Friday 12 October 2018

----- ॥ हर्फ़े-शोशा 7॥ -----

  रियाकार वो इस कदर के माज़ी को बिसराए है..,
   अपने पुश्तों पुरखों को राहजन बतलाए है..,

मलिकी मुल्के ग़ैर की ज़ब्ते-जऱ से पैदा होकर..,
उसकी मुल्के दारी पर फिर अपना हक़ जतलाए है.....

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मुल्के दुन्या ने इक नया तमाशा देखा
अतलसी लबास तन के दस्त में कासा देखा..,

  ग़रीबो-गुफ़्तार के दर माँगे ये सल्तनत
मजबूरी पे पड़ता जम्हूरियत का पासा देखा.. ?

शिकम सेर होकर वाँ खाए है इस कदर
जैसे की कभी बतीसा न बताशा देखा..,

शीराज बंद वादों में फिर लफ्ज़-दर-लफ्ज़
गुजरे वक़्त की नाकामियों का खुलासा देखा..,

दिखी उस तन के चेहरे पे फ़तह की जब उम्मीद
हँसती तब हर इक नज़र को रुआँसा देखा..,

लच्छेदार दार बातों में जब लचकी ज़रा कमर
   मुफत में वजीरे आज़म का सनीमा देखा.....
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कहीं और की पैदाइश कहीं और है बसेरा..,
किस बेशर्म जबाँ से कहते ये हिन्द को मेरा..,

मुल्कों को तक़सीम करना इनकी है रवायत..,
जुल्मों जबह कर फिर करते है उसपे हुकूमत..,

इनसे सियह बख्त है मिरे माज़ी का हर सबेरा..,
किस बेशर्म जबाँ से कहते ये हिन्द को मेरा.....

हरक़तें नाजायज़ 

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सुपेदो सब्ज़ केसरी है मेरे हिन्दुस्ताँ का रंग..,
इस

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कदम तले जमीं सर पे रखते हैं आसमाँ
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कभी साज़ तो कभी नासाज़ तबीयत रंग बदलती रही..,
आमदो-रुपत होती रही दुनिया यूं ही चलती रही.....

हम चराग़े-गुल हैं शरारों पे बसर करते हैं
जल के अपनी रौशनी अंधेरों को नज़र करते हैं

हम शम्मे -गुल हैं ख़ारों पे बसर करते हैं
खुशबु को हवाओं की नज़र करते हैं
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होके आज़ाद वो ज़ालिम फिर आबादे-चमन हुवे..,
 फिरते रहे हम अपने ही वतन में बे-वतन हुवे.....
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ए बागे दुन्या तेरा दो दिन का दीदार |
सामाँ सालोंसाल का औ दमे दिल कुल चार  ||
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मिरा माज़ी तंगे-हाल किए..,
खुद को मलिको-मालामाल किए..,
रहते है उस पार औ इस पार भी..,
मिरे दर पे वो सौ दीवाल किए.....
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कहने को तुम बुलंद पादान पे खड़े हो..,
गैरों की मगर पढ़ाई पट्टी को ही पढ़े हो..,
मुल्के-मिल्की है ये मुल्केदारी खुद की..,
इख़्तिलाफे-राय करके ख़ुद से ही लड़े हो.....

भावार्थ : - कहने को तुम ऊँचे पदों पर पदस्थ हो, किन्तु दुसरो की पढ़ाई पट्टी पढ़ के  तुम्हे ये पद प्राप्त हुवा है | ये देश तुम्हारा है इसका स्वामित्व तुम्हारा है | खेद है कि मतभेद करके तुम इस स्वामित्व हेतु स्वयं का विरोध कर रहे हो  |

 ये मेरा छायाचित्र नहीं है
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इस दौरे-ज़माने को हासिल सब दौलते हैं
ज़ईफ़ो-बुजुर्गि की बच्चों की सी हरकतें हैं
आइंदा-ज़माने की नहीं फिक्र है किसी को
क़िस्मत में लिखे अपनी नस्लों की लानतें हैं

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झील सी झुकी स्याह पलकें
मेरे रूबरू फिर उठी हलके हलके

