Monday 1 June 2015

----- ॥ उत्तर-काण्ड ३३ ॥ -----


शनिवार,१६ मई २०१५                                                                                     

एकु साधन उपदेसिहुँ  ऐसा । मिटे तासोंहि सबहि कलेसा । 
राम सरिस अरु देउ न कोई । राम सरिस अरु ब्रत नहि होई ॥ 
सुबुध जनों द्वारा एक सर्वोत्तम साधन उपदेशित किया गया है जो समस्त दुःख व् क्लेशों को नष्ट करनेवाला है || राम के जैसा और कोई देव नहीं है, राम के जैसा कोई व्रत नहीं है, 

तासों बढ़के  जोग न दूजा । राम जाग जप रामहि पूजा ॥ 
राम नाम मुख जो जपधारी । होत  परम पद के अधिकारी ॥ 
इससे उत्कृष्ट अन्य कोई यज्ञ नहीं है, राम स्वमेय एक यज्ञ है राम ही जप हैं | जो मुख राम के नाम का अभिवाचन करता है वह परम पद के  अधिकार को प्राप्त होता है | 

तासु नाम जिन हरिदै  आवै । तीन लोक के संपत पावै ॥ 
दीन दुखित जन के दुखनासी । राम नाम एक सुख के रासी ॥ 
उनकका नाम जिस हृदय में स्थित हो जाए वह फिर तीन लोकों की सम्पदा को प्राप्त करता है | यह दीन दुखियों के दुखों का नाशक है केवल एक मात्र राम के नाम में सुख की पूंजी निहित है | 

मन तै सुमिरत राम ध्येई ।  भजनान्द भगति फल देईं॥ 
सकल  देउ मैं एक रघु नायक ।  मनोकांत मनोरथ दायक ॥ 
मन से राम के ध्यान व् स्मरण से वह  भजनान्द के सह उत्तम भक्ति का फल प्रदान करते हैं | समस्त देवताओं में एक रघुनायक ऐसे हैं जो मन को प्रिय लगने हैं एवं मनोवांछित अभिलाषाओं के प्रदाता हैं | 

सुरत  राम उर नाम मुख लाए । चण्डालहि परम गति को पाए ॥ 
हृदय से राम के नाम का स्मरण करने पर चांडाल भी परम गति को प्राप्त होते हैं | 

धर्म परायन बेदु बिद, मुनिबर तुहरे सोहि । 
पार गमन भव परम पद बहोरि काहु न जोहि ॥
हे मुनिवर ! फिर आपके जैसे धर्म परायण और वेद विशारद इस संसार समुद्र को पारगमन कर परम पद के अधिकारी क्यों न हों | 

रविवार, १७ मई, २०१५                                                                                                    

गूढ़ रहस  एहि प्रगस बखाना । तव सम्मुख मैं निज अनुमाना । 
अजहुँ भए जस तुहरे बिचारा । करिहौ तेसेउ ब्योहारा ॥ 
यह सम्पूर्ण वेद-शास्त्रों का गूढ़ रहस्य है जिसे मैने अपनी मति अनुसार आपके सम्मुख प्रकट किया | अब जैसी आपका विचार हो वैसा ही व्यवहार कीजिए | 

रघुकुल मैं एक नाम  प्रबेका । तिनके पूजन बिधि जग  ऐका ॥ 
राम देउ एक अबरु  न दूजा  । एकही  ब्रत तिनकी पद पूजा ॥ 
रघुवंश में यह एक श्रेष्ठ नाम है जिसकी पूजन की विधि संसार में एक जैसी ही है | एक ही देवता है -- श्रीराम अन्य कोई नहीं | एक ही व्रत हैं --- श्रीराम | उनके चरण वंदन का-

एकही मंतर रघुबर नामा । एकहि धर्म तिनके गुन गामा ॥ 
भजनन जब तुम सब बिधि बरिहौ । राम नाम  कीर्ति मुख धरिहौ ॥ 
एक ही मंत्र है -- उनका नाम | एक ही धर्म है --उनके गुणों का कीर्तन | भजन के द्वारा जब तुम इन सब विधियों का वरण करोगे और राम के नाम का कीर्तन करोगे, 

