Saturday, 15 December 2018

----- ॥ दोहा-द्वादश १४ ॥ -----,

जबहि भीते चोर बसे, पहराइत के राख |
बहुरि सासत राज रजत तहाँ पराई साख || १ ||
भावार्थ : - प्रहरियों के प्रहरी बनकर जब गृह के भीतर ही चोर बसे हों, तब विदेशी अथवा विदेशी प्रवासी के वंशज उस गृह का उपभोग करते हुवे उसपर शासन करते हैं |

जोइ बिटप परपंथि हुँत होत उदारू चेत | 
साख बियोजित होइ सो उपरे मूर समेत || २ || 
भावार्थ : -   पंथ पर अवस्थित जो वृक्ष डाकू, लुटेरों के प्रति उदार ह्रदय होता है वह एक दिन अपनी शाखाएं वियोजित कर मूल सहित उखड जाता है |

पंथ = धर्म
वृक्ष = अनुयायी
परिपंथी = डाकू, लुटेरे

दीन हीन मलीन हुँते रखिता चेत उदार |
साख साख बिरधाए सो बिटप गहे बिस्तार || ३ || 
भावार्थ : - लुटेरों के प्रति उदारवादी न होकर दरिद्र, दुर्दशाग्रस्त, विकलता से भरे हुवे के प्रति उदार वृक्ष अपनी शाखाओं को संवर्द्धित कर विस्तार को प्राप्त होता है |

जूह भीत अभिमन्यु सों बैदि धर्म बिपरीत | 
पैसन पथ परिरुद्ध है, निकासि पथ असिमीत || ४-क  || 
----- || गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर || -----
भावार्थ : -- गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार : - अभिमन्यु द्वारा प्रविष्ट व्यूह से वैदिक धर्म विपरीत है इस समुदाय में प्रवेश द्वार अवरूद्ध  है और निर्गत द्वार अनेकों हैं....."

क्योंकि : - 
बैदिक धरम बिटप सूर सार रूप भगवान | 
ग्यान सिंचित जल है उर्बरा है बिग्यान || ४-ख || 
भावार्थ : - क्योंकि वैदिक धर्म समुदाय एक ऐसा विटप है जिसके सार में सूर्य स्वरूप भगवान हैं यह ज्ञान जल से सिक्त  व् विज्ञान की उर्वरा से परिपुष्ट हुवा  है | इसका विज्ञान आनुवांशिक अभियांत्रिकी का पर्याय है |

साधौ जब हुए जाएँगा बिधिबिद बिधि ते बाम |
जहाँ बिराजै राम समुझि सोइ राम के धाम || ५ ||
भावार्थ : - सज्जनों जब न्यायकर्ता न्याय के विपरीत व्यवहार करने लगे  तब जहाँ राम विराजेंउसे ही राम का धाम समझ लेना |

प्रगस बड़ो पहुमि नहि नहि प्रभु ते बड़ी प्रभुताइ | 
भगत सनेहे भगति कू  बंचक बंचकताइ  || ६ || 
भावार्थ : -  प्राकट्य स्थान से ईश्वर्य का प्राकट्य महत्वपूर्ण है ईश्वर के सम्मुख ईश्वर का सांसारिक वैभव तुच्छ है | भक्त को भक्ति से अनुरक्ति होती है प्रपंचों से नहींऔर  राम का नाम लेकर जगत को ठगने वाले ठगों को ठगी से अनुरक्ति होती है राम से नहीं |

समयँ सबते बली तासु बली न को जग माहि | 
समयँ न कोउ बाँधि सकै समयँ बाँधि सब काहि || ७ || 
भावार्थ : - समय सबसे बलवान है समय से बलवान इस संसार में कोई नहीं है | समय को कोई बाँध नहीं सकता समय द्वारा सभी विबन्धित हैं |

खाना पीना पहिरना साधे साध अगाध | 
एकै स्वारथ साधना कहा न दूजी साध || ८ || 
भावार्थ : -  खाना पीना पहनना और नाना प्रकार के सुख साधनों का संकलन करना अर्थात स्वार्थ सिद्धि में लगे रहना   क्या जीवन का यही एक मात्र लक्ष्य है |

भीतर के संसार एक बाहिर के संसार | 
जे कर्म के अधार है जे तो भावाधार || ९ || 
भावार्थ : - मानव जीवन के दो जगत होते हैं एक बाह्य जगत एक अंतर्जगत | बाह्यजगत  किए गए कर्मों के द्वारा और अंतर्जगत विचार आचार संस्कार आदि मनोभावों के द्वारा व्यवस्थित होता है |

जीवन साधन साधना साधे बाहिर गेह | 
अंतर मन करि भाव सों सधे भीतरी देह || १० || 
भावार्थ : - भोजन वसन वासन वाहन आदि जीवन के साधनों की सिद्धियां मनुष्य के बाह्य जगत को साध्य करती है  आचार, विचार, प्रेम, भक्ति आदि अंतर्भावों से अंतर्जगत साध्य होता है |

साधन माहि रमाए रहँ पेम भगति बिसराए | 
बाहिर भवन बसाए सो भीत भवन उजराए || ११ || 
भावार्थ : - जो प्रेम भक्ति आदि मनोभावों की अवहेलना कर केवल जीवन के साधनों को सिद्ध करने में संलग्न रहता हो उसका बाह्य भवन  अवश्य व्यवस्थित रहता है किन्तु अंतर्भवन उजड़ा रहता है |

देह चहे बासन बसन उदर चहे खद्यान |
पेम भाव पीतम चहे भगति चहे भगवान || १२ ||
भावार्थ : - देह  हेतु बासाबास, उदर हेतु भोजन आवश्यक है | प्रेम हेतु प्रीतम आवश्यक है भक्ति के लिए भगवान भी आवश्यक हैं |

बहिरे बरग के डर ते डरपत मन हम्हार |
एहि डर निडर होतब रे भाजत देस द्वार || १ ||
भावार्थ : -  देश से बाहर के समुदाय का भय हम भारत वासियों को बहुंत भयभीत करता हैं क्योंकि उनका यह भय इस देश को विभाजित करके ही निर्भीक होता है |

को करतब बलिदान को सेवा सुश्रता कोइ |
साँची तब कहिलाइ जब परमार्थ हुँत होइ || २ ||
भावार्थ : - कोई कर्तव्य कोई बलिदान अथवा कोई सेवा शुश्रुता तभी सत्य कहलाती है जब वह निःस्वार्थ होकर परमार्थ हेतु हो |

3 comments:

  1. आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' २४ दिसम्बर २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/



    टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।



    आवश्यक सूचना : रचनाएं लिंक करने का उद्देश्य रचनाकार की मौलिकता का हनन करना कदापि नहीं हैं बल्कि उसके ब्लॉग तक साहित्य प्रेमियों को निर्बाध पहुँचाना है ताकि उक्त लेखक और उसकी रचनाधर्मिता से पाठक स्वयं परिचित हो सके, यही हमारा प्रयास है। यह कोई व्यवसायिक कार्य नहीं है बल्कि साहित्य के प्रति हमारा समर्पण है। सादर 'एकलव्य'

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  2. सभी दोहे सुंदर एवं नीतिपूर्ण, यह बहुत ही अच्छा लगा -
    देह चहे बासन बसन उदर चहे खद्यान
    पेम भाव पीतम चहे भगति चहे भगवान।।

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