ : --
मानव का जीवन भी सेतु के समान दो छोर में बंधा है ।
एक छोर जन्म  से तो दूसरा मृत्यु से, इस सेतु पर
सांस रूपी चरण दौड़ लगा रहे हैं
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मेघ काल बरन मिटाए निर्मल जल बरसाए ।
सीस काल चरन हटाए जोग ज्ञान बर पाए ॥

भावार्थ : --
मेघ अपना मैल मिटा कर केवल स्वच्छ जल की वर्षा करता है ।
उसी प्रकार यदि शिष्य भी  कलुषित आचरण का त्याग करे,
तो उसे भी शुद्ध एवं उत्कृष्ट ज्ञान की प्राप्ति होगी ॥
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जलधि मल धर निज निवास निर्मल जल घन दाए  ।
अवगुन धर गुरु आपन पास  सदगुन सीस पढ़ाए ॥

भावार्थ : --
मैले  और खारे जल को सागर अपने पास रखता है, मेघ को स्वच्छ जल देता है
उसी प्रकार गुरु भी अवगुणों  को अपने पास रखकर छात्र  को सद्गुणों का ही पाठ
पढाता है ॥

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रे पंथी गठ बंधन की गठरी कस कै गाँठ ।
परिहर निद्रा नयनन की चौरी दैखे बाट । १ ।

ले रसरी चंदिनी की बट दै दै के कास ।
मूरध मूर चौरन की आँटि साँटि के फाँस । १ ।
भावार्थ : --

हे पथिक ! तू अपने संचित धन में बंधी गाँठ को और अधिक कस कर अवगुंठित कर
आखों की नींद को त्याग दे, देख चोरी तेरी बाट जोह रही है । 1 ।

चांदी की रस्सी ले उसे बल दे दे कर कड़क कर ।
और चोर के गले को षडयंत्र पूर्वक फाँस ले | 2 ।


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डारी डारी पाखे  संगत , रँग फूल मनावत  होरी रे ।
दैइ फुहारी साखे  रंगत  सँग झूल मनावत  होरी रे ।
राग ललामिन कंठन रागत रत रागनि गावत होरी रे ।
ढोल पखावज डोल बजावत अलि फाग सुनावत होरी रे ॥
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काल कलुषित धन भर घट माया पास गढाए ।
मरनि पर कुटुंब मरहट काया दै बिठाय । १ ।

मानस प्रीत कुटुंब कै कहु कर काम न आएँ  ।
काया के मोह परिहै  माया पास हटाएँ  । २ ।

भावार्थ : --
काल पापयुक्त धन का मटका भर के उअस पर माया के की बंधन गाँठ तो  लगा दी ।
किन्तु मृत्योपरांत कुटुम्बी तेरी काया को मरघट में बैठा देंगे । 1 ।

हे मनुष्य ! कुटुंब का प्रेम, कहीं भी कुछ भी कर ले, काम नहीं आते ।
काया का मोह त्याग दे, और माया के बंधन को हटा कर मटके का मुख खोल दे । 2 ।

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दै फुहारी सकल रंग चुनरी मोरी घार ।
कहो लला तोरे अंग रंगू को रँगधार ॥

भावार्थ : -- सारे रंग तो फुहारी देकर मेरी चुनरी में भर दिए
                 गोरी कहती है रे! श्याम अब तेरे अंग मैं किस रंग
                  के आधार मे रंगकारूँ ॥
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आए तौ सुघर काम करै जग में जो भी कोए ।
जब काल दंड धरे जाने को गत होए ।।

भवार्थ : -- इस संसार में जिस किसी ने भी जन्म लिया है, वह कल्याणकारी कार्य करे,
                क्योंकि मृत्यु जब डंडा पकड़ती है,  तो उसके प्रहार से जाने क्या दशा होगी ।।
                अर्थात : -- "मनुष्य को मृत्यु से भयभीत रहना चाहिए"        

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चित भीति एक कूप खनी तामैं हरि दइ बोर ।
ते रँगेजल भरि लिखनी लिखै भगति रस खोर॥

भावार्थ : --
ह्रदय के अन्दर एक कुवां खोद कर उस में श्रीहरि को डुबो दिया ।
ऐसे रंग के जल को अर्थात नीले जल में भर कर लिखनी ने भक्ति रस उकेरा ।।
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अधरोपर धरे बाँसुरी साँवरिया सुर संग ।
राधा नगरि ढूँड रही चाह मलूँ मुख रंग । १ ।

नहि मिलै तो सोचि खड़ी रँग खेलूं किस संग ।
झाँक कर देखि बावरी चित मैं रसिया रंग । २ ।

भावार्थ : --

अधरों पर बांसुरी रखे, श्याम सुरों के साथ हैं ।
राधे ने मुख में रंग लगाने की चाह में उन्हें सारा नगर ढूंड लिया ।1।


जब नहीं मिले तो खड़ी होकर सोचने लगी अब में किस के साथ होली खेलूं ।
जब अपने मन में झांक कर देखा श्याम तो यहाँ सुशोभित हैं  | 2 ।
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नारि धर्म चारन धरे बिदित नाना बिधान ॥
पर पुरुख सकल परिहरे गह न कासे कान ॥

भावार्थ : --
नारी के आचरण- कर्तव्य  को तो विद्वानों ने विभिन्न विधाओं में कहा ।
किन्तु पुरुषों के आचार को किसी भी विद्वान ने मर्यादित नहीं किया ॥
अर्थात : -- " क्योंकि समस्त विधा पुरुष के द्वारा ही रचयित है"
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तना तने धँस धरनि तल धरे बिटप के भार ।
पर गगन के गह मंडल कौनु तने  आधार ॥
भावार्थ : --
धरती में धंसा हुवा  पेड़ का तना, तन्यता से पूरित होकर वृक्ष का भार
वहन किये हुवे है । किन्तु गगन का गृह मंडल चक्र कौन से ते पर आधारित है ??
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हरि हरिता गौ ग्रास  वेनु का अधरोपर वास  ।
सुर सरगम सर साँस जल जमुना के तीर ॥

भावार्थ : --
गायों का हरा हरा आहार है, बाँसुरी कर अधरों पर अधिवास है ।
साँसों में सुरों की सरगम माला है, कहाँ??  जमुना के किनारे ॥
              " बांसुरी की खोज भगवान कृष्ण की है"
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अरन बरन बर्निक मिले मिले बरनन तेरे बैन ।
पढ़न न को पर्निक मिले तेरे रुप के सैन ॥