तब तव हुँत भव सिंधु महाना । होही तुहिन गउ खूर समाना ॥ 
अस कह लोमस  मुख उरगावा । बहुरि प्रसन मैं पूछ बुझावा ॥ 
तब तुम्हारे लिए संसार का यह महासिंधु पारगमन हेतु गांय के खुर के सदृश्य अत्यंत तुच्छ हो जाएगा | ऐसा कहकर लोमस मुनि ने मौन धारण कर लिया तदोपरांत मैने उनसे प्रश्न किया--

भव तरन जस तुम बरने एकै राम भगवान । 
भगवदीय तिन्हनि मुने  पूजिहि केहि बिधान ॥ 
' आपने जिस भांति वर्णन किया कि भव तरण हेतु एक मात्रा भगवान राम का नाम ही पर्याप्त है हे मुने ! अब कृपा कर कहिए कि भगवद्भक्त किस विधि से उनका ध्यान करें ? 

सोम/मंगल ,१८/१९  मई २०१५                                                                                      

सुनि  मोर बचन सुबुध सुजाना । करत आपही राम ध्याना ॥ 
प्रभु पद पदुम लीन लय  लायो । बहुरि मोहि सब बात बतायो ॥ 
मेरे वचनों को श्रवण कर सुबुध सुजान मुनिवर ने स्वयं ही श्रीराम का ध्यान कर उनके पद्मचरणों में तल्लीन हो गए  पश्चात वह मुझे समस्त विधान कहने लगे - 
करे ध्यान साधक एहि भाँति । धरे हरिदै धीरज  बहु  साँति ॥ 
अबध पुरी मन सुरत बिचारेँ । बैठिहि बैठिहि पैठ दुआरे ॥ 
सुनो ! हृदय में धैर्य पूरित शान्ति धारण किए  साधक को इस भाँती ध्यान करना चाहिए कि  उसकी मनोस्मृति में अयोध्यापुरी इस प्रकार से हो कि वह बैठे बैठे ही उसके द्वार पर पहुँच जाए | 

गिर बन कानन जहँ  भरपूरी । परम बिचित्र मंडप रचि रूरी ॥ 
कनक कलस कंकनि खंकारै । संख पुरत मुख राम पुकारे  ॥ 
जहाँ वह पर्वतों व् घने वन-उपवनों से समृद्ध हैं तथा स्वर्ण कलश व्  घंटियों की मधुर ध्वनि से युक्त परम विचित्र मंडपकी रचना से सुशोभित है | वहां मुख पर के शंख के स्वर श्रीराम के नाम की पुकार करते हैं | 

भीत कलप तरु दरसित होइहि । मँगे जोइ सो सो देवइ सोइहि ॥ 
मूल भाग सिंहासन राजे । तापर श्री रघुनाथ बिराजे ॥ 
उसकी अंत:स्थली पर एक कल्पवृक्ष के दर्शित है उसके सम्मुख उससे जो अभिलाषा की जाए वह उसे पूर्ण करता है | उसके मूल भाग में एक सिंहासन है जिसपर भगवान श्रीराम विराजमान हैं | 

ललित लालरी  मनि हरी हरी रसरी के भाँवर परे । 
धबल धौरहर बसन सरोबर नीलरत्नांग तरे ॥ 
तीर तीरजोपर रजि रबिकर छबि के हीर घरे । 
कलित कियारी कौसुम कलिबर हरबत पत पत प्रहरे ॥
भगवान श्रीराम के उस सिंहासन पर सुन्दर लालमणि खचित है जिसपर हरी हरी डोरियों के वलय पड़े हैं श्वेत व् उज्जवल वस्त्र से युक्त अधरासन के  सरोवर में नीर रत्न रूपी सारस तैर रहे हैं | सरोवर के तटों पर सुशोभित वृक्षों के ऊपर सूर्य किरणों की छवि से दीपितहीरे मंडित हैं | क्यारियों पर कुसुमकलियों पर के सुन्दर पत्र  हलचल करते प्रहरणरत हैं | 

