Monday 1 June 2015

----- ॥ उत्तर-काण्ड ३४ ॥ -----

सोमवार,०१ जुन, २०१५                                                                                            

कौसिक लए रस बिहँस बतायो ।  चितबत जनक पुलकित कहि रायो ॥ 
तिन्हनि दिनकर बंस जनावा ।दसरथ तनुज रूप तिन पावा ॥ 
मुनिवर कौशिक (विश्वामित्र ) ने जब विहास करते यह परिचय दिया और राजा जनक पुलकित होते देखकर कहा -  महाराज !सूर्य वंश  ने इन्हें जन्म दिया है और ये राजा दशरथ को पुत्र रूप में प्राप्त हुवे हैं || 

ते बर धुरीन धर्म धुरी के । अहहिं अवनिपत अबध पुरी के  ॥ 
पाए परच पुनि मुदित बिदेहू । बहुरि बहुरि प्रभु लखत सनेहू ॥ 
राजा दशरथ धर्म की धुरी स्वरूप हैं एवं अयोध्या नगरी के राजा हैं | राज किशोरों का  परिचय प्राप्त कर प्रमुदित हुवे विदेह की स्नेहिल दृष्टि प्रभु पर वारंवार आक्षेपित होने लगी  | 

लेइ बिदा नृप चरन जुहारे । नगरी दरसन आन पधारे  ॥ 
भमरन रत पथ  पथ जग रूपा । दृग दरपन छबि लखत अनूपा ॥ 
राजा जनक के चरण स्पर्श कर भगवान ने विदा ली और  नगर दर्शन हेतु आए | वहां पथ पथ का परिभ्रमण करते  विभिन्न रूपों में प्रकट होने वाले जगत स्वरूप प्रभु की छवि नगर जनों के नेत्र दर्पण में अद्भुद लक्षणा कर रही थी  || 

जो देखे सो चितबत पायो ।देखि केहि किन समुझ न आयो ॥ 
लगिहै जुवतीं नयन गवाखेँ । रघुबर रूप नेह  भर लाखेँ ॥ 
जो विलोकता वह स्तब्ध हो जाता,  दोनों भ्राता सौंदर्य के प्रतिमूर्ति थे किसे विलोकें  किसे न  विलोंके उन्हें यह संज्ञात  नहीं हो रहा था  | युवतियां झरोखों में नेत्र संयुक्त किए  प्रेम पूर्वक भगवान के रूप स्वरूप की झांकी करने लगीं | 

गौर बरन एक साँवरो,  दोनउ बाल मराल । 
देइ रुचिर सिर चौंतनी चले मोहनी चाल ॥ 
एक गौर एक श्याम वर्ण दोनों बाल हंस शीश पर सुन्दर चौकोर टोपा दिए अत्यंत मोहनी चाल से चल रहे थे | 

मंगलवार, ०२ जून, २०१५                                                                                   

जनक राज धिए चले बिहाने ।सिउ धनु भंजन के पन दाने ॥ 
जिन राजन कर भंजन होही । बिनहि बिचार सिअ बरिहि सोही ॥ 
जनक राज ने  पुत्री के विवाह का आयोजन किया था और  शिवजी के धनुष भंजन की यह प्रतिज्ञा रखी थी कि जिस राजा के द्वारा  यह विभंजित होगा जानकी जी बिना विचारे उसका वरण करेंगी || 

सुनि पन सजि सब राउ समाजा । सिआ बरन अभिलाख बिराजा ॥ 
किए संगत  दोनउ सुकुआँरे । धनुमख दरसन मुनिहु पधारे ॥ 
प्रतिज्ञा सुन समस्त राज समाज सुसज्जित हो सीताजी के वरण की अभिलाषा किए वहां विराजित हुवा था | दोनों राजकुमारों को संग लिए मुनिवर विश्वामित्र  ने भी वहां पदार्पण किया | 


चहुँ पुर कंचन मंच बिसाला । बैठिहि नगर सहि महिपाला ॥ 
धरएँ तकि लस्तकि किएँ घमंडा । टार न टरिहि कटुक कोदंडा ॥ 
राज प्रासाद के चारों ओर हिरण्य- मंच रचित किए गए थे जिसमें नगरजनों के साथ स्वयं महाराज जनक  विराजित थे | शौर्य के अहंकार से पूरित राजागण बल व्  धनुष के मूठ को  तमतमा कर धारण करने का प्रयास करते किन्तु वह कठोर कोदंड यत किंचित भी न हिलता  || 

लगे उठावन सहस दस राए । कर्मुक तापर उठे न उठाए ॥ 
जनक राज मन भयउ दुखारी । अस तौ रहिहि कुँअरि सुकुँआरी ॥ 
दश सहस्त्र राजाओं ने उसे उठाने का प्रयास किया तथापि वह दृढ़ कोदंड उठाए न  उठा | राजा जनक का मन दुखारत हो गया उन्होंने मन में विचार किया इस प्रकार से तो मेरी सुकुआरी का विवाह न होगा | 