भावार्थ : --
लेखक को अक्षर के भेद तो मिल गए किन्तु वर्णन हेतु भाषा नहीं मिली ।
अत : तेरे रूप चिन्ह को पढ़ने के लिए कोई भी पृष्ठ नहीं मिला ॥
अर्थात: --  "सौंदर्य अनुभूति की विषय वस्तु है"
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चणक चून को घोरी देखो, बूंदी बूंदी उतरावै लड्डू ।
केसरी के सिर रोरी देखो, अंग संग रंग जावै लड्डू ॥
रस दालिकी कोरी देखो रसमस बस रसियावै लड्डू ।
बरसाने की एक छोरी देखो, हथेरी गोल गुलावै लड्डू ॥

सात जनम की भोरी दैखो भर मूठ मनोहर खावै लड्डू ।
कह अधरोपर धर गौरी दैखो मुख मिश्री घुल जावै लड्डू ॥
कला कलित कल धौरी दैखो धर रसरी कंठ उतरावै लड्डू ।
आज बिरज की होरी दैखो उद उदरन भीत मनावै लड्डू ॥

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बूंद अगारे सिन्धु के पर सब खारे होए |
स्वाति की एक बिंदु के तबहिं प्यासे होए ||

भावार्थ : --
सागर के पास बूंदों का भण्डार है किन्तु सभी बूंदे
खारी हैं | जभी वह स्वाति की एक बूंद का भी प्यासा होता है||
अर्थात : -- " मात्रा की अपेक्षा गुणवत्ता श्रेष्ठ होती है"

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गहनहि गर्त खोरी कै जोट गोट गोड़ाए।
काल अलकतर जोरि के पंथ बिछावत जाए ॥

भावार्थ : --
गहरे गड़े खोद के,  गोटीयां जोड़कर एक सार करके,
काला चारकोल मिलाकर, यह युवा सुन्दर मार्ग बना रहा है  ॥

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दरप दरस दरसात है दर्पन कँगना हाथ
परन्तु जे न बतात है चमकन के का जात ॥

भवार्थ : --
अहंकार से भरा दर्पण हाथ के कागन का प्रतिबिम्ब को तो दर्शाता है ।
किन्तु यह नहीं बताता कि यह पीतल है कि सोना ॥
अर्थात : --  "प्रत्यक्ष को साक्ष्य की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि साक्ष्य गुण-दोष
                   को नहीं दर्शाते"
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कारे कारे पंथ ऊपर धारी पीली धार ।
दाहिने बाएँ परख धर  देख भाल कर पार ।।

भावार्थ : --
काली काली मार्ग के ऊपर पीली धारी रेखांकित है ।
जिसे दाहिने-बाएँ भली भांति परीक्षा करने के पश्चात ही पार करना चाहिए ।।
अर्थात : -- "सावधानी हटी-और दुर्घटना घटी" 

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बैनी मति के भेद दे बैनी दे मत भेद । 
बैनी मुख मत तेज दे बैनी दे सब छेद ।। 

भावार्थ : -- वाणी मन के भेद देती है, वाणी मतभेद करवा देती है । 
                 वाणी के शब्द अधिक तीव्र नहीं होने चाहिए,
                 अन्यथा वह बाण के जैसे अपने लक्ष्य को प्राप्त करके ही रहती है ।।  
अर्थात : -- " तोल मोल के बोल" 
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सखी फागुन फिरे, दहरि दुआरी, फागत फूर फुहार ।
रे सखि फूर भरे, फुर फुरबारी, सुरभित गंधन धार ॥
भूरि भेस भूषित, भूषन अभरित, बरसाने के धाम ।
रे सखि जोग रहें, कब आवेंगे, घन भँवर बर स्याम ॥

कटि किंकनि कासे, बँसरी धाँसे, मुकुट मौर के पंख ।
हरि चाप प्रभासे , रंग प्रकासे, पिचकारी करि अंक ॥
सखि निकसे साँवर, गिरधर नागर, बृंदाबन कर पार ।
सखी धरे घघरी,सत रंग भरी, खड़ी अगुवन दुआर ॥

उर चुनरी कोरी, ओढ़े गोरी, भरि पिचकारी रंग ।
कर जोरा जोरी, खेलत होरी, साँवरिया के संग ॥
मुख चाँद चकासे, कनक प्रभा से, रागे राग कपोल ।
धरि किसन मुरारे, मल मलिहारे, हे! हे होरी! बोल ॥


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बरे बरे भाखा स्थल, बरे भेस परिधान ।
सिद्ध करे ते नौ नवल, होए न पंथ पुरान ॥

भावार्थ : --
वैश्विक भाषा  एवं उत्तम वेश-भूषा  एवं उत्तम स्थान ग्रहण कर,
प्राचीन-विचार आधुनिक सिद्ध नहीं होते ॥
अर्थात : --भौतिकवाद एवं विचारवादिता में मूलभूत अंतर होता है
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निर्धन के सत गुन रतन गिनते उपल समान ।
जे भए धनिक ते सब गन उपलहु रतनन मान ॥

भावार्थ: --
निर्धन के सत्य रूपी रत्न को असत्य के पत्थर स्वरूप  गिना जाता है ।
जब वह धनवान हो जाता है तो उसके असत्य  के पत्थरों को भी रत्न
माना जाता है ॥
अर्थात:-- "धन की चकाचौंध मनुष्य को दिगभ्रमित कर देती है"
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बोली है भइ बहु बली, बोली है बहु मोल ।
बोली  की गोली चली, खोली सबकी पोल ॥

भावार्थ : --
बोल में बहुंत बल होता है, बोल मूल्यवान भी हैं |
बोल के अस्त्र रहस्य को भेद देते है॥
अर्थात : -- " संयमित वाणी, भेदों की रक्षा कवच है"
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घट घट समतल घाटि गिरि जे घट मेढ़ किसान ।
बरसे बदरा ज्ञान घिरि ठारे नीर निपान । १ ।

जे बिय बोए मेढ़ बँधे उपजै ते फल फूल ।
मंद मंद सुरभित गँधे गँधे न झाड़ी बबूल । २ ।

भावार्थ : --

प्रत्येक शरीर  समतल धरा, पहाड़ी एवं पर्वत के समान है,
ज्ञान का पानी उस शारीर में ठहरता है जो शरीर किसान के
खेत के समान है  ।1।

जो बिज खेत में बोये हुवे है उनमें हुई फल फुल की उपज होती है
और वे ही भीने भीने मधुर गंध देते है जो झाडी बबूल होते है वे नहीं
 गंधाते | 2 ।


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जान बूझ के गढ गिरे दूज अबूझ खुदाए ।
अजान के अंधेर घिरे निकसे कौन उपाय ॥

भावार्थ : --
ज्ञानी होकर, अज्ञानी के खोदे हुवे गड्ढे में गिरने का अर्थ
अज्ञान  के  अँधेरे  में  घिरना  है फिर ऐसे व्यक्ति के बाहर
निकलने का कोई उपाय नहीं है ॥

