एहि कारन अरु करन बियाजू । होहि न कहुँ दुर चरन समाजू ॥
सिय परिहर के निर्नय कारे । पुरजन सन्मुख कहबत धारे ॥
इस कारण और इस कार्य के बहाने कहीं समाज दुश्चरित्र न हो जाए इस हेतु श्रीरामचन्द्रजी ने माता सीता के परित्याग का निर्णय लिया और समाज के सम्मुख आदर्श प्रस्तुत किया ॥
दोउ नयन सरजू सरि धारे । दुहु दर्पन प्रभु मुख छबि धारे ॥
पूछे वात्स्यायन स्वामि । भरे हरिदै नत कहत नमामि ॥
दोनों (वक्ता एवं श्रोता) के नेत्रों में मानो सरयू नदी का जल धारा उतर आई । दोनॉन दर्पणों में प्रभु के कमल मुख की छवि धारण की हुई थी ॥मुनिश्री वात्स्यायन ने प्राम कहते हुवे नतमस्तक होकर भरे हुवे ह्रदय से पूछा : -- स्वामिन् !
जाकी कीर्ति कलिमल हरनी । अगत जगत पत पावन करनी ॥
रजक के बदन जानकिहि ताईं । निंद बचन अस कवन कहाई ॥
जिनकी यह उत्तम कीर्ति पातकों का हरण कर सम्पूर्ण जगत को पवित्र करने वाली है । उन्हीं जानकी देवी के प्रति ममोल के मुख ने ऐसे निंदा वचन क्यूँ कर कहे ?
मम लघुबर मति बूझ न पाऊ । तिनके रहस कहत समुझाऊ ॥
सुनौ मुनि कथा पवित पुरानी । तुहरे सों मम बदन बखानी ॥
मेरी यह मति तो लघुवर मति इस कारण को समझने में असमर्थ है । कृपया कर आप इस रहस्य को कहते हुवे समझाइये ॥
भुजगराज भए मगन धिआने । राम गुनत रमना गुन गाने ॥
भगवन लोचन अरनन पागे । तन मन बचन उमग अनुरागे ॥
तब भुजंगराज भगवान शेष ध्यान मग्न होकर भगवान श्री रामचंद्र को समझते हुवे उनकी अर्द्धांगिनी माता सीता के गुणों का व्याख्यान करने लगे ॥ भगवान के नेत्र-जल में अनुरक्त हो गए , उनके तन मन एवं वचन तीनों में प्रेम उमड़ पड़ा ॥
बहुरि प्रभो बहुरत बरन, कथन सूत कृत कार ।
सूतिका अलंकरन कर, सारत दिए बिस्तार ॥
पुन: प्रभु अहिराज वर्णों के क्रम को संचित करकथा के सूत्रों की रचना करते हुवे उन्हें एक माल्या में अलंकृत किए , एवं उस कथा का ( इस प्रकार से ) उत्तमोत्तम विस्तार करने लगे ॥
गुरूवार, ०६ फ़रवरी, २ ० १ ४
बिस्व बिदित एक मिथिला देसू । रुचिरु रचित तँह पौर प्रबेसु ।।
रहइँ जनक जँह के बर भूपा । धर्मी तस जस नाम अनूपा ॥
विश्व में विख्यात एक मिथिला प्रदेश है वहाँ का गौपुर अत्यंत ही सुंदरता पूर्वक रचा गया है ॥ वहाँ के राजा महाराज जनक थे । जैसा उनका नाम उत्तोमोत्तम था वैसे ही वह धार्मिक भी थे ॥
केत नि केतन कर कस कासे । जँह बहु नीक नगरीअ निबासे ॥
केत कली केसरिया फूरे । कुञ्ज गली बेलरिया झूरे ॥
वहाँ कितने ही भवन थे सभी किरणों के सदृश्य दैदीप्यमान थे जिसमें सुन्दर नागरीक निवास करते थे । जहां बहुंत ही भले नागरिक निवासरत थे ॥ बेलों से आच्छादित पथ थे जहां सखियाँ झूले में झूल रही थीं रही थीं जिनपर केवड़े की कलियाँ एवं केसर फूल रहे थे ॥
बटबर पीपर कहूं अमराईं । चहुँ दिसि रुख की सीतर छाईं ॥
चन्द्र केतु पत मनि सम दरसें । भुइँ भरि हरियरि हरिअर परसें ॥
बरगद उत्तम पीपल कहीं आम का उद्यान था । चारो और वृक्षों की शीतल सुखकारी छाया थी । चंद्रमा एवं सूर्य की प्रतिष्ठा ऐसी दर्शित होती जैसे गगन में मणियाँ चमक रही हों । भूमि पूरित हरियाली को हलके ही स्पर्श करते ॥
निर्झरि झर झर निर्झर झारै । पुर पुर पर्बत भू रत ढारै ।।
तलहटी बट तट मनोहारी । तटिनी तरिनी तरत बिहारी ॥
पहाड़ियों झर झरकरती हुई झरने झारतीं । नगर-गाँव में पर्वत भूमि में अडिग रहते ॥ उनकी तलहटी पर रचीर पथ नदी के तट से युक्त होकर मन को हरने वाला था नदी में नौकाएँ विचरण करती रहती ॥
बरखत बरखा बननुरत, पत पत करत सनेह ।
कबि करत कबित कहत को, पयसत पत नभ नेह ॥
पत्रों से स्नेह कर विपिन की अनुरक्ति में वर्षा ऐसे वर्षति कि कवि कविता रचते हुवे कहते पत्र नभ का स्नेहपान कर रहे हैं ॥
शुक्रवार, ०७ फ़रवरी, २ ० १ ४
मिथिला सोहा सुख रस सानी । सखिहि परस्पर कहत बखानी ॥
फुरी मंजु मंजरि डार सखि री । मधुकार करि गुँजार सखि री ॥
मिथिला पूरी कू शोभा सुख के रस में पागित थी । सखियाँ परस्पर व्याख्यान करते हुवे कहतीं : -- अरी सखि ! शाखाओं पर सुन्दर मंजरियाँ प्रफुरित हो गई हैं । अरी सखि ! मधुकर गुंजार करने लगे हैं ॥
सघन बिपिन चर बिहरत गोचर । नभस नभौकस गत निकर निकर ॥
एहि भुइहि देस बिहार सखि री । बही बल ले बलिहार सखि री ॥
घने वनों में वनचर आनंदपूर्वक विहार करते दिखाई दे रहे हैं । नभ में पक्षी झुंडों में विचरण कर रहे हैं । अरी सखि !यह मिथिला पर्यटन स्थल सी प्रतीत होती है आरी सखि ! तुम अपनी बाहु को बल देकर निछावर कर दो ॥
हट बट चौहट अइसिहुँ गचिते । मिथिला नगरि जिमि केस रचिते ॥
कासत कर करनिकार सखि री । जस सिंगारि सिंगार सखि री ॥
हट-चौहट, बाट-चौबाट ऐसे ढले हैं मानो मिथिला सुन्दरी की केश रचना हो । जिसपर किरणे लाल कनेरी सी चमक रही है । जैसे कि उस केश रचना में किसी ने सिंदूर से श्रृंगारित कर दिया हो ॥
नादत जस कल कंठ कूनिका । कलस कुलीनस कूलिनीहि का ॥
चरत डगरी पनिहार सखि री । तरत निहार क नि हार सखि री ॥
कलश में भरा नदी का निर्मल नीर ऐसे निनाद कर रहा है जैसे कि वीणा सुमधुर स्वरुप में स्वरमयी हो गई है ॥ और डगरी पर पनिहार चला जा रहा है । उससे उदकती बूंदों को तनिक देखो मानो उदपात्र के कंठ से हीरक-हार उतर रहा हो ॥
रज रज निरखत नीक , रजे रजराज रमनीक ।
लिखत लिखि लीक लीक, चित्र रथ चित्रकार सखि री ॥
कण कण सुन्दर दर्शित हो रहे हैं, रमणीय ऋतुराज वसंत का आगमन हो गया है । सूयदेव अपनी किरणों की तूलिका से वीथि-वीथि में चित्र कारी कर रहे हैं ॥
शनि/रवि , ० ८ /०९ फरवरी, २ ० १ ४
ऐसेउ सखिन्हि संगु बाला । निरखत निज पुर होति निहाला ॥
जग्य कारज हेतु एक द्युते । जनक बिसँभरी जोतन जूते ॥
इस प्रकार मिथिला की बालाएँ सखियों के साथ अपनी पुरी का दर्शन कर निहाल होती ॥ फिर एक दिन यज्ञ कार्य हेतु राजा जनक पृथ्वी जोतने में संलग्न थे ॥
तेहि काल हर मग का देखे । एक कनि भव भइ गहनइ रेखे ॥
जो अति सोहन बर्धन रति सन । दरस जनक तिन भयउ मुदित मन ॥
उसी समय हल मार्ग पर की गहरी रेखा में क्या देखते हैं एक कन्या उत्पन्न हो गई । जो मायन प्रिया रति से भी बढ़कर सुन्दर थी । उसे देखकर राजा जनक मन प्रमुदित हो उठा ॥
भुवन मोहिनी सम्पद सोहा । नाउ धरे सिय करत अँकोहा ॥
बरध बयस तब भई बालिका । लाहित लाहत लवन लालि का ॥
उस भुवनमोहिनी शोभा से संपन्न अँकवार कर उन्होँने उस कन्या का नाम सीता रखा ॥ जब वह आयु वर्धन कर शिशु अवस्था से बाल्य अवस्था को प्राप्त हुई । उस दुलारी की लावण्यता भी वर्धित होती गई ॥
सिय एक बार सखिन्हि गहि बाहीं । केलि करत सन उपबन माहीं ॥
तबहि तिन्हहि चितहि एक ओरा । सुक पाँखी के सुन्दर जोरा ॥
वह परम सुन्दरी सीता एक बार अपनी सखियों की बांह ग्रहण किये उद्यान में उनके संग क्रीडारत थीं । तभी उन्हें एक ओर तोते का एक सुन्दर जोड़ा दिखाई दिया ॥
एक बल्लभ एक बल्लभा, दुहु उपबन मन मोहि ।
तरुबर सिखर बैसी कर, बोलत रहि जे दोहि ॥
उस जोड़े में एक प्रेयस एक प्रेयसी थी उपवन में दोनों बड़े मनोरम प्रतीत हो रहे थे । वे एक तरुवर के शिखर पर बैठ कर ये दोहे कह रहे थे : --
जे भूमि भबि बहु सुन्दर, राम नाम नृप होहिं ।
तिनके संगु महरानी, सीता मैया सोहिं ॥
इस पावन भूमि पर भवष्य में राम नाम के एक सुन्दर नृप होंगे । उनके साठ महारानी माता सीता सुशोभित होंगी ॥
होहि जगत बहुतक सिया राम चरन अनुरागि ॥
तिनके सरबर होंहि नहि , पर को तपसि त्यागि ।
संसार में श्रीराम चन्द्र एवं माता सीता के जैसे भक्त बहुंत से होंगे । किन्तु उनके सदृश्य तपस्वी एवं त्यागी कोई न होगा ॥
रघुबर कैरव कुल दीप, जनक सुता के कंत ।
बुध प्रबुध राजाधिराज, होहि बहुस बलबंत ।।
वह रघूत्तम कुल के कुमुद एवं कुल दीपक जनक कुआँरी श्री सीता के कान्त अत्रिधिक बुद्धिमान, बलशाली एवं राजाओं के भी अधिराज ॥
सोई सुन्दर सुक जुगल, मनु सम सबद उचार ।
हरियइ मधुरइ कहइ जे, होतब होवनहार ॥
वह सुन्दर तोते का युग्म मनुष्य के समान शब्दों का उच्चारण कर रहे थे । एवं धीरे से मधुर स्वर में कह रहे थे यह बात भविष्य में अवश्य ही होगी ॥
धन्य सो रमा धन्य सो राम , जे जग पालक होहि ।
एक दुजन संग पाए के , अवनि विराजत सोहि ॥
वह रमा धन्य धन्य है वे श्रीराम चन्द्र धन्य है जो ( एक दूसरे के संग ) इस जगत के पालनहार होंगे एवं एक दूसरे के संग प्राप्त कर इस पावन धरती को सुशोभित करेंगे ॥
सोमवार, १ ० फरवरी, २ ० १ ४
सुनत सिया बत करत सनेहा । लाखित ललकित लोचन तेहा ॥
चितबत होवत अचरज कारी । अधर करज धर मनस बिचारी ॥
सीता ने जब यह वार्तालाप सुना तब स्नेह करते हुवे उन पक्षी युगल को चाह भरे नयनों से देखने लगी ॥ और सतब्ध होते हुवे वह बहुंत ही विस्मय करते हुवे अधरों पर उँगली धरे मन में विचार करने लगी ॥
कहत कथा खग बहुस मनोहर । लिए मम नाउ को सो काहु कर ॥
तिन्हहि गह कहि बात बुझाहूँ । जो तुम्ह कहहु को सो नाहू ॥
ये खंजन तो बहुंत ही मनोहर कथा कह रहे हैं । किन्तु मेरा नाम ये किसके साथ एवं क्यों ले रह हैं । मैं इन्हें पकड़कर सारी बातें पूछती हूँ कि तुम जिसका वर्णन कर रहे हो वह राजन कौन है ॥
अस मति धर सखि सम्मुख होहहि । कही जे सुक केतक मन मोहहिं ॥
लानु गहत तिन जुगल बिहंगे । अलि कोउ जुगत कवन नियंगे ॥
ऐसा सोचते हुवे वह सखियों के सम्मुख होकर बोली उस शुक जोड़े को देखो वह कितना मनमोहक है ॥ हे सखि ! तुम कोई उपाय कर किसी प्रकार से उन पक्षियों को पकड़ लाओ ॥
सखिन्हि रोहित बिटप बिटंके । दोउ प्रनईन गह भुज अंके ॥
प्रनसित तिन्हन सित प्रनिधाने । ता पर तरसत दुःख मन माने ॥
सखियाँ फिर वृक्ष की शिखर-शाख पर चढ़ गईं । और उन दो प्रेमियों को अंकवार कर उन्हें चुंबित करते हुवे सीता को अर्पित किये । उनपर तरस करते हुव सीता के मन में संताप छा गया ॥
करि सलग पग करज ललक , जुतक जुतक ओहारि ।
पाँखि हहरु दर न धरु कह, अस तिनके भय हारि ॥
उसने उन युगल के चरणों को अपनी उँगलियों से संलग्न करते हुवे उनको आँचल से आच्छादित किया । हे हरे पंछियों भय न करो और ऐसा कहते हुवे उनके भय को हर लिया ।
मंगलवार, ११ फ़रवरी, २० १ ४
पखि को तुम अरु कँह सन आहू । नाम धरे कहु सो को नाहू ॥
जान भयउ कस तुम तिन राऊ । मोरि जिगियास तूर बुझाऊ ॥
हे पक्षियों तुम कौन हो ? और कहाँ से आए हो ? तुम जिसका नाम ले रहे हो वह राजन कौन है ? तुम उस राजन को कैसे जानते हो ? मेरी इस जिज्ञासा को तत्काल बुझाओ ॥
लाह सिया कर कोमलि परसे । दुहु खंजन मन अतिसय हरसे ॥
लोचन दरसन नेह फुहारे । हरियरि थरहरि हरहरि हर हारे ॥
माता सीता के हाथों का कोमल स्पर्श प्राप्त कर उन दोनों पक्षियों का ह्रदय अतिशय हर्षित हो उठा । माता के दृष्टि-दर्शन से स्नेह बरसने लगा । जिससे उन शुक युगल की कपकपी एवं उनकी थकान का हरण करने वाली थी ॥
पदम पोर जूँ पख सिरु रोले । हरि अरि हरि हरि रररत बोले ॥
चोँच रवन धर कहत बालिके । हम दुहु सेबक बाल्मीकि के ॥
माता के पद्म पत्र जैसे पोर उन खँडरिच के पंख एवं सिर को इस प्रकार गुदगुदा रहे थे । वे शुक पक्षी हरिहरि हरि हरि री ह रिह रिह री का उच्चराण करते हुवे हरि रटने लगे ॥ और चोंच में शब्द धारण कर कहने लगे हे बालिके ! हम दोनों वाल्मीकि के सेवक हैं ॥
नाउ महा रिषि अग जग जाने । धरमात्मन तिन्ह बर माने ॥
सघन बन एक नीक निकाई । हम दुहु पखि तिनके सरनाई ॥
इन महर्षि का नाम समस्त संसार में प्रसिद्ध है । धर्मात्मा जन उन्हें अपना श्रेष्ठ मानते हैं । सघन विपिन में एक सुन्दर आश्रम है । वहाँ हम दोनों पक्षी वहाँ के शरणार्थी हैं ।।
भजनानंद भगती मन, भाव प्रबन श्री राम ।
महा रिषि एक गाथ रचे, श्री रामायन नाम ॥
ईश्वर को स्मरण करने का आनंद सेवा , आराधना, श्रद्धा, एवं अंत्यानुराग से ओतप्रोत भगवान श्री राम की प्रेम में प्रवृत्त श्री रामायण नाम का एक महाकाव्य ग्रन्थ है, जिसकी रचना महर्षि वाल्मिकी जी ने की है ॥
बुधवार, १२ फ़रवरी, २ ० १ ४
बनउन प्रिय बन के जन जन को । वाके बरनन भावै मन को ॥
बरन बरन प्रभु सुजस बखाने । पढ़त सुनत भए मगन ग्यानी ॥
वह रचना प्रत्येक विपिन गोचर को प्रिय हैं कारण कि उसका वर्णन मन को बहुंत ही भाता है । उस रचना के वर्ण वर्ण चिदानन्दघन स्वरुप ईश्वर के सुयश का समाख्यान करते हैं । ज्ञानी जन उसे लगनपूर्वक पढते एवं सुनते हैं ॥
प्रभु अवतरित किन्ह जस लीला । सस सम सीतल बहु सुख सीला ॥
बटुक कि बनगोचर कि बनराए । महा रिषि सबहहि पाठ कराएँ ॥