शम्मे-शहन में शामो-शब् फिर
हुई सुर्ख-रू शोरे-शम्मा जल के


सुर्ख़-दामाँ जब सर से सरके
उठी  लहरें उछल के


के लब आते आते उनके लबों से
मिले जूँ मिले हों गुल नौ कँवल के

हवाओं का नग़्मगी दामन
गिरा पर्वतों के शानों से ढल के

आहिस्ता आहिस्ता शबनम के कतरे
उतरे फ़लक से सीपियों में मचल के


इक नया आफ़ताब जाहिरे-दर होने को है
यह शबे इंतज़ार भी मुख़्तसर होने को है
दम- गजर ने इशारे दम सुब्हे है दो कदम पर
ए चराग़े-लर्ज़िशें-पा बस सहर होने को है







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गुलकदे में नए गुल गुलरान आ गए..,
नए गुलुकार नए बागबान आ गए..,
बाग़-बाग़ शज़र है ख़ुश है ख़ूलजान.., 
शाख़सारों पे नए मेहमान आ गए.....

शज़र = पेड़
ख़ूलजान = बेले, पान की बेलें
शाख़सारों = शाखाओं के झुरमुट 


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हो मंदिर अपनी जगह औ मस्जिद अपनी जगह..,
होली दिवाली अपनी जगह हो ईद अपनी जगह..,
माँगी मुराद अपनी जगह वो पूरी करता है जरूर..,
मानिए के न मानिए सही है ये जिद अपनी जगह.....
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मैं बागे-रु वो चश्में-गुल शबनम के क़तरों की तरह..,
वो ख़्वाब है तो क्यूँ न रख्खूँ उसको मैं पलकों की तरह..,
सफ़हे-आइना-ए-हेरते वो झुकती है कदमों पर मेरे..,
उठता हूँ फिर पेशानी पे उसके मैं सुर्ख़ ज़र्रों की तरह.....

बहारे गुल तरन्नुम छेड़ती और गुनगुनाती है फजाँ ..,
जब पड़ता हूँ उसको क़ाग़ज़े पुरनम के नग्मों की तरह.....

सुनके दिल की धड़कनों का शोरग़ुल 
कहतें हैं जानो-ज़िस्म में वो ज़ब्त साँसों की तरह
शब् को शम्में करके रौशन देखूँ जब चिलमन से उसे
  रख्खे हथेली को निग़ाहों पर वो परदों की तरह

ऐ हवाओं न दो मिरी इस आगे-उल्फ़त को हवा
सुलग़ के -आरज़ू फिर दहकेगी शोलों की तरह 

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वो  शम्में-रु मैं चश्में-गुल शबनम के क़तरों की तरह
वो ख़्वाब है तो क्यूँ न रख्खूँ उसको मैं पलकों की तरह

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तश्ते आसमा तलक है
तिरी निग़ाह कहाँ तलक 
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ए बागे-वतन की वादे-सबा ठहरो तो ज़रा दमभर के लिए..,
मिरे दिल कीदुआ तुम ले जाओ अपने अंजामे-सफ़र के लिए..,

ओ पैक़र मुल्के-सिलाही से ये पैग़ामे-मुहब्बत कह देना..,
इस काग़ज़े-नम को पढ़कर के अहदे-वफ़ा को रह देना..,
अब तक ये शम्में रौशन हैं सरहद के चरागे-सहर के लिए..,

बेलौस तुम्हारी राहों को रोकेंगे खिजाओं के साए..,
रख्खेगें तुम्हारे शानों पर शोला-ओ-सरर को सुलगाए..,
इस जाँ को हिफ़ाजत से रखना अपने जानो-दिलबर के लिए.....


ये ख़ुश बू गुल रंगे-रू इक

  हाल बयाँ करना
जवाबी-पैग़ाम 
मिरे ज़ख्मे-तीरकी स्याहे-खूँ  तहरीर ये करती है
पुर शोरे-क़यामत के सफ़हे फिर इक तस्वीर उतरती है
मजरुब ये संगे-सर सदक़े तेरी  ही दीवारों दर के लिए

शबे-रोज़
ग़ुबारे-राह हर उठते क़दम को पुकारे
शोला-शोला है वो शबनम को पुकारे
 तहरीर लिखने को
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तुझको सबकी ख़बर दरे-हक़ीक़त के सिवा..,
आता है तुझे सबकुछ इक अक़ीदत के सिवा..,
कैफ़ियत-ए-क़ौम से बेख़बर ए अख़बार सुन..,
ज़माने में और भी ग़म हैं सियासत के सिवा.....