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सोए अँख मुँदी रैन भर मानुज मरनि समान ।
चरन मुख आछादन कर ओड़ी चादर तान ॥

भावार्थ : --
आँखे बंद कर रात भर सोया हुवा मनुष्य मृतक के समान और
सिर से पाँव तक आच्छादित चादर उसका शवाच्छादन है ॥
अर्थात : -- "सुषुप्ति जड़ एवं जागृति चैतन्यता के चिन्ह है"
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चले पवन बहु जोर,  छाई घटा घनी घोर ॥
पोत पति भरी भोर,  बहनु दै बहनु आदेस ॥

भावार्थ : --
वायु बहुत ही तीव्रता से प्रवाहित हो रही है, घनघोर घटा छाई हुई है ।
जहाज का स्वामी पौ फटते ही भार पोत चालक को चलने का आदेश दिया  ॥
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चोर मांगे रैन मिले, बैनी निंदन चैन ।
जहँ दुनौ के नैन मिले, मिले न कहुँ कर सैन ॥

भावार्थ : --
चोर; रात मांग रहा है, और धनिक चैन की नींद मांग रहा है ।
जैसे ही दोनों के आँखे मिलती है, पुलिस कही नहीं मिलती ॥
अर्थात : -- "समय पर काम आने से ही वस्तु की उपयोगिता है'
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झीनी रेल बिठाइ के, कालीकट पहुँचाए ।
सिहासन लिपटाई के, मोटी माया भाए ॥

भावार्थ : --
मन की आसक्ति स्वरूप सूक्ष्म माया से नाता तोड़ लिया ।
और धन-संपत्ति, पुत्र, घर-द्वार आदि स्वरूपी मोटी माया
को सिंहासन के लोभ में ह्रदय में रखा ॥

झीनी माया जिन तजी मोटी गई बिलाए ।
ऐसे जन के निकट से सब दुःख गए हिराए ॥
----- ॥ संत कबीर ॥ -----
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अज्ञानी दे ज्ञान भला संचय धन दै दीन ।
कल कल जल भए निरमला रोके भयऊ मलिन ॥

भावार्थ: --
विपन्न को संचयित ज्ञान और धन का दान करना ही अच्छा है ।
क्योंकि बहता हुवा पानी सदैव शुद्ध रहता है, और रोकनेसे वह अशुद्ध
हो जाता है ॥

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घिर बन कलि कलियाइ नीर नुपूर चरन धरे  ।                                          
भँवर भँवर भरमाए जोग रहि दिखावन नाच ॥

राग रंग बरनाए  पत रुर सुर सरगम भरे  ।
जोबन के बलियाए अंग अंग कंचन काँच ॥

आवनु कहि, नहि आए जोगत नैन हरिद बरे ।
रोचन मुख मुरझाए करि बड़बड़ कह कछु बाँच ॥

 भावार्थ --
वन में घिर कर कलियाँ प्रस्फुटित हुई,  पैर को बूंदों के  घुंघरू से
सुसज्जित  कर भ्रमर के भ्रम में भ्रमण करती, नाच दिखाने हेतु
उसकी राह देख रही हैं ॥

अद्भुत राग को वरण किये सुदर पत्र सुरमयी हो उठे । यौवन से
परिपूर्ण पुष्प के अंग प्रत्यंग स्वर्णमयी एवं कांच के जैसे कोमल हैं ॥

आने को तो कहे थे पर नहीं आए, प्रतीक्षा में नयन भी पीले पड़ गए ॥
मुख की शोभा जाती रही और कलि मुख से  कुछ प्रलाप रही है ॥

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पवन पावत पाँख उरे जल पाए तिरे मीन ।
थल धावत सिंग दूरे मानस साधन तीन ॥

भावार्थ  --
पक्षी,वायु की में गमन करते हैं, मछली पानी में ।
शेर, स्थल पर गमन करता है, मनुष्य इन तीनों
साधनो से गमन करता है ॥
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चोर चारन रैन भली, माँग भली रह बैन ।
प्रीति प्रतीति नैन भली लाग भली रह सैन ॥

भावार्थ: --
चोरी के लिए रात्रि की आवश्यकता होती है, मागने के लिए वाणी की
आवश्यकता है । प्रीत के लिए आखों  में  विश्वास  की  आवश्यकता है,
लड़ाई के लिए सेना की आवश्यकता होती है ॥
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आलू सब साक साजे बैगन बेगुनी गिन ।
आम कहँ सब फलराजे पर मिलत दिवस तीन ॥

 भावार्थ: --
आलू सभी शाक में लगता है बेग में कोई गुन नहीं है
(फिर भी इस के सिर पर ताज सजा है ) आम को सब
फल का राजा कहते है किन्तु मिलता तीन मास ही है ॥
अर्थात : -- "गुणों की गणना स्वरूप से नहीं अपितु चरित्र से होती है"
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उदक बाहन बास मीन उदकी बाहर आए
तरसत  तड़पत भै दीन उद हीन मर न जाए ॥

भावार्थ  --
मछली, अपने जलस्थ  निवास स्थान रूपी जल पात्र से उछल कर बाहर आ रही है ।
जल के बिना तड़पते, तरसते व्याकुलित होकर, कही यह मर न जाए ॥
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कँधे ढारि लाली चुनर गोरी केस नियास ।
सोन नदी के तट खड़ी पिया मिलन की आस ।।

भावार्थ : --
कंधे पर लाल ओढ़नी डाल कर, केश विन्यासित कर ।
स्वर्ण नदी के तट पर प्रियतमा, प्रियवर के मिलन की आस में खड़ी है ॥

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दधि मलाए दूध बिलाए चोरे मुख लपटाए ।
स्वान जे कछु कर दाय बहिर ठाढ़ के खाए ॥

भावार्थ : --
चोरी कर के खाना है बिल्ली का स्वभाव है ।
स्वान, स्वामी का दिया हुवा ही खाता है ॥
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गगन नगन नख नग धरै अनगन जन धरनि धर ।
तमोध्न ही तमस हरै तमोगुन तेजस हर ॥

भावार्थ : --
गगन में अनगिनत तारे हैं, धरती पर अत्यधिक मनुष्य हैं ।
एक सूर्य और एक चन्द्रमा, अन्धकार को नष्ट कर देते है
अज्ञानता को नष्ट करने के लिए भी एक ज्ञानी ही पर्याप्त है ॥
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काल कलुषित करनी कर जोड़ी कलुष कमाए ।
कमाए दुज धर मरन पर करनी सागे जाए ॥

भावार्थ:--
पापयुक्त, निकृष्ट कर्म कर पापधन का संचय किया
मृत्यु पश्चात धन किसी दुसरे के पास चला जाता है
किन्तु कर्म स्वयं  के साथ जाते हैं ॥
अर्थात :-- "व्यक्ति के कर्म ही उसके जीवन-मृत्यु की दशा तय करते हैं"
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बैठ भंडिरा चौंक पै सजन सँदेस सुनाए ।
गोरी घूँघट औंट कै होरी होरी गाए ॥