लखत जनक प्रभु मुख परितापा । उठे सहज भंजन  सिउ चापा ॥ 
पावन आयसु मुनि बर देखे । दियो हरष आसीस बिसेखे ।। 
जनक के मुख-मंडल का परिताप लक्षित कर भगवान श्रीराम धनुष भंजन हेतु सहज भाव से  उठे और आज्ञा की अभिलाषा से मुनिवर की ओर देखा,  मुनिवर ने उन्हें विशेष आशीष प्रदान करते हुवे आज्ञा दे दी | 

राजभवन उदयित होत रघुबर कासि किसोर । 
बिकसे संत सरोज सब भई बिभासित भोर ॥ 
राजभवन में रघुकुल का किशोर रूपी सूर्य उदय  हो रहा था | शनै : शनै:  प्रभात विभासित हो चला था, संत रूपी सरोज विकसित होने लगे  | 

बुधवार, ०३ जून २०१५                                                                                                             

रसमस दरस रहइ सबु  कोई । लोमहरष  तन हहरन होई ॥ 
नैन सुपुत सुमनस जस लागे । पलकन के पालौ जस जागे ॥ 
वे आनंद मग्न होकर भगवान की इस लीला का दर्शन कर रहे थे उनका तन कम्पायमान होकर रोमांचित हो रहा था | धनुष विभंजन न होने कारण उनके नेत्र पुष्प सुसुप्त अवस्था में मुकुलित से हो रहे थे रविकुल केतु के उदय होते ही क्षण में ही पलकों के पल्लव प्रफुल्लित से हो गए | 

प्रनमन निज गुरु चरन पठावा । राम कुँअर तुर धनुर उठावा ॥ 
उठत नभोगत  मंडलकृतिलहि । दमकिहि कर जस दामिनि दमकिहि ॥ 
 किशोर स्वरूप भगवान राम अपने गुरुदेव को प्रणाम करने हेतु गए फिर तत्काल ही धनुष उठा लिया | नभ की ओर उठते ही वह धनुष  मण्डलाकृति का हो गया और भगवान के हाथ में ऐसे दमकने लगा जैसे कोई बिजली दमकती है || 

रघुबर छन भीतर दिए तोरा ।भयऊ भुवन रवन घन घोरा ॥ 
परे भूतर होत दुइ खंडा । करे जयति जय सुर मुनि षण्डा ॥ 
भगवान रघुवीर ने उसे क्षणमात्र में भंजित कर दिया | धनुष भंजन होते समय  पृथ्वी में घनघोर ध्वनि होने लगी | फिर वह भूमि तल पर दो खंड होकर गिर गया | मुनि वृन्द उनकी जय जयकार करने लगे | 

दरसत रहँ सब नयन उघारे । चितबत पलकिनि पट नहि डारे ॥ 
एक घन गर्जन एक जय बानी । रहि रसमई दुनहु रस सानी ॥ 
सभी नेत्र विस्तृत किए उन्हें विलोक  रहे थे वे स्तब्ध थे पलकों के पट  नहीं पड़ रहे थे | धनिष भंजन से उत्पन्न  घन की गर्जना एक भगवान का जयघोष, दोनों ही ध्वनिआनंद रस में डूबी  सुमधुर प्रतीत हो रही थी | 

संख नुपूर सुर संगत बाजिहि  झाँझ मृदंग । 
चहुँ पुर सुमधुर रागिहीं रागिनि रंजन रंग ॥ 

शंख व् नूपुर के  स्वरों की संगत कर झांझ और मृदंग निह्नादित हो उठे | चारों ओर राग रंग अनुरक्त होकर सुमधुर रागनियां चारों ओर रागान्वित हो उठी | 

बृहस्पतिवार,०४ जून २०१५                                                                                        

धनुहत नृप भए अस श्री हीना । होत दिवस जस दीप मलीना ॥ 
मंचासित नर घर घर जावैं । रुचितत रतिबत कहत बतावैं ॥ 
धनुष  विभंजन से राजाओं का समाज ऐसे श्री हीन  हो गया जैसे दिवस होते ही दीपक मलीन हो जाता है | मंच पर आसीत लोग  घर घर जाकर रूचि ले लेकर सुन्दर भाव से यह सन्देश दे रहे हैं कि 

 सिउ के कोदंड कठोरा । रघु केरव कर गयऊ तोरा ॥ 
गह गह पुरजन धन कर लीन्हि । बारिहि फेर निछाबर दीन्हि ॥ 
शिवजी का  कठोर कोदंड रघु कुल के कमल श्रीराम के हस्ते विभंजित हो गया | तब पुरजन हाथों में धन-दक्षिणा लेकर उनपर वारि फेर कर न्यौछावर कर देते || 

सिअ सुबदन चितई कृपायतन । पाए चातकी स्वाति जलकन । 
पलक पाति रहि बरन बिहीना । लिखे  राम की नयन अधीना ॥ 
माता सीता का सुन्दर मुख मंडल कृपा के आयतन स्वरूप श्रीराम ऐसे देख जैसे चातकी को  स्वाति बून्द प्राप्त हो गई हो | पलक- पत्रिका अब तक वर्ण-विहीन थी जिसमें राम का नाम लिखकर नयनों के अधीन कर दिया | 

