रत्नेस ए देस मेरा होता नहि दातार |
देता सर्बस आपुना बदले माँगन हार || १ ||
भावार्थ :-- जो स्वयं को विकसित राष्ट्र कहने वालों को लज्जित होना चाहिए | उनकेयहाँ आपदाओं का कोई प्रबंधन नहीं है, धनी होकर भी संकट के समय वह हाथ पसारे फिरते हैं | त्रिरत्न स्वामी मेरा यह देश यदि दातार नहीं होता तब जलमन्न रूपी वास्तविक रत्नों के बदले ये अपना सर्वस देने को विवश हो जाते ||
किस काम के तुम्हारे ये बम.....?
जल ग्यान है दान हुँत अन्न हेतु ब्यौहार |
असमरथ की क्षुधा हरे बहुरि करें बैपार || २ ||
भावार्थ : -- सुबुध जन कहते हैं : - जल और ज्ञान ( सुभाषित वचनों का संकलन ) दान के लिए हैं व्यवहार के लिए नहीं | अन्न में कृषक व् बैल का श्रम नियोजित होता है इस हेतु यह व्यवहार की वस्तु है तथापि इसका प्रथमतः उपयोग असमर्थ की क्षुधा शांत करने लिए हो ततपश्चात इसका व्यापार किया जा सकता है |
प्रगस रतन सँभारी जौ राखै सब के प्रान |
अगजग हितकर बिधि करै बरनिय सोइ बिधान || ३ ||
भावार्थ : -- जो वास्तविक रत्नों को सहेज कर जीव मात्र की रक्षा करता हो, जो समस्त विश्व के कल्याण की विधि का उपबंध करता हो वह संविधान अंगीकार करने योग्य है |
जेहि देस कर देहरी दिए पट हीन द्वार |
कहा करे पहराइ तहँ कहा करे तलवार || ४ ||
भावार्थ : - जहाँ संविधान अपने राष्ट्र की देहली पर पट विहीन द्वार निर्मित करता हो वहां सभी सुरक्षा उपाय व्यर्थ सिद्ध होते हैं |
स्पष्टीकरण : -- पट विहीन द्वार में कोई भी कभी भी कहीं भी आ-जा सकता है | ऐसे द्वार वाले देश में कभी भी परायों का शासन सो सकता है | परायों के बहुमत से परायो के शासन में जनसामान्य द्वारा अंगीकृत संविधान अवमान्य हो जाता हैं और वहां उसके अपने विधान लागू हो जाते हैं |
परायों के बहुमत से परायो के शासक को संविधान के दो टुकड़े कर जनमानस के हाथ में धराते कितनी देर लगेगी.....?
देस केर बनावन मैं मूलभूत जौ नाहि |
ताहि हेतु सो मानसा बिराउना कहलाहि || ५ ||
भावार्थ : -- वह व्यक्ति उस राष्ट्र के लिए पराया है जो उसके निर्माण में मूलभूत नहीं होता.....
वह व्यक्ति उस राष्ट्र के लिए पराया है जो उसके निर्माण में मूलभूत नहीं होता.....
भीतर ते जो खोखरा बाहिर ते भरपूर |
अह सहज ब्यौहार ते रहियो वासों दूर || ६ ||
भावार्थ : - जिस देश में आवश्यक अन्न न हो, जल न हो सुभाषित वचन भी न हो, लोहा भी कुछ विशेष न हो सोना-वोना भी न हो, अपने कोयले को जिसने फूँक दिया हो | अहो! उसकी बाहरी चकाचौंध से प्रभावित हुवे बिना सहज व्यवहार न कर उससे सावधानी पूर्वक व्यवहार करना चाहिए |
जेहि देस कर मानसा रहे सहित परिवार |
ताहि के रखिताई हुँत बहे सीस मित भार || ७ ||
भावार्थ : -- जिस देश का जनमानस परिजनों की छत्र छाया में निवास करता है उस देश पर उसकी सुरक्षा का भार न्यून होता है |
जोइ देस अपनाइया बिबाहित संस्कार |
परिजन के छत छाए सो रचत रुचिर परिवार || ८ ||
भावार्थ : -- जो देश वैवाहिक संस्कार को अनिवार्यता पूर्वक अंगीकार करता है वह सुन्दर परिवार की रचना करते हुवे जनमानस को परिजनों की छत्र -छाया से युक्त कर अपने दायित्व का भार न्यून कर लेता है |
जेहि देस सुरीत चरत नियत नेम बर नीति |
सुख करत चरित गढत तहँ बासै प्रीत प्रतीति || ९ ||
भावार्थ -- जिस देश में उत्तम रीतियों का अनुशरण व् लोक व्यवहार-हेतु उत्तम नियमों व् नीतियों का नियंत्रण होता है, उस देश में स्नेह और विश्वास का निवास रहता है जो शील व् सदाचारी वृत्ति का निर्माण कर जनमानस को सुखी रखते हैं |
मांस मदिरा ब्यसन कर बान बरे जो कोइ |
सो जन देस समाज सो तासो दरिदर होइ ||१० ||
भावार्थ : -- जो व्यक्ति, जो समाज, जो देश मांस-मदिरा जैसे व्यसनों का अभ्यस्त होता है वह दिन प्रतिदिन दरिद्र होता जाता है |
स्पष्टीकरण : - किसी वस्तु का अधिकाधिक उपयोग भी एक व्यसन है.....
