Monday, 24 December 2018

----- ॥ दोहा-द्वादश १५ ॥ -----

बहिरे बरग के डर ते डरपत मन हम्हार |
एहि डर निडर होतब रे भाजत देस द्वार || १ || 
भावार्थ : -  देश से बाहर के समुदाय का भय हम भारत वासियों को बहुंत भयभीत करता हैं क्योंकि उनका यह भय इस देश को विभाजित करके ही निर्भीक होता है |

को करतब बलिदान को सेवा सुश्रता कोइ |
साँची तब कहिलाइ जब परमार्थ हुँत होइ || २ ||
भावार्थ : - कोई कर्तव्य कोई बलिदान अथवा कोई सेवा शुश्रुता तभी सत्य कहलाती है जब वह निःस्वार्थ होकर परमार्थ हेतु हो स्वार्थ हेतु नहीं |

लीख ते भयउ लाख सखि निरखु ए खंजन खेल |
साखि साखि करु राखि सखि नैन नीँद परहेल || ३ ||
भावार्थ : - हे सखि ! इन प्रवासी पक्षियों को देखो ये कैसे अल्प से अति हो गए | नेत्रों से निद्रा को तिरष्कृत कर तुम अपने वृक्ष और उनकी शाखाओं की रक्षा करो |

सीत पानि करि सीत रुचि सीत काल सिहरात |
सीत बात असपरस के पात पात संपात || ४ ||
भावार्थ : - शीत काल में किरणों की शीतलता से चन्द्रमा भी कम्पन करने लगा | शीतल वायु का स्पर्श वृक्ष को कम्पित कर उसके पत्ते गिराने लगा


मन मोहु माया बस किए देही जति परिधान | 
चित कस ग्यान गहे जो करतल दिए नहि कान || ५ || 
भावार्थ :- मन सांसारिक विषयों वशीभूत हो देह यति वल्कल के |  जब कान अपरिरुद्ध होकर अनर्गल प्रलाप  श्रवण करने में व्यस्त हो तब चित्त ज्ञान कैसे ग्रहण करे |

साँच धर्म की आत्मा दया धर्म की देह |
तप धर्म का हरिदय है दान धर्म का गेह || ६ ||
भावार्थ : - सत्य धर्म की आत्मा है दया  धर्म की देह है तपस्या धर्म का ह्रदय है दान उसका गृह है |

पाठ पराया पढ़त मन मानस भयो अधीन | 
देस पराया जीमता अपुना दीन मलीन || ७ || 
भावार्थ : - पराई पट्टी पढ़ के यह देश मानसिक दास हो चला है भिन्न देश के धर्मावलम्बी इस देश का भरपूर उपभोग कर रहे और देशवासी दरिद्रता को प्राप्त हैं |

कतहुँ मुस्लिमस्ताँ बसै कतहुँ फिरंगी बाद | 
अहले हिन्दुस्ताँ तिरी कौन सुने फ़रियाद || ८ || 
भावार्थ : - कहीं मुस्लिम्स्तान बसा है तो कहीं इंग्लैंडिया बसा है प्यारे भारत यहाँ तेरी दुहाई, तेरी याचिका सुनने वाला कोई नहीं है | 

नेम नियामक पहिले कि पहिले धर्म निकाय | 
जनमानस के राज कहु कवन पंथ अपुनाए || ९ || 
भावार्थ : -  किसी विवादित विषय में एक लोकतांत्रिक शासन प्रबंधन की कार्य प्रणाली किसे प्राथमिकता दे - नियम विधान निर्मित कर शासन करने वाली संस्था को अथवा न्यायपालिका को ?

नेम नियामक नाम का करिआ नेम अभाउ | 
बहुरि कहाँ ते आएगा कहु त निरनय न्याउ || १० || 
भावार्थ : - " जहाँ नियमन करने वाली संस्था नियमों का अभाव करती हो वहां न्याय व् निर्णय का अकाल होता है " जब नियमन करने वाले नियामक नाममात्र होकर नियामादेश का अभाव कर दे तब न्याय व् निर्णय आएगा कहाँ से ? तो '' प्रथमतः नियम निर्मित होते है, उसके आधार पर न्याय व् निर्णय होता है....."