उस ग्रन्थ में प्रभु ने अवतरित होकर जिस प्रकार की लीलाएं की वह शशि के समान शीतल एवं बहुंत ही सुख दायक हैं ॥ क्या बटुक क्या वन गोचर क्या द्रुमदल महर्षि वाल्मीकि उस ग्रन्थ का पाठ सभी जनों को करवाते हैं ॥
नदि नद नदीन नंदत नादें ॥ ब्रह्मादि देव नाहु अराधे ॥
प्रति दिबा रिषिहि जगत प्रानि जन । कल्यान करन हित संलगन ॥
उसमें छोटी बड़ी नदियां सागर आनद में निमग्न होकर सुन्दर नाद करती हैं ब्रह्मादि देव राजा की आराधना करते हैं ॥ जगत के प्राणि जन के कल्याणार्थ एवं उनके निमित्त हित हेतु महर्षि प्रतिदिवस : --
पद पद के बहु चिंतन कारें । रामा निर्मल चरित्र बिचारें ॥
रमा रमन के रहस अनेका । गाथ गीत गुँथ बिमल बिबेका ॥
उस रचना के पद्यों का चिंतन करते हैं एवं श्रीराम के निर्मल चरित्र का मंथन करते हैं ॥ उस गाथा कि गीतमाला में निर्मल ज्ञान गुथा है जो उन रमारमन के अनेको रहस्य ग्रहण किये है ॥
सूक्ति सूक्ति आखर मनि, सूतित चारित सूत ।
बरधे भगती भावना, जोई कंठ सँजूत ॥
उसकी सूक्तियां सीपियाँ है एवं अक्षर मुक्ता स्वरुप हैं, उसमें भगवान क सुन्दर चरित्र एकसूत्र में पिरोया गया है ॥। जो उसे अपने कंठ में अलंकृत करता है उसकी भक्ति-भावना में अतिशय वर्द्धित होती है ॥
गुरूवार, १३ फ़रवरी, २ ० १ ४
जो तुम बरनहु सत अहहि एहा । पूछेसि सिया करत सनेहा ॥
हाँ हाँ कहत सुअटा उछाहीं । हमरहि कहनी फूरी नाहीं ॥
फिर माता सीता ने स्नेह करते हुवे पूछा, जो तुम वर्णन कर रहे हो क्या वह सत्य है, तब शुक पक्षी उत्साहित होकर कहने लगे हाँ हाँ वह सत्य ही है, हमारी कहनी असत्य नहीं है ॥
गाथ गगन अरु पात बिहंगे । पौ सम पावन कथा प्रसंगे ॥
भरए अभरन बहुतक रंगे । बरन बीथि बिहरत एक संगे ॥
वह गाथा गगन के सदृश्य है एवं उसके पत्र-पत्र गगनचर के सदृश्य हैं । और वे पत्र के पाँखी बहुंत से अलंकरण आभरित कर बहुंत सी अनुभूतियाँ प्राप्त किये वे शब्द रूपी वीथिका में एक साथ विचरण करते हैं ॥
किए कबिबर एक नाम निरूपन । रघु कैरब श्री राम निरूपन ॥
तपत तपन जग श्राम निरूपन । सुघर सीतर बिश्राम निरूपन ॥
उन श्रेष्ठ कवि महोदय ने एक नाम का निरूपण किया है । जो रघु कुल के कुमुद सवरूप श्री रामचंद्र जी हैं । दुखों के ताप से व्याकुल इस जगत हेतु एक श्राम का निरूपण कर एक सुन्दर शीतल विश्राम का निरूपण किया है ॥
उद्दंडी हुँति दण्ड बिधाने । असमर्थ छमा दीन दयाने ॥
प्रानि प्रानि पर करुन दृष्टि कर । सम जम नियम ग्यान हेतु नर ॥
उसमें उद्दण्डियों हेतु दंड का प्रावधान किया गया है । असमर्थ हेतु क्षमा एवं दुर्दशाग्रस्त हेतु दया का प्रावधान है । प्राणि मात्र पर करुणा दृष्टि कर मनुष्य हेतु सैम अर्थात मन का नियंत्रण, यम ( सत्य,अहिंसा,अस्तेय,ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह) तथा नियम (
शौच,संतोष,तप,स्वाध्याय,एवं ईश्वर प्राणिधान ) का प्रावधान किया है ॥
वाके गाइन बन जब गूंजे । श्रवनत प्रफुरित भयउ निकुंजे ।।
पुंज पुहुप सन सरन सुगंधे । पुनि पुनि कह निर्झर निरबंधे ॥
उस कथा के गायन जब वन में गुंजयमान होता है तब वह उसे सुनकर प्रस्फुरित हो उठता है एवं सुन्दर वाटिका में परिणित हो जाता है ॥
बहुस सुभकर अति सुन्दर , बृहद कलेबर कार ।
रचइता रचना रचकर, कृत कृत किए संसार ॥
वह रचना बहुंत ही सुन्दर, बहुंत ही कल्याणकारी एवं वृहदाकार है रचयिता ने उसे रचकर समस्त संसार को कृतार्थ ही कर दिया ॥
शुक्रवार, १४ फ़रवरी, २ ० १ ४
हमहु पाठ श्रुत सुमिरन कारें । करत अभ्यास बारहि बारें ॥
पुनीजन के आत्म कहानी । को राम को राम की जानी ।।
वारंवार अभ्यास करने से हमें भू उस कथा के पाठों का स्मरण हो गया है ॥ उन पुण्यात्माओं की इस आत्मकथा में श्री राम कौन है एवं श्री राम की अर्द्धांगिनी कौन हैं ॥
करि कौतुकी राम के संगा । सोई सिय सनजोग प्रसंगा ॥
किमि दसा दिसा भव को देसे । कहत अजहुँ हम सो संदेसे ॥
श्री राम चन्द्र की लीलाओं में संलग्न उसी सीता के संयोग प्रसंग कि वे किन परिस्थितियों में किस दिशा में एवं कौन से देश में उत्पन्न हुवे । वह सन्देश अब हम तुम्हारे सामने प्रस्तुत करते हैं ॥
श्रवनहु तुम्हहु देइ धिआनए । रिषय शृंग जिनन्हि जग मानए ॥
तिन मह रिषि के कमल कर हुँते । जातेष्टि नाम मख आहुते ॥
अब तुम भी इसे ध्यानपूर्वक सुनना । ऋष्य शृंग जिन्हें समस्त संसार मानता है उन महर्षि के पदमहस्त से जातेष्टि नामक यज्ञ का आयोजन हुवा ॥
मख के भयौ ऐसेउ प्रभावा । दसरथ हरि रुप जन्मन पावा ॥
अस त्रिभ्रात सन दीन दयाला । प्रगसे भू बन दसरथ लाला ॥
उस यज्ञ का ऐसा प्रभाव हुवा कि दशरथ को भगवान विष्णु संतान स्वरुप में प्राप्त हुवे ॥ इस प्रकार और तीन भ्राताओं के साथ दीनों पर दया करने वाले प्रभु भूमि पर दशरथ के जात स्वरुप में प्रगट हुवे ॥
सिया तईं सुअ कथने सोई । जो जस जित जँह सिय जनि होई ॥
बहुरि बहुरि सुअ कहत पुकारे । महर्षि कहि जे होवनहारे ॥
माता सीता के सम्बन्ध में शुक जोड़ा ने वही सब कहा जो, जैसे, जिस दिशा में एवं जहाँ सीता का जन्म हुवा था ॥ वे शुक पक्षी वारंवार यह कहते नहीं थकते कि हमारे महर्षि ने कहा है यह कथा काल्पनिक नहीं है यह भविष्य में होने वाली है ॥
नारद सारद सेष श्रुति, सुर संकर सन इंद्र ।
बरनिहि सादर कथा बर, मुनि सन सकल कबिन्द्र ॥
देवर्षि नारद, मान शारदा, अहिराज शेष, चातुर्य वेद, सकल देव, भगवान शंकर सहित देवराज इंद्र आदि एवं मुनिगण सहित सभी श्रेष्ठ कविगण भविष्य में उनकी पावन एवं उत्तम कथा का गान करेंगे ॥
शनिवार, १५ फरवरी, २०१४
सोहत संगत भाइन्हि बंधु । सारँग नाम धनुर धर कंधु ॥
श्री रामरमन नयन अरबिंदु । संग महारिषि गाधि कुल चंदु ॥
भाई बांधवों के संगत में सुशोभित होते । शार्ङ्ग नामक धनुष कंधे पर धारण किये । जिनके नयन कमल के सदृश्य होंगे वह श्रीरामरमन, गाधि कुल के चंद्रमा स्वरुप महर्षि विश्वामित्र के साथ : --
मिथिला नगरी निज पद चीन्हि । खल बन कन कण पावन कीन्हि ॥
मिथिला नृप निज धिआ बिहाहीं । धनुर भंजन के पन धराहीं ॥
मिथिला नगरी में अपने चरण उद्धरित करेंगे । एवं उसकी भूमि- वैन के कण कण को पावन करेंगे ॥ भगवान शिव जी के धनुष का विभंजन पण्य अवधारित कर मिथिलेश अपनी कन्याओं का विवाह आयोजित करेंगे ॥
जोइ महदेउ चाप प्रभंगहि । करहीं लग्ने तिनके संगहि ॥
हारी जाहि सकल महिपाला । अरु लाजत रहि जब नत भाला ॥
जो कोई महादेव के कोदंड को खंडित करेगा, राजन अपनी कन्या का विवाह उन्हीं के साथ करेंगे ॥ जब समस्त भूमिपाल हार मान लेंगे । और अज्ज्वश अपने मस्तक झूला लेवेंगे ॥
जिन्ह बरन दुज भै कठिनाही । तिन्ह धनुर श्रीराम उठाहीं ॥
तड़ कर तोरहि एकै तड़ाका । प्रहरहि तिनके बिजइ पताका ॥
तब जिस कठोर धनुष को धारण करने में भी कठिनाई होती है उसी धनुष को भगवान श्री राम उठावेंगे ॥ उसे ताड़ कर एक ही तड़ाके में तोड़ देंगे । इस प्रकार सभी राजाओं की हार के समक्ष उनका विजय पताका प्रहरित होगा ॥
जब सिव कोदंडा होहि दुखंडा रवहि त मही दोलही ।
सेष बाराही कलमलाही देउ दनु दृग लोलही ॥
उदरथि रथ बाहन, छाँड़त किरनन, हअ निज पथ बिसर जहीं ।
नीलोत्पल बदन, वृंदा वादन, एक लय जय जय कहहीं ।।
जब शिव जी का वह कठिन कोदंड दो खंड होगा तब वह ऐसी ध्वनी करेगा कि जिससे यह धरती डोल उठेगी । भगवान शेष, वाराह आदि व्यथित हो उठेंगे डिवॉन एवं दनुजों के लोचन अशांत हो जाएंगे । सूर्य देव के रथ वाहिनी कि किरणों को त्याग कर उसके सप्ताश्व अपने पथ से विभ्रमित हो जाएंगे ।उन नीलोत्प वदन का सामूहिक स्वरुप में वाद्यों द्वारा एक लय में जय जय कार करंगे ॥
सौंरइ सौंरइ सौंर घन, राम सरिस सर सिंधु ।
धुनीहि धनकन बल पवन, बाहु धनुर घन बिंदु ।।
साँवरे सुन्दर घनश्याम स्वरुपी श्री राम सिंधु के जल सरिस होंगे । मेघ सदृश्य बाहु में धनुष जल बूंद के सदृश्य होगा ॥ उसकी विभंजन ध्वनि मेघ गरजना के सदृश्य होगी, बल वायु सरिस होगा ।।
रविवार, १६ फ़रवरी, २ ० १ ४
जनक जानकी रूप मनोहरि । जय माल जगत पाल भाल करि ॥
रघु कैरव तब बरही सीता । सोहहि सन आपन परिनीता ॥
मनोहारी स्वरूपा जनक पुत्री जानकी जब जय माल जगत के पालनहार के कंठ को अलंकृत करेंगी तब रघु कैरव श्री राम चन्द्र जी माता सीता को वरण करंगे । एवं अपनी परिणीता के संग सुशोभित होंगे ॥
बहोरि राम मात के संगा । राजहि अवध सुदेस अभंगा ॥
रे कनि तिन सों बहुतक बचना । तहाँ बसत हम सुनि निज करना ॥
फिर भगवान श्री राम माता का सुप्रसंग प्राप्त कर अवध नामक एक सुन्दर अखंडित दश पर राज्य करेंगे ॥ अरी कन्या उस तपोवन में वास कर हमने इसके जैसे और न जाने कितने ही वक्तव्य अपने श्रुति साधन से सुने एवं स्मरण किये ॥
बोले पुनि सुक हे री कनिआ । कहे तव सोंह सबहि कहनियाँ ॥
ललनी तुम बहु अपनपौ दाए । अजहुँ कृपा कर मुकुती प्रदाएँ ॥ वे शुक पक्षी पुन: बोले हे री बालिके । हमने तुम्हारे सम्मुख सारी कहानियाँ कह दी । अरी लाडो तुमने हमें बहुंत ही अपनत्व दिया । अब कृपा कर हमें मुक्ति भी प्रदान करो ॥
निबंधन तनिक सिथिरित कारौ । दया करत हमही परिहारौ ॥
जहाँ मह रिषि तपोबन आहीं । हम प्रनइन उहि गवनन चाहीं ॥
इस आबंधन को थोड़ा शिथिल करो और दया करते हुवे हमें मोचन दो ॥ जहां महर्षि वाल्मीकि का तपोवन है हम दोनों प्रणयिन उसी वन में जाना चाहतें हैं॥
श्रुति प्रसादन सोत बचन, रंजन सिय सुख कार ।
गदन किए अस भाव प्रबन, कि भूर गइ परिहार॥
श्रुतिमधुर उस गुणानुवाद ने सीता को आनंदित करते हुवे उनके कानों को तृप्त कर दिया । और संवादों ने उन्हें इस प्रकार भावुक किया कि वह उन शुक युगल की मुक्ति उनके चित से विस्मृत हो गई ॥
सोमवार, १७ फरवरी, २०१४
सुअटे कहनिहि कहि कहि झूझै । बैदेही फिरी फिरी पूछै ।।
कहु त बहुरि नाहु नीक नामा । सुअ रररत कहि रामा रामा।।
तोते की कहानियाँ कह कह के रिक्त हो गई । किन्तु बालिका वैदेही पूछते ही जा रही थीं ॥ अच्छा ! राजा के उस सुन्दर से नाम को फिर से तो कहो । तब तोते के जोड़े ने रटते हुवे कहा अय्यो रामा रामा ॥
होहि नाहु कँह अरु सुत किनके । होहि को महतारीहि तिनके ॥
सोभहि कस भर दुल्हा भेसा । कहुरी बहुरी एहि लौ लेसा ॥
और यह बताओं वह राजा कहाँ होंगे एवं वह किसके पुत्र होंगे । उनकी माता कौन होंगी ॥ वे दुल्हे के वेश में किस प्रकार से सुशोभित होंगे । रे तोतों इस संवाद को फिर से कहो ॥
मनुजावतार सोहहि कैसे । बिभो श्री बिग्रह होहहि कैसे ॥
अस सुनि सुअ मन संसै लाहीं । ए ललन्हि त पूछतहि जाहीं ॥
मानवतार में किस प्रकार शोभायमान होंगे । प्रभु की वैभवपूर्ण वपुरधर का स्वरुप कैसा होगा ॥ वैदेही की इस प्रकार पूछ बुझाई से तोतों के मन संसय को प्राप्त हो गया । (उन्होंने सोचा ) यह बालिका तो प्रश्न ही किये जा रही है ॥
जाकी भाउना रही जइसी। प्रभु मूरत दरसत तिन तइसी ।।
कह गए कबिबर तुलसी दासा । कहत सुआ परिहरु के आसा ॥
( और कहा) जिसकी भावना जैसी होती है प्रभु उन्हें उसी सवरूप में दर्शन देते हैं ।। यह कब्बर तुलसी दास जी कह कर गए हैं । मुक्ति की आशा में फिर उन शुक पक्षियों ने इस प्रकार उत्तर दिया ॥
सिया ऐसेउ पूछ करत, तिन सुअ लिए परखान ।
बिनइत नत मस्तक होत, किए अस अस्तुति गान ॥
और सीता के ऐसे प्रश्न करने से उन्होंने जान लिया कि यही जनक पुत्री माता सीता हैं ॥ एफिर विनयपूर्वक नट मस्तक होकर प्रभु श्रीरामचंद्र की इस प्रकार स्तुति गान किए ॥
रागि संग सुर सुअ संग, कल नाद किये गूँज ।
जेसे मधुर मधुकर सुर , मञ्जुल मन्जरि कूँज ॥
तोते के जोड़ों की उस स्तुति गान के संग सुहावने राग एवं ध्वनि ऐसे गूंजायमान हो गईं । सुन्दर मंजरियों पर जैसे कुञ्ज में भ्रमर मधुर स्वर में मुखरित हो ॥
मंग /बुध १८/१९ फ़रवरी, २ ० १ ४
वदनारविन्दम्, वचनारविन्दम् । रसनारविन्दम् अधरारविन्दम् ॥
कर्णारविन्दम् पूरारविन्दम् । वसुधाधिपते सकल सुकमलम् ॥
जिनका श्री मुख अरविन्द के सदृश्य है । उस श्रीमुख के श्री वचन भी अरविन्द सदृश्य हैं । उस श्रीमुख कि जिह्वा भी अरविन्द सरिश्य है एवं श्रीधर भी अरविन्द सदृश्य हैं । जिनके श्रीकर्ण अरविन्द सदृश्य हैं उस श्रीं कर्ण के फूल भी अरविन्द सदृश्य हैं वे वसुधाधिपति सर्वस्व सुन्दर पद्म के सदृश्य हैं ॥
कनकार्विंदं कणिकार्विंदं । हंसार्विंदं मुक्तार्विंदे ।
गुंजार्विंद: पुंजार्विंद । वसुधाधिपते मेखल वलितं ॥