भावार्थ : --
पत्रवाहक चौराहे पर बैठ कर प्रियतम का सन्देश सुना रहा है ।
और प्रियतमा घूँघट कर होली है! होली है! कह रही है ॥                                                   
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पी प्रबसे सागर पार मैं रहि पंथ निहार ।
धार धरी ऊपर धार सखि मैं कवन अधार ॥

भावार्थ : --
प्रियतम विदेश में प्रवासित है और मैं आगमन की प्रतीक्षा में हूँ ।
धारा के ऊपर धारा है, हे ! मित्र मैं किस के आधार रहूँ ॥
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कारे कारे करज कर सारी कुम्भी कार ।
गोरे घर धरे भर भर कारे गौरस सार ॥

अंक तंत्र के मंत्र पढ़ गुणा भाग कर जोर  ।
काँधे उपर काँधे चढ़ लटकी मटकी फोर ॥

 भावार्थ : --
कुम्भ कार ने अपनी हाथो की उंगलियों से कला कर मटकी बनाई
श्यामा गाय के दूध से बने मक्खन को उस मती मन भर कर गोरे
के घर में रख दी । ( इलायची )

अंक वाम बिज गणित के मंत्र को पढ़ कर तू गुणा भाग कर और
फिर जोड़ लगा । इसके पश्चात कंधे के ऊपर कंभे पर चढ़ कर उस
मटकी को फोड़ दे ॥
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जाउँ नदिया पार कहे अलबेली सी नाँव ।
कमल कर पतवार गहे रे सखि तू किस गाँव ॥

बोली सखि सुन बतलाउँ जहँ बेली की छाँव ।
धारे धारे बहि जाउँ दूर पिया के गाँव ॥

भावार्थ : --
एक अनूठी सी नाव कह रही है कि में नदी के पार जा रही हूँ ।
हे! मित्र  कमल जैसे हाथों में पतवार लिए तुम कहाँ जा रही हो ॥

मित्र बोली सुनो बतलाती हूँ; बेल की छाँव में उद्यान से घिरा हुवा,
पहाड़ के किनारे दूर जो पिया का गाँव दिखाई दे रहा है में वहीं जा रही हूँ ॥
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निरख तरी के कमल सुम आलबाल तरिआए ।
निरखे गहन घुमर घूम कीच तरी महँ पाए ॥

भावार्थ : --
धरती के कमल-पुष्पों को देखकर बादल गहरा गए  ।
घुमते हुवे जब गहराई में जाकर देखा तो कीचड़ ही पाया ॥
अर्थात : --"प्रत्येक चमकती हुई वस्तु, सोना नहीं होती"
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दाना दाना खोय कै सोचे चिरी मुँडेर ।
जों पहुंची मैं नीड पै चुन चुन लेंगे घेर ॥

भावार्थ --
दाने खो कर चिड़िया छत पर बैठी चिड़िया सोच रही ।
जैसे ही मैं अपने घोंसले में जाउंगी, तो भूखे बच्चे मुझे
घेर लेंगे ।।
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सूरज फेरे फेर लै धरनी रोली गोल । 
तू भी तरह घेर ले ता फिर रद पटि खोल ॥   
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कारे कारज कारि कै गौरे दधिचर सार । 
कारी मटुकी धारि के लटकी देस बहार ॥ 
भावार्थ : -- 
काले कार्य कर कर के मथानी से श्वेत मक्खन निकाला । 
काले घढ़े में भर कर देश के बाहर लटका दिया ॥ 
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दिया बर्ति प्रिया प्रीतम प्रीत घीउ की धार । 
बारे सार सकले तम जीवन जोत उजार । 

भावार्थ : -- 
यदि दीपक प्रियतम और वर्तिका प्रियतमा है तो प्रीत घृत की धारा है
प्रज्वलित करने पर जीवन  ज्योति का उजाला यह फैले हुवे अँधेरे को 
समेट लेता है ॥ 
अर्थात : -- "प्रेम में ही जीवन की संकुलता है" 
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रल बल सकल रैन रई कल दीपक के अंग।  
बर्तिक बर के मर गई कीरति धरे पतंग ॥  

भावार्थ : -- 
कल दीपक के साथ राग मग्न हो सारी रात लिपट कर एक में मिली 
बाती जल कर मर गई नाम पतग का हुवा ॥ 
अर्थात : -- "श्रम कहीं और होता है, यश कहीं और"
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कमल को मल कीच भरे मल कहँ मल नहि कोय । 
कमल कोमल नीच धरे जल महँ जल नहि धोय ॥ 

भावार्थ : -- 
कमल का मर्दन कर कीचड़ से भरे दुष्ट कहते हैं कि यहाँ कोई दुष्ट नहीं है । 
कोमल कमल के ही नीचे जल में ही स्थापित है फिर भी उन्हें जल नहीं पाता ॥ 
अर्थात :--  "अपने मुख से अपनी ही प्रशंसा करना दुष्ट का स्वभाव होता है"
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सागर जल बदरी घढ़े, बदरी घढ़ जल धार । 
जल के धार धार घढ़े, घढ़ घढ़ सागर सार ।। 

भावार्थ 
सागर जलकर बादल की रचना करता है, बादलों का समूह जलधारा रचता है । 
जल की धारा को घड़ा ग्रहण करता है, घड़ों के समूह से सागर प्रस्तारित होता है ॥  
अर्थात:-- जहां से आरम्भ है अंत भी वहीं है"
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कंठ गरल कर माल भुजंगे । सीस ससी जटा धरे गंगे ॥ 
रुद्राक्ष कर बागंबर अंगे । भूषित भूति भुतादिक संगे ॥ 

कर त्रिसूल धर काँसि निवासे । कलस कलस जल कन कन कासे ॥ 
जय शंकरी शंकरा बासे । दास भगत तव दरस पियासे ॥ 

जयति जय भव कान्त भवानी । कैलास राज गिरिजा रानी ॥ 
सिव कर कीर्तन मंगल कारे । भगतन कातर नयन निहारें ॥     

जय जय जय बर धी गिरि राजे । जय महेस हिम सैल बिराजे ॥ 
सिव द्रुम दल निर्मालय धारे । सिव पुष्पक प्रिय शेखर सारें ॥ 

जय सिव नंदन नंदि रूद्र वर्धन नंदनक गन पति । 
सुख श्रुति प्रसादन राग रंजन विनायक वंदन यति ।। 
कंठ कूनिका कर कंज कला स्वर कलित वर भारती । 
कल कंकना नादे खंखना वन्दे वंदन आरती ॥ 