हिय सरोजल नयनाराबिंदु । प्रमुदित प्रगसिहि ओसु के बिंदु ॥ 
सखीं माँझ  सिय सोहति कैसे । निसिगन माँह महानिसि जैसे ॥ 
ह्रदय सरोवर हो गया नेत्र अरविन्द हो गए जिसमें प्रसन्नता के ओस बिंदु प्रकट हो गईं | सखियों के मध्य सीता कैसे सुशोभित हैं जैसे निशाओं के मध्य महानिशा सुशोभित होती हैं | 

बहोरि सोए सुभ अबसर आए | जनि कुँअरि कर जयमाल धराए ॥ 
गहि दुहु करसुन्दर जय माला । चली मंद गति बाल मराला ॥ 
तत्पश्चात वह शुभ मुहूर्त भी आया जब जननी ने कुअँरि के हाथों में जयमाला दी | दोनों हाथों में सिंदर जय माला लिए वह बाल मराला मंद गति से चली | 

मन मंदिर पिय कहुँ चाह करि हरिहरि चरि  नियराइ । 
प्रियबर प्रति अति प्रीत बस, पहनाइब नहि जाइ ॥ 

मानमंदिर में भगवान श्रीराम की अभिलाषा करते शनै:शनै: प्रभु के निकट आईं | प्रियतम के पारी अतिशय प्रीतिके वशीभूत वह माला उनसे  पहनाई नहीं जा रही थी | 

शुक्रवार, ०५ जून २०१५                                                                                                    
 लखत पिया निज मुख सकुचाईं । रघुबर मन ही मन सुहसाईं ॥ 
जो सुमाल कर बास सुबासी । संगत सिय पिय निलय निबासी ॥ 
प्रिय प्रभु का मुख विलोक कर संकोचित रह गई भगवान रघिविर मन ही मन सुहास करने लगे | जो सुमाल्य हस्त कमल में निवासित हो सुरभित हो रही है अंतत: वह सिया सहित श्रीराम चंद्र के हृदय की निवासी हो गई | 

गावहिं मंगल सकल सहेली । जुगित बाहु बल सिय उर हेली ॥ 
उदधि गान भए सुर घन बाहीं   । जुग  कर कौसुम जर बरखाहीं ॥ 
सभी सखियाँ मंगल गान करने लगीं सभी ने बाहु  की बलैया लेकर माता सीता को हृदय से लगा लिया | समुद्र गान स्वरूप तो देवता मेघ स्वरूप हो गए और  युगल हस्त से कुसुम जल की वर्षा करने लगे | 

तिनहु लोक लग जस बिस्तारै । बरे सिया धनु भंजनहारै ॥ 
राम सिया जुग लागिहि कैसे । मयन महा सुख सँजूगि जैसे ॥ 
तीनों लोक तक उनका यह यश विस्तारित हो गया की भगवान श्रीराम ने शिवजी का धनुष खंडन कर सीता जी का वरण कर लिया है | 

कहै सखी पद गहु बहु प्रीती । गौतम तिय गति सुरति सभीती ॥ 
दरस सिया के सरल सुभावा । प्रियबर उरस बढे प्रिय भावा ॥ 
सखियों ने प्रीति पूर्वक कहा प्रीतम के चरण स्पर्श करो तब गावतं नारी की गति का स्मरण कर वह भयभीत हो गई | माता सीता का सरल स्वभाव दर्श कर प्रियतम भगवान श्रीराम के ह्रदय में उनके प्रति प्रियता का भाव विवर्द्धित हो चला | 

तेहि अवसर संकर धनु  भंजन के धुनि पाए । 
भृगुकुल रूपी कमल के  तेज तूर तहँ आए ॥ 
उस समय शिव जी के धनुष खंडन की सुचना श्रवणकर भृगु कुल के कमल स्वरूप परशुराम द्रुत गति से वहां आ पहुंचे | 

शनिवार, ०६ शनिवार, २०१५                                                                                              

तपसी बसन बदन रतनारे । तपस तपन जस नयन उतारे ॥ 
जनक राज अगुसर सहुँ आयो । परसत पद सिय कर परनायो ॥ 
तपस्वी वेश व् क्रोध रूपी अग्नि का नेत्रों से अवतरित होने के कारण मुख मंडल लालिमा से युक्त था | जनक राज उनके स्वागत हेतु सम्मुख आए चरण स्पर्श कर  माता सीता का भी प्रणाम अर्पित किया | 

सुनि जस धनु तस भंजित पावा । परबह प्रसारत बहुंत रिसावा ॥ 
लिए कुठार कर जहाँ मुनीसा । किए रघुबर अगुसर तहँ सीसा ॥ 
जैसा संसूचित हुवा था उन्होंने धनुष को वैसा ही विभंजित पाया वह अत्यंत ही कुपित हो उठे जहाँ मुनीषा ने कुठार उठाया  वहां रघुनाथ जी ने मस्तक आगे बढ़ा दिया | 

