बहिरे बरग के डर ते डरपत मन हम्हार |
एहि डर निडर होतब रे भाजत देस द्वार || १ ||
भावार्थ : - देश से बाहर के समुदाय का भय हम भारत वासियों को बहुंत भयभीत करता हैं क्योंकि उनका यह भय इस देश को विभाजित करके ही निर्भीक होता है |
को करतब बलिदान को सेवा सुश्रता कोइ |
एहि डर निडर होतब रे भाजत देस द्वार || १ ||
भावार्थ : - देश से बाहर के समुदाय का भय हम भारत वासियों को बहुंत भयभीत करता हैं क्योंकि उनका यह भय इस देश को विभाजित करके ही निर्भीक होता है |
को करतब बलिदान को सेवा सुश्रता कोइ |
साँची तब कहिलाइ जब परमार्थ हुँत होइ || २ ||
भावार्थ : - कोई कर्तव्य कोई बलिदान अथवा कोई सेवा शुश्रुता तभी सत्य कहलाती है जब वह निःस्वार्थ होकर परमार्थ हेतु हो स्वार्थ हेतु नहीं |
लीख ते भयउ लाख सखि निरखु ए खंजन खेल |
साखि साखि करु राखि सखि नैन नीँद परहेल || ३ ||
भावार्थ : - हे सखि ! इन प्रवासी पक्षियों को देखो ये कैसे अल्प से अति हो गए | नेत्रों से निद्रा को तिरष्कृत कर तुम अपने वृक्ष और उनकी शाखाओं की रक्षा करो |
सीत पानि करि सीत रुचि सीत काल सिहरात |
सीत बात असपरस के पात पात संपात || ४ ||
भावार्थ : - शीत काल में किरणों की शीतलता से चन्द्रमा भी कम्पन करने लगा | शीतल वायु का स्पर्श वृक्ष को कम्पित कर उसके पत्ते गिराने लगा
मन मोहु माया बस किए देही जति परिधान |
चित कस ग्यान गहे जो करतल दिए नहि कान || ५ ||
भावार्थ :- मन सांसारिक विषयों वशीभूत हो देह यति वल्कल के | जब कान अपरिरुद्ध होकर अनर्गल प्रलाप श्रवण करने में व्यस्त हो तब चित्त ज्ञान कैसे ग्रहण करे |
साँच धर्म की आत्मा दया धर्म की देह |
तप धर्म का हरिदय है दान धर्म का गेह || ६ ||
भावार्थ : - सत्य धर्म की आत्मा है दया धर्म की देह है तपस्या धर्म का ह्रदय है दान उसका गृह है |
पाठ पराया पढ़त मन मानस भयो अधीन |
देस पराया जीमता अपुना दीन मलीन || ७ ||
भावार्थ : - पराई पट्टी पढ़ के यह देश मानसिक दास हो चला है भिन्न देश के धर्मावलम्बी इस देश का भरपूर उपभोग कर रहे और देशवासी दरिद्रता को प्राप्त हैं |
कतहुँ मुस्लिमस्ताँ बसै कतहुँ फिरंगी बाद |
अहले हिन्दुस्ताँ तिरी कौन सुने फ़रियाद || ८ ||
भावार्थ : - कहीं मुस्लिम्स्तान बसा है तो कहीं इंग्लैंडिया बसा है प्यारे भारत यहाँ तेरी दुहाई, तेरी याचिका सुनने वाला कोई नहीं है |
नेम नियामक पहिले कि पहिले धर्म निकाय |
जनमानस के राज कहु कवन पंथ अपुनाए || ९ ||
भावार्थ : - किसी विवादित विषय में एक लोकतांत्रिक शासन प्रबंधन की कार्य प्रणाली किसे प्राथमिकता दे - नियम विधान निर्मित कर शासन करने वाली संस्था को अथवा न्यायपालिका को ?
नेम नियामक नाम का करिआ नेम अभाउ |
बहुरि कहाँ ते आएगा कहु त निरनय न्याउ || १० ||
भावार्थ : - " जहाँ नियमन करने वाली संस्था नियमों का अभाव करती हो वहां न्याय व् निर्णय का अकाल होता है " जब नियमन करने वाले नियामक नाममात्र होकर नियामादेश का अभाव कर दे तब न्याय व् निर्णय आएगा कहाँ से ? तो '' प्रथमतः नियम निर्मित होते है, उसके आधार पर न्याय व् निर्णय होता है....."