दुइ पुर हाथा चौपद साथा अलिप्रिय आसन बंध्यो । 
सिखर सिरोघर तमस काँड हर सिखाधर मिहिर मण्ड्यो ॥
तापर राजित दसकंधर जित करुणासील रघुवरम् ।
मनसकामद सबहि बिधि सम्पद् सुखद अतिसय सुन्दरम् ।
चौपायों के साथ दोनों ओर के हत्थों पर लाल कमल के संकाश आसन विबन्धित है, शिखर भाग में शीर्ष भवन पर अन्धकार का हरण करने वाले शिखाधारी सूर्यदेव अभिमण्डित हैं | उसपर  दशकंधर जीत अतिशय  भगवान् रघुवीर विराजित हैं जो अतिशय सुन्दर, हैं तथा जो सभी  मनोभिलाषित समृद्धियों  एवं सभी प्रकार के सुखों के प्रदाता हैं  | 

कंबु-कंठ कल दुर्वादलम् सम स्यामल वपुर्धरम् ॥
शेष-शंकर नारद सारद  सुरेन्द्र कर वन्दितम् ॥
मनोज ओज सरोज मुख पूर्णेंदु कमन कांति निंदये |
ललाट चित्तचोरकम्  दिव्यार्द्ध शशि कलाधिधारये ॥
शंखाकृति के समान उनकी सुन्दर ग्रीवा हैं तथा श्रीविग्रह दुर्वादल के समान श्याम है जो भगवान शेष व शङ्कर सहित नारद -शारदा व इन्द्र के द्वारा पूजित है | कामदेव के समान ओजस्वी  कमल मुख अपनी शोभा से पूर्णिमा के चन्द्रमा की कमनीय कांति को भी तिरस्कृत कर रहा है | उनका  चित्तहारी ललाट अर्ध्य चंद्र की सुषमा को धारण करता है | 


कुंडलित केश काल तिलकित भाल विभूषित लोलिते  ।
मकराकारम् कर्णपूर रुर  मौलि मुकुट-अलंकृते ॥
वदन सभा सद दंष्ट्रासित रद वेद वाचस्पतये ।
जपा:कौसुम प्रभासभास काशि कास प्रकाशिते ॥
तिलक चिन्ह से युक्त मस्तक पर हिल्लोल करते काले घुंघराले कुंतल विभूषित हैं | कानों में मकराकृति के कुण्डल सुशोभित मस्तक पर मुकुट विभूषित है सभा स्वरूप मुख में दंष्ट्र पंक्ति सदस्य रूप में विराजित हैं वेद वाचस्पति स्वरूप में अधर अड़हुल पुष्प के  प्रभास की आभा से युक्त ज्योत्स्ना द्वारा प्रकाशित हैं | 

रसन मृणालय रसालयाधरालि वल्लभ विलासितम् ।
शंखाकृत कंठ कलित  नय निगमागम निवासितम् ॥ 
पर्णावास वर्णानुप्रास सुभाष पाश सुषोभिते  । 
पर्ण पर्ण  वर्णोद्दष्ट कर्ण अर्ण अर्ण सुमंत्रिते ॥
कमलनाल के स्वरूप रसना रस शाला से युक्त है तथा उनके अधर लाल कमल की मनोहरता लिए हुवे हैं | शंखाकृति कंठ में ऋक आदि चारों वेद एवं सम्पूर्ण शास्त्र निवासित हैं जिसके प्रत्येक पृष्ठपत्र छंदों को उद्धृत करते है इन छंदों के प्रत्येक शब्द कानों के लिए  सुन्दर मन्त्रों के समान हैं | 

ऊर्जस्वान् ऊर्ध्वमान केसरी भुज शेखरौ ।
कल केयूरौ कटकालंकृतौ विशाल बाहु धारणौ ॥
उर्मिकाहीरभिर्भूषितौ उषपकर ऊरू लम्बने ।
विस्तीर्ण वक्षो लक्ष्मीश: लक्ष्मीवासे शुभ शंसिनौ ।।
श्रीरघुनाथ जी के भुजाओं के शिखर सिंह के समदृश्य ऊर्धवान एवं परम शक्तिशाली हैं, भगवान रघुनाथ सुन्दर केयूर व् स्वर्ण के कड़े से अलंकृत विशाल भुजाएं धारण करते हैं | ऊर्मिका ( अंगूठी ) पर विभूषित हीरे का विकिरण सूर्य के सदृश्य है जो उनके प्रलंबित घुटनों तक दैदीप्यमान है | लक्ष्मीपति श्रीविष्णु का विस्तृत वक्ष लक्ष्मी के  निवास स्वरूप में  सौभाग्य का अधिसूचक है | शुभ-शंसी = कल्याण की सुचना देने वाला 