ससी सीस कमंडल कर उरंग भूषन महादेव । 
जय सुर बार निर्झरी धर त्वम स्वरुपम एवम एव ॥  



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ज्ञान रहित का बर्तनी, जनु दीपक बिनु तेल ।
तैल दै  ते बर्ति बरी, बर्तनी ज्ञान मेल ॥

भावार्थ : --
ज्ञान रहित वर्णक्रम का क्या औचित्य है, स्निग्धद्रव के बिना दीपक का क्या औचित्य है । 
स्निग्धद्रव के दान पर ही दीपक की वर्तिका प्रज्वलित होती है और वर्तनी ज्ञान के मिलाने 
से प्रज्वलित होती है ॥  

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साँचै कॊउ न पतीयऍ, झूठै जग पतियाए ।
पांच टका की धोपति सात टकै बिक जाए ॥
       ----- ॥ संत कबीर॥ -----
चली चलत चित्रपट बनी, बनी ठनी इतराए ॥
दोए टका की ढेंपनी लाख टकै बिक जाए ॥
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दाने धरै बिखर परे चिरिया चुग चुग जाए ।
मानुख के जस ना लड़े मिल बाँटी कै खाए ॥

धरती पर दाने बिखर गए चिरिया ने चुग लिए ।
ये मनुष्य के जैसे नहीं लड़तीं मिल बाँट कर खा रहीं हैं ॥                          
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नारी नयन पीर भरी नीर भरी उरसीज ।
दोषु धनु के तीर धरी पौरुष तन के रीझ ।।

भावार्थ: --
नारी की आँखों में पीड़ा और स्तनों में पीयूष भरा है ।
और पुरुष, दोषों के धनुष-बाण रखे केवल नारी तन के प्रेमी हैं ।। 

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पाछे त बहु लेख लिखे आगिन पारत काएँ ।
पाछे लेख सुमिरत कर आगिन बाढ़त जाएँ ॥

जब पीछे इतने लेख लिखे हैं आगे क्यों रच रहे हो । 
पीछे के लेखों का स्मरण कर के ही आगे बढ़ना चाहिए  
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बरन बरन के बरन लै रचि पचि कोटि पचास ।
चित्र काब्य कर पटी पै तै चौखट दे कास ॥

भावार्थ : --
विभन्न प्रकार के अक्षर/रंग/स्वर लेकर उन्हें पचास बारी गढ़-छोल । 
चित्रपटी पर चित्र रूपक काव्य कर फिर उसे चौखट में चढ़ा ॥ 
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बरन बरन के बरन लै बर्तिक बट दै कास
डार दीप पत ज्ञान कै तेर घारि कै चास ॥

भावार्थ: --
विभिन्न प्रकार के शब्द लेकर, बाती स्वरूप में कड़क बल दे । 
फिर उसे पत्र रूपी दीपक में डाल दे, तत पश्चात ज्ञान का तेल   
देकर उसे प्रदीप्त कर ॥ 

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कनक कलस कटि बिराजे उदके उद के अंक ।
जहँ उदक ऊत राजे तहँ इत बिदके रंक ।।

भावार्थ : --
स्वर्ण कुम्भ से सुशोभित कमर, पानी के आलिंगन हो उत्साह अतिरेक से
उछल रही है । जिसे देखकर जैसे ही मुर्ख राजा उछला, वैसे ही इधर प्रजा उठ कर भाग गई ।।

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बुद्धि की डोरी में विचारों के मणियों को पिरोने से
उक्ति विशिष्ट की सुन्दर माला बनती है.....
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मति कोस तूल तारि कै मत के डोरे बाँट  ।
बाटे कोर पिरोए दे आखर आखर छाँट ॥

आँट आँट के गाँठ  घर गीर के घुँघरु घाल ।
पत्र पंगत के काँठ कर मंजु मनोहर माल ॥

भावार्थ: --
बुद्धि के कोषज से कपास के तार बनाकर  फिर विचारों की डोरी 
बना वलयित छोर से अक्षर अक्षर का चयन कर उसमें पिरो दे॥ 

गहरी गाँठ लगा कर उसमें भाषा के घुंघरू डाल यह सुन्दर मन 
को हरने वाली माला पत्र पंक्तियों के कंठ में उतार कर 



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किरन पानी परसन ते भै कन कंचन धार ।
एकु गाँछ के नैया रे खेवे खेवनहार ॥

भावार्थ :--
सूर्य के स्पर्श से या किरनो द्वारा पानी के स्पर्श से बिंदु-धारा 
स्वर्णमयी हो गईं । पेड़ के एक ही तने से बनाई गई नाँव को 
खेवनहार खे रहा है 
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बसित बसन बपुरधर  लहित लसित लखित लवनित ।
लख लख तरु लोय भर अरन अरन बरनगत अहि  ॥

भावार्थ : --
वस्त्रों को ग्राह्य कर उस मोहनी मूरत का लावण्य दर्शनीय था । जिसे पलाश 
नयन भर के  देख रहे थे यह देख पथिक ने जल एवं अक्षरों का (सुन्दर) 
वर्णन किया ॥ 
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सूझ बूझ परख कर गोठ तब लिए निर्नय सकल ।
जुना कोटि कोटिक कोठ राखु माली नए कल ॥

बहुस माली अदल बदल पुनि चयन किए दल एक ।
नव दल के पंक बलकल रहे सदस्य रव भेक ॥

भावार्थ : --
आपस में बातचीत करके सोच विचार एवं देख परख कर
सबने यह निर्णय लिया । पराए वाले माली की तो करोड़ों
 की कोठियां बन गई अब कल नया माली रखेंगे ॥

बहुंत से से मालियों को अदल बदल कर फिर एक दल का
चयन  किया  गया  नया दल भी कीचड़ में लिपटा हुवा था
और उसके  सदस्य मेढक के समान टर्र टर्र करते अर्थात
स्वयं को कमल बताते ॥
                                                               क्रमश:
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नर के भूषन भूषना नारी भूषन चार ।
नर के दूषन दूषना नारी दूषन धार
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जे जल जन तप धन तरे सुथरे मुकुतिक संग ।
चढ़े गगन घमंड भरे उतरे रज कन अंग ॥
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कलकल जल हंसबर सर सरसे सरस सरसिज ।
पग धरे रितु पटतर  अरस परस जल भिग रही ॥

लख रहे लख तरुबर नयन भए मत मद मुकुलित ।
बर्निका बर्निक कर पत्त के पथ पद पद बही ॥

धन धूरि धूरि अधर धवला भइ धवल धवलित ।
निमद मझ मज्जन कर लवलीन लै लाह लही ।

आइ रितु सर तट तर उद बिंदु मनु मनि बलयित ।
उदक उदक बिंदु बर द्रव रसा तरु कासि गहे ॥