भृगुपति चिक्कर लगन अगनि के । भयउ बचन घन रघुकुल मनि के ॥ 
कोपित पवन अँगारि जगारैं । नाथ निगदन बिंदु बौछारें  ॥ 
भृगुपति की चिंघाड़ ने जब अग्नि की लपट स्वरूप हो गई  तब रघुकुलमणि के वचन घन स्वरूप हो गए | कोप की पवन ने क्रोधाग्नि के अंगारों को जागृत कर दिया तब रघुनाथ ने अपने कथन बिंदुओं की बौछार कर दी | 

जानिहि  मुनि जस प्रभो प्रभावा । अवतरि  राम रूप हरि आवा ॥ 
हे मनु मानस के कल  हंसा । मँगत छिमा अस  करेँ  प्रसंसा ॥ 
मुनिवर जैसे ही प्रभु के प्रभाव से भिज्ञ हुवे की भगवान राम के स्वरूप स्वयं ईश्वर का ही अवतरण हुवा है | तब हे मनुष्य रूपी मानसरोवर के राज हंस के रूप में भगवान की स्तुति कर क्षमा याचना की  | 

मंद मलिन प्रभ मुख लहे रहे सहुंत कर जोरि । 
छिमा मंदिर छिमा दियो जयकर चरन बहोरि ॥ 
कांतिहीन मुख लिए वह सम्मुख करबद्ध रहे, क्षमा के मंदिर ने उन्हें क्षमा प्रदान कर दी तब  वह रघुनाथ जी की जय जय कार करते हुवे लौट गए | 

रवि/सोम ,०७/०८  जून, २०१५                                                                                               

गयऊ मिटे लगन पथ सूला ।रघुबर सिरपर बरखिहि  फूला ॥ 
राजित करतल कुसल प्रबीना ।सुमधुर सुर कीन्हि कल बीना ॥ 
भृगुनन्दन के जाते ही लग्न पथ के विघ्न दूर हो गए, रघुवर के शीश पर पुष्प वर्षा होने लगी कुशल वादकों के करतलों में सुन्दर वीणा विराजित हो गईं और वह सुमधुर स्वर में झंकृत हो उठी | 

ढोर हुडुक दुंदुभि कर  साजे । गहगह गगनन घन घन बाजे ।। 
झंझिया कर झंझरी सुहाए । सुर मंडली मुख मधुरिम गाए ॥ 
ढोल,हुढक्क , दुंदुभि  आदि वाद्य यन्त्र भी हाथों में सुसज्जित होकर  धूमधाम पूर्वक गगन में निह्नादित हो उठे |  झार्झर के हाथों में झांझरी सुशोभित हो गई स्वर मंडलियों के मुख से मधुर गान प्रस्फुटित होने लगा | 
झार्झर =ढोलबजाने वाला 

सुमुख सुलोचनि मिल करि जूहा  ।  मिलिहि रागिनिहि राग समूहा ॥ 
गावहि सुन्दर  मंगलचारा । छावहि चहुँपुर मोदु अपारा ॥ 
सुमुख सुलोचनि के समूह मिलकर रागिनियाँ  राग समूहों के साथ संगत कर सुन्दर गान करते हुवे मंगलाचरण करने लगी,जिससे चारों ओर अपार आनंद व्याप्त हो गया | 

होइहऊँ किमि चित चीता के । भयउ भय भीत चित  सीता के ॥ 
चिंतन रत मन बहु दुःख जोई  ।निबरिहि भय अब चिंत न कोई ॥ 
मैं चितहारी भगवान राम की किस प्रकार से होऊं, माता सीता का चित इस भय से भयभीत था | चिंतनरत मन में यह दुःख संजोएं हुई थी | भृगुनन्दन रूपी बाधा दूर हुई भयमुक्त होने से अब वह चिंता से रहित हो गईं | 

छठि कर दारिद  पारस पावा । जनक राज मुख अस दरसावा ॥ 
कहहि मुनि भई सिआ पिआ की । करौ  नाथ अब रीति बिहा की ॥ 
जन्म से दरिद्र को मानो पारस मिल गया हो जनक राज का मुख इस भांति परिलक्षित हो रहा था | मुनिवर कह रहे हैं सिया पिया की हो गईं हे नाथ अब वैवाहिक रीतियों का निर्वहन करो | 

जनक जाइ कुल बिरध बुझायो  । कर  कौसल पुनि बोलि पठायो ॥ 
बेद बिदित सब रीति नुहारे । नौ दुलहनि से  नगर सिँगारे ॥ 
जनक राज ने जाकर  कुल के वृद्ध जनों से परामर्श किया फिर कुशल कलाकारों  को बुलाया और कहा --' वेद विहित सभी रीतियों का अनुशरण करते हुवे नगर को नई-दुल्हन के जैसे सुसज्जित करो | 