जिसका स्वर्ण अरविन्द के सदृश्य है स्वर्ण कण अरविन्द के सदृश्य है रजत अरविन्द के सदृश्य है रजत युक्त मुक्तिक अरविन्द के सदृश्य है मोतियों का समूह अरविन्द समूह के सदृश्य है और मुक्ता राशि भी अरविन्द की ही राशि हैं । उन वसुधाधिपति कि करधनी ऐसे आभूषण से युक्त है ॥
पयसार्विंदे मधुरारविन्दे । रसिकार्विंदे रसितार्विंदे ।
उदरार्विंदे भँवरार्विंदं। वसुधाधिपते वाल सरूपम् ॥
जिसका पीयूष पुण्डरीक के सदृश्य है,, जो अरविन्द के सदृश्य ही मधुर है , जिसकी जिह्वा राजीव के सदृश्य हैं और पीयूष की टपकती बूंदे जलज के सदृश्य हैं, जिनका उदार भी अरविन्द के सदृश्य है उदर का भंवर अर्थात नाभि भी अरविन्द क सदृश्य है उन वसुधाधिपति का यह बाल स्वरुप है ॥
नासारविन्दम्, नयनारविन्दम् । पलकारविन्दम् अलकारविन्दम् ॥
रूपारविन्दम लवणारविन्दे । वसुधाधिपते पुष्कल पुष्यम् ॥
जिनकी नासिका अरविन्द सरिस है ,नयन अरविन्द सरिस है , नयनं का पलक अरविन्द सरिस है, पलकों कि अलक अरविन्द सरिस है । पुष्प क सरिस शोभित हों वाले उन वसुधाधिपति का रूप-लावण्य अरविन्द सरिस है ॥
वेषारविन्दे भूषारविन्दे । वसितारविन्दे लसितारविन्दे ॥
वरदारविन्दे वरणारविन्दे । वसुधाधिपते अमल अनूपम् ॥
जिनका वेष अरविन्द सरिस है जिनकी भूषा अरविन्द सरिस है उसका सम्मोहन अरविंद सरिस है उसका आकर्षण अरविन्द सरिस है उन अमल अंजिसकी उपमा नहीं की जा सकती ऐसे वसुधाधिपति का वरण अरविन्द सरिस है ॥
केशारविन्दम, रचनारविन्दम् । जूटारविन्दम् अजिनारविन्दम ॥
वासारविन्दम् वसनारविन्दम् । वसुधाधिपते जूटल रूपं ।
जिनके केश अरविन्द सरिस हैं, केशरचना अरविन्द सरिस है । जिनकी जटा अरविन्द सरिस है वल्कल अरविन्द सरिस है ॥ वास स्थान रविंद सरिस है वास स्थान का आच्छादन अरविन्द सरिस है वसुधाधिपति का यह तपस्वी स्वरुप है ॥
भालारविन्दम लवणारविन्दम् । तिलकारविन्दम तेजोरविन्दम् ।
लक्षणारविन्दम लग्नारविन्दम्र्दं । वसुधाधिपते विमल स्वरूपं ॥
जिनका ललाट अरविन्द सरिस है, उसका लावण्य अरविन्द सरिस है । तिलक अरविन्द सरिस है तिलक का तेज अरविन्द सरिस है ॥ तिलक चिन्ह अरविन्द सरिस है उस चिन्ह पर आसक्ति अरविन्द सरिस है वसुधाधिपति का यह विमल एवं अनुपम अधिपति स्वरुप है ॥
श्रमणारविन्दे श्रवसारविन्दे । हरिद्राविन्दे रागारविन्दे ॥
श्रीशारविन्दे श्रीलारविन्दे । वसुधाधिपते श्रियं सुशीलं ॥
वह श्री सुंदरा अरविन्द सरिस है उसकी स्तुति अरविन्द सरिस है । जो हरिद्रा सरिस स्थायी हो गया वह अनुराग अरविन्द सरिस है जिसकी शोभा की युक्ति अरविन्द सरिस है, वह अरविन्द सरिस वसुधा स्वरुप लक्ष्मीपति भगवान विष्णु अभ्युदय स्वरुप शीलवान हैं ॥
गीतार्विन्दं अयनार्विन्दं /गीरार्विन्दे वंशार्विन्दे ॥
छंदार्विन्दं बंधार्विंदे । विरदावली वयुनकल वृन्दं ।।
जिसके गीत श्रीपुष्प के समान हैं, वीणादि साधन सहस्त्रार के सदृश्य हैं और वाणी कुशेशय के सदृश्य है बाँसुरी इंदिवर के समान है ॥जिसके छंद पद्म के सदृश्य है, उसका बंध पुष्कर के सदृश्य हैं, गुण कीर्तन कि पंक्तियाँ सुहावनी रीति से वृंद गान में आबद्ध हैं ॥
अस श्रित श्रिया श्रीधर के अंक अंक पत्र वृंद ।
त्रिभुवन भूप अनूप के रूप सरुप अरविन्द ॥
इस प्रकार श्री द्वारा सेवित श्रीधर के अंग अंग पत्र-समूह हैं । तीन लोक अर्थात स्वर्ग, मर्त्य एवं पाताल के उपमारहित स्वामी का रूप स्वरुप अरविंद के सदृश्य है ॥
आनंद कंदम राम चंद्रम् । तपोवनयनम् दनुपत् विजितम् ॥
चित्तादित्यम किशोराङ्गं । वसुधाधिपति श्यामल वरणम् ॥
आनंद के मूल स्वरुप श्री राम चन्द्र जिन्होंने उत्तर से दक्षिण की ओर गति कर दनुज पति लंकाधीश रावण पर विजय प्राप्त की । जो चित्त के आदित्य स्वरुप हैं वह वसुधा के अधिपति श्यामल वर्ण से शोभित हैं ॥
श्री रमणाय कलिकाय् कमनम् । रूपाय स्वरूपाय कमलं ॥
पद्म पत्र सम प्रफुल्लित नयनम् । पुष्कर वदनम् जलज पुष्कलम् ॥
उन श्री के रमण जिनका रूप स्वरूप कमल की सुन्दरकलिका के सदृश्य है । वह श्रीहरि पदम् के पत्र सरिस उन्के लोचन सरसता से युक्त हैं ॥ एवं जिनका मुख सरोवर के सदृश्य जल की कांति से भरपूर है ॥
रज रजंबुजा पदारविन्दम् । नल कीलं नालिक नलिनम्
ऊरु कटिका कोमलधाराम । उर्जस्वल ऊर्ध्व देवं ॥
नासिक नग शिख सम मनोहरम् । कलित काल कोदंडी कुटिलम् ॥
भाल परस्पर सुसंयोगिते । योग संयोग परम भासिते ॥
लंब प्रलंबित बाहु विशालं । पट प्रस्तारित हृदयम् भवनम् ॥
कंठ शंख सरिवर सुशोभितम् । वैदेही सह बाहु वलयितम् ॥
श्रीयं श्रीलं श्री वर्द्धनम् । सम्प्रसाधन शुभा सम्पनम ।।
रज रज जलजा रजसाम्बुजम् । सेचावसिक्तम् पदाम्भसम् ॥
रज रज नीरजा रजाम्बिकम् । अम्भसांगुलि पादालिन्दम् ॥
हस्त कर्णिका धारिण स्वयं । उद्धारोद्धुर नमस्तुभ्यम् ॥
सहसै बदन नयन चरन, तिन तैं कँह को रीत ।
जोइ गुन निधान सरूप, सोइ बरननातीत ॥
बृहस्पतिवार, २० फ़रवरी, २ ० १ ४
हम तिन तुहिन प्रनइन बिहंगे । लघु मुख बरनइ प्रभुत प्रसंगे ॥
जगनमई जग श्रिया सरूपा । पदमन बासा परमम् रूपा ॥
हम दो प्रेमी पक्षी तो अनक तृण तुल्य हैं । लघु मुख से गौरवमय प्रसंग का वर्णन कर रहे हैं । अर्थात हम इस कथा को वर्णन करने के योग्य नहीं हैं तथापि तुम्हारे निवेदन से वर्णन कर रहे हैं ॥ परम सुन्दर रूप धारण करने वाली, पद्म निवासा, जगत की कल्याण स्वरूपा, जगन्मयी : --
सोइ देइ धन लावन लाखी । मोहित भइ लख जिनकी झाँखी ॥
बिसंभरी मह अहहिं को तिया । दरसत प्रभु जो हारे न हिया ॥
धन की देवी,लावण्य श्री लक्ष्मी हैं वे भी उन जिनकी झाँकी क दर्शन कर मोहित हो गईं ॥ फिर पृथ्वी कि ऐसी कौन सी स्त्री है जो उनके दर्शन कर सम्मोहित न हो और अपना ह्रदय न हार जावे ॥
प्रभुबन लहि बल बिक्रम महाना । अहि जगमोहन रूप निधाना ॥
श्री पति पुर बैकुंठ निवासी । दोष रहित सब गुण के रासी ।।
प्रभु की शक्ति और श्रीविक्रम महान हैं । प्रभु के रूप का भंडार ही ऐसा है जो समस्त संसार को मोहित कर दे । वे श्री के प्राणाधार वैकुण्ठ पूरी के निवासी दोषों से रहित एवं गुण राशि से युक्त हैं ॥
जो हम लेइ सौ जन्माई । तिनके बरनन बरनि न जाई ॥
जनक तनुजा भई बड़ भागी । राम जानि बन भई सुहागी ॥
यदि हम सौ जन्म भी लें तब भी उन प्रभु की प्रभुता का वर्णन पूर्ण न कर पाएं ॥ जनक की सुपुत्री माता सीता अत्यंत भाग्य शाली हैं जो भगवान शर राम कि जीवन संगिनी बन सुहाग को प्राप्त हुई ॥
जिन सुभाग प्रभु अनुराग, जो जगनमई मात ॥
पात सबके पुनासीस, होहि अखन अहिबात ॥
प्रभु जी का अनुराग जिनके सौभाग्य हुवा जो जगत को जगमगाने वाली माता हैं । वे सभी सुर मुनि जनों का शुभाशीष प्राप्त कर अखंड सुहाग को प्राप्त होंगी ॥
शुक्रवार, २१ फ़रवरी, २ ० १ ४
जदपि सुअटा संसै रहि नाहि । कि एही सुकनिआ सिया अहाहि ॥
तथापि चित संका निबराने । जान बूझ तिन पूछ बुझाने ॥
यद्यपि सुग्गों के मन में संसय नहीं था कि यह सुकन्या ही माता सीता हैं । तथापि चित की शंका के निवारण हेतु सब जानते एवं बूझते हुव भी उस कन्या से पूछे : --
कहनि प्रभु अस जान ललिहाऊ। को तुम्ह अहसि का तव नाऊ ।।
हेत करत ऐतक अतुराई । श्रुति लै मगन कहन रघुराई ॥
प्रभु के समाख्यान को भन्न लेने हेतु तुम इस भांति लालायित हो । यह कहो तुम कौन हो एवं तुम्हारा शुभ नाम क्या है ॥ जो तुम इतनी आतुरता एवं स्नेह प्रदर्शित कर प्रभु की कथा ऐसे लय मग्न हो कर श्रवण कर रही हो ॥
सुक खंजन के बचन करन धर । बाल बदन सिय हरिन नयन कर ॥
आप जनम की कही कहानी । ललित मनोहर मधुरित बानी ॥
सुग्गी खंजनों के ऐसे वचन श्रवण कर बालक मुखी सीता ने नयनों को कातर किये फिर सुन्दर,मनोहारी एवं मधुरित वाणी से अपने जन्म की कहानी का वर्णन किया ॥
जो तुम कहनिहि जिन्ह जानकिहि । कारत कीर्ति गान गुन कहिहि ।।
परम सुभागी सो मम नाऊ । एहि कर कहनिहि मोहि लुभाऊ ॥
और अपनी कथा में तुम जिस जानकी का वर्णन कर रहे हो गान स्वरुप में जिसके गुण राशि का यश गान कर रहे हो ॥ वह परम सौभाग्य शील नाम सीता मेरा ही है इस कारण वश यह प्रभु कि यह कथा मुझे लुभा रही है ॥
जोइ राऊ मोर मन लोभा । नीक नभस जस जिनकी सोभा ॥
नखत नाथ निचइन निभ नामी । तिनके दरसन चितबन कामी ॥
कथा में जो राजा जिन हेतु मेरा ह्रदय लोभित है जिनका शोभा सुन्दर नभस के सरिस है । जिनका शुभ नाम चकासित चंद्रमा से युक्त है । उनके दर्शन हेतु मेरा चितवन लालायित है ॥
बाल मनस बाल चेतस अस जस को सस बाल ।
बालपन रहि बाल बयस सिया के तेहि काल ॥
जैसे कोई उगता हुवा चंद्रमा हो उस समय अनबुझ सीता की अबोध मस्तिष्क, अबोध चेतना के सह कुछ ऐसी ही अबोध अवस्था थी ॥
शनिवार, २२फरवरी, २०१४
बाल सिया हुँत सुआ सलौने । कल कौतूहल केलि किलौने ॥
पेस पुहुप पेसल पल पाँखी । कबहु करज कबहुक धरि काँखी ॥
बालिका सीता के लिए वे सुन्दर शुक पक्षी कल कौतुहल का विषय होकर खेल खिलौने ही थे । उनकी कोमल पंखाकृति पुष्प पत्र के पटतर थी जिन्हें वह कभी अपनी छूती छूती उँगलियों पर तो कभी पार्श्व में धारण कर लेती ॥
लता कुंज जँह तरुघन छादन । बोलि रहिहु तुम अजहुँ मोर सन ॥
सुख आसन लए रस मन भावन । हेलि बेलि सँजुग बिहरत गगन ॥
फिर सीता बोली जो लताओं स घिरा हुवा स्थान है एवं जहाँ अल्को की घनी छाया है अब से तुम मेरे साथ उसी स्थान पर रहना ॥ उस सुखद आसान पर मन कू भाने वाले स्वाद ग्रहण करना । संगी-साथियों को पुकार कर उनके साथ गगन में विहार करना ॥
सिया बचन जस आयसु दाई । सुनत खँडरिजि कंठ जी आई ॥
बोली हहरत हे रे कनिआँ । बालक बिभु मुख लघुबर रनियाँ ॥
बालिका सीता के अयम् वचणाम आदेश सदृश्यम् । जिसे सुग्गी ने जब सूना तो जैसे उसकी जान पर बन आई ॥ वह भयभीत होकर बोली अरी कन्या । बाल्य शशि वदना छुटुकी प्यारी रौतनियाँ ॥
कृष तन तरु बन कानन चारी । हम गगन बिहारिन अनागारी ॥
प्रसर प्रयानक पौनवरोही । का तव आसन सुखकर होहीं ॥
हम कृशकाय वृक्ष अटवि कानन में ही विचरण करते हैं ॥ हम गगन में विहार करने वाले भ्रमण कारी संन्यासी हैं । गति संग गमन करने वाले पवन के अवरोही को क्या तुम्हारा वह सुखद आसन सुख कारी होगा ॥
प्रवन प्रसांतातम सन सुग्गी सुघर सयानि ।
सों सिया सीस प्रनमन, बोली बिनइत बानि ॥
रविवार, २३ फरवरी, २ ० १ ४
एहि काल कनी मैं गरभ गही । हे जाता महि तव चरन पही ॥
कोमलि कलि अस रगर न धारौ । करुना करत हमहि परिहारौ ॥
हे कन्या इस समय मैं गर्भवती हूँ हे धराधि ! मैं तुम्हारे चरण पकड़ती हूँ अरी काली के समान कोमली कन्या तुम इस प्रकार हठ न रोपो । करुणा करते हुवे हमें छोड़ दो ॥
साँचि मनस निकपट छल हीना । दीन हीन अवमोचन दीना ॥
सुअन बहुरन ररन ररिहाही । गहि बदन रवन सिय नननाही ॥
हे सत्य मानस निष्कपट छलहीन कन्या हीनता से ग्रस्त व्यथित जनों को मोचित कर देते हैं ॥ इस प्रकार शुक पक्षी रह रह कर सीता के सम्मुख गिड़गिड़ाते हुवे याचना करते । किन्तु सीता का श्रीमुख एक ही शब्द एक ही ध्वनि ग्रहण किय हुवे था वह था न नहीं ॥
कह सुअ प्रभु भवि अर्ध अंगनि । अहहि गर्भिनी मोरि संगिनी ॥
अभिराम नयनी री सोभिना । तासु हरन ऐसेउ लोभिना ॥
फिर नर तोते ने कहा हे प्रभुश्रीराम चन्द्र की भावी अर्द्धांगिनी यह मेरी संगिनी गर्भवती है ॥ ह अभिराम नयनी अरी शोभना उसे हरण करने हेतु ऐसे मत लालायित होओ ॥
जननी जनमन जब जनमाही । तुहरहि गह कानन बहुराही ॥
मम बनीहु सीतल सुखदाई । कहि सिय तँह बहु जन जन्माई ॥
जब यह अपने जातक को जन्म दे देवेगी । तब तुम्हारे गृह -कानन में लौट आएगी ( अत: अभी तुम उसे छोड़ दो ) किन्तु सीता न कहा मेरी वाटिका भी तो सीता है एवं सुखदाई है । वहाँ न जाने कितनी जातक जन्में हैं ॥
यहु सुन सुअटा जोट के, अंतर तम दुःख मान ।
कुचित तन अवसादित मन, आकुल भै सकसान ॥
यह सुनकर तोते के उस सुन्दर जोड़े का अंतरतम दुखित हो उठा । वे संकुचित तन एवं शिथिल मन से व्याकुल होते हुवे भयभीत हो उठा ॥
कारण की 'पराधीन सुख सपनेहु नाहि' अर्थात परधिनता तो सपने में भी सुखकर नहीं होती ॥
सोमवार, २४ फरवरी, २० १ ४
सांच कहत बुध प्रबुद्धि लोगे । मनन सील मुख मौन बिजोगे ॥
कहुँ जान निज ग्यान अलापत । दोष बचन सउँ प्राणिहि उनमत ॥
बुद्ध एवं प्रबुद्धजन सत्य ही कहते हैं । मननशील मुनि यदि मौन से वियोजित होता है एवं किसी स्थान पर अपने भान व् ज्ञान का व्याख्यान करता है तब वह उन्मत्त प्राणि दोष वचनों के कारण वश : --
भव ब्ययन के बंधन धराएँ । मर जनमत पुनि मरत जन्माए ॥
जो हम खंजन इहाँ न आते । बैस तरू सिख न अस बतियाते ॥