भावार्थ : --
ऋतु तैर कर सरोवर के तट पर आई..,
जल बिन्दुएँ ऐसी कि जैसे मणि ही वलयित हों..,
इन छटकति सुन्दर बूँदों को..,
पलाश ने मुट्ठी में लपक लिया.....
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रव कर कलहंस सरुबर सरस रहे सरसीज ।
पद धरे रितु भय परिहर अरस परस रहि भीज ॥

भावार्थ : --
सरोवर में राजहंस कलरव कर रहे हैं..,
कमल भी प्रस्फुटित हो रहे हैं..,
भय का त्याग कर ऋतु पाँव रखकर..,
जल आलिंगन कर भीग रही है.....
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एक नगर माली के बन डालि डालि भरपूर ।।
बानि बानि के फर फूर  धानी धानी झूर ।।

ताप रितु तर बरखा पर अवनु सरद हेमंत ।
सीत सिसिर के रथ उतर रागे रंग बसंत ।।


भावार्थ :--
एक नगर स्वामी के उपवन डालियों से परिपूर्ण था ।
वहां विभिन प्रकार के फुल-फल, उन डालियों में झूल रहे थे ।।

ग्रीष्म ऋतु के जाते और वर्षा ऋतु के पश्चात शरद ऋतु और हेमंत ऋतु
आ जाती । शीत और शिशिर के रथ से उतर कर वसंत ऋतु सुन्दर गान
करते नृत्य क्रीडा करती ।।
                                                                                     क्रमश: .....


त्राता कुटिल कूर कपटि बन उरबर दे न जर ।
तोर फूर फर कोटि कटि लै जाए झोरी भर ॥

पाख पसु बहु त्रास गसित भूख प्यास के सन ।
त्राहि त्राहि कर सकल जन त्राहि त्राहि कर बन ॥

त्रसित तस तब त्रस जन कै भै मंच पञ्च सभा ।
समूह समुख प्रमुख बन के तहँ आए सूर प्रभा ॥


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फिर किरण पाँव धरे निरख रही मुकुर मुख धो ।
निर्झरी नीर झरे  नाद कर नुपूर चमके ॥

फिर ग्रहे पट गहरे दमके रूप लावण लौ ।
पद कमल कर सँवरे भर मणि माणिक मनके ॥

फिर दिनकर दिन करे जाग उठा रात भर सो ।
कर वन्दन पद वरे जल ढलके अमृत बनके ॥

रमण किरण बाहु भरे लाज धरे नयन नत हो ॥
रथ रयनि कण उतरे पुष्प पत्र पर सुर झनके ॥

शंख करे रव हरे जयति जय राधेमाधौ ।
कलश कलश जल भरे खन खन खंखणा खनके ॥

फिर सर सजदा दरे मस्जिद में अल्लाह हो ।
गिरजा घर गुंजरे फुली शफ़क सबद सुनके ॥


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 रे आयो फागुन फाग फुहारे ।
घोर घोर पीचिकारी घारूँ, लै  केसरी राग बहार से ॥
भरे फागुन भर रँग फूहारूँ,  होरी खेरूँ मैं दिलदार से ।
नयनन जोरे मैं  दिल हारूँ, गोरी रँग लगाउँ प्यार से ॥
गोरे गोरे अंग कर कारू, तोरे रँग लगे सिंगार से ।
बाहु सिखर दल रल गले धारूँ,  तोरे हथफुर फूरकार से ॥
बारहिं बार मे तोपे वारूँ, मोरे अंग मुतियन के हार से ।
गाल अरुनत अधराधर धारूँ, रिसे अधर सुधा आधार से ॥
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पड़ि पड़ि कै मनु मति मुरख पाथर मूरति कार ।
ज्ञान के मन मंदिर रख आखर दीपक बार ॥

भावार्थ : --
हे मनुष्य पत्थर रूपी मंद मति को पड़-पड़ के मूर्ति आकार दे ।
उस मूर्ति को ज्ञान-मंदिर में रख कर अक्षरों के दीपक जला ॥
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सुन्दरता सोहाग सरि सद चरित सोन सरूप ।
एक मूलहीन परे धरि त एक मूल मूलरूप ॥

भावार्थ : --
सुन्दरता सुहागा के समान है, सुहागा सुन्दरता के समान है
सदचरित्र स्वर्ण स्वरूप है स्वर्ण सद्चरित्र के रूप है ।
सुहागा, स्वर्ण से अलग होकर; सुन्दरता, सद्चरित्र से अलग होकर
मूल्यहीन हो जाते हैं किन्तु स्वर्ण और सद्चरित्र का मूल्य अपने
मूल रूप में ही स्थापित रहता है ॥
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पंथ पंथ में पत्र भरै पत्र पत्र में भर ग्रन्थ ।
धरा धरा हरियरि करै मत कर बट का अंत ।।

भावार्थ  --
रास्ते रास्ते पत्ते भरते हैं..,
पत्ते पत्ते में ग्रन्थ रचते हैं..,
धरती को हरी-भरी करते हैं..,
पेड़ को मत काटो.....

पेखें पंच पड़ोस के पूछें जेलर साब  ।
कब लटके घंटाल गुरु कब लटकाए कसाब ॥

भावार्थ : -- पड़ोस क न्यायाधिकर्त्ता
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पंथ पंथ में पत्र भरै पत्र पत्र में भर ग्रन्थ ।
धरा धरा हरियरि करै मत कर बट का अंत ।। 
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भागी रे सरकार भागी धर पाँव सिर ऊपर | 
भागे भागे भूत के भाग लंगोटी धर ||  
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दाने दाने चून कै चून चून कै दान ।
छानी छाने घून कै तै दै चून पिसान ॥

भावार्थ : -- दाने दाने का चुनाव कर देखें कितने दाने है ।
                 छलनी से छान के घून देखें कितने हैं
                 फिर आटा पिसवाएँ ॥
                 दाने दाने का चुनाव कर दानग्रहीता को छांट कर दान दे ।
                 (छंटने पर भी नहीं मिले तो मत दें)
                 जो घून के जैसे हैं अर्थात दाने को खाने वाले हैं उन्हें देख
                 परख कर कारावास की चक्की दें ॥
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सठ के अवगुन कबि कहत लाज न ओटे अंग ।
निरख दूज जस कुंठ धरत उर पर लोट उरंग  ॥

भावार्थ : -- दुष्ट के अवगुणों को कविजनों ने कहा है कि उनके
                 तन पर लाज का आवरण नहीं होता । दूसरों का यश देख कर
                 ये कुंठित होकर ईर्ष्या करते हैं ॥
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नींद तरे उद नैन सबेरे
नींद परे सुत रैन बसेरे
उर भर भुज शिखर काँखें
क्यों सखी साजन ? ना सखी ! पाखे !

