बिटिया मेरे गाँउ की,पढ़न केरि करि चाह |
दरसि दसा जब देस की पढ़न देइ पितु नाह || १ ||
भावार्थ :-- एक कहानी सुनो :-- मेरे गाँव की एक बिटिया थी उसकी पढ़ने-लिखने की प्रबल इच्छा थी देश की हिंसक व् व्यभिचारी दशा देखकर उसके पिता ने अपनी बिटिया को पढ़ने नहीं दिया |
ज्ञान केरे मंदिर में चहुँ पुर भरे कसाइ |
पढ़े बिनहि पुनि लाडली बाबुल दियो बिहाइ || २ ||
भावार्थ :-- ज्ञान के मंदिरों में कसाई भरे थे | पिता ने पढ़ाए बिना ही अपनी लाडली का विवाह कर दिया |
यह कहानी हमारे देश के एक पिता की न होकर उन सभी पिताओं की है जिन्होंने बेटियों को जन्म देने का अपराध किया है | सत्ता के लोलुपी शासको और उनके चाटुकारों ने हमारे देश की दशा ऐसी कर दी कि : --
कतहुँ डाका कतहुँ चोरि कतहुँ त छाए ब्याज |
निर्भय हो को प्रान बधे लूट रहे को लाज || ३ ||
भावार्थ : - देश में कहीं डाका- चोरी तो कहीं छल कपट का राज है | निर्भय होकर हत्या व बलात्कार जैसे जघन्य अपराध किये जा रहे हैं ||
चार पहर चौसठ घडी होइ रहे अपराध |
सुजन बन सब मुकुत फिरै दंड गहै एक आध || ४ ||
भावार्थ : --ऐसा कोई क्षण नहीं जाता जिसमें अपराध न होते हों | लचर दण्ड व्यवस्था के कारण अपराधी सज्जन बनकर मुक्त स्वरूप में विचर रहे हैं, दण्ड का भागी कोई विरला ही होता है ||
चहुँ ओर घन घोर तम दिसि दिसि काल ब्याल |
काँकरी कर बेहर बन शृंग शृंग शृंगाल || ५ ||
भावार्थ : --देश नीति-नियमों के अभाव से ग्रस्त व् उनके अपालन से पीड़ित है यहाँ आतततायी सर्वत्र दृष्यमान हैं, कंकड़ों से बने उसके गगनचुम्बी भवनों के शिखरों पर हिंसावादी दुष्टों का वास है ||
जन मानस के राज में ऐसो भयो बिधान |
मानस मानस कू भखे राकस केर समान || ६ ||
भावार्थ -- क्यों न हो यह लोकतंत्र है साहेब और इस तंत्र का विधान ही कुछ ऐसा है कि यहाँ राक्षसों के सदृश्य मनुष्य मनुष्य को खाने लिए स्वतंत्र है ||
मानस के मन मानसा, हिंसा रत जब होइ |
जिउ जगत कर का कहिये तासों बचे कोइ || ७ ||
ऊँची खूँटी टाँग के उचित नेम उपबंध |
एकदिन ऐसो होइगा सासन केर प्रबंध || ८क ||
भावार्थ :-- मनुष्य का मनो-मस्तिष्क जब हिंसालु प्रकृति का हो जाता है तब उससे कोई नहीं बचता | जीव-जंतुओं की निरंतर हत्या करने के कारण उसपर निर्ममता व्याप्त हो जाती है और वह मानव हत्या, आतंक व बलात्कार जैसे जघन्य अपराध करने में भी संकोच नहीं करता |
आतंक हत्यापहरन डाका चोरी लूट |
कर बिनु देइ दूषन है देइ करन की छूट || ८ख ||
भावार्थ : -- जनोचित नियमोपबन्धों को समाप्त कर एकदिन भारत की शासन व्यवस्था ऐसी हो जाएगी कि आतंक, हत्या, बलात्कार, अपहरण, डाका, चोरी,लूट जैसे जघन्य कृत्य कर देने पर वैधानिक और कर न देने पर अवैधानिक माने जाएंगे |
" अपराधों का व्यवसायीकरण कर राजस्व एकत्र करना कोई भारत-शासन से सीखें....."