  कलापावली किए कुञ्ज गली किए कनक कदलि कील कसे । 
मुनगि धरई के मनि गठियई के हरिद बेनु बल बिलसे ॥ 
बीच बीच बधि रचि चीरि कोरि पचि परन मई मनि मालरी  । 
बेली बनई रूचि रुचिरई के झूरत झौरि झालरी ॥ 
जनकराज का आदेश प्राप्त कर उन्होंने मुक्ताओं की लड़ियाँ रचाईं फिर  उसे केलों के स्वर्णमयी स्तंभ कर्षकर नगर की वीथिकाओं को लताओं से आच्छादित वीथिका का स्वरूप दिया | मूंगा देकर मणि की ग्रंथियां की जिसे हरे हरे वेणु में विन्यासित किया |पर्णमयी मालाओं को चीर-कोर कर सुन्दर पच्चीकारी की   फिर  उन्हें सुन्दर अहिबेलियाँ का स्वरूप देकर मनभावन झालरियों सा झूला दिया | 
                        
बहु रंगी बिहँगी गूँजहि कूजहि कतहुँ भूरि भूरि भँवरे । 
कलस भरे मंगल द्रव्य कर धरे देवन्हि अनुकृति करे ।। 
चौँक पुरायो बहु भाँति सुहायो रंगोरी रंग भरी । 
मनोभवँ कर फंद परी बर बंदनिबारी द्वारि घरी ॥ 
 बहुरंगी पक्षी रचे जो गूंजते-कूजते हुवे अतिशय भाँवरियाँ लेते | देवताओं की सुन्दर अनुकृतिकर उनके हस्त को कलश भरे मंगल द्रव्यों दिए | भिन्न-भिन्न भांति की रंग भरी रंगोलियों से पुरे हुवे चौंक सुहावने प्रतीत हो रहे थे |  फंद पड़े हुवे सुब्दर बंदनिवारे द्वारों पर पड़े मन को अति भा रहे थे | 

बहु निकट निकट  बटिक बटी बट पुरट पट पहिरन दियो । 
छीन छाम छबि छन उडुगन छूटत दहरी तट लग लग्यो ॥ 
मंगल घट सजे दंड धुजा धजे पताक पथ पथ पहरे । 
पथ राज भए सुरजस पंकज पत सथ सौरभित सुगंध भरे ॥ 
निकट-निकट पर डोरियों से अंट  देकर बटि हुई बहुंत सी बटियों से युक्त पटों के आभरण दिए गए जो झीने व छूटते तारों वाली क्षीण प्रभा से युक्त होकर देहली के अधोदेश को स्पर्श कर रहे थे | पथ पथ पर मंगल घटों से सुसज्जित दण्डों पर ध्वज पताकाएं प्रहरित हो रही थीं | राजपथ धूलि कण परागों से होकर कमल पत्तियों के प्रस्तरण के साथ सुरभित गंध से भर उठे | 

 दीपांकुर धरी  मनिमय मँजरी मंजुल मनोहारनी । 
जेहि मंडपु दुलहि बेदेहि केहि कबि सों जाइ न बरनी ॥ 
दूलहु राम जहाँ बरहि सो ठाम तिनहु  लोक उजागरे । 
सों जनक भवन के सुहा भुवन के सोइ प्रति घर घर घरे ॥  
 दीपकों के लौ मणिमय मंजरियों का आभास देती मंजुल व् मनोहारी प्रतीत हो रही थी | जिस मंडप में माता सीता दुलहिन होंगी उसकी सुंदरता का वर्णन किसी भी कवि  के वश का नहीं है जहाँ  दूल्हे श्रीराम चंद्र जी उनका वरण करेंगे वह वितान तीनों लोको को उजागृत किए हुवे था | जनकराज के भवन की शोभा जिस भांति की थी वही शोभा मिथिला के प्रत्येक भवन की थी | 

जेहि नयन तिरहुत लखे भूरि भुअन दस चारि । 
ऊँच सदन सन नीच लग जग सुख सम्पद सारि ॥ 
जिन नेत्रों ने वैदेह को देखा वह चौदह भुवनों की शोभा को भूल गया ऊँचे से लेकर नीचे सदन तक सभी संसार की सुख सम्पतियों से सुशोभित थे | 

बसइ लखी नगर घर घर भेष भरे जहँ साखि । 
तेहि के सुहा सेष सहि सारद सकुचहिं भाखि ॥ 
छद्म स्त्री का वेश धारण किए जहाँ साक्षात लक्ष्मी निवास करती हो उसकी शोभा का वर्णन करने हेतु शेष शारदा भी संकोच करते हैं | 

मंगलवार, ०९ जून, २०१५                                                                                                 

जनक अवध पुनि दूत पठायो । सिउ धनु भंजन देत बधायो । 
बारि बिलोचन कह बहु बतिया । दिए दूत कर लगन के पतिआ ॥ 
जनक राज ने शिवजी के धनुष विभंजन की बधाइयाँ देते हुवे अयोध्या में दूत भेजा अश्रुपूरित नेत्रों से बहुंत सी बातें लिखकर  दूत के हाथों लग्नपत्रिका दी | 