श्रीवत्साद्य लक्ष्माद्वमन मनोहरम् शोभाकरम् ।
सुवक्षणावर उदरोपर वलग्न नाभ् विराजितम् ॥
मणि काञ्चनाय मणींद्राय मध्य-स्थली मण्डले ।
सौंदर्य वर्च् वर्द्धनाय् ऊरु सन्धिन् निर्मले ।।
 जिसपर श्रीवत्स  आदि चन्हों की शोमामयी उपस्थिति से भगवान अत्यंत मनोहर प्रतीत होते हैं | सुन्दर विस्तारित वक्षों के स्थल पर उदर प्रदेश में गहरी नाभि एवं कटि भाग सुशोभित हैं | सवर्ण खचित मणि व् माणिक्य खचित करधनी मध्य स्थली पर मंडलित है | निर्मल ऊरु व् घुटने उनकी सौंदर्य वृद्धि में सहायक हैं | 

ध्येयध्यानिनौ युतान्वित पद प्रतलाति मृदुलया ॥
कोमलाङ्कुशेनाङ्गुले सुलेखायवरेखया ।
जय जय जय करुनानिधे रघुबर दीन दयाल ।
जयति जग -वंद्याग्रणी जय जय भगत कृपाल ॥
कटि प्रदेश की संधि से संयुक्त उनके चरण तल अत्यंत मृदुल है उनकी अंगुलियां अतिशय कोमल है जिसपर अंकुश आदि की सुन्दर रेखाओं के सह यव आदि अवरेखित है | हे करूणानिधि आपकी जय हो | हे रघुवर ! हे दीनदयाल ! आप जगत के वंदनीय जनों में अग्रणी हैं |  हे भक्तों पर कृपा करने वाले भगवान आपकी जय हो ! 

राम रूप कर्ण अधार राम नाम करतार ।
अस साधन सों होइहउ तुअ भव सागर पार ॥ 
राम इस संसार- सिंधु के कर्णधार स्वरूप हैं, राम का एक नाम ही इस जगत का कर्त्ताधर्ता है, इस साधन के द्वारा तुम अवश्य ही इस भव सिंधु के पार हो जाओगे | 

रविवार, २४ मई, २०१५                                                                                                     

प्रभु अस्तुति  रस सरस सुहावा । सीकस मन रसमस सुख पावा  ॥ 
रसातले रोमाबलि ठाढ़ी । पुनर पयस के लालस बाढ़ी ॥ 
प्रभु की स्तुति का रास अत्यंत सरस एवं सुहावना है | आरण्यक मुनि ऊसर मन को  इस रस से द्रवित होकर परम सुख को हुवा  | उसके रास के रसातल में पहुंचते उपज स्वरूप रोमावली पुलक हो उठी जब उनके पिपासित जिज्ञासा को पुनश्च ज्ञान पयस की लालसा बढ़ गई | 

कहत  अरण्यक हे मुनिराया । रघुपति कथा कहहु करि दाया ॥ 
सतगुरु  अपने सेबक ताईं  । पूछिहु सो सब कहत बुझाईं ॥ 
तब उन्होंने मुनिवर से कहा  : -- हे मुनिराज ! आपने मुझपर दया कर रघुपति की कथा कही | सतगुरु अपने सेवकों की जिज्ञासाएं शांत किया करते हैं | मैने जो कुछ प्रश्न किया आपने उन सभी का उत्तर दिया | 