भावार्थ : -- (१)नींद मुक्त होकर सवेरे से रात्रि में नीद आने तक
                 ह्रदय और भुजाओं में भरना चाहें..,

                 (२) नींद मुक्त होकर सवेरे ही भुजाओं से उड़ान भर
                       नींद युक्त होकर सो जाते हैं..,
                       क्यों प्रियतम ?? नहीं पंछी !
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काम   सनेहु   सब   जग   जन  चाम  चाँद   ना   कोए ।
जलधि जल घन, घन जलकन दिन कर दिनकर होए ॥

अर्थात = काम को जगत में सभी जन सराहते हैं  चन्द्रमा  की सुन्दरता को नहीं । 
               समुद्र के जलने से बादल एवं बादल से जल कण एवं दिन सूर्य के करने
               से होता है ॥ 
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आँट साँट साठ जन कर गाँठ गाँठ दे काट ।
आँट आँट कर बुद्धिबर गाँठ गाँठ कर आठ  ॥
षड़यंत्र करने वाले व्यक्ति बहुंत है जो गठबंधन को षडयत्र पूर्वक काट देते हैं 
बुद्धिमान उसे गूँथकर आठ गाँठ करके रखता है...... 
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"आँट साँट सठ कारज आठ गाँठ समझ"
दुष्ट का कार्य षड़यंत्र करना है समझदार सम्बन्ध नहीं तोड़ता......
  
'मत' लै मंडल माँडि कै बैठ सिंग सिस सिखर |
कारे कार काण्ड कै भर कारा धनाकर ||
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आई गोरी  रँग भरि होरी ।
कुमकुम के रंग केसू कुसुम रंग लख लख लाख रंगे ।।  
केसरी के रंग हरियरि के रंग धनु धनवन रंगे ।
रँग भरे सूरज रंग भरे चंदा नख नख सोह सुरंगे ॥  
रंग रंग रोरी अंग अंग गोरी रंग होरी के रंगे   
भइ कोरी कोरी चूनरी तोरी रँग फागुन के संगे ।। 

ए री सखि आ खेलें होरी । 
गोरी गोरी बैंया मोरी, सँवरे रँग रँगवइ दे ।।  
दुजन के संग खेलुँ न होरी, पिया रँग संग खिलवइ दे ।
धोरी धोरी देही मोरी, सँवरे अंग लगइ दे ।। 
और कहुँ सन सोह न जोरी, मोहन संग बँधै दे ।         
घनस्याम बरन भरे नैना, सखि प्रिय दरस दिखइ दे ॥  
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लाखन ते गहन गढ़े..,
रागन ते रंग चढ़े..,
ससि सा मुख लागै साज..,
ऐ सखि ! साजन ?? ना सखि ! लाज !.....
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दै धान लै मूल थोर रेवरी बाँट रमन ।
तहँ मति दै मद्य महँ बोर बटोर श्रमिक के धन ॥

मूल = मूल्य
थोर = थोड़ा
रेवरी बाँटना  = लालच देना
बटोर= संकलन, एकत्रकरण
मति = बुद्धि
मद्य = दारु
बोर = डूबोना
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" भारत देश के छत्तीसगढ़ राज्य में जिसके मुख्यमत्री रमन सिंग है
  वहां अस्सी प्रतिशत से भी अधिक श्रमिको का नब्बे प्रतिशत तक
  श्रम अर्जित धन केवल व्यसन में ही व्यय होता है....."
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घनाकर हिमबर बरसे उरबर देत किसान ।
दिन मनि कर धरनि हरसे धर हरियारा धान ॥

घनाकार = वर्षा ऋतु
हिमवल = मोती
उर्वर = उर्वरक
हरसे = हर्षित होना
दिन मनि =सूर्य
हरियारा = हरा-भरा
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कबीर यह तन जात है, सके तो राख बहोर ।
खाली हाथों वे गए जिनके लाख करोर ।।
    ----- ।। संत कबीर दास ।। -----
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थोड़े में ही अधिक कह रचना राख बहोर ।
लेखन लाख लख लख लह जनु किरन बिच अँजोर ।।
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 बन ठन कै मोहन मोर  नयन सदनहि  सुहाए ।
 कर कवाली करजोर  असद कह हाय हाय ।।
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बन ठन कै मोहन मोर  संसद सदन सुहाए ।

कर कवाली करजोर  असद कह हाय हाय ।।
कवाली = कव्वाली 
असद = मिर्ज़ा ग़ालिब 
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दुचंदु चित अरु दुभाखें  दुइ रसन रेतस रूप ।
दुइ बरन सिरु रुधिर राखें  नेता बन भुवन भूप ।।
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दर्सक बिन दर्पन हीन बिन सँवरे सिंगार । 
दोउ दीन दर्सन अधीन दोउ दरक आधार ।।

सँवरे= सज्जित, प्रियतम  
दरक= पीड़ा 
दरक= दरार 


अपनी सुध बिसराए के चित सँवरे सुध धार ।
नयन पलक पथराए के जोग रही हरकार ।।

सँवरे सँवरे दिन रैन सँवरे सँवरे नैन ।
बिनु सँवरे सँवरे नैन सँवरे दिन अरु रैन ।।   

सँवरे=सज्जित 
सँवरे=प्रियतम, कृष्ण,काजल 
सँवरे= तेज हीन    
बिखरे ब
बन भेस बदल रितु राजन राजे..,
सखी राजुं में किस भेस..,
पिय बिनु सोला सिंगार न साजे..,
पिय प्रबसे पराये देस.....

चले दूर दूर उरी धूर धूर पर उर न धीर धरे । 
देखि मूर मूर तरे झूर झूर पट नयन नीर भरे ॥ 
भरी कर कूरी हरीयर चूरी सुर सँवर गईं भूर । 
सर धरि बिंदिया पीर भरि बिछिया चुप करि सिस सिंदूर ॥  
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देखन गोले गिनन सोले..,
सोन सुन्दर कहूँ रंग धोले..,
मनिसर स्याम रुर सुर बोले..,
ऐ सखि साजन ? ना! रमझोले !

नींद परी मोरी वा की बैयाँ..,
कसकन कंधन साँवरे सैंया..,
तन मन जाके खोल धर आई..,
ऐ सखि साजन ? ना सखि ! रजाई !