अक़ीदत = आस्था,श्रद्धा
कैफ़ियत-ए-क़ौम = देश अथवा देशवासियों की स्थिति-परिस्थिति
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आबो-मीन की दास्ताँ मौजे-रवाँ तलक
ज़र्रो-ज़मीन की दास्ताँ दौरे-आस्माँ तलक
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जाँ चाहिए तो किसी की जाँ खरीदिये..,
उस आखिरी सफ़र का सामाँ ख़रीदिये..,
मिलती है याँ बसरे-औक़ात की हर चीज़..,
ये उर्दू-ए-बाज़ार है ज़मीरों-ईमाँ ख़रीदिये.....

गर आशियाँ न हो तो आशियाँ खरीदिए..,
ज़रूरियाते-जिंदगी का सामाँ खरीदिए..,
मिलती है बसर के औक़ात की हर चीज़..,
ये उर्दू-ए-बाज़ार है याँ ख़ुशियाँ खरीदिए..,

वहां सितारों में भी कहीं दिल नहीं लगता..,
उस चाँद के लिए कोई नया आस्माँ खरीदिए.....

करनी है गर अपनी ख़ानादारी में बरक़त ..,
आमदो-ख़र्च के ब्योरे का ये जरीदा खरीदिए.....
 
 रँगे-साज़ दीवार-दर आराइश को हैं तैयार
जो रौनके-अफ़रोज़ हो वो रौशनियाँ खरीदिए

ये ख़ुर्द-ख्वानगी और ये ख़्वाहिशें दराज़
ज़ेब तंगे-हाल हो तो क्या क्या खरीदिए

सराफ़ी पारचा लीजिए और बराए मेहरबाँ
आप भी किसी दुकाँ से शीरीं बयाँ खरीदिए

ज़रूरियाते-जिंदगी = जीवन हेतु आवश्यक
बसर के औक़ात = जीवन-यापन
ख़ानादारी = घर गृहस्ती
जरीदा = बही-खाता
आराइश = सजावट
रौनके-अफ़रोज़ = उत्साह वर्द्धन
ख़ुर्द-ख्वानगी  ख़्वाहिशें दराज़ = थोड़े सामर्थ्य में अधिक की चाह
सराफ़ी पारचा = धनादेश पत्र (चेक )
शीरीं बयाँ = मीठी बोली
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ए तहज़ीबे-बूत तुझे गढ़े तो कोई गढ़े कैसे
इस मुसव्विरी को बढ़े तो कोई बढे कैसे
फ़ाजिलो-अशराफ़ सफ़े-हस्ती से उठ गए
तिरी इल्मो-इलाही पढ़े तो कोई पढ़े कैसे

सरहदी की जंग अब तो हुई बहौत आसाँ
मार-आस्तीन से लड़े तो कोई लड़े कैसे

मुसव्विरी = कलाकारी, नक़्क़ाशी
फ़ाजिलो-अशराफ़ - साधू-सज्जन और विद्वान
इल्मो-इलाही = वेद-पुराण
सरहदी = किसी देश के शीर्ष की सीमाएं
मार-आस्तीन = भुजाओं में पलने वाले सर्प या शत्रु


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ए जमहूर तिरी हुकूमत का अफ़साना वही..,
वही बेआवाज़ तूती औ नक्कारख़ाना वही..,
मशहूरो-मुश्तहर याके मकदूरवाला हुवा ..,
मुतवज्जुह देकर याँ सुना गया तराना वही.....

जमहूर = जनता
मकदूरवाला = पैसेवाला
मुश्तहर = विज्ञापित
मुतवज्जुह = ध्यान
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देहो-दहर अब शहर-शहर हो गए..,
पीरो-पैग़म्बर भी पेशेवर हो गए..,
फ़िरक़ा-ओ-ज़मात की बसा के बस्तियां..,
जानवर मर्दुम से बेहतर हो गए.....

देहो-दहर = गाँव-खेड़े
मर्दुम = मनुष्य
फ़िरक़ा-ओ-ज़मात = जाति-वर्ण-धर्म
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उस बेजबाँ-ओ-बेक़सूर की बेबसी पे रहम करो..,
उसको ज़ब्ह करके न इतना ज़ुलमो-सितम करो..,
तुम्हारे शिक़म के लिए जहाँ में ख़ुर्दनी है और भी..,
ख़ुदा बंद के वास्ते ही सही  कुछ नेकी फ़राहम करो.....