मुनिबर जदपि बहु भाँति प्रबोधिहि  । कहौ बहुरि सीस समझ अबोधिहि ॥
जहँ कछु संसउ मन मोरे । करौ कृपा  बिनवउँ कर जोरे ॥ 
मुनिवर ! यद्यपि आपने भली भांति मेरा प्रबोधन किया तथापि मुझे अबोध शिष्य जानकर कर पुनश्च कहिए | जहाँ मेरे मन संशय शेष है में  आपसे करबद्ध विनती करता हूँ 
सो कारन  मो कहौ बिचारा ।  निर्गुनि ब्रम्ह सगुन बपु धारा ॥ 
राम अवतार होइहि काहू । लघु विरदावलि मोहि बुझाहू ॥ 
कि आप विचार पूर्वक उनका यथोचित  समाधान कीजिए | जो निर्गुण है निरकार है उन ब्रह्म रूपी परमेश्वर देहधारण की | महामना ! कहिये तो  राम का अवतार क्यों हुवा ? संक्षेप में कहते हुवे  उनकी विरदावली का मुझे संज्ञान कराइये | 


कहौ मुने सो चरित अपारा ।बसे बिपिन किमि रावन  मारा ॥ 
रजे रजासन जस सुख सीला ।कहौ मो सहुँ सबहि  सो लीला ॥ 
हे मुने ! मुझे उनके अपार चरित्र का दर्शन कराइये वह विपिन में वासित हुवे और किन कारणों से उन्होंने रावण का वध किया | वह सुखशील जिस भाँति राज सिंहासन पर विराजित हुवे मुझे उन सभी लीलाओं का साक्षात्कार कराइये || 

राम रहस रस अबर अनेका । कहौ सकल अति  बिमलबिबेका ॥ 
सेवक संसय होत अधीना  । निबारएँ  गुरु ग्यान प्रबीना ॥ 
भगवान श्रीराम के और भी अनेक रहस्य हैं अपने अतिशय विमल विवेक से उनका भी व्याख्यान कीजिए | यदि सेवक संशय रूपी दुखों के अधीन हों तो ज्ञान-प्रवीण गुरुजन उनका तत्काल निवारण किया करते हैं | 

जो बचन मैं पूछा नहि राखिहु मुने न गोइ । 
कृपा करत कहिहहु तिन्ह होहि अबरु जो कोई ॥ 
मुने !जो वचन मैने आपसे नहीं पूछे उन्हने भी गुप्त न रखिए मुझपर  कृपा करते हुवे वह सब रहस्य भी कहिए जो इनसे अन्यथा हैं || 

सोमवार,२५ मई २०१५                                                                                        

 जो भगवन भाव भूषन रूपा । हितकर बिमल बिधौ सरूपा ॥
पत्र पुष्प गंध  फल जल चन्दन ।  लेइ तिन करत प्रभु पद वंदन ॥
जो भगवान भाव के भूषण स्वरूप हैं | जो कल्याण की मूर्ति रूप में विमल विभो हैं | उन प्रभु की तुम पत्र, यथा काल सुगन्धित पुष्प, फल, जल व् चंदन लेकर चरणवंदना करो तब अवश्य ही तुम्हें परम पद प्राप्त होगा | 

 
रसनासन श्री राम विराजे । होइहि सरल सहज सब काजे ॥
भक्ति सिंधु जो नित अवगाहें । तीन लोक के सम्पद लाहैं ॥
जिह्वा के आसन पर श्रीराम विराजित हों तो सभी कार्य सरल व् सहज हो जाया करते हैं | जो नित्य भक्ति सिंधु का अवगाहन करते हैं उन्हें तीन लोकों की सम्पदा प्राप्त होती है | 


जाना परम भगत जब तोही । मोरे मन मानस  रस रोही ॥
हंस नाद किए उठे तरंगे । किए संगत श्री राम  प्रसंगे ॥
जब  परम भक्त के रूप में 
मैने तुम्हारा परिचय प्राप्त किया तब मेरे मनमानस में मानो भक्ति रस अवरोहित हो गया | उसके  हंस नाद से  तरंगे उठ रही हैं और वह श्री राम के प्रसंग की संगत को प्राप्त हो रही हैं || 