सो अरथ तौ अनरथ जौ बुरी नीति ते आए |
धर्म केरि मर्याद बिनु बुरे रीति बरताए || ९ ||
भावार्थ :--वह अर्थ अनर्थ कारी है जो अनीति पूर्वक अर्जित किया गया हो धर्म की मर्यादा से रहित हो और जिसे रीति विरुद्ध कार्यों में व्यय किया गया हो ||
सत्ता सक्ति संग चहे सासक अभिमत भोग |
साधन कू साधन चहे बिनहि मोल सब लोग || १० ||
भावार्थ :--आज शासकों को सत्ता चाहिए, शक्ति चाहिए, पंच परिधान चाहिए, रक्षकों की सेना चाहिए, सेवकों से भरा भवन चाहिए, उड़ने के लिए नए नए विमान चाहिए, चलने के लिए बहुमूल्य वाहन चाहिए, नत मस्तक जनमानस चाहिए अर्थात उन्हें सत्तासूत्र के साथ श्रमहीन शुल्करहित मनोवाँछित भोग चाहिए | जनमानस को निशुल्क साधन चाहिए निशुल्क सुविधाएँ चाहिए, स्वास्थ्य चाहिए शिक्षा चाहिए शासन तंत्र कहता हैं ये सब कहां से आएगा ?
ऐसे आएगा ?
राजू : -- हाँ ! सत्ताधारी कहते तुम सबकुछ छोडो हम कुछ नहीं छोड़ेंगे.....
पद संपद की चाह किए देसधरम गए भूर |
बेहड़ बन में पग धरे भै हमहू सादूर || ११ ||
भावार्थ : -- पद सम्पदा की लौलुपता ने देश धरम को भूला दिया | आधुनिकता की अंधी दौड़ ने विदेशियों और प्रवासियों को पाषाण युग में पहुंचा दिया उनका अनुशरण करते क्रंकीट के घने जंगलों में प्रवेशकर अब हम सभ्य भारतीय भी उनके जैसे हिंसक वनमानुष बनते जा रहे हैं
राजू : --हाँ जंगली पशु भी विवाह नहीं करते,उनमें जाति होती है किंतु धर्म नहीं होता, और भी बहुंत कुछ वे तुम्हारे जैसे ही करते हैं किंचित दृष्टिपात करना उनके जीवन पर.....
दरसि दसा जब देस की पढ़न देइ पितु नाह || १ ||
भावार्थ :-- एक कहानी सुनो :-- मेरे गाँव की एक बिटिया थी उसकी पढ़ने-लिखने की प्रबल इच्छा थी देश की हिंसक व् व्यभिचारी दशा देखकर उसके पिता ने अपनी बिटिया को पढ़ने नहीं दिया |
ज्ञान केरे मंदिर में चहुँ पुर भरे कसाइ |
पढ़े बिनहि पुनि लाडली बाबुल दियो बिहाइ || २ ||
भावार्थ :-- ज्ञान के मंदिरों में कसाई भरे थे | पिता ने पढ़ाए बिना ही अपनी लाडली का विवाह कर दिया |
यह कहानी हमारे देश के एक पिता की न होकर उन सभी पिताओं की है जिन्होंने बेटियों को जन्म देने का अपराध किया है | सत्ता के लोलुपी शासको और उनके चाटुकारों ने हमारे देश की दशा ऐसी कर दी कि : --
कतहुँ डाका कतहुँ चोरि कतहुँ त छाए ब्याज |
निर्भय हो को प्रान बधे लूट रहे को लाज || ३ ||
भावार्थ : - देश में कहीं डाका- चोरी तो कहीं छल कपट का राज है | निर्भय होकर हत्या व बलात्कार जैसे जघन्य अपराध किये जा रहे हैं ||
चार पहर चौसठ घडी होइ रहे अपराध |
सुजन बन सब मुकुत फिरै दंड गहै एक आध || ४ ||
भावार्थ : --ऐसा कोई क्षण नहीं जाता जिसमें अपराध न होते हों | लचर दण्ड व्यवस्था के कारण अपराधी सज्जन बनकर मुक्त स्वरूप में विचर रहे हैं, दण्ड का भागी कोई विरला ही होता है ||
चहुँ ओर घन घोर तम दिसि दिसि काल ब्याल |
काँकरी कर बेहर बन शृंग शृंग शृंगाल || ५ ||
भावार्थ : --देश नीति-नियमों के अभाव से ग्रस्त व् उनके अपालन से पीड़ित है यहाँ आतततायी सर्वत्र दृष्यमान हैं, कंकड़ों से बने उसके गगनचुम्बी भवनों के शिखरों पर हिंसावादी दुष्टों का वास है ||
जन मानस के राज में ऐसो भयो बिधान |
मानस मानस कू भखे राकस केर समान || ६ ||
भावार्थ -- क्यों न हो यह लोकतंत्र है साहेब और इस तंत्र का विधान ही कुछ ऐसा है कि यहाँ राक्षसों के सदृश्य मनुष्य मनुष्य को खाने लिए स्वतंत्र है ||