उदाहरणार्थ : - 'अ'विवाहेत्तर सम्बन्ध का अभ्यस्त है उसके पडोसी 'ब' को इससे आपत्ति है दोनों एक सद्चरित्र लोगों के देश में निवास करते हैं | 'अ' आपत्तिकर्ता के विरुद्ध न्यायालय में याचिका प्रस्तुत करता है
कि 'ब' मेरे निज जीवन में व्यवधान उत्पन्न न करे | न्यायालय न्याय निर्णय कैसे दे नियम तो है ही नहीं और न्यायालय 'ब' को बोलेगा सारा विश्व तो चरित्र हीन है तुमको आपत्ति क्यों है चुपचाप अपने घर में क्यों नहीं रहते | देश काल व् परिस्थिति को दृष्टिगत करते हुवे प्रथमतः कार्यपालिका नियम निबंधित करे कि यह देश चरित्रवानों का है कोई निवासी चरित्रहीनता का व्यवहार न करे यदि करेगा तो दंड का भागी होगा.....
जन जन निज मत देइ के जिन्हनि दियो चुनाए |
सोई पहिले आपुना कृत करतब निबहाए || ११ ||
भावार्थ : - फिर जनमानस ने जिसका चयन किया है सर्वप्रथम वह अपने कृतकर्तव्यों का निर्वहन करे.....
क्योंकि लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनमानस द्वारा न्यायापालिका के अन्यथा कार्यपालिका का चयन इस हेतु किया जाता है कि वह उसके देश काल व् परिस्थिति के अनुसार नियम निर्मित करे तत्पश्चात उन नियमों के आधार पर न्यायापालिका न्याय करे व् निर्णय दे..... आदेश नहीं.....
न्याय संगत बितर्कन बिधि सम्मत परमान ।
साखी दिरिस अवमति दिए नेति जोग अवज्ञान ॥ ३२१४॥
भावार्थ : -- न्याय संगत तर्क, विधि- सम्मत साक्ष्य, साक्षाद्दृश्य को तिरोहित कर दिया गया निर्णय अवज्ञा के योग्य होता है.....
''चार बीबी चालीस बच्चे'' ''ये बिना बीबी चार सौ बच्चे.....
''ऐसे संबंधों से व्युत्पन्न संतति का उत्तरदायी कौन होगा.....
पुरुख नारि बिहीन जने संतति जब सतचार |
पच्छिम तेरी चलनि की महिमा अपरम्पार || १२ ||
भावार्थ : -अरे पाश्चात्य संस्कृति तेरी महिमा तो सबसे अपरम्पार है तुम्हारे यहाँ बिना बीबी के चार सौ बच्चे जनम ले रहे है तुमसे तो ''चार बीबी चालीस बच्चे'' इस पार हैं |
लीख ते भयउ लाख सखि निरखु ए खंजन खेल |
साखि साखि करु राखि सखि नैन नीँद परहेल || ३ ||
भावार्थ : - हे सखि ! इन प्रवासी पक्षियों को देखो ये कैसे अल्प से अति हो गए | नेत्रों से निद्रा को तिरष्कृत कर तुम अपने वृक्ष और उनकी शाखाओं की रक्षा करो |
सीत पानि करि सीत रुचि सीत काल सिहरात |
सीत बात असपरस के पात पात संपात || ४ ||
भावार्थ : - शीत काल में किरणों की शीतलता से चन्द्रमा भी कम्पन करने लगा | शीतल वायु का स्पर्श वृक्ष को कम्पित कर उसके पत्ते गिराने लगा
मन मोहु माया बस किए देही जति परिधान |
चित कस ग्यान गहे जो करतल दिए नहि कान || ५ ||
भावार्थ :- मन सांसारिक विषयों वशीभूत हो देह यति वल्कल के | जब कान अपरिरुद्ध होकर अनर्गल प्रलाप श्रवण करने में व्यस्त हो तब चित्त ज्ञान कैसे ग्रहण करे |
साँच धर्म की आत्मा दया धर्म की देह |
तप धर्म का हरिदय है दान धर्म का गेह || ६ ||
भावार्थ : - सत्य धर्म की आत्मा है दया धर्म की देह है तपस्या धर्म का ह्रदय है दान उसका गृह है |
पाठ पराया पढ़त मन मानस भयो अधीन |
देस पराया जीमता अपुना दीन मलीन || ७ ||
भावार्थ : - पराई पट्टी पढ़ के यह देश मानसिक दास हो चला है भिन्न देश के धर्मावलम्बी इस देश का भरपूर उपभोग कर रहे और देशवासी दरिद्रता को प्राप्त हैं |
कतहुँ मुस्लिमस्ताँ बसै कतहुँ फिरंगी बाद |
अहले हिन्दुस्ताँ तिरी कौन सुने फ़रियाद || ८ ||
भावार्थ : - कहीं मुस्लिम्स्तान बसा है तो कहीं इंग्लैंडिया बसा है प्यारे भारत यहाँ तेरी दुहाई, तेरी याचिका सुनने वाला कोई नहीं है |
नेम नियामक पहिले कि पहिले धर्म निकाय |
जनमानस के राज कहु कवन पंथ अपुनाए || ९ ||
भावार्थ : - किसी विवादित विषय में एक लोकतांत्रिक शासन प्रबंधन की कार्य प्रणाली किसे प्राथमिकता दे - नियम विधान निर्मित कर शासन करने वाली संस्था को अथवा न्यायपालिका को ?