संभु सनत्  सुक सेष मनीषा । बंदउ जासु चरन बागीसा ॥
सकल जगत आरत  जब जाने  । अवतरत निज कीरति बिताने ॥
भगवान शिव, ब्रह्मा, सुक, सेष व् मुनि मनीषी सहित शारदा भी जिनके चरणों की वंदनों करती है, उन भगवान ने जब संसार को कष्टमयी जाना तब संसार में अवतार ग्रहण कर अपनी कीर्ति विस्तारित करने का विचार किया | 


जो जग मोहन जो जग दीसा । तपोधन जोगीस के ईसा ॥
सगुन रूप ए हेतु अवतरिहीं । जब मनु तिनकी कीरति करिहीं ॥
जो जगत को मोहित करने वाले जगदीश्वर स्वरूप हैं जो योगियों एवं तपस्वियों के स्वामी हैं | वह भगवान सगुण रूप में इस हेतु अवतरित हुवे कि जब मनुष्य उनका कीर्तन करेंगे- 


यह भव सागर गहन अपारा । श्री राम रूप करणाधारा ॥
होत दुखारत करिए पुकारिहि । करनधार तिन पार उतारिहि ॥ 
तब वह श्री राम रूपी कर्णधार का आश्रय लेकर इस अपार भव सिंधु से पार हो जाएंगे || जब कोई दुखारत  उनका आह्वान करेगा तब वह कर्णधार स्वरूप में उसे कष्टों से विमुक्त कर देंगे || 


सक्ति सरूप दयामयी हल्हादिनि श्री  संग ।
चारि श्री बिग्रह धरे अस, प्रगसे भुइ श्री रंग ॥ 

शक्ति स्वरूप दयामयी ह्लादिनी ( आनंदमयी )  माता लक्ष्मी के संग चार  विग्रह धारण कर  इस पृथ्वी में भगवान श्रीरंग प्रकट हुवे  || 

बृहस्पतिवार, २८ मई २०१५                                                                                                    

हरि गुन  अगणित अमित अपारा। कहउँ तदपि निज मति अनुहारा ॥ 
राम जनम के हेतु अनेका । परम बिचित्र सब एक ते ऐका ॥ 
हरि के गुण अगणित, अपरिमित व् अपार हैं तथापि मैं  अपनी बुद्धि के अनुसार उनका वर्णन करता हूँ | राम जन्म के अनेक हेतु हैं सभी परम विचित्र  एवं एक से बढ़ कर एक हैं | 

तासु जनम के अगध  कहानी । सावधान सुनु सुबुध सुजानी ॥ 
द्रवउ दसरथ अजिर बिहारी  । राम नाम जग जस बिस्तारी ॥ 
उनके जन्म की कथा अगाध है हे सुबुद्ध ! सुविज्ञ !तुम उसका सावधानी पूर्वक श्रवण करो | दशरथ के आँगन में क्रीड़ा कर  भगवान ने अमंगल का हरण व् मंगल के उद्भवन एवं जगत में राम नाम का विस्तार करने हेतु - 

पुरइन  काल त्रेता जुग मही  । दिनकर बंस धारक जन्मही  ॥ 
पूरन उतरत  जब बपुधारे । मुनिबर मंगल मंत्र उचारे ॥ 
पूर्व काल में  त्रेता युग के आगमन पर सूर्य वंश को धारक के रूप में जन्म लिया | पूर्णवतार लेकर  जब उन्होंने विग्रह धारण किया तब मुनिश्वरों ने इस भांति मंगल मन्त्रों  का उच्चारण किया || 

जनम लियो जय जय रघुबीरा | कमनई घन स्याम सरीरा ॥ 
मनुज रूप प्रगसे श्री कंता । दरस नयन हरषे सब संता ॥ 
रघुनाथ स्वरूप परमात्मा जन्म लिए इस कमनीय घन श्याम तन की जय हो | जगद्दीश मनुज रूप में प्रकट हुवे भगवान के इस श्रीविग्रह का दर्शन कर सभी संत हर्षित हो उठे | 
 करुना सुख सागर सहित दरस चारि सिसु भ्रात ।
अवध पुर पुरंजनी सन,गद गद भए पितु मात ॥  
करुणा व् सुख के सागर भगवान श्रीराम सहित चारों शिशु भ्राताओं का दर्शन कर अयोध्या पूरी के पुरंजन के साथ  मात-पिता भी गदगद हो गए || 

