Thursday 1 November 2018

----- ॥ दोहा-द्वादश ९ ॥ -----

काँकर पाथर बोइ के जीउ दियो उपराइ |
जनमानस के राज भुइँ गई खोद सब खाइ || १ ||
भावार्थ : -  यह समूचा संसार कंकड़ -पत्थरों का है और पृथ्वी में यदि कुछ सुन्दर है तो वह जीवन है | और लोक तंत्र ने इस पृथ्वी में जीवन को उखाड़ कर केवल कंकर पत्थर के जंगल ही बोए हैं | अब तो यह 'मूर्तियों वाला भ्रष्टाचारी तंत्र' के नाम से कुख्यात होने लगा है | जीतनी भूसंपदा इस तंत्र ने उत्खात कर खाईं हैं उतनी तो सहस्त्रों वर्षों के तंत्रों ने नहीं खाई |

सत करमी सनमारगी धरम परायन जोइ | 
जाके मन सत चारिता महापुरुख सो होइ || ४ || 
भावार्थ :--जो सत्कर्मी हैं, सन्मार्गी हैं ( वह मार्ग जिससे ईश्वर की प्राप्ति हो सके ), धर्मपरायण हैं, जो शील व् सदाचारी मनोवृति के हैं वस्तुत: वही महापुरुष हैं | 


तब लग लौ लागि जब लग घट दीपक में सार |
भले करम की देहरी धरत जगत उजियार || २ ||
भावार्थ :-जब तक देह रूपी दीपक में प्राण स्वरूपी सार है शिखा स्वरूपी स्वांस तब तक ही प्रज्वलित रहेगी| यदि इस देह दीपक को सत्कर्मों की देहली पर आधारित किया जाए तो इससे न केवल एक घर, एक मंदिर अपितु समूचा जगत आलोकित होगा  |

जाके पहि संतोष धन रज में राजा सोए |
जाके पहि संतोष नहि रंक राजता होए || ३ ||
भावार्थ :-- संतोष से बढ़कर कोई सम्पति नहीं है जिसके पास संतोष रूपी धन है वह रंचमात्र सम्पति में भी राजा है | जिसके पास यह धन नहीं है  राज करता हुवा वह राजा भी दरिद्र है |

सत करमी सनमारगी धरम परायन जोइ | 
जाके मन सत चारिता महापुरुख सो होइ || ४ || 
भावार्थ :--जो सत्कर्मी हैं, सन्मार्गी हैं ( वह मार्ग जिससे ईश्वर की प्राप्ति हो सके ), धर्मपरायण हैं, जो शील व् सदाचारी मनोवृत्ति  के हैं वस्तुत: वही महापुरुष हैं | 

ऊँची पीठि पदासीत धनीवंत जो कोए | 
लबध प्रतिठित जगत बिदित महापुरुख अब सोइ || ५ || 
भावार्थ :- जो ऊँचे पद पर आसीत है, धनाढ्य है,लब्धप्रतिष्ठित है,जगतविदित है, विद्यमान समय में वही महापुरुष कहे जाते हैं | 

सब्द सुरमालि कंठ गत  करत रागाभ्यास | 
लेखन गायन बिधा पुनि करतब सरल सुपास || ६ || 
भावार्थ :- रागों के आधार पर स्वर व् शब्द मालाओं का कंठगत अभ्यास, गायन व् लेखन की विधा को अत्यंत सरलता व् सुगम्यता प्रदान करता है | 

मानस उद्धिग्न भाउ लए जब मन होत क्लांत | 
गीत भनित कर सरित बहँ तहँ अस्थिर असांत ||७ || 
भावार्थ :--जहां मनमानस उद्दिग्न व् अधीर भाव लिए क्लांति को प्राप्त हो वहां कविता गीतों की सरिता अस्थिर व् अशांत होती है | 

धीर धरे जहँ मानसा जहँ मन होत प्रसांत | 
गीत भनित कर सरित तहँ बहती  स्थिर सांत || ८ || 
भावार्थ :-- जब मनमानस धैर्य धारण किए हो और चित्त धीर-प्रशांत हो वहां कविता व् गीतों की सरिता का प्रवाह शांत व् स्थिर होता है | 



दाता मूरख आँधरा जो को जा समुझाए | 
बीन बजाए बसह सोंहि अपुना समय गवाएँ || ९ || 
भावार्थ :-- मूर्खों व् निर्बुद्धियों के लिए उपदेश नहीं होते यदि होते तो भगवान कृष्ण अर्जुन की अपेक्षा दुर्योधन से ही कहते तू युद्ध मत कर उसी प्रकार मूर्ख व् अंधविश्वासी मतदाताओं को जो कोई जाकर समझाता है वह भैस के आगे बीन बजाकर अपना समय नष्ट करता है | 

गहे बहुतक ढोलकिआ वादक अहैं अनेक |
बहु बादन का कीजिये रागै राग जब एक || १० ||
भावार्थ :-  जब एक ही राग रागान्वित हो तो वादक व् वाद्य यंत्रों का बाहुल्य व्यर्थ होता है |

आन बसे परबासिआ भारत देस अखंड |
निज संस्कृति नसाए के भयऊ खंडहि खंड || ११ ||
भावार्थ : इस अखंड भारत देश में जब प्रवासियों का वास हुवा, तब यह अखंड था अविभाजित था | इन प्रवासियों ने ही इसे दास बनाया इसे खंड-खंड किया लोग तो पीढ़ियों को जन्म देते हैं इन्होने तो देशों को जन्म दिया |  ये प्रवासी अब यहाँ भारत वासी बने बैठे हैं अपनी सभ्यता संस्कृति को नष्ट-भ्रष्ट कर अब ये खंड-खंड भारत और भारतीय वैश्विकपटल पर अल्पसंख्यक होकर अपने अस्तित्व व् अस्मिता के लिए संघर्ष कर रहा है

साँच तप अरु दान दया जे कुल चारी मर्म |
कहत गोसाईं तुलसी होतब सोई धर्म || १२ ||
भावार्थ : - गोस्वामी तुलसी दास जी कहते हैं सत्य,तप, दया और दान इन चार मर्म ही धर्म है | 

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