जन्म-अवसान के फाँस में फँस जाता है । पहले जन्म लेता है फिर मर जाता है फिर जन्म लेता है फिर मर जाता है ॥ यदि हम प्रणयिन पक्षी यहाँ नहीं आते तरु बिटंग पर टंग के ऐसे वार्तालाप नहीं करते ॥
तब बाँधनी पग बाँधेसि नाही । मौन महहि मुनिमत भलसाही ॥
ऐत कहत पुनि रत निधि बोले । जनक कुँआरी बंधनु खोलें ॥
तब यह बंधन हमें बांधने में समर्थ नहीं होता । अत: मुनीश्वरों की भलाई मौन में ही निहित है ॥ इतना कह कर वे पक्षी फिर बोलने लग गए । हे जनक पुत्री सीता हमारे बंधनों को मुक्त करने की कृपा करो ॥
यहु सुनु सिय नर मोचन कारी । सुकनी कर बाँधनी न उबारी ॥
तरफत फुदकत डहुरी डहुरी । रिरिहा कह सिय बहुरी बहुरी ॥
यह सुनकर सीता न नर पक्षी को तो मुक्त कर दिया । किन्तु उसने मादा पक्षी के बंधन को शिथिल नहीं किया ॥ वह नर तोता तड़पता डालि-डालि फुदकता हुवा गिड़गिड़ाकर सीता से वारंवार कहता ॥
री दुलारि दयित प्यारि, न्यारि सोंह न्यारि ।
कमलिन कुसुम की कयारि, बिनती सुनौ हमारि ॥
अरी दुलारी प्रिय की प्यारी सुन्दर न्यारी से भी न्यारी । कमलों के कुसुम की क्यारी हमारी यह विनती सुनो ॥
जो तुम मम प्रिया उबारि, तुम पर हम बलिहारि ।
जब लग बास जिउ लगारि, करएँ सेवा तुहारि ॥
यदि तुम मेरी प्रिया को मुक्त करती हो तो हम तुम पर न्यौछावर हो जाएँगा ॥ जब तक इस शरीर से प्राण बंधे हैं तब तक हम तुम्हारी सेवा करेंगे ॥
मंगलवार, २५ फरवरी, २०१ ४
करत प्रयाचन बर बिधि नाना । देखि बोल सिय सकल बिधाना ॥
करत सोत बहु बहु समझायौ । हार मान बिहान सिथिरायौ ॥
नाना बिधियों से याचना करके बोल देखा सारे विधान कर लिए बालिका सीता को गुणगान कर कर के समझाया जब थक गया तब अंतत: तोते ने हार मान ली ॥
बाल सिया कछु समझि न पाई । होई सुकी करष अधिनाई ॥
कोपत लोकत लोइ ललाई । इब अँगीठी आगिन धराई ॥
बालिका सीता को कुछ समझ नहीं आया तब शुकी क्रोध एवं कोप के अधीन हो गई । और क्रोधवश सीता को लाल लाल नेत्रों से ऐसे देखने लगी जैसे कि वह नेत्र अंगीठी हों एवं उनमें आग लगी हो ॥
आकुली परिहार आपनु आपा । बालिका सुकी दइ अभिसापा ॥
जेहि भाँति तुअँ एहि बे मोही । प्रिय पत प्रनीत देइ बिछोही ॥
व्याकुल होते हुवे उसने अपना आपा खो दिया एवं बालिका सीता को श्राप दिया ॥ कि जिस प्रकार तुमने मुझ ऐसी अवस्था में प्रिय पति के प्रेम से वियोगित किया ॥
तसहि तुअ कभु भयऊ गर्भिनी । होहु आपने प्रियतम हीनी ॥
अस कहत सुकी पिय बिथुराई । राग सोक बस गई बिहाई ॥
उसी प्रकार तुम जब कभी गर्भ अवस्था को प्राप्त होवोगी । तब तुम भी अपने प्रियतम से वियोग ष्णा पडेगा ॥ इस प्रकार प्रियतम के बिछोह के कारण अनुराग एवं शोक के वशीभूत होकर उस शुकी ने अपने प्राण त्याग दिये ॥
बहुरि बहुरि सुमिरत नाम, राम राम हे राम ।
प्रान प्रजान बैठ जान, गवनि बैकुंठ धाम ॥
वारंवार राम राम हे कहकर राम के नाम का जाप कर वह शुक मृत्यु को प्राप्त होकर एक सुन्दर विमान में बैठ, वैकुण्ठ धाम चला गया ॥
बुधवार, २६ फरवरी, २०१४
अहह प्रिया मम पखिनी हे रे । उरिन गयउ तव प्रान पखेरे ॥
दुखित दइत घिर सोक संतापे । भयउ बिकल बहु करत बिलापे ॥
आह !मेरी प्रियतमा हे री मेरी पक्षिणी । तेरे प्राण रूपी पखेरू उस गए रे ॥ शुक प्रेमी अपनी संगिनी के अवसान के पश्चात दुखित होकर शोक एवं संताप से घिर गया । और अत्यंत व्याकुल होकर इस प्रकार विलाप करने लगा ॥
कलपत तलफत रोवनिहारा । प्रिया प्रिया हाँ प्रिया पुकारा ॥
मृतक काई कातर निहारे । ताड़त उर बहु त्रसत बिहारे ॥
कलपता तड़पता, म्रत्यु पर शोक करने वाला वह आत्मीय प्रिया प्रिया हाँ प्रिया कह कर अपनी प्रिया का आह्वान करने लगा ॥ मृतक को कातर दृष्टि से देखते हुवे अपने ह्रदय भवन को प्रताड़ित करते हुवे चकित स्वरुप में विचरण करने लगा ॥
भरे नयन जल धरे न धीरा । देखी न जाइ गह अस पीरा ॥
प्रान हारि बहु दुःख उर लेखा । सिया सोंह पुनि करषत देखा ॥
उसके नयन जल से भरे हुवे थे धीरज वह बिसरा चुका था पिया ग्रहण की हुई थी कि जो देखि न जा सके ॥ प्राणों को हारने वाली का दुःख अपने ह्रदय में गहरे लेते हुवे फिर उसने सीता को क्रोध में भरी दृष्टी से निहारा ॥
लखत लाल लोचन अस बाँचे । होई हमहि प्रनय जो साँचे ॥
होइ जनम प्रभु अवर हमारा । अरु सोकातुर किरिया कारा ।।
फिर उसने लाल लोचन से सीता पर दृष्टिपात करते हुवे एवं शो से आतुर होकर सौंगंध ले कर ऐसे वचन कहे : -कि हे प्रभु हमारा उस स्थान में दुसरा जन्म हो ॥
जन सघन पुरी दसरथ नाहू । जहां श्री राम अवतर आहू ॥
री कनया तुअ भल नहि किन्ही । तव रगर हरे प्रान पखिन्हि ॥
जो जन से संकुल राजा दशरथ की पुरी है जहां भगवान श्री राम चन्द्र अवतार लेवेंगे ॥ अरी कन्या तुमने यह अच्छा नहीं किया तुम्हारे इस हठ योग ने मेरी पक्षिणी के प्राण हर लिए ॥
अह जस अपकार करि तस , परत कथनी हमारि ।
कबहुँक तुहु बिरहँ मह, होब अइसिहु दुखारि ॥
आह! जैसी अपकृति तुमने करी है वैसे ही हमारी कथनी में पड़कर कभी तुम भी विरहा में इसी प्रकार से शोक संतप्त होवोगी ॥
बृहस्पतिवार, २७ फरवरी २ ० १ ४
कलप तरप परतस हहाखानि । भयै हराहर प्रीतमा हानि ॥
डहक डहक कृत हाहाकारे । सीस पाँख भू पद दै मारे ॥
गिड़गिड़ाने के पश्चात प्रियतमा की प्राणों की हानि से क्लांत होकर ॥ कलपते तड़पते ( आलियों क ऊपर ) ढाँक ढाँक हाहाकार मचा कर उस शुक पक्षी अपने सिर, पंख एवं पाँव भूमि पर दे मारे ॥
बहत हरित तन रकत पनाले । रन खेत जिमि परे हत लाले ॥
बिकल पुकारत आरत बानी । हेति करत कह हे मम जानी ॥
जिसके कारण उसक हरे रंग की काया से रक्त की धाराएं बहती इस प्रकार से दर्शित हो रही थी मानो उसका शरीर कोई रन का क्षेत्र हो और उसपर घायल वीर पड़े हों ॥
बिहने सुअटा भए अवसाना । नभ अवतर एक सुघर बिमाना ॥
अकाल काल पुरुख लए नामा । गमनइ सोइ बैकुंठ धामा ॥
अंतत: नर शुक की देह का भी जब अवसान हो गया तब आकाश से एक सुन्दर विमान अवतरित हुवा । अपनी इस असामयिक मृत्यु पर वह परमेश्वर का नाम लेते हुवे वह भी वैकुण्ठ हाम को चला गया ॥
ररन रवन सिख अरध ग्याना । बाल बिरध बय बयस न जाना ॥
प्रनय प्रकरष कोप मह आँधे । अस जीवन भव बंधन बाँधे ॥
रटे-रटाए शब्दों से अर्द्ध ज्ञान सीख कर उन शुक युगल की दृष्टि, बाल,वृद्ध, युवा आयु संकाय में भेद नहीं जाना । व् परम के आकर्षण मन अंधी हो गई । ऐसे ही जीवन को यह संसार फिर जन्म-मरण के चक्र में बांधता है, उसे विमुक्त नहीं करता ॥
गह बंधनु जो आपहि चाहीं । कोउ जतन जग वाका नाहीं ॥
चौखनी खाट जीउ बधीनए । मनुज जोनि मिल बहसहि कठिनए॥
जो स्वयं ही इस चक्र में पड़ना चाहता हो । उस जीवन का फिर संसार मन कोई उपाय नहीं ॥ यह जीव चौखनि अर्थात अण्डज, पिण्डज, ऊष्मज्, उद्भिज इन चार योनियों की खाट से बंधा है । मनुष्य योनि प्राप्त होना अत्यधिक दू:सह है ॥
सदगुरु सुघर श्राम बसे, हरी कीर्ति श्रवनाए ।
ए कर कछुक काल अंतर, मनुज जोनि पख पाए ॥
उत्तम गुरु के सानिध्य में, श्रेष्ठ स्थान पर वासित होने के कारण एवं ईश्वर का यशगान सुनने के कारण । कुछ समय के पश्चात उन पक्षियों न मनुष्य की योनि प्राप्त की ॥
शुक्रवार, २८ फरवरी, २०१४
जोइ निज दुख दात छम दाने । प्राणि प्राणि जिन हूँत समाने ॥
संतापित दया दीठि जोई । परम पदक अधिठत जन सोई ।
जो दुसरों से अन्यथा स्वयं को भी कष्ट पहुंचाने वाले को क्षमा दान दे । जिनकी दृष्टि प्राणी-प्राणी में भेद न कराती हो जिसके लिए सभी एक समान हों ॥ संतप्त जनों पर जो पर जो दया दृष्टि रखते हों । वे ही परम गति के अधिकारी होते हैं ॥
कह दुर्बादन मुख धर कोपे । आप मग आप कंटक रोपें ॥
दुःख धारत धरि धीर सुभावा । भए निकट सोइ भगवन भावा ॥
जो मुख पर क्षोभ धारण कर दूषित वचन कहते हैं वे अपने मार्ग पर आपही कंटक बोते हैं । दुःख धारण करने पर भी जिनका स्वभाव में हीर गम्भीर होता है । वह आत्मा ईश्वर के निकट होती है ॥
अंतह के भव देह अधारे । जगत जोनि बिधात निर्धारे ॥
जिन जिउ रह जिन भावन भीते । काया कलप कृत कार रचिते ॥
जन्म एवं मृत्यु के मध्य स्थित आत्मा के आधार पर ही विधाता इस जगत में जीवों की योनि का निर्धारण करता है ॥ जो जिस जीव में जिन भावों में रहता है । कल्पकार फिर उसकी काया को उसी आकृति में रचता है ॥
भइ बिजुरी जूँ काठ कुचालक । लोह सोंह सरि धातु सुचालक ॥
अस जस पञ्चम तत्व बिजोगे । आपनी धर्म देख सँजोगे ॥
जिस प्रकार लकड़ी विद्युत् की कुचालक होती है । और लोहे के सदृश्य धातु उसके सुचालक होते हैं ।जबकि सभी एक ही तत्व से निर्मित हैं । उसी पकार जैसे ही यह शरीर मृत्यु को प्राप्त होकर पञ्च तत्वों में विघटित होता है । वैसे ही वे तत्व अपने गुण-धर्म के अनुसार पुन: संयोजन करते हैं ॥
जैसी सुतिका तैसी मुतिका । तो जस कायाकृत तसहि अंतिका॥
जैसी शुक्तिका होगी मुक्तिका भी वैसी ही होगी । शुक्तिका के सदृश्य ही यह काया है मुक्तिका के सदृश्य यह आत्मा है इस काया के जैसे कर्म होंगे इसके जैसे भाव होंगे जैसा इसका आचरण होगा इसके अंतरतम की मुक्ता स्वरुप वायु के सदृश्य यह निर्गुण आत्मा वैसी ही होगी ॥
पाछिल जनम कारन अस, मृतक धरे नर देहि ।
पाँखि संग गहि पाँखिनी, राम संग बैदेहि ॥
इस प्रकार पाश्चात्य जन्म के कारण मृतक न मानव देह धारण की । पक्षिणी को पक्षी का संग प्राप्त हुवा । एवं वैदेह कुमारी को श्री राम का संग प्राप्त हुवा ॥
शनिवार, ०१ मार्च, २०१ ४
कोप तो कोप श्राप त श्रापा । बचइ न कोउ श्राप तप भापा ॥
बालक बोध दीठि भा थोरी । सुनि श्राप सिय बिकल मति भोरी ॥
क्रोध, क्रोध होता है अभिशाप, अभिशाप होता है । अभिशाप ताप एवं उसके भाप से कोई नहीं बचता । सीता की सीता की बाल समझ थी, बाल्य अवस्था में दृष्टि भी मंद होती है । उसने अपनी उसी अबोध मति से उस श्राप को सुना ॥
आरत नाद कानन धराई । निरख मृतक सिय दृग भर लाई ॥
ताप भाप अभिसाप न जानी । बस पाँखी मरनी दुःख मानी ॥
करुण स्वर में दुःख के उस ज्ञापन को अपने कानों में ग्रहण किया । और जब मृतक की ओर देखा तब वह आँखों में पानी ले आई । न उसने शुक के विरह दुःख को जाना, न अभिशाप के भाप को जाना उसन केवल पक्षियों के मरण दशा का दुःख माना ॥
सुअ कहनी कहि जोई जोई । सोइ सोइ अस होतब होई ॥
लेइ जनम दुहु कुल सोचेई । अरु सिय बिपरित कथन कहेई ॥
शुक पक्षियों ने अपनी कथा में जिन जिन बातों का वर्णन किया । फिर भविष्य में वही सब हुवा । उन दोनों पक्षियों ने रजक कुल में जन्म लिया । नर पक्षी ने माता सीता के विपरीत निंदक वचन कहे ॥
मातु जानकिहि राम बिजोगी । फिरि घन बन बिरहा दुःख भोगी ॥
प्रथमतम तप बन भई सुबरन । पुनिचर तपन तपत भइ कुंदन ॥
इस प्रकार माता जानकी का भगवान श्रीराम से वियोग हो गया । एवं गहन विपिन में विचरण कर उन्होंने अभिशप्त होकर विरह का दुःख भोगा ॥ जो पहले ही तप के ताप में तप कर स्वर्ण हो चुकी थी पुनिश्चर उसी तप के ताप में तप कर अब वह कुंदन हो गई ॥
द्विज बरतिबर तव पूछ प्रसन करि जह प्रसंग पावन कर ।
कहत समुझाया संसए मिटाया आपनि लघु मति अनुहर ॥
अजहूँ अगाउनी कहन पाउनी सुनु श्री श्रीस साथ की ।
बिदेह नंदिनी प्रभु पद बंदिनी कथा सीता नाथ की ॥
भगवान शेष जी ने कहा हे विप्रवर आपने जो इस पावन कृत प्रसंग के सम्बन्ध में प्रश्न पूछा वह मैं आपको कह कर समझा इया एवं अपनी लघु मति का अनुसरण करत हुवे आपके संसय का भी निवारण किया ॥ अब आप पद्म वासिनी श्री लक्ष्मी एवं लक्षमी पति श्री विष्णु के संग की, जिनकी वंदना प्रभु श्री राम के चरणों में समर्पित है उन वैदेह नंदिनी सीता के नाथ की इस पावन कथा के आगे का वृत्तांत सुनिये ॥
ता परतस भगवन सेष,कथा कृत रथाकारि ।
अधर चरन रसना रसन ,कानन पंथ उतारि ॥
तदोपरांत भगवान शेषजी ने कथा को रथ कि आकृति देकर, अधरों को रथ के दो चरण कारित कर, रसना को रथ की किरणों की आकृति करते हुवे रथ-कथा को मुनिश्री के कर्ण पंथ में उतार दिया ॥
सिय परिहर के निर्नय कारे । पुरजन सन्मुख कहबत धारे ॥
इस कारण और इस कार्य के बहाने कहीं समाज दुश्चरित्र न हो जाए इस हेतु श्रीरामचन्द्रजी ने माता सीता के परित्याग का निर्णय लिया और समाज के सम्मुख आदर्श प्रस्तुत किया ॥
दोउ नयन सरजू सरि धारे । दुहु दर्पन प्रभु मुख छबि धारे ॥
पूछे वात्स्यायन स्वामि । भरे हरिदै नत कहत नमामि ॥
दोनों (वक्ता एवं श्रोता) के नेत्रों में मानो सरयू नदी का जल धारा उतर आई । दोनॉन दर्पणों में प्रभु के कमल मुख की छवि धारण की हुई थी ॥मुनिश्री वात्स्यायन ने प्राम कहते हुवे नतमस्तक होकर भरे हुवे ह्रदय से पूछा : -- स्वामिन् !