नेम नियामक नाम का करिआ नेम अभाउ |
बहुरि कहाँ ते आएगा कहु त निरनय न्याउ || १० ||
भावार्थ : - " जहाँ नियमन करने वाली संस्था नियमों का अभाव करती हो वहां न्याय व् निर्णय का अकाल होता है " जब नियमन करने वाले नियामक नाममात्र होकर नियामादेश का अभाव कर दे तब न्याय व् निर्णय आएगा कहाँ से ? तो '' प्रथमतः नियम निर्मित होते है, उसके आधार पर न्याय व् निर्णय होता है....."
उदाहरणार्थ : - 'अ'विवाहेत्तर सम्बन्ध का अभ्यस्त है उसके पडोसी 'ब' को इससे आपत्ति है दोनों एक सद्चरित्र लोगों के देश में निवास करते हैं | 'अ' आपत्तिकर्ता के विरुद्ध न्यायालय में याचिका प्रस्तुत करता है
कि 'ब' मेरे निज जीवन में व्यवधान उत्पन्न न करे | न्यायालय न्याय निर्णय कैसे दे नियम तो है ही नहीं और न्यायालय 'ब' को बोलेगा सारा विश्व तो चरित्र हीन है तुमको आपत्ति क्यों है चुपचाप अपने घर में क्यों नहीं रहते | देश काल व् परिस्थिति को दृष्टिगत करते हुवे प्रथमतः कार्यपालिका नियम निबंधित करे कि यह देश चरित्रवानों का है कोई निवासी चरित्रहीनता का व्यवहार न करे यदि करेगा तो दंड का भागी होगा.....
जन जन निज मत देइ के जिन्हनि दियो चुनाए |
सोई पहिले आपुना कृत करतब निबहाए || ११ ||
भावार्थ : - फिर जनमानस ने जिसका चयन किया है सर्वप्रथम वह अपने कृतकर्तव्यों का निर्वहन करे.....
क्योंकि लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनमानस द्वारा न्यायापालिका के अन्यथा कार्यपालिका का चयन इस हेतु किया जाता है कि वह उसके देश काल व् परिस्थिति के अनुसार नियम निर्मित करे तत्पश्चात उन नियमों के आधार पर न्यायापालिका न्याय करे व् निर्णय दे..... आदेश नहीं.....
न्याय संगत बितर्कन बिधि सम्मत परमान ।
साखी दिरिस अवमति दिए नेति जोग अवज्ञान ॥ ३२१४॥
भावार्थ : -- न्याय संगत तर्क, विधि- सम्मत साक्ष्य, साक्षाद्दृश्य को तिरोहित कर दिया गया निर्णय अवज्ञा के योग्य होता है.....
''चार बीबी चालीस बच्चे'' ''ये बिना बीबी चार सौ बच्चे.....
''ऐसे संबंधों से व्युत्पन्न संतति का उत्तरदायी कौन होगा.....
पुरुख नारि बिहीन जने संतति जब सतचार |
पच्छिम तेरी चलनि की महिमा अपरम्पार || १२ ||
भावार्थ : -अरे पाश्चात्य संस्कृति तेरी महिमा तो सबसे अपरम्पार है तुम्हारे यहाँ बिना बीबी के चार सौ बच्चे जनम ले रहे है तुमसे तो ''चार बीबी चालीस बच्चे'' इस पार हैं |
बहुत सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति...
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