ज़ब्ह = गला काटना
शिक़म = पेट,उदर
ख़ुर्दनी = खाने की वस्तुएं
फ़राहम = एकत्र, संकलन
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फिर हौसलों को पंख दे नई कोई उम्मीद कर               
उस आख़िरे-फ़लक तलक पहुँचने की ज़िद कर
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 चमन चमन को मुश्केबार शबे-गूँ को गुले-गूँ करो..,
  ऐ ख़ामोश हवाओं स्याह जुल्फों से गुफ़्तगू करो..,
  ये पूरनूर चाँद उन शोख़ निग़ाहों को करो नज़र..,
  नर्म कफ़े-दस्त को हिना के रंग से सूर्ख-रू करो.....
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वो चली ख़बर फ़सादी सुर्ख़ियों को तह दे..,
ख़तावारी को सिलह फ़रेबकारी को शह दे..,
हर्फ़-हर्फ़  इसकी दरहक़ीक़त की लूँ ख़बर..,
ए सियह दानी ज़रा क़लम को तो सियह दे..,

अपनी बद-निग़ाह पे हिज़ाब गर ये चाहती..,
हमसे पंगा मत ले तू जाके उससे कह दे.....
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गुलशन की ख़बर है न गुलनारों का पता..,
मौसमे-गुल की ख़बर है न बहारों का पता..,
आएंगी इस बार तो पूछेंगी मुझसे सर्दियाँ..,
ए  कोहकन कोहिस्तान में चनारों का पता.....

कोहकन = पहाड़ खोदने वाला
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ज़ब्ह-ओ-जफ़ाकार की तरफदारी का ज़माना है..,
शहवत परस्त की फ़रमाँ बरदारी का ज़माना है..,
फ़र्ज और ईमान याँ रखे हैं बाला-ए-ताक़ पर..,
जमहूर की हकूमत है स्याहकारी का ज़माना है.....

 बाला-ए-ताक़ = अलग, दूर
शहवत परस्त = ऐय्याश, भोगविलासिता
जमहूर = जनता
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मौज़ूदा वक़्त-ए-तंग तू होजा ख़बरदार  |
आने वालि नस्ल तिरी होगी फाँकेमार  || १-क ||


जमीं के ज़ेबे तन की दौलतें बेपनाह |
जिसपे एक ज़माने से है बद तिरी निगाह || ख ||


बता के तू है क्या रोज़े हश्र का तलबग़ार |
मौज़ूदा वक़्त-ए-तंग तू होजा ख़बरदार || ग ||


देख तो इस रह में कोई सहरा है न बाग़ |
होगी वो मासूम याँ बेख़ाब बे चराग़ || घ ||


क्या नहीँ है वो इस मलिकियत की हक़दार
मौज़ूदा वक़्त-ए-तंग तू होजा ख़बरदार  || ड़ ||

ख़ुदा की ये रहे-गुज़र ख़ुदा की बसर-गाह |
करता है तू हकुमते बनता है शहँशाह || च ||

मज़लिम का मुजाहिम ए मुहतरिम का चारागार ||
मौज़ूदा वक़्त-ए-तंग तू होजा ख़बरदार  || छ ||

ये मालो-मुलम्मा ये रँगीन सुबहो शाम |
ये ज़श्न ये जलसे ये जलवे सर-ओ-बाम || ज  ||


बेलौस हँसी पे तिरी (वो) रोएगी जाऱ जाऱ |
मौज़ूदा वक़्त-ए-तंग तू होजा ख़बरदार  || झ  ||





नज़्म-ओ क़लाम कोई नया
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ले चले क़दम कहाँ इस दौरे-जहाँ से हम..,
सोचे ज़रा ठहर के थे आए कहाँ से हम..,
बनते हैं सुख़नदाँ अब पढ़के ज़बाने-ग़ैर..,
हुवे यूं अज़नबी ख़ुद अपनी ज़बाँ से हम..,

माज़ी को लफ्ज़ दें तो निकले है लब से आह!
हैं दर्द-मंद सपेद चेहरों से सीने-स्याह से हम..,

सरका-ए-बिल्जब्री को वो कहते थे हमवतन..,
हैं रोज़ो सोज़े जाँ अब उनकी सिपाह से हम..,

क़सूर था वो कौन सा किया था हमने क्या..,
गिरते ही गए जहाँ की नज़रे-निगाह से हम..,

मेहृ-ओ-चाँद सितारों के थे शुमारे-कुनिंदा..,
करते थे गुफ़्तगू भी कभी कहकशाँ से हम..,

ग़ैरों का दामन थाम के फिरते हैं दरबदर..,
चलते हैं सब्ज़े-पा अपनी रब्ते-राह से हम.....