जाकी कीर्ति कलिमल हरनी । अगत जगत पत पावन करनी ॥
रजक के बदन जानकिहि ताईं । निंद बचन अस कवन कहाई ॥
जिनकी यह उत्तम कीर्ति पातकों का हरण कर सम्पूर्ण जगत को पवित्र करने वाली है । उन्हीं जानकी देवी के प्रति ममोल के मुख ने ऐसे निंदा वचन क्यूँ कर कहे ?
मम लघुबर मति बूझ न पाऊ । तिनके रहस कहत समुझाऊ ॥
सुनौ मुनि कथा पवित पुरानी । तुहरे सों मम बदन बखानी ॥
मेरी यह मति तो लघुवर मति इस कारण को समझने में असमर्थ है । कृपया कर आप इस रहस्य को कहते हुवे समझाइये ॥
भुजगराज भए मगन धिआने । राम गुनत रमना गुन गाने ॥
भगवन लोचन अरनन पागे । तन मन बचन उमग अनुरागे ॥
तब भुजंगराज भगवान शेष ध्यान मग्न होकर भगवान श्री रामचंद्र को समझते हुवे उनकी अर्द्धांगिनी माता सीता के गुणों का व्याख्यान करने लगे ॥ भगवान के नेत्र-जल में अनुरक्त हो गए , उनके तन मन एवं वचन तीनों में प्रेम उमड़ पड़ा ॥
बहुरि प्रभो बहुरत बरन, कथन सूत कृत कार ।
सूतिका अलंकरन कर, सारत दिए बिस्तार ॥
पुन: प्रभु अहिराज वर्णों के क्रम को संचित करकथा के सूत्रों की रचना करते हुवे उन्हें एक माल्या में अलंकृत किए , एवं उस कथा का ( इस प्रकार से ) उत्तमोत्तम विस्तार करने लगे ॥
गुरूवार, ०६ फ़रवरी, २ ० १ ४
बिस्व बिदित एक मिथिला देसू । रुचिरु रचित तँह पौर प्रबेसु ।।
रहइँ जनक जँह के बर भूपा । धर्मी तस जस नाम अनूपा ॥
विश्व में विख्यात एक मिथिला प्रदेश है वहाँ का गौपुर अत्यंत ही सुंदरता पूर्वक रचा गया है ॥ वहाँ के राजा महाराज जनक थे । जैसा उनका नाम उत्तोमोत्तम था वैसे ही वह धार्मिक भी थे ॥
केत नि केतन कर कस कासे । जँह बहु नीक नगरीअ निबासे ॥
केत कली केसरिया फूरे । कुञ्ज गली बेलरिया झूरे ॥
वहाँ कितने ही भवन थे सभी किरणों के सदृश्य दैदीप्यमान थे जिसमें सुन्दर नागरीक निवास करते थे । जहां बहुंत ही भले नागरिक निवासरत थे ॥ बेलों से आच्छादित पथ थे जहां सखियाँ झूले में झूल रही थीं रही थीं जिनपर केवड़े की कलियाँ एवं केसर फूल रहे थे ॥
बटबर पीपर कहूं अमराईं । चहुँ दिसि रुख की सीतर छाईं ॥
चन्द्र केतु पत मनि सम दरसें । भुइँ भरि हरियरि हरिअर परसें ॥
बरगद उत्तम पीपल कहीं आम का उद्यान था । चारो और वृक्षों की शीतल सुखकारी छाया थी । चंद्रमा एवं सूर्य की प्रतिष्ठा ऐसी दर्शित होती जैसे गगन में मणियाँ चमक रही हों । भूमि पूरित हरियाली को हलके ही स्पर्श करते ॥
निर्झरि झर झर निर्झर झारै । पुर पुर पर्बत भू रत ढारै ।।
तलहटी बट तट मनोहारी । तटिनी तरिनी तरत बिहारी ॥
पहाड़ियों झर झरकरती हुई झरने झारतीं । नगर-गाँव में पर्वत भूमि में अडिग रहते ॥ उनकी तलहटी पर रचीर पथ नदी के तट से युक्त होकर मन को हरने वाला था नदी में नौकाएँ विचरण करती रहती ॥
बरखत बरखा बननुरत, पत पत करत सनेह ।
कबि करत कबित कहत को, पयसत पत नभ नेह ॥
पत्रों से स्नेह कर विपिन की अनुरक्ति में वर्षा ऐसे वर्षति कि कवि कविता रचते हुवे कहते पत्र नभ का स्नेहपान कर रहे हैं ॥
शुक्रवार, ०७ फ़रवरी, २ ० १ ४
मिथिला सोहा सुख रस सानी । सखिहि परस्पर कहत बखानी ॥
फुरी मंजु मंजरि डार सखि री । मधुकार करि गुँजार सखि री ॥
मिथिला पूरी कू शोभा सुख के रस में पागित थी । सखियाँ परस्पर व्याख्यान करते हुवे कहतीं : -- अरी सखि ! शाखाओं पर सुन्दर मंजरियाँ प्रफुरित हो गई हैं । अरी सखि ! मधुकर गुंजार करने लगे हैं ॥
सघन बिपिन चर बिहरत गोचर । नभस नभौकस गत निकर निकर ॥
एहि भुइहि देस बिहार सखि री । बही बल ले बलिहार सखि री ॥
घने वनों में वनचर आनंदपूर्वक विहार करते दिखाई दे रहे हैं । नभ में पक्षी झुंडों में विचरण कर रहे हैं । अरी सखि !यह मिथिला पर्यटन स्थल सी प्रतीत होती है आरी सखि ! तुम अपनी बाहु को बल देकर निछावर कर दो ॥
हट बट चौहट अइसिहुँ गचिते । मिथिला नगरि जिमि केस रचिते ॥
कासत कर करनिकार सखि री । जस सिंगारि सिंगार सखि री ॥
हट-चौहट, बाट-चौबाट ऐसे ढले हैं मानो मिथिला सुन्दरी की केश रचना हो । जिसपर किरणे लाल कनेरी सी चमक रही है । जैसे कि उस केश रचना में किसी ने सिंदूर से श्रृंगारित कर दिया हो ॥
नादत जस कल कंठ कूनिका । कलस कुलीनस कूलिनीहि का ॥
चरत डगरी पनिहार सखि री । तरत निहार क नि हार सखि री ॥
कलश में भरा नदी का निर्मल नीर ऐसे निनाद कर रहा है जैसे कि वीणा सुमधुर स्वरुप में स्वरमयी हो गई है ॥ और डगरी पर पनिहार चला जा रहा है । उससे उदकती बूंदों को तनिक देखो मानो उदपात्र के कंठ से हीरक-हार उतर रहा हो ॥
रज रज निरखत नीक , रजे रजराज रमनीक ।
लिखत लिखि लीक लीक, चित्र रथ चित्रकार सखि री ॥
कण कण सुन्दर दर्शित हो रहे हैं, रमणीय ऋतुराज वसंत का आगमन हो गया है । सूयदेव अपनी किरणों की तूलिका से वीथि-वीथि में चित्र कारी कर रहे हैं ॥
शनि/रवि , ० ८ /०९ फरवरी, २ ० १ ४
ऐसेउ सखिन्हि संगु बाला । निरखत निज पुर होति निहाला ॥
जग्य कारज हेतु एक द्युते । जनक बिसँभरी जोतन जूते ॥
इस प्रकार मिथिला की बालाएँ सखियों के साथ अपनी पुरी का दर्शन कर निहाल होती ॥ फिर एक दिन यज्ञ कार्य हेतु राजा जनक पृथ्वी जोतने में संलग्न थे ॥
तेहि काल हर मग का देखे । एक कनि भव भइ गहनइ रेखे ॥
जो अति सोहन बर्धन रति सन । दरस जनक तिन भयउ मुदित मन ॥
उसी समय हल मार्ग पर की गहरी रेखा में क्या देखते हैं एक कन्या उत्पन्न हो गई । जो मायन प्रिया रति से भी बढ़कर सुन्दर थी । उसे देखकर राजा जनक मन प्रमुदित हो उठा ॥
भुवन मोहिनी सम्पद सोहा । नाउ धरे सिय करत अँकोहा ॥
बरध बयस तब भई बालिका । लाहित लाहत लवन लालि का ॥
उस भुवनमोहिनी शोभा से संपन्न अँकवार कर उन्होँने उस कन्या का नाम सीता रखा ॥ जब वह आयु वर्धन कर शिशु अवस्था से बाल्य अवस्था को प्राप्त हुई । उस दुलारी की लावण्यता भी वर्धित होती गई ॥
सिय एक बार सखिन्हि गहि बाहीं । केलि करत सन उपबन माहीं ॥
तबहि तिन्हहि चितहि एक ओरा । सुक पाँखी के सुन्दर जोरा ॥
वह परम सुन्दरी सीता एक बार अपनी सखियों की बांह ग्रहण किये उद्यान में उनके संग क्रीडारत थीं । तभी उन्हें एक ओर तोते का एक सुन्दर जोड़ा दिखाई दिया ॥
एक बल्लभ एक बल्लभा, दुहु उपबन मन मोहि ।
तरुबर सिखर बैसी कर, बोलत रहि जे दोहि ॥
उस जोड़े में एक प्रेयस एक प्रेयसी थी उपवन में दोनों बड़े मनोरम प्रतीत हो रहे थे । वे एक तरुवर के शिखर पर बैठ कर ये दोहे कह रहे थे : --
जे भूमि भबि बहु सुन्दर, राम नाम नृप होहिं ।
तिनके संगु महरानी, सीता मैया सोहिं ॥
इस पावन भूमि पर भवष्य में राम नाम के एक सुन्दर नृप होंगे । उनके साठ महारानी माता सीता सुशोभित होंगी ॥
होहि जगत बहुतक सिया राम चरन अनुरागि ॥
तिनके सरबर होंहि नहि , पर को तपसि त्यागि ।
संसार में श्रीराम चन्द्र एवं माता सीता के जैसे भक्त बहुंत से होंगे । किन्तु उनके सदृश्य तपस्वी एवं त्यागी कोई न होगा ॥
रघुबर कैरव कुल दीप, जनक सुता के कंत ।
बुध प्रबुध राजाधिराज, होहि बहुस बलबंत ।।
वह रघूत्तम कुल के कुमुद एवं कुल दीपक जनक कुआँरी श्री सीता के कान्त अत्रिधिक बुद्धिमान, बलशाली एवं राजाओं के भी अधिराज ॥
सोई सुन्दर सुक जुगल, मनु सम सबद उचार ।
हरियइ मधुरइ कहइ जे, होतब होवनहार ॥
वह सुन्दर तोते का युग्म मनुष्य के समान शब्दों का उच्चारण कर रहे थे । एवं धीरे से मधुर स्वर में कह रहे थे यह बात भविष्य में अवश्य ही होगी ॥
धन्य सो रमा धन्य सो राम , जे जग पालक होहि ।
एक दुजन संग पाए के , अवनि विराजत सोहि ॥
वह रमा धन्य धन्य है वे श्रीराम चन्द्र धन्य है जो ( एक दूसरे के संग ) इस जगत के पालनहार होंगे एवं एक दूसरे के संग प्राप्त कर इस पावन धरती को सुशोभित करेंगे ॥
सोमवार, १ ० फरवरी, २ ० १ ४
सुनत सिया बत करत सनेहा । लाखित ललकित लोचन तेहा ॥
चितबत होवत अचरज कारी । अधर करज धर मनस बिचारी ॥
सीता ने जब यह वार्तालाप सुना तब स्नेह करते हुवे उन पक्षी युगल को चाह भरे नयनों से देखने लगी ॥ और सतब्ध होते हुवे वह बहुंत ही विस्मय करते हुवे अधरों पर उँगली धरे मन में विचार करने लगी ॥
कहत कथा खग बहुस मनोहर । लिए मम नाउ को सो काहु कर ॥
तिन्हहि गह कहि बात बुझाहूँ । जो तुम्ह कहहु को सो नाहू ॥
ये खंजन तो बहुंत ही मनोहर कथा कह रहे हैं । किन्तु मेरा नाम ये किसके साथ एवं क्यों ले रह हैं । मैं इन्हें पकड़कर सारी बातें पूछती हूँ कि तुम जिसका वर्णन कर रहे हो वह राजन कौन है ॥
अस मति धर सखि सम्मुख होहहि । कही जे सुक केतक मन मोहहिं ॥
लानु गहत तिन जुगल बिहंगे । अलि कोउ जुगत कवन नियंगे ॥
ऐसा सोचते हुवे वह सखियों के सम्मुख होकर बोली उस शुक जोड़े को देखो वह कितना मनमोहक है ॥ हे सखि ! तुम कोई उपाय कर किसी प्रकार से उन पक्षियों को पकड़ लाओ ॥
सखिन्हि रोहित बिटप बिटंके । दोउ प्रनईन गह भुज अंके ॥
प्रनसित तिन्हन सित प्रनिधाने । ता पर तरसत दुःख मन माने ॥
सखियाँ फिर वृक्ष की शिखर-शाख पर चढ़ गईं । और उन दो प्रेमियों को अंकवार कर उन्हें चुंबित करते हुवे सीता को अर्पित किये । उनपर तरस करते हुव सीता के मन में संताप छा गया ॥
करि सलग पग करज ललक , जुतक जुतक ओहारि ।
पाँखि हहरु दर न धरु कह, अस तिनके भय हारि ॥
उसने उन युगल के चरणों को अपनी उँगलियों से संलग्न करते हुवे उनको आँचल से आच्छादित किया । हे हरे पंछियों भय न करो और ऐसा कहते हुवे उनके भय को हर लिया ।
मंगलवार, ११ फ़रवरी, २० १ ४
पखि को तुम अरु कँह सन आहू । नाम धरे कहु सो को नाहू ॥
जान भयउ कस तुम तिन राऊ । मोरि जिगियास तूर बुझाऊ ॥
हे पक्षियों तुम कौन हो ? और कहाँ से आए हो ? तुम जिसका नाम ले रहे हो वह राजन कौन है ? तुम उस राजन को कैसे जानते हो ? मेरी इस जिज्ञासा को तत्काल बुझाओ ॥
लाह सिया कर कोमलि परसे । दुहु खंजन मन अतिसय हरसे ॥
लोचन दरसन नेह फुहारे । हरियरि थरहरि हरहरि हर हारे ॥
माता सीता के हाथों का कोमल स्पर्श प्राप्त कर उन दोनों पक्षियों का ह्रदय अतिशय हर्षित हो उठा । माता के दृष्टि-दर्शन से स्नेह बरसने लगा । जिससे उन शुक युगल की कपकपी एवं उनकी थकान का हरण करने वाली थी ॥
पदम पोर जूँ पख सिरु रोले । हरि अरि हरि हरि रररत बोले ॥
चोँच रवन धर कहत बालिके । हम दुहु सेबक बाल्मीकि के ॥
माता के पद्म पत्र जैसे पोर उन खँडरिच के पंख एवं सिर को इस प्रकार गुदगुदा रहे थे । वे शुक पक्षी हरिहरि हरि हरि री ह रिह रिह री का उच्चराण करते हुवे हरि रटने लगे ॥ और चोंच में शब्द धारण कर कहने लगे हे बालिके ! हम दोनों वाल्मीकि के सेवक हैं ॥
नाउ महा रिषि अग जग जाने । धरमात्मन तिन्ह बर माने ॥
सघन बन एक नीक निकाई । हम दुहु पखि तिनके सरनाई ॥
इन महर्षि का नाम समस्त संसार में प्रसिद्ध है । धर्मात्मा जन उन्हें अपना श्रेष्ठ मानते हैं । सघन विपिन में एक सुन्दर आश्रम है । वहाँ हम दोनों पक्षी वहाँ के शरणार्थी हैं ।।
भजनानंद भगती मन, भाव प्रबन श्री राम ।
महा रिषि एक गाथ रचे, श्री रामायन नाम ॥
ईश्वर को स्मरण करने का आनंद सेवा , आराधना, श्रद्धा, एवं अंत्यानुराग से ओतप्रोत भगवान श्री राम की प्रेम में प्रवृत्त श्री रामायण नाम का एक महाकाव्य ग्रन्थ है, जिसकी रचना महर्षि वाल्मिकी जी ने की है ॥
बुधवार, १२ फ़रवरी, २ ० १ ४
बनउन प्रिय बन के जन जन को । वाके बरनन भावै मन को ॥
बरन बरन प्रभु सुजस बखाने । पढ़त सुनत भए मगन ग्यानी ॥
वह रचना प्रत्येक विपिन गोचर को प्रिय हैं कारण कि उसका वर्णन मन को बहुंत ही भाता है । उस रचना के वर्ण वर्ण चिदानन्दघन स्वरुप ईश्वर के सुयश का समाख्यान करते हैं । ज्ञानी जन उसे लगनपूर्वक पढते एवं सुनते हैं ॥
प्रभु अवतरित किन्ह जस लीला । सस सम सीतल बहु सुख सीला ॥
बटुक कि बनगोचर कि बनराए । महा रिषि सबहहि पाठ कराएँ ॥
उस ग्रन्थ में प्रभु ने अवतरित होकर जिस प्रकार की लीलाएं की वह शशि के समान शीतल एवं बहुंत ही सुख दायक हैं ॥ क्या बटुक क्या वन गोचर क्या द्रुमदल महर्षि वाल्मीकि उस ग्रन्थ का पाठ सभी जनों को करवाते हैं ॥
नदि नद नदीन नंदत नादें ॥ ब्रह्मादि देव नाहु अराधे ॥
प्रति दिबा रिषिहि जगत प्रानि जन । कल्यान करन हित संलगन ॥
उसमें छोटी बड़ी नदियां सागर आनद में निमग्न होकर सुन्दर नाद करती हैं ब्रह्मादि देव राजा की आराधना करते हैं ॥ जगत के प्राणि जन के कल्याणार्थ एवं उनके निमित्त हित हेतु महर्षि प्रतिदिवस : --