देता सर्बस आपुना बदले माँगन हार || १ ||
भावार्थ :-- जो स्वयं को विकसित राष्ट्र कहने वालों को लज्जित होना चाहिए | उनकेयहाँ आपदाओं का कोई प्रबंधन नहीं है, धनी होकर भी संकट के समय वह हाथ पसारे फिरते हैं | त्रिरत्न स्वामी मेरा यह देश यदि दातार नहीं होता तब जलमन्न रूपी वास्तविक रत्नों के बदले ये अपना सर्वस देने को विवश हो जाते ||
किस काम के तुम्हारे ये बम.....?
जल ग्यान है दान हुँत अन्न हेतु ब्यौहार |
असमरथ की क्षुधा हरे बहुरि करें बैपार || २ ||
भावार्थ : -- सुबुध जन कहते हैं : - जल और ज्ञान ( सुभाषित वचनों का संकलन ) दान के लिए हैं व्यवहार के लिए नहीं | अन्न में कृषक व् बैल का श्रम नियोजित होता है इस हेतु यह व्यवहार की वस्तु है तथापि इसका प्रथमतः उपयोग असमर्थ की क्षुधा शांत करने लिए हो ततपश्चात इसका व्यापार किया जा सकता है |
प्रगस रतन सँभारी जौ राखै सब के प्रान |
अगजग हितकर बिधि करै बरनिय सोइ बिधान || ३ ||
भावार्थ : -- जो वास्तविक रत्नों को सहेज कर जीव मात्र की रक्षा करता हो, जो समस्त विश्व के कल्याण की विधि का उपबंध करता हो वह संविधान अंगीकार करने योग्य है |
जेहि देस कर देहरी दिए पट हीन द्वार |
कहा करे पहराइ तहँ कहा करे तलवार || ४ ||
भावार्थ : - जहाँ संविधान अपने राष्ट्र की देहली पर पट विहीन द्वार निर्मित करता हो वहां सभी सुरक्षा उपाय व्यर्थ सिद्ध होते हैं |
स्पष्टीकरण : -- पट विहीन द्वार में कोई भी कभी भी कहीं भी आ-जा सकता है | ऐसे द्वार वाले देश में कभी भी परायों का शासन सो सकता है | परायों के बहुमत से परायो के शासन में जनसामान्य द्वारा अंगीकृत संविधान अवमान्य हो जाता हैं और वहां उसके अपने विधान लागू हो जाते हैं |
परायों के बहुमत से परायो के शासक को संविधान के दो टुकड़े कर जनमानस के हाथ में धराते कितनी देर लगेगी.....?
देस केर बनावन मैं मूलभूत जौ नाहि |
ताहि हेतु सो मानसा बिराउना कहलाहि || ५ ||
भावार्थ : -- वह व्यक्ति उस राष्ट्र के लिए पराया है जो उसके निर्माण में मूलभूत नहीं होता.....
वह व्यक्ति उस राष्ट्र के लिए पराया है जो उसके निर्माण में मूलभूत नहीं होता.....
भीतर ते जो खोखरा बाहिर ते भरपूर |
अह सहज ब्यौहार ते रहियो वासों दूर || ६ ||
भावार्थ : - जिस देश में आवश्यक अन्न न हो, जल न हो सुभाषित वचन भी न हो, लोहा भी कुछ विशेष न हो सोना-वोना भी न हो, अपने कोयले को जिसने फूँक दिया हो | अहो! उसकी बाहरी चकाचौंध से प्रभावित हुवे बिना सहज व्यवहार न कर उससे सावधानी पूर्वक व्यवहार करना चाहिए |
जेहि देस कर मानसा रहे सहित परिवार |
ताहि के रखिताई हुँत बहे सीस मित भार || ७ ||
भावार्थ : -- जिस देश का जनमानस परिजनों की छत्र छाया में निवास करता है उस देश पर उसकी सुरक्षा का भार न्यून होता है |
जोइ देस अपनाइया बिबाहित संस्कार |
परिजन के छत छाए सो रचत रुचिर परिवार || ८ ||
भावार्थ : -- जो देश वैवाहिक संस्कार को अनिवार्यता पूर्वक अंगीकार करता है वह सुन्दर परिवार की रचना करते हुवे जनमानस को परिजनों की छत्र -छाया से युक्त कर अपने दायित्व का भार न्यून कर लेता है |
जेहि देस सुरीत चरत नियत नेम बर नीति |
सुख करत चरित गढत तहँ बासै प्रीत प्रतीति || ९ ||
भावार्थ -- जिस देश में उत्तम रीतियों का अनुशरण व् लोक व्यवहार-हेतु उत्तम नियमों व् नीतियों का नियंत्रण होता है, उस देश में स्नेह और विश्वास का निवास रहता है जो शील व् सदाचारी वृत्ति का निर्माण कर जनमानस को सुखी रखते हैं |
मांस मदिरा ब्यसन कर बान बरे जो कोइ |
सो जन देस समाज सो तासो दरिदर होइ ||१० ||
भावार्थ : -- जो व्यक्ति, जो समाज, जो देश मांस-मदिरा जैसे व्यसनों का अभ्यस्त होता है वह दिन प्रतिदिन दरिद्र होता जाता है |
स्पष्टीकरण : - किसी वस्तु का अधिकाधिक उपयोग भी एक व्यसन है.....
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज गुरूवार (29-06-2017) को
ReplyDelete"अनंत का अंत" (चर्चा अंक-2651)
पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
नीति रीति की सीख देते सुंदर दोहे !
ReplyDeleteये भाव अनमोल मोती है जो अनमोल हैं --बहुत सुंदर --
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