कोऊ कर गए आपद कार..,
कोऊ तोप सिर धर सोए..,
कोई कोरी के करोर कर.., 
कोइ लो कोइलो लोए.....    
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करू कसैल काढ़ा धर कारे कारे केस ।
पन जीवी धन ग्रंथि कर तिसपर भगुवा भेस ।।
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दुन्नो हाथ में लाडू  तरस तस कर बिबाह ।
एक खाए के आह! आह! दूज पछताए आह! ।।
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कुम्हार के कर कोरे मटके चाक बनाए ।
राखे ते जल बहोरे पटके ते बिसराए ॥

सबहि बैठे चाक धरे माटी मोल बढ़ाएँ ।
मनहु पीछे पवन पड़े गगन धर सिर चढ़ाए ॥
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कर पसार दल बहु खड़े सबहिं दल एक समान ।
'मत' लै करिया धन भरें दै मति दै मत दान ॥

'मत'= भोट
दै मत= मत देना
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भरत देस राउ नगरी चारू चौंक निबास ।
बिच बिथर बट बीथि भरी नीम पेड़ के पास ॥

टनटना कर पोर पँवर मटुकी लई बिसाए ।
तापे जल सीतल करे थापे तान सुनाए ॥

चारू =सुन्दर
बिथर= फैला, विस्तारित
बट = मार्ग, बड़ा
बीथि= हाट, बाजार
कर = हाथ
पोर = उँगली
पँवर= थाह लेना, ठोक बजाना
बिसाए = क्रय किया
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फरे तरु पाथर मारे उलटे मुँह पर आए ।
कर जोर जोर हिरकारे झर बेरी बरसाए ॥

फरे = फले हुए
पाथर =पत्थर
कर = हाथ
जोर = जोड़
हिरकारे = हिलाए

फूर फर खाट खोर दे लाख लखन गुन धार।
तोड़ ताड़ के जोर दे फिर दै घाट उतार ??

फूर फर खाट खोर दे लकरी बहु गुन धार
तोड़ ताड़ के जोर दे फिर दै घाट उतार

खाट = खटिया, पलंग
खोर = आच्छादन, छाया
लाख- बहुँत
लखन = लक्षण
लकरी=लकड़ी
जोर = जोड़
घाट उतार = नदी, समुद्र आदि के पार, अंतिम संस्कार
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       -----॥ भारत की कहानि ॥-----
एक नगर माली के बन डालि डालि भरपूर ।
बानि बानि के फर फूर  धानी धानी झूर ।१।

ताप रितु तर बरखा पर अवनु सरद हेमंत ।
सीत सिसिर के रथ उतर रागे रंग बसंत ।२।

त्राता कूर कपट भेस बन उरबर दे न जर ।
तोर कोटि फर कटि देस  लै जाए झोरी भर ।३।

पाख पसु बहु त्रास त्रसित भूख प्यास के सन ।
त्राहि त्राहि कर सकल जन त्राहि त्राहि कर बन ।४।

त्रसित तस तब त्रस जन कै भै मंच पञ्च सभा ।
सभा समुख प्रमुख बन के तहँ आए सूर प्रभा ।५।

सूझ बूझ परख कर गोठ तब लिए निर्नय सकल ।
जुना कोटि कोटिक कोठ राखु माली नए कल ।६।

बहुस माली अदल बदल पुनि चयन किए दल एक ।
नव दल के पंक बलकल रहे सदस्य रव भेक ।७।

कोट कपट के ओट गहे चाटुक दलपति घेर ।
लपट लपट मधु मधुर कहें रहे हेर के फेर ।८।

कपट तापस दल पति उर मारे जन एक लात ।
चर अचर न अधर ऊपर थर न कहुँ जर गात ।९।

पुनि पदस सोइ झोरुधर रहें न कोउ बिकल्प ।
सुखे कंठ बन सुखे अधर गहे मुख काल कल्प ।१०।

अब ते उहि झोरा छाप लूट खसोट मचाए ।
कपट करे न राखे धाप जन बन उजरत जाए ।११।

दल अरु दल पति कै दरे बन जन दाल दलाएँ ।
अब आप मन कोउ भले नउ नै नीति सुझाएँ ।१२।

भावार्थ :--
एक नगर स्वामी के उपवन डालियों से परिपूर्ण था ।
वहां विभिन प्रकार के फुल-फल, उन डालियों में झूल रहे थे ।1।

ग्रीष्म ऋतु के आगमन और वर्षा ऋतु के गमन पश्चात शरद ऋतु  और
हेमंत ऋतु आ जाती । शीत और शिशिर के रथ से उतर कर वसंत ऋतु
सुन्दर गान करते नृत्य क्रीडा करती ।2।
             
नगर का स्वामी  क्रूर था एवं उसकी वेशभूषा भी बनावटी थी,
वह  वन  के  पेड़ों को न तो उर्वरक देता और न ही जल देता।
वह बहुंत सारे फलो को तोड़ कर अपनी कमर के थैले में भर
कर ले जाता ।3।

वहां के पशु-पक्षी भूख प्यास से बहुत ही त्रस्त और आक्रांतित थे ।
और पेड़-पौधे एवं नागरिक जन "बचाओ-बचाओ" पुकार रहे थे ।4।

 तब भय युक्त वन की मंच पर पञ्च सभा हुई ।
सभा के समुख प्रमुख बन कर वहां सूर्य और उसकी प्रभा आई ।5 ।
                                                     
आपस में बातचीत करके सोच विचार एवं देख परख कर
सबने यह निर्णय लिया । पराए वाले माली की तो करोड़ों
की कोठियां बन गई अब कल नया माली रखेंगे ।6।

बहुंत से से मालियों को अदल बदल कर फिर एक दल का
चयन  किया  गया  नया दल भी कीचड़ में लिपटा हुवा था
और उसके  सदस्य मेढक के समान टर्र टर्र करते अर्थात
स्वयं को कमल बताते ।७।
                                               
कपट के  परकोटे  के ओट किये हुवे दलपति को चाटुकार घेरे हुवे थे
वो मुख में माधुर्य लपेट कर मीठा  कहते किन्तु  सदा  हेरा-फेरी में
ही लगे रहते ।८।

दल पति जो की  ढोंगी  बाबा  था लोगों ने उसकी छाँती पर एक लात
मारी। और उसे भी भगा दिया  अब वह  ना  तो चलता  है, न रुका है
न वह नीचे का रहा न वह ऊपर गया न वह स्थल पर है न वह  जल
के ऊपर है ।९।

अब फिर से वही कमर में झोला रखे वाला पदस्थ हुवा,
और कोई विकल्प भी नहीं था ।
वनों के होठ और कंठ सुख गए, मुँह काल के गर्त में समा रहा है ।10 ।

अब तो उस झोला छाप माली( नकली डाक्टर)  ने लूट खसोट मचा रखी है ।
वह छल करता है और संतोष भी नहीं करता व एवं वन के जन सभी उजड़े जा रहे हैं ।11।
                                                                                       

दल और दल के स्वामी के दले से वन तथा उसके जन
दलहन के जैसे दल गए है । अब आपलोग ही कोई उत्तम
दिशानिर्देश देकर, कृपया कोई नई नीति सुझाएँ ।12।



1 comment:

  1. अति सारगर्भित . सादर . क्षेत्रपाल शर्मा

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