पाए अवध पति लगन प्रस्ताउ । नीर नयन हिय भरे प्रिय भाउ ॥ 
लिखे सरस अस बरन बिदेहा । दसरथ के मन भरे सनेहा ॥ 
अयोध्यापति राजा दशरथ को जब लग्न प्रस्ताव प्राप्त हुवा तब उनके  ह्रदय में प्रेम भाव व् नेत्रों में जल भर आया | विदेहराज ने ऐसे सरस वर्ण उल्लेखित  किए थे कि दशरथ जी का मन स्नेह से परिपूर्ण हो गया  | 

तब दूत नृप निकट बैठाईं । पूछ बिकल सकल कुसलाईं ॥ 
दूत द्रवित कहि कह सब बाता । बजाउ बाज सजाउ बराता ॥ 
तब दूत को निकट विराजित कर दशरथ जी ने व्याकुलित होकर कुशल-क्षेम पूछा | दूत द्रवित हो उठा उसने पत्रिका में वर्णित बातों को प्रेमपूर्वक निवेदन  कर कहा - ' महाराज ! बाजे बजवाइये जनेत सजाइये | 

उठे जनक पुनि आदर साथा । दिए पतिआ बसिष्ठ के हाथा ॥ 
गुरुबर मुख जब पाए सँदेसा ।होहि रागि उर हरष बिसेसा ॥ 
तदनन्तर जनकराज आदर सहित उत्तिष्ठ हुवे और पत्रिका मुनि वशिष्ठ के हस्तगत गुरुवर के मुख से सन्देश प्राप्तकर रानियों को भी विशेष हर्ष हुवा | 

सजि बिधुबदनी रति मदन बिनिंदत जहँ तहँ मिलि लगिहिं भलीं । 
सँमरिहि नागर सहि उमगत मुद महि मग गह गह गलीं गलीं   ॥ 
 सिंगरहि पत नद सहि  परवत रतिबत  कुञ्ज कुञ्ज कौसुम कलीं । 
कतहुँ  बेद  धुनि करिहिं मुनि कतहुँ त उच्चरहिं बिरदाबली ॥ 
रति व मदन के सौंदर्य की भी निंदा करते चन्द्रमा सी मुखमण्डल वाली सुहासिनियाँ जहाँ-तहाँ  मेल-मिलाप करती हुई मन को भली लगती | मार्गों में सुसज्जित नागरिक जनों  के हर्षों -उल्लास का जैसे समुद्र ही उमड़ पड़ा | कहीं तो मुनिगण वेद ध्वन्वित कर रहे थे कहीं वेदों के कीर्तिगान का व्याख्यान हो रहा था | 

राम नगर सदैव सुहावन तदपि रीत कृत लगि पावना । 
पताक पट तोरन माल बनाउन बिलखि नबल बिहावना ॥ 
भगवान श्री राम की अयोध्या नगरी तो सदैव सुहावनी प्रतीत होती थी तद्यपि मांगलिक रीतियों के कृत्य से वह अधिक पावन हो गई |  पताकाएं, पट व्  तोरण माल्य की रचनाओं से सुसज्जित होकर वह नव वधु सी प्रतीत हो रही थी | 

दूतिन्ह देत निछावरि दसरथ केर दुआरि  । 
सजिहै बराति सुठि सुभग  भीड़ परी अति भारि ॥ 
दूतों को न्यौछावरी दी गई, राजा दशरथ की द्वार पर भारी भीड़ उमड़ पड़ी,जनाकीर्ण द्वार पर सुन्दर व् सौभाग्यमयी जेनेत सुसज्जित हो गई | 

बुधवार, १० जून २०१५                                                           

सहजन स्वजन गुर पुर लोगे । सुबुध सूजन सुधि सचिव सुजोग ॥ 
रथि हय  गज रथ केतनि केता । चले अवध पति जुगत जनेता ॥ 
बंधू-बांधव व् आत्मीय स्वजनों सहित गुरुजन, पुरजन, सज्जन-सुबुद्धजन व् सुधित सचिव आदि को संकलित कर अयोध्या पति राजा दशरथ सारथी से युक्त हय-हस्ती से संयोजित अनेकानेक  रथों में जनेत संकलित  किए तिरहूत को प्रस्थान हुवे  | 


थांल धरी द्वारि कुल नारी । करि आरती कुसुम रस बारी ॥ 
बनइ न बरनत बनी बराता । होंहि सगुन सुन्दर सुभदाता ॥ 
द्वार पर थालें लिए कुल की नारियों ने उनकी आरती कर कुसुम जल की वर्षा की | बारात ऐसे सजी थी कि उसका वर्णन करते नहीं बनता चारों ओर सुन्दर व् मंगलदायक शगुन हो रहे थे | 

भरत बयस सब छरे छबीले । पहिरे भूषन बसन सजीले ॥ 
बाहन सिबिका हय कर कासे । भरे बस्तु पुर बहिर निकासे ।। 
भरत की अवस्था के छैल-छबीले सजीली भूषा व् भूषण धारण किए हुवे थे | अश्वकिरणों से कर्षित वाहन व् पालकियों में नाना प्रकार की मांगलिक वस्तुएं भरकर बारात की नगर से बहिर्निकासी हुई | 