मानस के मन मानसा, हिंसा रत जब होइ |
जिउ जगत कर का कहिये तासों बचे कोइ || ७ ||
ऊँची खूँटी टाँग के उचित नेम उपबंध |
एकदिन ऐसो होइगा सासन केर प्रबंध || ८क ||
भावार्थ :-- मनुष्य का मनो-मस्तिष्क जब हिंसालु प्रकृति का हो जाता है तब उससे कोई नहीं बचता | जीव-जंतुओं की निरंतर हत्या करने के कारण उसपर निर्ममता व्याप्त हो जाती है और वह मानव हत्या, आतंक व बलात्कार जैसे जघन्य अपराध करने में भी संकोच नहीं करता |
आतंक हत्यापहरन डाका चोरी लूट |
कर बिनु देइ दूषन है देइ करन की छूट || ८ख ||
भावार्थ : -- जनोचित नियमोपबन्धों को समाप्त कर एकदिन भारत की शासन व्यवस्था ऐसी हो जाएगी कि आतंक, हत्या, बलात्कार, अपहरण, डाका, चोरी,लूट जैसे जघन्य कृत्य कर देने पर वैधानिक और कर न देने पर अवैधानिक माने जाएंगे |
" अपराधों का व्यवसायीकरण कर राजस्व एकत्र करना कोई भारत-शासन से सीखें....."
सो अरथ तौ अनरथ जौ बुरी नीति ते आए |
धर्म केरि मर्याद बिनु बुरे रीति बरताए || ९ ||
भावार्थ :--वह अर्थ अनर्थ कारी है जो अनीति पूर्वक अर्जित किया गया हो धर्म की मर्यादा से रहित हो और जिसे रीति विरुद्ध कार्यों में व्यय किया गया हो ||
सत्ता सक्ति संग चहे सासक अभिमत भोग |
साधन कू साधन चहे बिनहि मोल सब लोग || १० ||
भावार्थ :--आज शासकों को सत्ता चाहिए, शक्ति चाहिए, पंच परिधान चाहिए, रक्षकों की सेना चाहिए, सेवकों से भरा भवन चाहिए, उड़ने के लिए नए नए विमान चाहिए, चलने के लिए बहुमूल्य वाहन चाहिए, नत मस्तक जनमानस चाहिए अर्थात उन्हें सत्तासूत्र के साथ श्रमहीन शुल्करहित मनोवाँछित भोग चाहिए | जनमानस को निशुल्क साधन चाहिए निशुल्क सुविधाएँ चाहिए, स्वास्थ्य चाहिए शिक्षा चाहिए शासन तंत्र कहता हैं ये सब कहां से आएगा ?
ऐसे आएगा ?
राजू : -- हाँ ! सत्ताधारी कहते तुम सबकुछ छोडो हम कुछ नहीं छोड़ेंगे.....
पद संपद की चाह किए देसधरम गए भूर |
बेहड़ बन में पग धरे भै हमहू सादूर || ११ ||
भावार्थ : -- पद सम्पदा की लौलुपता ने देश धरम को भूला दिया | आधुनिकता की अंधी दौड़ ने विदेशियों और प्रवासियों को पाषाण युग में पहुंचा दिया उनका अनुशरण करते क्रंकीट के घने जंगलों में प्रवेशकर अब हम सभ्य भारतीय भी उनके जैसे हिंसक वनमानुष बनते जा रहे हैं
राजू : --हाँ जंगली पशु भी विवाह नहीं करते,उनमें जाति होती है किंतु धर्म नहीं होता, और भी बहुंत कुछ वे तुम्हारे जैसे ही करते हैं किंचित दृष्टिपात करना उनके जीवन पर.....
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (04-06-2017) को
ReplyDelete"प्रश्न खड़ा लाचार" (चर्चा अंक-2640)
पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 14 जून 2017 को लिंक की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर ...सटीक दोहे....
ReplyDeleteजन मानस के राज में ऐसो भयो बिधान |
मानस मानस कू भखे राकस केर समान |...
लाजवाब...
लाजवाब दोहे
ReplyDeleteसादर
देश की दुरवस्था का चित्रण दोहे विधा में, बार बार पढ़ने को प्रवृत्त करते हैं आपके ये दोहे....
ReplyDeleteआदरणीय ,कटु सत्य एवं अनमोल विचार ,जनता चाहे तो चेत सकती है यह उसके उत्तम चरित्र पर निर्भर करता है ,आभार। "एकलव्य"
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