उदाहरणार्थ : - 'अ'विवाहेत्तर सम्बन्ध का अभ्यस्त है उसके पडोसी  'ब' को इससे आपत्ति है दोनों एक सद्चरित्र लोगों के देश में निवास करते हैं |  'अ' आपत्तिकर्ता के विरुद्ध न्यायालय में याचिका प्रस्तुत करता है
कि 'ब' मेरे निज जीवन में व्यवधान उत्पन्न न करे | न्यायालय न्याय निर्णय कैसे दे नियम तो है ही नहीं और न्यायालय 'ब' को बोलेगा सारा विश्व तो चरित्र हीन है तुमको आपत्ति क्यों है चुपचाप अपने घर में क्यों नहीं रहते |  देश काल व् परिस्थिति को दृष्टिगत करते हुवे प्रथमतः कार्यपालिका नियम निबंधित करे कि यह देश चरित्रवानों का है कोई निवासी चरित्रहीनता का व्यवहार न करे यदि करेगा तो दंड का भागी होगा.....

जन जन निज मत देइ के जिन्हनि दियो चुनाए | 
सोई पहिले आपुना कृत करतब निबहाए || ११ || 
भावार्थ : - फिर जनमानस ने जिसका चयन किया है सर्वप्रथम वह अपने कृतकर्तव्यों का निर्वहन करे.....

क्योंकि लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनमानस द्वारा न्यायापालिका के अन्यथा कार्यपालिका का चयन इस हेतु  किया जाता है कि वह उसके देश काल व् परिस्थिति के अनुसार नियम निर्मित करे तत्पश्चात उन नियमों के आधार पर न्यायापालिका न्याय करे व् निर्णय दे..... आदेश नहीं.....

 न्याय संगत बितर्कन बिधि सम्मत परमान । 
साखी दिरिस अवमति दिए नेति जोग अवज्ञान ॥ ३२१४॥ 

भावार्थ : -- न्याय संगत तर्क, विधि- सम्मत साक्ष्य, साक्षाद्दृश्य को तिरोहित कर दिया गया निर्णय अवज्ञा के योग्य होता है.....


''चार बीबी चालीस बच्चे'' ''ये बिना बीबी चार सौ बच्चे.....

''ऐसे संबंधों से व्युत्पन्न संतति का उत्तरदायी कौन होगा.....


पुरुख नारि बिहीन जने संतति जब सतचार | 
पच्छिम तेरी चलनि की  महिमा अपरम्पार || १२  || 
भावार्थ : -अरे पाश्चात्य संस्कृति तेरी महिमा तो सबसे  अपरम्पार है तुम्हारे यहाँ बिना बीबी के चार सौ बच्चे जनम ले रहे है तुमसे तो ''चार बीबी चालीस बच्चे'' इस पार हैं |






Saturday, 15 December 2018

----- ॥ दोहा-द्वादश १४ ॥ -----,

जबहि भीते चोर बसे, पहराइत के राख |
बहुरि सासत राज रजत तहाँ पराई साख || १ ||
भावार्थ : - प्रहरियों के प्रहरी बनकर जब गृह के भीतर ही चोर बसे हों, तब विदेशी अथवा विदेशी प्रवासी के वंशज उस गृह का उपभोग करते हुवे उसपर शासन करते हैं |

जोइ बिटप परपंथि हुँत होत उदारू चेत | 
साख बियोजित होइ सो उपरे मूर समेत || २ || 
भावार्थ : -   पंथ पर अवस्थित जो वृक्ष डाकू, लुटेरों के प्रति उदार ह्रदय होता है वह एक दिन अपनी शाखाएं वियोजित कर मूल सहित उखड जाता है |

पंथ = धर्म
वृक्ष = अनुयायी
परिपंथी = डाकू, लुटेरे

दीन हीन मलीन हुँते रखिता चेत उदार |
साख साख बिरधाए सो बिटप गहे बिस्तार || ३ || 
भावार्थ : - लुटेरों के प्रति उदारवादी न होकर दरिद्र, दुर्दशाग्रस्त, विकलता से भरे हुवे के प्रति उदार वृक्ष अपनी शाखाओं को संवर्द्धित कर विस्तार को प्राप्त होता है |