सुने  जनम बन कानन कानन । फूर पात भए प्रफूरित नयन ॥ 
चली सरजु बहु सरस सुहावा । चारिहि पुर नुपूर सुर छावा ॥ 
 उद्यानों को जब भगवान के जन्म का समाचार प्राप्त हुवे तब सभी पुष्प पत्र प्रफुल्लित हो गए  | सरयू नदी प्रवाहित होती अत्यंत सुहावनी प्रतीत होने लगी उसकी कलकल से चारों ओर मानों नूपुर के स्वर ध्वनित हो उठे |  

मधुर रुदन जब देइ सुनाईं । बहती कहती जहँ तहँ धाई ॥ 
घर घर मनहर बाजि बधावा । दिए भूप जो जेहि मन भावा ॥ 
जब भगवान की मधुर रुदन सुनाई पड़ी तब उत्साहतिरेक में वह बहती हुई भगवान के जन्म का समाचार कहती जहाँ -तहाँ उदकने लगी || घर घर मनोहर बधावा बजने लगा जिसके जो मन भाया राजा दशरथ ने वही न्यौछावर किया  | 

चले बाल हरी पायहि पाया । मयन बदन ओदन लपटाया ॥ 
हरि हरि हरि जब भयउ किसोरा । मनस्कान्त रूप चित चोरा ॥ 
सुन्दर मुख में दूध-भात लपटाए बाल हरि अब पाँव-पाँव चलने लगे | धीरे धीरे भगवान जब किशोरावस्था को प्राप्त हुवे तब उनका स्वरूप 

बाहु सिखर धनु कंधर भाथा । रहे सदा लखमन तिन साथा ॥ 
तदनन्तर पितु आयसु दाने । पढ़ें सबहि गुरु गेह पयाने ॥ 
भुजा शिखर में धनुष और कन्धों पर तूणीर, भ्राता लक्ष्मण सदैव उनके साथ रहते | तदनन्तर  पिता  ने आज्ञा दी और सभी भ्राता ने गुरुवर के आश्रम गए  जहाँ उन्होंने ज्ञान ग्रहण किया | 

गुरुबर के अनुहार किए ऐसेउ ब्यबसाए  । 
बहोरि अल्पहि काल मैं बिद्यानिधि कहलाए  ॥ 
गुरुवर के कहे अनुसार ही अध्ययन किया और अल्प काल में ही विद्यानिधि कहलाए | 
विद्या-व्यवसाय = अध्ययन  शुक्रवार,२९ मई २०१५                                                                                                   

लखन सहित पुनि अंतरजामी । गाधि तनय   के भए अनुगामी ॥ 
असुर हनन मख राखन रायो । दोनउ सुत महर्षि कर दायो ॥ 
लक्ष्मण सहित अन्तर्यामी भगवान गाधी पुत्र विश्वामित्र के अनुगामी हुए | यज्ञों की सुरक्षा हेतु असुरों का नाश करने राजा दशरथ ने दो पुत्र राम और लक्ष्मण  को महर्षि विश्वामित्र  के हाथों  सौंप दिए | 

स्याम गौर भ्रात अति सुन्दर । जितबारु रहे दुनहु धनुर्धर ॥ 
पीत पट  कटि भाथ कसि लस्यो  । जेहि दरसिहि तेहि मन बस्यो॥ 
श्याम और गौर भ्रात अति मनोहर प्रतीत होते | दोनों ही धनुर्धर जितेन्द्रिय थे | करधन पर पीतम पट व् कर्षित  तूणीर अतिशय सुशोभित होता | जो कोई देखता ये उन्हीं के मन में निवास करने लगते || 

निसा घोर घन तम गम्भीरा । चले जात मुनिबर रघुबीरा  ॥ 
बहुरि भयंकर बन भित पेले । तहँ ताड़का राकसी मेले ॥ 
घन  घोर निशा व् निबिड़ अँधेरे में जाते समय एक बार  मुनिवर व् रघुवीर ने भयंकर वन के अंत:स्थल में प्रवेश किया, वहां ताड़का नाम की राक्षसी से उनकी मुठभेड़ हुई | 