सुख़नदाँ = लेखक
माज़ी = अतीत, इतिहास
सीने-स्याह = काले दिलवाले
सरका-ए-बिल्जब्री = डाकू-लुटेरे मोतबर = भरोसेमंद
सिपाह = सेना
मेहृ = सूर्य
शुमारे-कुनिंदा = गणना करने वाला
रब्ते-राह = छूटा हुवा सन्मार्ग, टूटा हुवा सुसम्बन्ध
सब्ज़े-पा= जिसका आना दुर्भाग्य का सूचक हो, मनहूस कदम,सत्यानाशी
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सियासत तेग़ और म्यान जब अख़बार हो गए..,
हम भी इंक़लाबे-क़लम के तलबग़ार हो गए.....

उठती रही तेरे दर से ऱोज एक दीवार क्यूँ..,
होता नहीं ऐ हिन्द तू ख़ुद इख़्तियार क्यूँ..,
चुने हुवे ये मनारो-महल मेरे ख़ूने-ख़िश्त से..,
लगता है याँ अबतलक ग़ैर का दरबार क्यूँ.....

ख़ुद इख़्तियार = स्वतन्त्र
ख़िश्त = ईँट

किश्त ज़ारी इसकी
पर्वते-ए-माहताब = चाँद की किरण 
आल्हा गान = आपबीती का वर्णन 
हक़-रसी = न्याय का अधिकार
बेनज़ीर = अद्वितीय
रेहल = किताब रखने खांचा
बाँगे-दुहल = डंके की चोट
अनख = प्रतिस्पर्द्धा,  होड़
पुरोडास =यज्ञ का अन्न
एकै मूठिका नाज बुए भरे भूरि भण्डार | 

गगन मेह बरखाओ घुमड़ घूम, जीउ जीउ रे तिसनत तरपत, बरखा ऋतु आओ..... तपत धरिती रे दिवस रैना 
हरितप्रभ तन घनोदयात हरिअरी हरियाओ.....


बूँदी बूँदी नदी तरि तरसावै
घट-घट भरि जाओ
मेह = मेघ 
सदरा = सारा 
धरित्रि = पृथ्वी, भूमि 
हरितप्रभ = पीला पड़ा हुवा 
घनोदयात = पावस का उदय करके 

ठहर जाओ ना ऐ रब्ते-क़दम, हों जो हमराह तो होंगे मुकम्मिल हम..,
मगर इससे पहले लो ये क़सम,
मीलों के ये फ़ासले तय करोगे सनम..,

ये तन्हाई के अँधेरे जब सताएंगे,
हम उम्मीदों के चरागों को जलाएंगे,
करो नही तुम अब पलकें यूं नम.....


जब चाहत के सरे-नौ मरहले होंगे
तब हज़ारों ख़ार भी क़दमों तले होंगे
हाँ खुशियों में बदलेंगे सब गम.....

सरे-नौ मरहले = चाहत के सम्मुख नए बसाए घर, सफर में नए नए पड़ाव

ख़ार = कांटे
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मिरी ख़्वाहिशों के खुश रंग यूँ बदरंग हो गए..,
ऐ आईने फिर सुरते-तस्वीर पे रो दिए .....


गराँ बार इस बसरे-औकात के सितम से ..,
अच्छे खासे आदमी थे लाचार हो गए .....

इश्क़ में ग़म खुशियों पे फ़िदा हो गया ,
ऐ शम्म लो फिर परवाना फ़ना हो गया ....

न ख्याल हैं न ख़्वाब है
न ही नींद और ये शबे-नीम स्याह
शोजे शम्म सहर की उम्मीद में
गुज़र-गाह

में हसरते-निगाह
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जवाब --
ये दीन की ख़ुदा की ख़िदमत से परेशां था..,
ये दो गज़ कफ़नो-दफ़न के हक़ में कहाँ था..,
रख के ज़ेरे-ख़ाक में तुझे कहेंगे चार आदमी..,
ये खुद को हमारे दोशों पे नाहक छोड़ गया था..,
अब आप ही कहें ये शख्स हिन्दू के मुसलमाँ था.....



दोश- कंधा



2 comments:

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