पद पद के बहु चिंतन कारें । रामा निर्मल चरित्र बिचारें ॥
रमा रमन के रहस अनेका । गाथ गीत गुँथ बिमल बिबेका ॥
उस रचना के पद्यों का चिंतन करते हैं एवं श्रीराम के निर्मल चरित्र का मंथन करते हैं ॥ उस गाथा कि गीतमाला में निर्मल ज्ञान गुथा है जो उन रमारमन के अनेको रहस्य ग्रहण किये है ॥
सूक्ति सूक्ति आखर मनि, सूतित चारित सूत ।
बरधे भगती भावना, जोई कंठ सँजूत ॥
उसकी सूक्तियां सीपियाँ है एवं अक्षर मुक्ता स्वरुप हैं, उसमें भगवान क सुन्दर चरित्र एकसूत्र में पिरोया गया है ॥। जो उसे अपने कंठ में अलंकृत करता है उसकी भक्ति-भावना में अतिशय वर्द्धित होती है ॥
गुरूवार, १३ फ़रवरी, २ ० १ ४
जो तुम बरनहु सत अहहि एहा । पूछेसि सिया करत सनेहा ॥
हाँ हाँ कहत सुअटा उछाहीं । हमरहि कहनी फूरी नाहीं ॥
फिर माता सीता ने स्नेह करते हुवे पूछा, जो तुम वर्णन कर रहे हो क्या वह सत्य है, तब शुक पक्षी उत्साहित होकर कहने लगे हाँ हाँ वह सत्य ही है, हमारी कहनी असत्य नहीं है ॥
गाथ गगन अरु पात बिहंगे । पौ सम पावन कथा प्रसंगे ॥
भरए अभरन बहुतक रंगे । बरन बीथि बिहरत एक संगे ॥
वह गाथा गगन के सदृश्य है एवं उसके पत्र-पत्र गगनचर के सदृश्य हैं । और वे पत्र के पाँखी बहुंत से अलंकरण आभरित कर बहुंत सी अनुभूतियाँ प्राप्त किये वे शब्द रूपी वीथिका में एक साथ विचरण करते हैं ॥
किए कबिबर एक नाम निरूपन । रघु कैरब श्री राम निरूपन ॥
तपत तपन जग श्राम निरूपन । सुघर सीतर बिश्राम निरूपन ॥
उन श्रेष्ठ कवि महोदय ने एक नाम का निरूपण किया है । जो रघु कुल के कुमुद सवरूप श्री रामचंद्र जी हैं । दुखों के ताप से व्याकुल इस जगत हेतु एक श्राम का निरूपण कर एक सुन्दर शीतल विश्राम का निरूपण किया है ॥
उद्दंडी हुँति दण्ड बिधाने । असमर्थ छमा दीन दयाने ॥
प्रानि प्रानि पर करुन दृष्टि कर । सम जम नियम ग्यान हेतु नर ॥
उसमें उद्दण्डियों हेतु दंड का प्रावधान किया गया है । असमर्थ हेतु क्षमा एवं दुर्दशाग्रस्त हेतु दया का प्रावधान है । प्राणि मात्र पर करुणा दृष्टि कर मनुष्य हेतु सैम अर्थात मन का नियंत्रण, यम ( सत्य,अहिंसा,अस्तेय,ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह) तथा नियम (
शौच,संतोष,तप,स्वाध्याय,एवं ईश्वर प्राणिधान ) का प्रावधान किया है ॥
वाके गाइन बन जब गूंजे । श्रवनत प्रफुरित भयउ निकुंजे ।।
पुंज पुहुप सन सरन सुगंधे । पुनि पुनि कह निर्झर निरबंधे ॥
उस कथा के गायन जब वन में गुंजयमान होता है तब वह उसे सुनकर प्रस्फुरित हो उठता है एवं सुन्दर वाटिका में परिणित हो जाता है ॥
बहुस सुभकर अति सुन्दर , बृहद कलेबर कार ।
रचइता रचना रचकर, कृत कृत किए संसार ॥
वह रचना बहुंत ही सुन्दर, बहुंत ही कल्याणकारी एवं वृहदाकार है रचयिता ने उसे रचकर समस्त संसार को कृतार्थ ही कर दिया ॥
शुक्रवार, १४ फ़रवरी, २ ० १ ४
हमहु पाठ श्रुत सुमिरन कारें । करत अभ्यास बारहि बारें ॥
पुनीजन के आत्म कहानी । को राम को राम की जानी ।।
वारंवार अभ्यास करने से हमें भू उस कथा के पाठों का स्मरण हो गया है ॥ उन पुण्यात्माओं की इस आत्मकथा में श्री राम कौन है एवं श्री राम की अर्द्धांगिनी कौन हैं ॥
करि कौतुकी राम के संगा । सोई सिय सनजोग प्रसंगा ॥
किमि दसा दिसा भव को देसे । कहत अजहुँ हम सो संदेसे ॥
श्री राम चन्द्र की लीलाओं में संलग्न उसी सीता के संयोग प्रसंग कि वे किन परिस्थितियों में किस दिशा में एवं कौन से देश में उत्पन्न हुवे । वह सन्देश अब हम तुम्हारे सामने प्रस्तुत करते हैं ॥
श्रवनहु तुम्हहु देइ धिआनए । रिषय शृंग जिनन्हि जग मानए ॥
तिन मह रिषि के कमल कर हुँते । जातेष्टि नाम मख आहुते ॥
अब तुम भी इसे ध्यानपूर्वक सुनना । ऋष्य शृंग जिन्हें समस्त संसार मानता है उन महर्षि के पदमहस्त से जातेष्टि नामक यज्ञ का आयोजन हुवा ॥
मख के भयौ ऐसेउ प्रभावा । दसरथ हरि रुप जन्मन पावा ॥
अस त्रिभ्रात सन दीन दयाला । प्रगसे भू बन दसरथ लाला ॥
उस यज्ञ का ऐसा प्रभाव हुवा कि दशरथ को भगवान विष्णु संतान स्वरुप में प्राप्त हुवे ॥ इस प्रकार और तीन भ्राताओं के साथ दीनों पर दया करने वाले प्रभु भूमि पर दशरथ के जात स्वरुप में प्रगट हुवे ॥
सिया तईं सुअ कथने सोई । जो जस जित जँह सिय जनि होई ॥
बहुरि बहुरि सुअ कहत पुकारे । महर्षि कहि जे होवनहारे ॥
माता सीता के सम्बन्ध में शुक जोड़ा ने वही सब कहा जो, जैसे, जिस दिशा में एवं जहाँ सीता का जन्म हुवा था ॥ वे शुक पक्षी वारंवार यह कहते नहीं थकते कि हमारे महर्षि ने कहा है यह कथा काल्पनिक नहीं है यह भविष्य में होने वाली है ॥
नारद सारद सेष श्रुति, सुर संकर सन इंद्र ।
बरनिहि सादर कथा बर, मुनि सन सकल कबिन्द्र ॥
देवर्षि नारद, मान शारदा, अहिराज शेष, चातुर्य वेद, सकल देव, भगवान शंकर सहित देवराज इंद्र आदि एवं मुनिगण सहित सभी श्रेष्ठ कविगण भविष्य में उनकी पावन एवं उत्तम कथा का गान करेंगे ॥
शनिवार, १५ फरवरी, २०१४
सोहत संगत भाइन्हि बंधु । सारँग नाम धनुर धर कंधु ॥
श्री रामरमन नयन अरबिंदु । संग महारिषि गाधि कुल चंदु ॥
भाई बांधवों के संगत में सुशोभित होते । शार्ङ्ग नामक धनुष कंधे पर धारण किये । जिनके नयन कमल के सदृश्य होंगे वह श्रीरामरमन, गाधि कुल के चंद्रमा स्वरुप महर्षि विश्वामित्र के साथ : --
मिथिला नगरी निज पद चीन्हि । खल बन कन कण पावन कीन्हि ॥
मिथिला नृप निज धिआ बिहाहीं । धनुर भंजन के पन धराहीं ॥
मिथिला नगरी में अपने चरण उद्धरित करेंगे । एवं उसकी भूमि- वैन के कण कण को पावन करेंगे ॥ भगवान शिव जी के धनुष का विभंजन पण्य अवधारित कर मिथिलेश अपनी कन्याओं का विवाह आयोजित करेंगे ॥
जोइ महदेउ चाप प्रभंगहि । करहीं लग्ने तिनके संगहि ॥
हारी जाहि सकल महिपाला । अरु लाजत रहि जब नत भाला ॥
जो कोई महादेव के कोदंड को खंडित करेगा, राजन अपनी कन्या का विवाह उन्हीं के साथ करेंगे ॥ जब समस्त भूमिपाल हार मान लेंगे । और अज्ज्वश अपने मस्तक झूला लेवेंगे ॥
जिन्ह बरन दुज भै कठिनाही । तिन्ह धनुर श्रीराम उठाहीं ॥
तड़ कर तोरहि एकै तड़ाका । प्रहरहि तिनके बिजइ पताका ॥
तब जिस कठोर धनुष को धारण करने में भी कठिनाई होती है उसी धनुष को भगवान श्री राम उठावेंगे ॥ उसे ताड़ कर एक ही तड़ाके में तोड़ देंगे । इस प्रकार सभी राजाओं की हार के समक्ष उनका विजय पताका प्रहरित होगा ॥
जब सिव कोदंडा होहि दुखंडा रवहि त मही दोलही ।
सेष बाराही कलमलाही देउ दनु दृग लोलही ॥
उदरथि रथ बाहन, छाँड़त किरनन, हअ निज पथ बिसर जहीं ।
नीलोत्पल बदन, वृंदा वादन, एक लय जय जय कहहीं ।।
जब शिव जी का वह कठिन कोदंड दो खंड होगा तब वह ऐसी ध्वनी करेगा कि जिससे यह धरती डोल उठेगी । भगवान शेष, वाराह आदि व्यथित हो उठेंगे डिवॉन एवं दनुजों के लोचन अशांत हो जाएंगे । सूर्य देव के रथ वाहिनी कि किरणों को त्याग कर उसके सप्ताश्व अपने पथ से विभ्रमित हो जाएंगे ।उन नीलोत्प वदन का सामूहिक स्वरुप में वाद्यों द्वारा एक लय में जय जय कार करंगे ॥
सौंरइ सौंरइ सौंर घन, राम सरिस सर सिंधु ।
धुनीहि धनकन बल पवन, बाहु धनुर घन बिंदु ।।
साँवरे सुन्दर घनश्याम स्वरुपी श्री राम सिंधु के जल सरिस होंगे । मेघ सदृश्य बाहु में धनुष जल बूंद के सदृश्य होगा ॥ उसकी विभंजन ध्वनि मेघ गरजना के सदृश्य होगी, बल वायु सरिस होगा ।।
रविवार, १६ फ़रवरी, २ ० १ ४
जनक जानकी रूप मनोहरि । जय माल जगत पाल भाल करि ॥
रघु कैरव तब बरही सीता । सोहहि सन आपन परिनीता ॥
मनोहारी स्वरूपा जनक पुत्री जानकी जब जय माल जगत के पालनहार के कंठ को अलंकृत करेंगी तब रघु कैरव श्री राम चन्द्र जी माता सीता को वरण करंगे । एवं अपनी परिणीता के संग सुशोभित होंगे ॥
बहोरि राम मात के संगा । राजहि अवध सुदेस अभंगा ॥
रे कनि तिन सों बहुतक बचना । तहाँ बसत हम सुनि निज करना ॥
फिर भगवान श्री राम माता का सुप्रसंग प्राप्त कर अवध नामक एक सुन्दर अखंडित दश पर राज्य करेंगे ॥ अरी कन्या उस तपोवन में वास कर हमने इसके जैसे और न जाने कितने ही वक्तव्य अपने श्रुति साधन से सुने एवं स्मरण किये ॥
बोले पुनि सुक हे री कनिआ । कहे तव सोंह सबहि कहनियाँ ॥
ललनी तुम बहु अपनपौ दाए । अजहुँ कृपा कर मुकुती प्रदाएँ ॥ वे शुक पक्षी पुन: बोले हे री बालिके । हमने तुम्हारे सम्मुख सारी कहानियाँ कह दी । अरी लाडो तुमने हमें बहुंत ही अपनत्व दिया । अब कृपा कर हमें मुक्ति भी प्रदान करो ॥
निबंधन तनिक सिथिरित कारौ । दया करत हमही परिहारौ ॥
जहाँ मह रिषि तपोबन आहीं । हम प्रनइन उहि गवनन चाहीं ॥
इस आबंधन को थोड़ा शिथिल करो और दया करते हुवे हमें मोचन दो ॥ जहां महर्षि वाल्मीकि का तपोवन है हम दोनों प्रणयिन उसी वन में जाना चाहतें हैं॥
श्रुति प्रसादन सोत बचन, रंजन सिय सुख कार ।
गदन किए अस भाव प्रबन, कि भूर गइ परिहार॥
श्रुतिमधुर उस गुणानुवाद ने सीता को आनंदित करते हुवे उनके कानों को तृप्त कर दिया । और संवादों ने उन्हें इस प्रकार भावुक किया कि वह उन शुक युगल की मुक्ति उनके चित से विस्मृत हो गई ॥
सोमवार, १७ फरवरी, २०१४
सुअटे कहनिहि कहि कहि झूझै । बैदेही फिरी फिरी पूछै ।।
कहु त बहुरि नाहु नीक नामा । सुअ रररत कहि रामा रामा।।
तोते की कहानियाँ कह कह के रिक्त हो गई । किन्तु बालिका वैदेही पूछते ही जा रही थीं ॥ अच्छा ! राजा के उस सुन्दर से नाम को फिर से तो कहो । तब तोते के जोड़े ने रटते हुवे कहा अय्यो रामा रामा ॥
होहि नाहु कँह अरु सुत किनके । होहि को महतारीहि तिनके ॥
सोभहि कस भर दुल्हा भेसा । कहुरी बहुरी एहि लौ लेसा ॥
और यह बताओं वह राजा कहाँ होंगे एवं वह किसके पुत्र होंगे । उनकी माता कौन होंगी ॥ वे दुल्हे के वेश में किस प्रकार से सुशोभित होंगे । रे तोतों इस संवाद को फिर से कहो ॥
मनुजावतार सोहहि कैसे । बिभो श्री बिग्रह होहहि कैसे ॥
अस सुनि सुअ मन संसै लाहीं । ए ललन्हि त पूछतहि जाहीं ॥
मानवतार में किस प्रकार शोभायमान होंगे । प्रभु की वैभवपूर्ण वपुरधर का स्वरुप कैसा होगा ॥ वैदेही की इस प्रकार पूछ बुझाई से तोतों के मन संसय को प्राप्त हो गया । (उन्होंने सोचा ) यह बालिका तो प्रश्न ही किये जा रही है ॥
जाकी भाउना रही जइसी। प्रभु मूरत दरसत तिन तइसी ।।
कह गए कबिबर तुलसी दासा । कहत सुआ परिहरु के आसा ॥
( और कहा) जिसकी भावना जैसी होती है प्रभु उन्हें उसी सवरूप में दर्शन देते हैं ।। यह कब्बर तुलसी दास जी कह कर गए हैं । मुक्ति की आशा में फिर उन शुक पक्षियों ने इस प्रकार उत्तर दिया ॥
सिया ऐसेउ पूछ करत, तिन सुअ लिए परखान ।
बिनइत नत मस्तक होत, किए अस अस्तुति गान ॥
और सीता के ऐसे प्रश्न करने से उन्होंने जान लिया कि यही जनक पुत्री माता सीता हैं ॥ एफिर विनयपूर्वक नट मस्तक होकर प्रभु श्रीरामचंद्र की इस प्रकार स्तुति गान किए ॥
रागि संग सुर सुअ संग, कल नाद किये गूँज ।
जेसे मधुर मधुकर सुर , मञ्जुल मन्जरि कूँज ॥
तोते के जोड़ों की उस स्तुति गान के संग सुहावने राग एवं ध्वनि ऐसे गूंजायमान हो गईं । सुन्दर मंजरियों पर जैसे कुञ्ज में भ्रमर मधुर स्वर में मुखरित हो ॥
मंग /बुध १८/१९ फ़रवरी, २ ० १ ४
वदनारविन्दम्, वचनारविन्दम् । रसनारविन्दम् अधरारविन्दम् ॥
कर्णारविन्दम् पूरारविन्दम् । वसुधाधिपते सकल सुकमलम् ॥
जिनका श्री मुख अरविन्द के सदृश्य है । उस श्रीमुख के श्री वचन भी अरविन्द सदृश्य हैं । उस श्रीमुख कि जिह्वा भी अरविन्द सरिश्य है एवं श्रीधर भी अरविन्द सदृश्य हैं । जिनके श्रीकर्ण अरविन्द सदृश्य हैं उस श्रीं कर्ण के फूल भी अरविन्द सदृश्य हैं वे वसुधाधिपति सर्वस्व सुन्दर पद्म के सदृश्य हैं ॥
कनकार्विंदं कणिकार्विंदं । हंसार्विंदं मुक्तार्विंदे ।
गुंजार्विंद: पुंजार्विंद । वसुधाधिपते मेखल वलितं ॥
जिसका स्वर्ण अरविन्द के सदृश्य है स्वर्ण कण अरविन्द के सदृश्य है रजत अरविन्द के सदृश्य है रजत युक्त मुक्तिक अरविन्द के सदृश्य है मोतियों का समूह अरविन्द समूह के सदृश्य है और मुक्ता राशि भी अरविन्द की ही राशि हैं । उन वसुधाधिपति कि करधनी ऐसे आभूषण से युक्त है ॥
पयसार्विंदे मधुरारविन्दे । रसिकार्विंदे रसितार्विंदे ।