 हँस हँस करकस करक हँकारै । बारहि बार बिघन मग डारै ॥ 
प्रभो मुनिबर  के आयसु पाए । मार तेहि परलोक पैठाए ॥ 
वह हँस हँस कड़कती हुई कर्कश हुंकार करती और मार्ग में वारंवार विध्न उत्पन्न करती || प्रभु ने मुनिवर की आज्ञा से उसका वध कर उसे परलोक भेज दिया | 

लगे मुनि घर हवन करन राम लखन रखबारि । 
धाए मारीच बिघन किए गर्जन कर अति भारि ॥ 
मुनिवर अपने आश्रम में यज्ञ  प्रारम्भ किया तब राम लक्ष्मण ने उसकी रक्षा करने लगे | तब गंभीर गर्जना कर मारीच दौडते हुवे आया और मुनिवर के यज्ञ में बाधा उत्पन्न करने लगा | 

शनिवार,३० मई २०१५                                                                                                 

फरहीन सर ऐसेउ मारा । गिरे  सत जोजन जलधि  पारा ॥ 
सुबाहु निसिचर के लघु भ्राता । चढ़े अगन सर करे अघाता ॥ 
 प्रभु ने फल विहीन बाण से ऐसा प्रहार किया कि वह शतक  योजन दूर जलधि में जा गिरा || सुबाहु निशिचर का अनुज था वह गगन में आरोहित होकर सायकों से आघात करने लगा || 

मरे सोइ सब निर्भय होईं ।  अजहुँ  मुनिरु न सतावहिं कोई ।| 
आगिल भेँटिहि  गौतम नारी । श्राप बिबस पाहन तन धारी ॥ 
भगवान ने उसका भी निवारण कर दिया अब सभी ब्राम्हण निर्भय हो गए थे मुनिवर को भी कोई कष्ट न देता || आगे उनकी भेंट गौतम नारी से हुई जो श्राप विवश उपल तन धारी हो गई थी | 

सचिपति संग कीन्हि प्रसंगा । श्रापत् मुनि भए पाहन अंगा ॥ 
रघुबर चरनन जब परसाई । बहुरि जथारथ रूप लहाई ॥ 
शचीपति इंद्र के संग प्रसंग करने के कारणवश गौतम मुनि ने उन्हें अभिशप्त  कर दिया था इस श्राप के प्रभाव से  वह  शिला में परिणित हो गई थी |  रघुवर के चरणों का स्पर्श प्राप्त होते ही  वह यथार्थ रूप को प्राप्त हो गई || 

प्रनमत  रघुनायक कर जोरी । गई पति लोक नाथ बहोरी ॥ 
जहाँ निवासिहि जनक तनीआ ।चले सोई पुरी रमनीआ ॥ 
और करबद्ध होकर भगवान को प्रणाम करते हुवे वह पतिलोक को चली गई  | ततपश्चात भगवान रघुनाथ उस रमणीय पूरी की ओर प्रस्थित हुवे  जहाँ जनक पुत्री जानकी निवास करती थीं | 

किए संगत  मुनि संत समाजे । भँवरत भूपत भवन बिराजे ॥ 
धरे सभा तहँ पंथ निहारे । संभु धनुष निज खंडनहारे ॥ 
मुनिवर विश्वामित्र संत समाज को साथ लिए भ्रमण करते हुवे राजा जनक के भवन में पधारे | वहां राजा सभा का आयोजन कर राजा जनक शिव के धनुष के खंडन करने हेतु  प्रतीक्षारत  थे जहाँ  भगवान ने शिव जी के धनुष का खंडन किया | 

चितबहि चकितहि जनक जिमि,चितबत चंद चकोर ||   पूछत परिचय दीठवत दसरथ राज किसोर | 
  राजा जनक प्रभु को दर्शकर  ऐसे चकित रह गए जैसे चाँद को देखकर चकोर चकित होता है  | उनपर दृष्टि रखते हुवे जनक राज ने परिचय पूछा तब ये राजा  दशरथ के राज किशोर हैं -

































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