पथ पथ सबजन सथ जब नाचिहि ।रंग रागिनी रंजन राँचिहि ॥ 
बीच बीच रचि बास सुबासीं । पाए सकल सुख सम्पद रासी ॥ 
पंथ पंथ पर सभी सज्जन जब नृत्य करते तब सुमधुर गायन,वादन में अनुरक्त होकर मन को आनद से परिपूर्ण कर देते | मार्ग के बीच-बीच में सुन्दर जनवासों की व्यवस्था थी जहाँ बाराती सभी सुख-सम्पतियों की राशि को प्राप्त करते | 

मोदु हर्षानंद समुद जनेत उर न समाए । 
एहि बिधि बहु कौतुक करत जनक पुरी नियराए ॥ 
हर्षोल्लास व् आनंद का समुद्र जनैत के ह्रदय में नहीं समाता इस प्रकार अत्यधिक कौतुहल करते बारात जनकपुरी के निकट पहुँच गई | 

शुक्रवार, १२ जून,२०१५                                                                                           

बाजत बाजने दिए सुनाई  ।  आतिथेय अगुसर अगवाईं ॥ 
कंठ माल दिए किए जोहारे । आउ भगत कर बहु सत्कारे ॥ 
जब बाजों की ध्वनि सुनाई पड़ी तब अतिथिपति उसके स्वागत हेतु अग्रसर हुवे और कंठ में माल्यार्पण कर बारातियों का अभिवादन किया व् आव-भगत के द्वारा उनका अतिशय सत्कार किया | 

होइहि मधुर मिलन हिल मेला । मेलिहि जिमि दुइ मंगल बेला ॥ 
हरित दुब  दधि दीप धरि थारी । किए आरती द्वाराचारी ॥ 
तत्पश्चात दोनों पक्ष का मधुर मेल-मिलाप इस भांति हुवा मानो दो मंगल बेलाएं परस्पर मिलाप कर रहीं हों | हरित दूर्वा, दधि, दीप से सुसज्जित थाल से आरती कर भगवान का द्वारचार हुवा | 

बहु सुपास जन वास  सुगंधे । चारिहि दिसि स्वजन कर बंधे ॥ 
कनक कलस रस कोपर थारी  । भरे बिबिध भोजन रसियारी ॥ 
लिए बरातिन्हि बीच बिहारें । मृदुलित मधुर भाख मनुहारें ॥ 

आह जनक जी की पहुनाई । मुकुत कंठ सब करें बढ़ाई ॥ 
विश्रामदायक जनवासे में सुगंध से परिपूरित थे चारों ओर हस्त बाँधें स्वजन उपस्थित थे जो विविध प्रकार के रसीले व्यंजन से भरे स्वर्ण कलशों ,थालों व् परातों  में बारातियों के बीच विचरण कर मृदुल व् मधुर भाषा में मनुहार पूर्वक जेवनार परोस रहे थे | आह ! जनक जी का आतिथ्य !!  सभी मुक्त कंठ से उसकी प्रशंसा करने लगे | 

मिलि  पितु सों राम लखमन बधे मोह के पास । 
जनक सहित जनेत सबहि लेन  आए जनवास ॥ 
राम-लक्ष्मण पिता से मिले और उनके मोह पाश में बंध गए | जनक सहित अन्य बंधू -बांधव बरात  को लेने जनवासे आए | 

शनिवार, १३ जून २०१५                                                                                              

धारिअ पाउ नेउता दीन्हि  । प्रेम पूरित दसरथु लीन्हि  ॥ 
 चले प्रमुदित अवध के राजा । सहित संत गुरु राज समाजा ॥ 
जनवासे में पदार्पण कर चरणों में पराम अर्पित कर बरात को निमंत्रित किया दशरथ जी ने उस निमंत्रण को प्रेमपूर्वक स्वीकार्य किया | दशरथ राज संत गुरु राज समुदाय सहित प्रमुदित मन से चले | 

चारि बंधु सोहहि रथ संगा । जात  नचावत चपल तुरंगा ॥ 
राम जेहि बर तुरग बिराजे । बिभवत बिभावरी मुख लाजे ॥ 
चारों बंधू रथ के संग सुशोभित हो रहे हैं और चपल तुरंगों को नचाते चले जा रहेहैं | रामजी जिस सुन्दर अश्व पर विराजित थे उसकी आभा नक्षत्रों से भरी रात्रि को भी लज्जित करती थी | 

मणिमान पलान सुमोति  जरे । किंकनि  किरन सुजोति कर भरे ॥ 
प्रीत पुलक उद उदधि उछाहू  । चले सिया रघुबीर बिआहू ॥ 
सुन्दर मुक्ताओं से अलंकृत मणि युक्त पीठिका थी उसकी रश्मियाँ क्षुद्र घंटिकाओं से भरी हुई थी | प्रीति का पुलिकत समुद्र उमड़ कर हिलोरे लेने लगा भगवान श्रीराम च्नद्र जी सीता जी को ब्याहने चले | 