उदरार्विंदे भँवरार्विंदं। वसुधाधिपते वाल सरूपम् ॥
जिसका पीयूष पुण्डरीक के सदृश्य है,, जो अरविन्द के सदृश्य ही मधुर है , जिसकी जिह्वा राजीव के सदृश्य हैं और पीयूष की टपकती बूंदे जलज के सदृश्य हैं, जिनका उदार भी अरविन्द के सदृश्य है उदर का भंवर अर्थात नाभि भी अरविन्द क सदृश्य है उन वसुधाधिपति का यह बाल स्वरुप है ॥
नासारविन्दम्, नयनारविन्दम् । पलकारविन्दम् अलकारविन्दम् ॥
रूपारविन्दम लवणारविन्दे । वसुधाधिपते पुष्कल पुष्यम् ॥
जिनकी नासिका अरविन्द सरिस है ,नयन अरविन्द सरिस है , नयनं का पलक अरविन्द सरिस है, पलकों कि अलक अरविन्द सरिस है । पुष्प क सरिस शोभित हों वाले उन वसुधाधिपति का रूप-लावण्य अरविन्द सरिस है ॥
वेषारविन्दे भूषारविन्दे । वसितारविन्दे लसितारविन्दे ॥
वरदारविन्दे वरणारविन्दे । वसुधाधिपते अमल अनूपम् ॥
जिनका वेष अरविन्द सरिस है जिनकी भूषा अरविन्द सरिस है उसका सम्मोहन अरविंद सरिस है उसका आकर्षण अरविन्द सरिस है उन अमल अंजिसकी उपमा नहीं की जा सकती ऐसे वसुधाधिपति का वरण अरविन्द सरिस है ॥
केशारविन्दम, रचनारविन्दम् । जूटारविन्दम् अजिनारविन्दम ॥
वासारविन्दम् वसनारविन्दम् । वसुधाधिपते जूटल रूपं ।
जिनके केश अरविन्द सरिस हैं, केशरचना अरविन्द सरिस है । जिनकी जटा अरविन्द सरिस है वल्कल अरविन्द सरिस है ॥ वास स्थान रविंद सरिस है वास स्थान का आच्छादन अरविन्द सरिस है वसुधाधिपति का यह तपस्वी स्वरुप है ॥
भालारविन्दम लवणारविन्दम् । तिलकारविन्दम तेजोरविन्दम् ।
लक्षणारविन्दम लग्नारविन्दम्र्दं । वसुधाधिपते विमल स्वरूपं ॥
जिनका ललाट अरविन्द सरिस है, उसका लावण्य अरविन्द सरिस है । तिलक अरविन्द सरिस है तिलक का तेज अरविन्द सरिस है ॥ तिलक चिन्ह अरविन्द सरिस है उस चिन्ह पर आसक्ति अरविन्द सरिस है वसुधाधिपति का यह विमल एवं अनुपम अधिपति स्वरुप है ॥
श्रमणारविन्दे श्रवसारविन्दे । हरिद्राविन्दे रागारविन्दे ॥
श्रीशारविन्दे श्रीलारविन्दे । वसुधाधिपते श्रियं सुशीलं ॥
वह श्री सुंदरा अरविन्द सरिस है उसकी स्तुति अरविन्द सरिस है । जो हरिद्रा सरिस स्थायी हो गया वह अनुराग अरविन्द सरिस है जिसकी शोभा की युक्ति अरविन्द सरिस है, वह अरविन्द सरिस वसुधा स्वरुप लक्ष्मीपति भगवान विष्णु अभ्युदय स्वरुप शीलवान हैं ॥
गीतार्विन्दं अयनार्विन्दं /गीरार्विन्दे वंशार्विन्दे ॥
छंदार्विन्दं बंधार्विंदे । विरदावली वयुनकल वृन्दं ।।
जिसके गीत श्रीपुष्प के समान हैं, वीणादि साधन सहस्त्रार के सदृश्य हैं और वाणी कुशेशय के सदृश्य है बाँसुरी इंदिवर के समान है ॥जिसके छंद पद्म के सदृश्य है, उसका बंध पुष्कर के सदृश्य हैं, गुण कीर्तन कि पंक्तियाँ सुहावनी रीति से वृंद गान में आबद्ध हैं ॥
अस श्रित श्रिया श्रीधर के अंक अंक पत्र वृंद ।
त्रिभुवन भूप अनूप के रूप सरुप अरविन्द ॥
इस प्रकार श्री द्वारा सेवित श्रीधर के अंग अंग पत्र-समूह हैं । तीन लोक अर्थात स्वर्ग, मर्त्य एवं पाताल के उपमारहित स्वामी का रूप स्वरुप अरविंद के सदृश्य है ॥
आनंद कंदम राम चंद्रम् । तपोवनयनम् दनुपत् विजितम् ॥
चित्तादित्यम किशोराङ्गं । वसुधाधिपति श्यामल वरणम् ॥
आनंद के मूल स्वरुप श्री राम चन्द्र जिन्होंने उत्तर से दक्षिण की ओर गति कर दनुज पति लंकाधीश रावण पर विजय प्राप्त की । जो चित्त के आदित्य स्वरुप हैं वह वसुधा के अधिपति श्यामल वर्ण से शोभित हैं ॥
श्री रमणाय कलिकाय् कमनम् । रूपाय स्वरूपाय कमलं ॥
पद्म पत्र सम प्रफुल्लित नयनम् । पुष्कर वदनम् जलज पुष्कलम् ॥
उन श्री के रमण जिनका रूप स्वरूप कमल की सुन्दरकलिका के सदृश्य है । वह श्रीहरि पदम् के पत्र सरिस उन्के लोचन सरसता से युक्त हैं ॥ एवं जिनका मुख सरोवर के सदृश्य जल की कांति से भरपूर है ॥
रज रजंबुजा पदारविन्दम् । नल कीलं नालिक नलिनम्
ऊरु कटिका कोमलधाराम । उर्जस्वल ऊर्ध्व देवं ॥
नासिक नग शिख सम मनोहरम् । कलित काल कोदंडी कुटिलम् ॥
भाल परस्पर सुसंयोगिते । योग संयोग परम भासिते ॥
लंब प्रलंबित बाहु विशालं । पट प्रस्तारित हृदयम् भवनम् ॥
कंठ शंख सरिवर सुशोभितम् । वैदेही सह बाहु वलयितम् ॥
श्रीयं श्रीलं श्री वर्द्धनम् । सम्प्रसाधन शुभा सम्पनम ।।
रज रज जलजा रजसाम्बुजम् । सेचावसिक्तम् पदाम्भसम् ॥
रज रज नीरजा रजाम्बिकम् । अम्भसांगुलि पादालिन्दम् ॥
हस्त कर्णिका धारिण स्वयं । उद्धारोद्धुर नमस्तुभ्यम् ॥
सहसै बदन नयन चरन, तिन तैं कँह को रीत ।
जोइ गुन निधान सरूप, सोइ बरननातीत ॥
बृहस्पतिवार, २० फ़रवरी, २ ० १ ४
हम तिन तुहिन प्रनइन बिहंगे । लघु मुख बरनइ प्रभुत प्रसंगे ॥
जगनमई जग श्रिया सरूपा । पदमन बासा परमम् रूपा ॥
हम दो प्रेमी पक्षी तो अनक तृण तुल्य हैं । लघु मुख से गौरवमय प्रसंग का वर्णन कर रहे हैं । अर्थात हम इस कथा को वर्णन करने के योग्य नहीं हैं तथापि तुम्हारे निवेदन से वर्णन कर रहे हैं ॥ परम सुन्दर रूप धारण करने वाली, पद्म निवासा, जगत की कल्याण स्वरूपा, जगन्मयी : --
सोइ देइ धन लावन लाखी । मोहित भइ लख जिनकी झाँखी ॥
बिसंभरी मह अहहिं को तिया । दरसत प्रभु जो हारे न हिया ॥
धन की देवी,लावण्य श्री लक्ष्मी हैं वे भी उन जिनकी झाँकी क दर्शन कर मोहित हो गईं ॥ फिर पृथ्वी कि ऐसी कौन सी स्त्री है जो उनके दर्शन कर सम्मोहित न हो और अपना ह्रदय न हार जावे ॥
प्रभुबन लहि बल बिक्रम महाना । अहि जगमोहन रूप निधाना ॥
श्री पति पुर बैकुंठ निवासी । दोष रहित सब गुण के रासी ।।
प्रभु की शक्ति और श्रीविक्रम महान हैं । प्रभु के रूप का भंडार ही ऐसा है जो समस्त संसार को मोहित कर दे । वे श्री के प्राणाधार वैकुण्ठ पूरी के निवासी दोषों से रहित एवं गुण राशि से युक्त हैं ॥
जो हम लेइ सौ जन्माई । तिनके बरनन बरनि न जाई ॥
जनक तनुजा भई बड़ भागी । राम जानि बन भई सुहागी ॥
यदि हम सौ जन्म भी लें तब भी उन प्रभु की प्रभुता का वर्णन पूर्ण न कर पाएं ॥ जनक की सुपुत्री माता सीता अत्यंत भाग्य शाली हैं जो भगवान शर राम कि जीवन संगिनी बन सुहाग को प्राप्त हुई ॥
जिन सुभाग प्रभु अनुराग, जो जगनमई मात ॥
पात सबके पुनासीस, होहि अखन अहिबात ॥
प्रभु जी का अनुराग जिनके सौभाग्य हुवा जो जगत को जगमगाने वाली माता हैं । वे सभी सुर मुनि जनों का शुभाशीष प्राप्त कर अखंड सुहाग को प्राप्त होंगी ॥
शुक्रवार, २१ फ़रवरी, २ ० १ ४
जदपि सुअटा संसै रहि नाहि । कि एही सुकनिआ सिया अहाहि ॥
तथापि चित संका निबराने । जान बूझ तिन पूछ बुझाने ॥
यद्यपि सुग्गों के मन में संसय नहीं था कि यह सुकन्या ही माता सीता हैं । तथापि चित की शंका के निवारण हेतु सब जानते एवं बूझते हुव भी उस कन्या से पूछे : --
कहनि प्रभु अस जान ललिहाऊ। को तुम्ह अहसि का तव नाऊ ।।
हेत करत ऐतक अतुराई । श्रुति लै मगन कहन रघुराई ॥
प्रभु के समाख्यान को भन्न लेने हेतु तुम इस भांति लालायित हो । यह कहो तुम कौन हो एवं तुम्हारा शुभ नाम क्या है ॥ जो तुम इतनी आतुरता एवं स्नेह प्रदर्शित कर प्रभु की कथा ऐसे लय मग्न हो कर श्रवण कर रही हो ॥
सुक खंजन के बचन करन धर । बाल बदन सिय हरिन नयन कर ॥
आप जनम की कही कहानी । ललित मनोहर मधुरित बानी ॥
सुग्गी खंजनों के ऐसे वचन श्रवण कर बालक मुखी सीता ने नयनों को कातर किये फिर सुन्दर,मनोहारी एवं मधुरित वाणी से अपने जन्म की कहानी का वर्णन किया ॥
जो तुम कहनिहि जिन्ह जानकिहि । कारत कीर्ति गान गुन कहिहि ।।
परम सुभागी सो मम नाऊ । एहि कर कहनिहि मोहि लुभाऊ ॥
और अपनी कथा में तुम जिस जानकी का वर्णन कर रहे हो गान स्वरुप में जिसके गुण राशि का यश गान कर रहे हो ॥ वह परम सौभाग्य शील नाम सीता मेरा ही है इस कारण वश यह प्रभु कि यह कथा मुझे लुभा रही है ॥
जोइ राऊ मोर मन लोभा । नीक नभस जस जिनकी सोभा ॥
नखत नाथ निचइन निभ नामी । तिनके दरसन चितबन कामी ॥
कथा में जो राजा जिन हेतु मेरा ह्रदय लोभित है जिनका शोभा सुन्दर नभस के सरिस है । जिनका शुभ नाम चकासित चंद्रमा से युक्त है । उनके दर्शन हेतु मेरा चितवन लालायित है ॥
बाल मनस बाल चेतस अस जस को सस बाल ।
बालपन रहि बाल बयस सिया के तेहि काल ॥
जैसे कोई उगता हुवा चंद्रमा हो उस समय अनबुझ सीता की अबोध मस्तिष्क, अबोध चेतना के सह कुछ ऐसी ही अबोध अवस्था थी ॥
शनिवार, २२फरवरी, २०१४
बाल सिया हुँत सुआ सलौने । कल कौतूहल केलि किलौने ॥
पेस पुहुप पेसल पल पाँखी । कबहु करज कबहुक धरि काँखी ॥
बालिका सीता के लिए वे सुन्दर शुक पक्षी कल कौतुहल का विषय होकर खेल खिलौने ही थे । उनकी कोमल पंखाकृति पुष्प पत्र के पटतर थी जिन्हें वह कभी अपनी छूती छूती उँगलियों पर तो कभी पार्श्व में धारण कर लेती ॥
लता कुंज जँह तरुघन छादन । बोलि रहिहु तुम अजहुँ मोर सन ॥
सुख आसन लए रस मन भावन । हेलि बेलि सँजुग बिहरत गगन ॥
फिर सीता बोली जो लताओं स घिरा हुवा स्थान है एवं जहाँ अल्को की घनी छाया है अब से तुम मेरे साथ उसी स्थान पर रहना ॥ उस सुखद आसान पर मन कू भाने वाले स्वाद ग्रहण करना । संगी-साथियों को पुकार कर उनके साथ गगन में विहार करना ॥
सिया बचन जस आयसु दाई । सुनत खँडरिजि कंठ जी आई ॥
बोली हहरत हे रे कनिआँ । बालक बिभु मुख लघुबर रनियाँ ॥
बालिका सीता के अयम् वचणाम आदेश सदृश्यम् । जिसे सुग्गी ने जब सूना तो जैसे उसकी जान पर बन आई ॥ वह भयभीत होकर बोली अरी कन्या । बाल्य शशि वदना छुटुकी प्यारी रौतनियाँ ॥
कृष तन तरु बन कानन चारी । हम गगन बिहारिन अनागारी ॥
प्रसर प्रयानक पौनवरोही । का तव आसन सुखकर होहीं ॥
हम कृशकाय वृक्ष अटवि कानन में ही विचरण करते हैं ॥ हम गगन में विहार करने वाले भ्रमण कारी संन्यासी हैं । गति संग गमन करने वाले पवन के अवरोही को क्या तुम्हारा वह सुखद आसन सुख कारी होगा ॥
प्रवन प्रसांतातम सन सुग्गी सुघर सयानि ।
सों सिया सीस प्रनमन, बोली बिनइत बानि ॥
रविवार, २३ फरवरी, २ ० १ ४
एहि काल कनी मैं गरभ गही । हे जाता महि तव चरन पही ॥
कोमलि कलि अस रगर न धारौ । करुना करत हमहि परिहारौ ॥
हे कन्या इस समय मैं गर्भवती हूँ हे धराधि ! मैं तुम्हारे चरण पकड़ती हूँ अरी काली के समान कोमली कन्या तुम इस प्रकार हठ न रोपो । करुणा करते हुवे हमें छोड़ दो ॥
साँचि मनस निकपट छल हीना । दीन हीन अवमोचन दीना ॥
सुअन बहुरन ररन ररिहाही । गहि बदन रवन सिय नननाही ॥
हे सत्य मानस निष्कपट छलहीन कन्या हीनता से ग्रस्त व्यथित जनों को मोचित कर देते हैं ॥ इस प्रकार शुक पक्षी रह रह कर सीता के सम्मुख गिड़गिड़ाते हुवे याचना करते । किन्तु सीता का श्रीमुख एक ही शब्द एक ही ध्वनि ग्रहण किय हुवे था वह था न नहीं ॥
कह सुअ प्रभु भवि अर्ध अंगनि । अहहि गर्भिनी मोरि संगिनी ॥
अभिराम नयनी री सोभिना । तासु हरन ऐसेउ लोभिना ॥
फिर नर तोते ने कहा हे प्रभुश्रीराम चन्द्र की भावी अर्द्धांगिनी यह मेरी संगिनी गर्भवती है ॥ ह अभिराम नयनी अरी शोभना उसे हरण करने हेतु ऐसे मत लालायित होओ ॥
जननी जनमन जब जनमाही । तुहरहि गह कानन बहुराही ॥
मम बनीहु सीतल सुखदाई । कहि सिय तँह बहु जन जन्माई ॥
जब यह अपने जातक को जन्म दे देवेगी । तब तुम्हारे गृह -कानन में लौट आएगी ( अत: अभी तुम उसे छोड़ दो ) किन्तु सीता न कहा मेरी वाटिका भी तो सीता है एवं सुखदाई है । वहाँ न जाने कितनी जातक जन्में हैं ॥
यहु सुन सुअटा जोट के, अंतर तम दुःख मान ।
कुचित तन अवसादित मन, आकुल भै सकसान ॥
यह सुनकर तोते के उस सुन्दर जोड़े का अंतरतम दुखित हो उठा । वे संकुचित तन एवं शिथिल मन से व्याकुल होते हुवे भयभीत हो उठा ॥
कारण की 'पराधीन सुख सपनेहु नाहि' अर्थात परधिनता तो सपने में भी सुखकर नहीं होती ॥
सोमवार, २४ फरवरी, २० १ ४
सांच कहत बुध प्रबुद्धि लोगे । मनन सील मुख मौन बिजोगे ॥
कहुँ जान निज ग्यान अलापत । दोष बचन सउँ प्राणिहि उनमत ॥
बुद्ध एवं प्रबुद्धजन सत्य ही कहते हैं । मननशील मुनि यदि मौन से वियोजित होता है एवं किसी स्थान पर अपने भान व् ज्ञान का व्याख्यान करता है तब वह उन्मत्त प्राणि दोष वचनों के कारण वश : --
भव ब्ययन के बंधन धराएँ । मर जनमत पुनि मरत जन्माए ॥
जो हम खंजन इहाँ न आते । बैस तरू सिख न अस बतियाते ॥