जूह भीत अभिमन्यु सों बैदि धर्म बिपरीत | 
पैसन पथ परिरुद्ध है, निकासि पथ असिमीत || ४-क  || 
----- || गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर || -----
भावार्थ : -- गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार : - अभिमन्यु द्वारा प्रविष्ट व्यूह से वैदिक धर्म विपरीत है इस समुदाय में प्रवेश द्वार अवरूद्ध  है और निर्गत द्वार अनेकों हैं....."

क्योंकि : - 
बैदिक धरम बिटप सूर सार रूप भगवान | 
ग्यान सिंचित जल है उर्बरा है बिग्यान || ४-ख || 
भावार्थ : - क्योंकि वैदिक धर्म समुदाय एक ऐसा विटप है जिसके सार में सूर्य स्वरूप भगवान हैं यह ज्ञान जल से सिक्त  व् विज्ञान की उर्वरा से परिपुष्ट हुवा  है | इसका विज्ञान आनुवांशिक अभियांत्रिकी का पर्याय है |

साधौ जब हुए जाएँगा बिधिबिद बिधि ते बाम |
जहाँ बिराजै राम समुझि सोइ राम के धाम || ५ ||
भावार्थ : - सज्जनों जब न्यायकर्ता न्याय के विपरीत व्यवहार करने लगे  तब जहाँ राम विराजेंउसे ही राम का धाम समझ लेना |

प्रगस बड़ो पहुमि नहि नहि प्रभु ते बड़ी प्रभुताइ | 
भगत सनेहे भगति कू  बंचक बंचकताइ  || ६ || 
भावार्थ : -  प्राकट्य स्थान से ईश्वर्य का प्राकट्य महत्वपूर्ण है ईश्वर के सम्मुख ईश्वर का सांसारिक वैभव तुच्छ है | भक्त को भक्ति से अनुरक्ति होती है प्रपंचों से नहींऔर  राम का नाम लेकर जगत को ठगने वाले ठगों को ठगी से अनुरक्ति होती है राम से नहीं |

समयँ सबते बली तासु बली न को जग माहि | 
समयँ न कोउ बाँधि सकै समयँ बाँधि सब काहि || ७ || 
भावार्थ : - समय सबसे बलवान है समय से बलवान इस संसार में कोई नहीं है | समय को कोई बाँध नहीं सकता समय द्वारा सभी विबन्धित हैं |

खाना पीना पहिरना साधे साध अगाध | 
एकै स्वारथ साधना कहा न दूजी साध || ८ || 
भावार्थ : -  खाना पीना पहनना और नाना प्रकार के सुख साधनों का संकलन करना अर्थात स्वार्थ सिद्धि में लगे रहना   क्या जीवन का यही एक मात्र लक्ष्य है |

भीतर के संसार एक बाहिर के संसार | 
जे कर्म के अधार है जे तो भावाधार || ९ || 
भावार्थ : - मानव जीवन के दो जगत होते हैं एक बाह्य जगत एक अंतर्जगत | बाह्यजगत  किए गए कर्मों के द्वारा और अंतर्जगत विचार आचार संस्कार आदि मनोभावों के द्वारा व्यवस्थित होता है |

जीवन साधन साधना साधे बाहिर गेह | 
अंतर मन करि भाव सों सधे भीतरी देह || १० || 
भावार्थ : - भोजन वसन वासन वाहन आदि जीवन के साधनों की सिद्धियां मनुष्य के बाह्य जगत को साध्य करती है  आचार, विचार, प्रेम, भक्ति आदि अंतर्भावों से अंतर्जगत साध्य होता है |