जानि  आवत जनेत दुआरी । चलि परछन सुठि कुँअर कुँआरी ॥ 
सकल सुमंगल द्रव्य सँभारी । सजा आरती चलि  कुल नारी ॥ 
बरात का आगमन हुवा जानकर सुन्दर सुकुआरियाँ कुंअर भगवान श्रीराम चंद्र जी लोकाचार करने चल पड़ी | समस्त सुमंगल द्रव्यों से पूर्ण आरतीथाल सुसज्जित कर कुल की नारियां चली | 

करत सकल कल गान द्वारा । कीन्हि सुभग सुमंगल चारा ॥ 
करें आरती दुलहु निहारहि । मनिमानीच अभूषन बारहिं ॥
द्वार पर सभी मंगल गान करा रहीं हैं सौभाग्य से परिपूर्ण सुन्दर मंगल आचरण कर रही हैं | आरती करते दूल्हे का शुभ दर्शन कर वह मणि मुक्ताओं की न्यौछावरी कर रहें हैं | 

देखिं राम बर रूप मन जो सुखु भा सिअ मात । 
सारद सेषु महेसु मुख को बिधि बरनि न जात ॥ 
राम को वर स्वरूप में विलोक कर माता सीता के मन-मानस में  जिस प्रकार के सुख की अनुभूति हुई वह शारदा, शेष, महेश के द्वारा भी अनिर्वचनीय है | 

रवि/सोम , १४/१५  जून, २०१५                                                                                         

समद समध होअहि समधौरा । समदिहि जिमि दुहु पौरक पौरा ॥ 
जनकु सकल बरात सनमानी । दाए पान बिनती मुख बानी ।। 
सम्बन्धियों की उपहारपूरित मेल-मिलनी इस भांति हुई मानो दो ड्योढ़ियों का मेल हो रहा हो | जनकजी ने विनयपूरित वाणी से अर्ध्यपान देकर समस्त बरात का सम्मान किया | 

राम मंडप आगमनु  सुहाए । जनकु सादर अवधेसु ल्याए । 
कहे कुअँरि गुरु आनइ जाईं । सखि सँवारि सिअ आन लवाईं ॥ 
भगवान श्रीराम का लग्न-मंडप पर आगमन अतिशय सुहावना है जनकजी अवधेश को भी आदर सहित ले आए | गुरुवर ने कुँअरि श्री सीता को लाने हेतु कहा, सखियाँ  श्रृंगार कर सीता को लिए आ रही हैं | 

धरिअ धरा मंदग पद ताला ।बाजिहि नुपूर मंजुल माला ॥ 
बैठि हरिअ बहु रघुबर बामा । भयउ जुगल जुग पूरनकामा ॥ 
नूपुरों की मंजुल मालाओं को मुखरित करती वह धरा पर मंद-मंद चरण -तल न्यासित करती हैं भगवान रघुवीर की वाम दिशा में  अतिशय धीमे से प्रतिष्ठित होती हैं | 

कूनिका के कंठ कल कुंजे  । पढिहिं बेद मुनि कल धुनि गुंजे ॥ 
हवन सँजोबल भूसुर भाखी । गहहि अगन सुख आहुत साखी ॥ 
वीणा का कंठ मधुर कलरव करने लगा मुनिवृंद के द्वारा वेद पाठ से मधुर ध्वनि गूँज उठी | हवन सन्नद्ध किए ब्राम्हण मंत्र-व्याख्यान कर रहे थे, अग्निदेव सुख आहुति को साक्षात ग्रहण कर रहे थे | 

परमिलित कुअँरि परिमल करतल कुँअरु पानि गहन कियो । 
किए बेद बिधान लोक सहित जनि जनक कनिआँ दान दियो ॥ 
पट पल्लब जोरि दोउ बिधिबत लेइ लगि  कल भाँवरी । 
पुनि बंदत मुख बिबिध हरष सुरगन  कुसुम झरि करि हरिअरी  ॥ 
 सुकुमारी सीता जी के कुमकुम युक्त करतल को अपने करतल से संयुग्मित कर सुकुमार श्री राम चंद्र जी ने पाणि ग्रहण किया | वेदों में विहित विधान एवं लोकरीतियों का अनुशरण कर जनक जी ने कन्या दान दिया | पट के पल्लव से परिबद्ध दोनों युगल विधिवत सुन्दर भाँवरि लेने लगे |मुख से विविध वन्दनाएं करते  हर्षित  देवगण पुष्पों की धीमी वर्षा करने लगे | 

दुलहिन बर अनुरूप लखि परस्पर सकुचित हियँ । 
सिय बर लगन अनूप निरख  निज नयन सबहि कहि ॥ 
दूल्हा व् दुल्हिन परस्पर अपने अनुरूप जोड़ी को दर्श कर संकुचित होते हैं |  राम विवाह का साक्षात दर्शन कर  दर्शकगण कह उठे सियावर श्रीराम चंद्र जी का यह लग्न अद्वितीय है| 


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