जन्म-अवसान के फाँस में फँस जाता है । पहले जन्म लेता है फिर मर जाता है फिर जन्म लेता है फिर मर जाता है ॥ यदि हम प्रणयिन पक्षी यहाँ नहीं आते तरु बिटंग पर टंग के ऐसे वार्तालाप नहीं करते ॥
तब बाँधनी पग बाँधेसि नाही । मौन महहि मुनिमत भलसाही ॥
ऐत कहत पुनि रत निधि बोले । जनक कुँआरी बंधनु खोलें ॥
तब यह बंधन हमें बांधने में समर्थ नहीं होता । अत: मुनीश्वरों की भलाई मौन में ही निहित है ॥ इतना कह कर वे पक्षी फिर बोलने लग गए । हे जनक पुत्री सीता हमारे बंधनों को मुक्त करने की कृपा करो ॥
यहु सुनु सिय नर मोचन कारी । सुकनी कर बाँधनी न उबारी ॥
तरफत फुदकत डहुरी डहुरी । रिरिहा कह सिय बहुरी बहुरी ॥
यह सुनकर सीता न नर पक्षी को तो मुक्त कर दिया । किन्तु उसने मादा पक्षी के बंधन को शिथिल नहीं किया ॥ वह नर तोता तड़पता डालि-डालि फुदकता हुवा गिड़गिड़ाकर सीता से वारंवार कहता ॥
री दुलारि दयित प्यारि, न्यारि सोंह न्यारि ।
कमलिन कुसुम की कयारि, बिनती सुनौ हमारि ॥
अरी दुलारी प्रिय की प्यारी सुन्दर न्यारी से भी न्यारी । कमलों के कुसुम की क्यारी हमारी यह विनती सुनो ॥
जो तुम मम प्रिया उबारि, तुम पर हम बलिहारि ।
जब लग बास जिउ लगारि, करएँ सेवा तुहारि ॥
यदि तुम मेरी प्रिया को मुक्त करती हो तो हम तुम पर न्यौछावर हो जाएँगा ॥ जब तक इस शरीर से प्राण बंधे हैं तब तक हम तुम्हारी सेवा करेंगे ॥
मंगलवार, २५ फरवरी, २०१ ४
करत प्रयाचन बर बिधि नाना । देखि बोल सिय सकल बिधाना ॥
करत सोत बहु बहु समझायौ । हार मान बिहान सिथिरायौ ॥
नाना बिधियों से याचना करके बोल देखा सारे विधान कर लिए बालिका सीता को गुणगान कर कर के समझाया जब थक गया तब अंतत: तोते ने हार मान ली ॥
बाल सिया कछु समझि न पाई । होई सुकी करष अधिनाई ॥
कोपत लोकत लोइ ललाई । इब अँगीठी आगिन धराई ॥
बालिका सीता को कुछ समझ नहीं आया तब शुकी क्रोध एवं कोप के अधीन हो गई । और क्रोधवश सीता को लाल लाल नेत्रों से ऐसे देखने लगी जैसे कि वह नेत्र अंगीठी हों एवं उनमें आग लगी हो ॥
आकुली परिहार आपनु आपा । बालिका सुकी दइ अभिसापा ॥
जेहि भाँति तुअँ एहि बे मोही । प्रिय पत प्रनीत देइ बिछोही ॥
व्याकुल होते हुवे उसने अपना आपा खो दिया एवं बालिका सीता को श्राप दिया ॥ कि जिस प्रकार तुमने मुझ ऐसी अवस्था में प्रिय पति के प्रेम से वियोगित किया ॥
तसहि तुअ कभु भयऊ गर्भिनी । होहु आपने प्रियतम हीनी ॥
अस कहत सुकी पिय बिथुराई । राग सोक बस गई बिहाई ॥
उसी प्रकार तुम जब कभी गर्भ अवस्था को प्राप्त होवोगी । तब तुम भी अपने प्रियतम से वियोग ष्णा पडेगा ॥ इस प्रकार प्रियतम के बिछोह के कारण अनुराग एवं शोक के वशीभूत होकर उस शुकी ने अपने प्राण त्याग दिये ॥
बहुरि बहुरि सुमिरत नाम, राम राम हे राम ।
प्रान प्रजान बैठ जान, गवनि बैकुंठ धाम ॥
वारंवार राम राम हे कहकर राम के नाम का जाप कर वह शुक मृत्यु को प्राप्त होकर एक सुन्दर विमान में बैठ, वैकुण्ठ धाम चला गया ॥
बुधवार, २६ फरवरी, २०१४
अहह प्रिया मम पखिनी हे रे । उरिन गयउ तव प्रान पखेरे ॥
दुखित दइत घिर सोक संतापे । भयउ बिकल बहु करत बिलापे ॥
आह !मेरी प्रियतमा हे री मेरी पक्षिणी । तेरे प्राण रूपी पखेरू उस गए रे ॥ शुक प्रेमी अपनी संगिनी के अवसान के पश्चात दुखित होकर शोक एवं संताप से घिर गया । और अत्यंत व्याकुल होकर इस प्रकार विलाप करने लगा ॥
कलपत तलफत रोवनिहारा । प्रिया प्रिया हाँ प्रिया पुकारा ॥
मृतक काई कातर निहारे । ताड़त उर बहु त्रसत बिहारे ॥
कलपता तड़पता, म्रत्यु पर शोक करने वाला वह आत्मीय प्रिया प्रिया हाँ प्रिया कह कर अपनी प्रिया का आह्वान करने लगा ॥ मृतक को कातर दृष्टि से देखते हुवे अपने ह्रदय भवन को प्रताड़ित करते हुवे चकित स्वरुप में विचरण करने लगा ॥
भरे नयन जल धरे न धीरा । देखी न जाइ गह अस पीरा ॥
प्रान हारि बहु दुःख उर लेखा । सिया सोंह पुनि करषत देखा ॥
उसके नयन जल से भरे हुवे थे धीरज वह बिसरा चुका था पिया ग्रहण की हुई थी कि जो देखि न जा सके ॥ प्राणों को हारने वाली का दुःख अपने ह्रदय में गहरे लेते हुवे फिर उसने सीता को क्रोध में भरी दृष्टी से निहारा ॥
लखत लाल लोचन अस बाँचे । होई हमहि प्रनय जो साँचे ॥
होइ जनम प्रभु अवर हमारा । अरु सोकातुर किरिया कारा ।।
फिर उसने लाल लोचन से सीता पर दृष्टिपात करते हुवे एवं शो से आतुर होकर सौंगंध ले कर ऐसे वचन कहे : -कि हे प्रभु हमारा उस स्थान में दुसरा जन्म हो ॥
जन सघन पुरी दसरथ नाहू । जहां श्री राम अवतर आहू ॥
री कनया तुअ भल नहि किन्ही । तव रगर हरे प्रान पखिन्हि ॥
जो जन से संकुल राजा दशरथ की पुरी है जहां भगवान श्री राम चन्द्र अवतार लेवेंगे ॥ अरी कन्या तुमने यह अच्छा नहीं किया तुम्हारे इस हठ योग ने मेरी पक्षिणी के प्राण हर लिए ॥
अह जस अपकार करि तस , परत कथनी हमारि ।
कबहुँक तुहु बिरहँ मह, होब अइसिहु दुखारि ॥
आह! जैसी अपकृति तुमने करी है वैसे ही हमारी कथनी में पड़कर कभी तुम भी विरहा में इसी प्रकार से शोक संतप्त होवोगी ॥
बृहस्पतिवार, २७ फरवरी २ ० १ ४
कलप तरप परतस हहाखानि । भयै हराहर प्रीतमा हानि ॥
डहक डहक कृत हाहाकारे । सीस पाँख भू पद दै मारे ॥
गिड़गिड़ाने के पश्चात प्रियतमा की प्राणों की हानि से क्लांत होकर ॥ कलपते तड़पते ( आलियों क ऊपर ) ढाँक ढाँक हाहाकार मचा कर उस शुक पक्षी अपने सिर, पंख एवं पाँव भूमि पर दे मारे ॥
बहत हरित तन रकत पनाले । रन खेत जिमि परे हत लाले ॥
बिकल पुकारत आरत बानी । हेति करत कह हे मम जानी ॥
जिसके कारण उसक हरे रंग की काया से रक्त की धाराएं बहती इस प्रकार से दर्शित हो रही थी मानो उसका शरीर कोई रन का क्षेत्र हो और उसपर घायल वीर पड़े हों ॥
बिहने सुअटा भए अवसाना । नभ अवतर एक सुघर बिमाना ॥
अकाल काल पुरुख लए नामा । गमनइ सोइ बैकुंठ धामा ॥
अंतत: नर शुक की देह का भी जब अवसान हो गया तब आकाश से एक सुन्दर विमान अवतरित हुवा । अपनी इस असामयिक मृत्यु पर वह परमेश्वर का नाम लेते हुवे वह भी वैकुण्ठ हाम को चला गया ॥
ररन रवन सिख अरध ग्याना । बाल बिरध बय बयस न जाना ॥
प्रनय प्रकरष कोप मह आँधे । अस जीवन भव बंधन बाँधे ॥
रटे-रटाए शब्दों से अर्द्ध ज्ञान सीख कर उन शुक युगल की दृष्टि, बाल,वृद्ध, युवा आयु संकाय में भेद नहीं जाना । व् परम के आकर्षण मन अंधी हो गई । ऐसे ही जीवन को यह संसार फिर जन्म-मरण के चक्र में बांधता है, उसे विमुक्त नहीं करता ॥
गह बंधनु जो आपहि चाहीं । कोउ जतन जग वाका नाहीं ॥
चौखनी खाट जीउ बधीनए । मनुज जोनि मिल बहसहि कठिनए॥
जो स्वयं ही इस चक्र में पड़ना चाहता हो । उस जीवन का फिर संसार मन कोई उपाय नहीं ॥ यह जीव चौखनि अर्थात अण्डज, पिण्डज, ऊष्मज्, उद्भिज इन चार योनियों की खाट से बंधा है । मनुष्य योनि प्राप्त होना अत्यधिक दू:सह है ॥
सदगुरु सुघर श्राम बसे, हरी कीर्ति श्रवनाए ।
ए कर कछुक काल अंतर, मनुज जोनि पख पाए ॥
उत्तम गुरु के सानिध्य में, श्रेष्ठ स्थान पर वासित होने के कारण एवं ईश्वर का यशगान सुनने के कारण । कुछ समय के पश्चात उन पक्षियों न मनुष्य की योनि प्राप्त की ॥
शुक्रवार, २८ फरवरी, २०१४
जोइ निज दुख दात छम दाने । प्राणि प्राणि जिन हूँत समाने ॥
संतापित दया दीठि जोई । परम पदक अधिठत जन सोई ।
जो दुसरों से अन्यथा स्वयं को भी कष्ट पहुंचाने वाले को क्षमा दान दे । जिनकी दृष्टि प्राणी-प्राणी में भेद न कराती हो जिसके लिए सभी एक समान हों ॥ संतप्त जनों पर जो पर जो दया दृष्टि रखते हों । वे ही परम गति के अधिकारी होते हैं ॥
कह दुर्बादन मुख धर कोपे । आप मग आप कंटक रोपें ॥
दुःख धारत धरि धीर सुभावा । भए निकट सोइ भगवन भावा ॥
जो मुख पर क्षोभ धारण कर दूषित वचन कहते हैं वे अपने मार्ग पर आपही कंटक बोते हैं । दुःख धारण करने पर भी जिनका स्वभाव में हीर गम्भीर होता है । वह आत्मा ईश्वर के निकट होती है ॥
अंतह के भव देह अधारे । जगत जोनि बिधात निर्धारे ॥
जिन जिउ रह जिन भावन भीते । काया कलप कृत कार रचिते ॥
जन्म एवं मृत्यु के मध्य स्थित आत्मा के आधार पर ही विधाता इस जगत में जीवों की योनि का निर्धारण करता है ॥ जो जिस जीव में जिन भावों में रहता है । कल्पकार फिर उसकी काया को उसी आकृति में रचता है ॥
भइ बिजुरी जूँ काठ कुचालक । लोह सोंह सरि धातु सुचालक ॥
अस जस पञ्चम तत्व बिजोगे । आपनी धर्म देख सँजोगे ॥
जिस प्रकार लकड़ी विद्युत् की कुचालक होती है । और लोहे के सदृश्य धातु उसके सुचालक होते हैं ।जबकि सभी एक ही तत्व से निर्मित हैं । उसी पकार जैसे ही यह शरीर मृत्यु को प्राप्त होकर पञ्च तत्वों में विघटित होता है । वैसे ही वे तत्व अपने गुण-धर्म के अनुसार पुन: संयोजन करते हैं ॥
जैसी सुतिका तैसी मुतिका । तो जस कायाकृत तसहि अंतिका॥
जैसी शुक्तिका होगी मुक्तिका भी वैसी ही होगी । शुक्तिका के सदृश्य ही यह काया है मुक्तिका के सदृश्य यह आत्मा है इस काया के जैसे कर्म होंगे इसके जैसे भाव होंगे जैसा इसका आचरण होगा इसके अंतरतम की मुक्ता स्वरुप वायु के सदृश्य यह निर्गुण आत्मा वैसी ही होगी ॥
पाछिल जनम कारन अस, मृतक धरे नर देहि ।
पाँखि संग गहि पाँखिनी, राम संग बैदेहि ॥
इस प्रकार पाश्चात्य जन्म के कारण मृतक न मानव देह धारण की । पक्षिणी को पक्षी का संग प्राप्त हुवा । एवं वैदेह कुमारी को श्री राम का संग प्राप्त हुवा ॥
शनिवार, ०१ मार्च, २०१ ४
कोप तो कोप श्राप त श्रापा । बचइ न कोउ श्राप तप भापा ॥
बालक बोध दीठि भा थोरी । सुनि श्राप सिय बिकल मति भोरी ॥
क्रोध, क्रोध होता है अभिशाप, अभिशाप होता है । अभिशाप ताप एवं उसके भाप से कोई नहीं बचता । सीता की सीता की बाल समझ थी, बाल्य अवस्था में दृष्टि भी मंद होती है । उसने अपनी उसी अबोध मति से उस श्राप को सुना ॥
आरत नाद कानन धराई । निरख मृतक सिय दृग भर लाई ॥
ताप भाप अभिसाप न जानी । बस पाँखी मरनी दुःख मानी ॥
करुण स्वर में दुःख के उस ज्ञापन को अपने कानों में ग्रहण किया । और जब मृतक की ओर देखा तब वह आँखों में पानी ले आई । न उसने शुक के विरह दुःख को जाना, न अभिशाप के भाप को जाना उसन केवल पक्षियों के मरण दशा का दुःख माना ॥
सुअ कहनी कहि जोई जोई । सोइ सोइ अस होतब होई ॥
लेइ जनम दुहु कुल सोचेई । अरु सिय बिपरित कथन कहेई ॥
शुक पक्षियों ने अपनी कथा में जिन जिन बातों का वर्णन किया । फिर भविष्य में वही सब हुवा । उन दोनों पक्षियों ने रजक कुल में जन्म लिया । नर पक्षी ने माता सीता के विपरीत निंदक वचन कहे ॥
मातु जानकिहि राम बिजोगी । फिरि घन बन बिरहा दुःख भोगी ॥
प्रथमतम तप बन भई सुबरन । पुनिचर तपन तपत भइ कुंदन ॥
इस प्रकार माता जानकी का भगवान श्रीराम से वियोग हो गया । एवं गहन विपिन में विचरण कर उन्होंने अभिशप्त होकर विरह का दुःख भोगा ॥ जो पहले ही तप के ताप में तप कर स्वर्ण हो चुकी थी पुनिश्चर उसी तप के ताप में तप कर अब वह कुंदन हो गई ॥
द्विज बरतिबर तव पूछ प्रसन करि जह प्रसंग पावन कर ।
कहत समुझाया संसए मिटाया आपनि लघु मति अनुहर ॥
अजहूँ अगाउनी कहन पाउनी सुनु श्री श्रीस साथ की ।
बिदेह नंदिनी प्रभु पद बंदिनी कथा सीता नाथ की ॥
भगवान शेष जी ने कहा हे विप्रवर आपने जो इस पावन कृत प्रसंग के सम्बन्ध में प्रश्न पूछा वह मैं आपको कह कर समझा इया एवं अपनी लघु मति का अनुसरण करत हुवे आपके संसय का भी निवारण किया ॥ अब आप पद्म वासिनी श्री लक्ष्मी एवं लक्षमी पति श्री विष्णु के संग की, जिनकी वंदना प्रभु श्री राम के चरणों में समर्पित है उन वैदेह नंदिनी सीता के नाथ की इस पावन कथा के आगे का वृत्तांत सुनिये ॥
ता परतस भगवन सेष,कथा कृत रथाकारि ।
अधर चरन रसना रसन ,कानन पंथ उतारि ॥
तदोपरांत भगवान शेषजी ने कथा को रथ कि आकृति देकर, अधरों को रथ के दो चरण कारित कर, रसना को रथ की किरणों की आकृति करते हुवे रथ-कथा को मुनिश्री के कर्ण पंथ में उतार दिया ॥
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार ८ /७ /१ ३ को चर्चामंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका वहां हार्दिक स्वागत है ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ...
ReplyDeletegreat
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