साधन माहि रमाए रहँ पेम भगति बिसराए | 
बाहिर भवन बसाए सो भीत भवन उजराए || ११ || 
भावार्थ : - जो प्रेम भक्ति आदि मनोभावों की अवहेलना कर केवल जीवन के साधनों को सिद्ध करने में संलग्न रहता हो उसका बाह्य भवन  अवश्य व्यवस्थित रहता है किन्तु अंतर्भवन उजड़ा रहता है |

देह चहे बासन बसन उदर चहे खद्यान |
पेम भाव पीतम चहे भगति चहे भगवान || १२ ||
भावार्थ : - देह  हेतु बासाबास, उदर हेतु भोजन आवश्यक है | प्रेम हेतु प्रीतम आवश्यक है भक्ति के लिए भगवान भी आवश्यक हैं |

बहिरे बरग के डर ते डरपत मन हम्हार |
एहि डर निडर होतब रे भाजत देस द्वार || १ ||
भावार्थ : -  देश से बाहर के समुदाय का भय हम भारत वासियों को बहुंत भयभीत करता हैं क्योंकि उनका यह भय इस देश को विभाजित करके ही निर्भीक होता है |

को करतब बलिदान को सेवा सुश्रता कोइ |
साँची तब कहिलाइ जब परमार्थ हुँत होइ || २ ||
भावार्थ : - कोई कर्तव्य कोई बलिदान अथवा कोई सेवा शुश्रुता तभी सत्य कहलाती है जब वह निःस्वार्थ होकर परमार्थ हेतु हो |

Thursday, 6 December 2018

----- ॥पद्म-पद ३१॥ -----,

 ----- || राग-      || -----
नीर भरे भए नैन बदरिया..,
चरन धरत पितु मातु दुअरिआ..,
अलक झरी करि अश्रु भर लाई बरखत भई पलक बदरिया..,
बूँदि बूंदि गह भीजत आँचर ज्यौं पधरेउ पाँउ पँवरिआ..,
घरि घरि बिरमावत भँवर घरी  कंकरिआ सहुँ भरी डगरिआ..,
नदिया सी बहति चलि आई बिछुरत पिय कि प्यारि नगरिया..,
 दरस परस के पयस प्यासे तट तट भयऊ घट नैहरिआ..,
 घट घट पनघट आनि समाई सनेह सम्पद गही अँजुरिआ....


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गगण में घण साँवरो बिराज्यौ
 गरज गरज गह गह घनकारौ बादलियो घन बाज्यौ
कारौ काजलियो सों साज्यौ 

----- ॥ दोहा-द्वादश १३ ॥ -----

अजहुँ तो हम्म दरसिआ जग मरता चलि जाए |
एक दिन ऐसा आएगा मरते हम दरसाए  || १  ||
भावार्थ : - अभी हमें संसार मृत्यु को प्राप्त होते दर्शित हो रहा है एक दिन ऐसा भी आएगा जब संसार को हम मृतक दर्शित होंगे |

सार यह है कि : - जीवन का अहंकार कदापि नहीं करना चाहिए.....

भाड़ मचाए भीड़ संग चले भेड़ की चाल |
जो बैरी भए आपनो वाको को रखवाल || २ ||
भावार्थ : - उपद्रव मचाती या धक्कमधक्का करती भीड़ के साथ भेड़ के जैसे अंधानुकरण कर जो स्वतोविरोधी होते हुवे जो स्वयं से वैर करता हो उसकी रक्षा भला कौन कर सकता है |

आँच दिये कुंदन भयो होतब कंचन साँच |
जोइ बिसमाइ गयो सो होत असाँचा काँच || ३ ||
भावार्थ : -  उत्कृष्ट मनुष्य जीवन के आतप्त को सह कर अत्युत्कृष्टता को प्राप्य होता है | जो ऐसे आतप्त को सहन नहीं करता वह अतिनिकृष्टता की श्रेणी को प्राप्त हो जाता है |

सत्ता साधन हेतु जे करिअ न कहा कुकर्म | 
कापर पटतर आपुना बदलें नाम रु धर्म || ४ || 
भावार्थ : - सत्ता साधने के लिए ये नेता क्या कुकर्म नहीं करते नाम व् धर्म को तो ये कपड़ों के जैसे बदलते हैं | 

कतहु गड़बड़ झोला रे कतहुँ त गड्डम गोलि |
लोक तंत्र में बोलिये जनमानस की बोलि || ५ ||
भावार्थ : - कहीं गड़बड़ है कहीं घपला है कहीं घोटाला है कहीं गोली चल रही है | भैया ये लोकतंत्र है यहाँ जन मानस की बोली बोलनी पड़ेगी |

नहि चलेगा गडम गोल नहीं चलेगी गोली |
लोकतंत्र में बोलिये जनमानस की बोलि || ६ ||
गडम गोल = घपला घोटाला

जोइ बसेरा आपना पराए करें निबास  | 
कहा करिएगा बासना कहा करिएगा बास  || ८ || 
भावार्थ : - हे देशवासियों ! जब अपने निवास में पराए समुदाय का वास हो जाए तो परिश्रम कर करके, रोजगार कर करके बाट-वाटिका बनाने, घर को सजाने और बर्तन भांडे जोड़ कर भोजन-वस्त्र की व्यवस्था करने से क्या लाभ उसको तो पराया भोगेगा ||

तनिक जीवति संग सकल साधन साज सँजोए | 
पहरे में रह आपहीं कुसल गेहसी सोए || ९ || 
भावार्थ : - बिंदु में जो सिंधु लिखे यत्किंचित में जो गृह के जीवन यापन के सह समस्त सुख साधनों का संकलन कर ले, और अपने गृह का रक्षा स्वयं करे वह कुशल गृहस्थी है |

मुखिया मुख सों चाहिये खान पान कहुँ ऐक |
पाले पौसे सकल अंग तुलसी कहे बिबेक ||
----- || गोस्वामी तुलसी दास || -----


भावार्थ : - तुलसी दास जी कहते हैं : - गृहप्रधान को मुख के समान होना चाहिए भोजन ग्रहण करने हेतु एक ही है किन्तु वह न्यूनाधिक के विवेक से गृह के भोजनन्न, ईंधन, वन-वाटिका, पालतू पशु, स्वास्थ, शिक्षा, सुखसाधन, रक्षा, पहुँच मार्ग, साज सज्जा, आदि सभी अंगो का यथोचित पालन पोषण करे |

अरहर केरी टाटरी अरु गुजराती राख | 
पहिरन खावण को नहीं अरु पहराइत लाख || १० || 
भावार्थ : - 'अरहर की टाटरी और गुजराती ताला' जब देशवासी झोपड़ियों में निवास करे और उसकी रक्षा के लिए बड़ा व्यय | असन हैं न वासना और उसकी रक्षा में लाखों का व्यय होता हो तो वह अपव्यय है |

टिप्पणी : - गृह की कब, कैसे व् कितनी रक्षा हो - अपनी कुशलता सिद्ध करने के लिए गृह प्रधान यह विवेक से निश्चित करे |

बासर ढासनी के ढका रजनी चहुँ दिसि चोर | (तुलसी दास )
कस गह पहरा राखिए लूट मची सब ओर || ११ ||

भावार्थ : - चोर तो पहले से थे, लुटेरे और ठग भी आ गए अब दिन को ठगों के धक्के खाने पड़ेंगे रात को चोरों से भय रहेगा चारों ओर लूट ही लूट मची है हे भगवान ! अब देश/घर की रक्षा कैसे होगी |

भीत भीत भिद भेद दै द्वारि चौपट खोल |
पहरी गगन में फिरते बैसे उड़न खटोल || १२ ||
भावार्थ : - भित्ति भित्ति को सेंध कर फिर अंतर भेद भी प्रेषित किया और द्वारों को भी चौपट खोल के  हमारे देश के प्रहरी को गगन की रक्षा हेतु उड़न खटोले दिए गए |  न्यायाधीश अथवा प्रतिपक्ष ने नहीं पूछा क्यों दिए गए.....? आकाश में अब तक कितने आक्रमण हुवे जल में कितने आक्रमण हुवे और थल पर कितने आक्रमण हुवे, कितनी घुसपैठ हुई झोल कहाँ है वायु में जल में कि थल में.....?