Friday, 12 July 2013

------ ॥ उत्तर-काण्ड 7।। ------

प्रभु सेष कहत हे महामुने । थिर चित धिआन मन देत सुने ॥ 
देखे प्रभु जब भरत अचेता । भए बहु दुखित करत तिन हेता ॥ 
अहिराज भगवान शेष जी ने कहा : -- हे महामुने ! अब तुम स्थिर चित्त होकर यह कथा ध्यानपूर्वक एवं मनोयोग से श्रवण करो ॥ जब प्रभु श्रीराम ने  भारत को अछतावस्था में देखा तब भ्राता भरत के अनुरागवश वे बहुंत ही दुखित हुवे ॥ 

पट पाल सों कहे रे भाऊ । सत्रुहन अचिरम लाउ बुलाऊ ॥ 
पाल जब भगवन आयसु पाए । छिनु मह सत्रुहन सन लई आए ॥ 
उन्होंने  द्वारपाल से कहा हे भाई तुम शीघ्र बरतते हुव भारत शत्रुध्न को बुला लाओ ॥ द्वार पाल ने जब भगवान का यह आदेश प्राप्त हुवा तब वह क्षण मात्र में ही भ्राता शत्रुध्न को संग ले आए ॥ 

आत भरत जब मुरुछित देखा । प्रभु बदन डीठ दुःख की रेखा ॥ 
आपन दुनवन दुःख अवगाहत । निज लोचन बहु बिस्मय लाहत ॥ 
शत्रुध्न ने आते ही जब प्रभु श्रीराम के श्रीवदन संग कमलनयन में  दुःख की रेखाएं एवं भ्राता भरत को मूर्छित मुद्रा में देखा । तब वे अपनी आखों में बहुँत ही विस्मय भाव लिए स्वयं दोहरे दुःख में डूब गए ॥ 

बोलि भ्रातबर करत प्रनामा । कस दारुनी दिरिस हे रामा ॥
एकपुर एक भ्रात परि मुरछाए । दुज पुर दुजे मुख मलिनइ छाए ॥ 
वरिष्ठ भ्राता को प्रणाम करत हुवे बोले हे प्रभु यह कैसा दारुण दृश्य है ?एक छोर पर एक मूर्छित अवस्था में भूमि शायिन हैं । दूसरे छोर पर दूसरे भ्राता के श्रीमुख पर मलिनता छाई हुई है ॥   

तब सत्रुहन प्रभु रजक मुख , निकसे निन्दित बाद । 
कह सुनाएसि आप धुनी , अतिसय आरत नाद ॥ 
तब प्रभु श्रीराम ने शौचेय के मुख से निकले माता सीता के प्रतिकूल निन्दित संवाद । अत्यधिक आर्त स्वर धारण कर अपनी श्री ध्वनि में भ्राता शत्रुहन को कह सुनाया ॥ 

सोमवार, ०३ मार्च, २ ० १ ४                                                                                            

बिहने प्रभु मुख अहह उचारे । अरु प्रगसे सिय तजन बिचारे ॥ 
सत्रुहन रद छद हहरत लोले । नहि स्वामि कह हरिअरु बोले ॥ 
अंत में प्रभु के श्रीमुख से संताप सूचक उद्गार का उच्चारण हुवा । और उन्होंने माता सीता के त्याग का विचार प्रकट किया ॥ इस विचार से दो चार होकर शत्रुहन के दन्त आच्छादन कांपते हुवे फड़फड़ाने लगे । नहीं स्वामिन कहकर इस प्रकार हलके स्वर में बोले : -- 

आपनी अस कस भयौ निठूरे । लोचन पटल अब्बिन्दु झूरे ॥ 
कहहु यहहु कस बचन कठोरे । करक कुलिस सम  भ्राता मोरे ॥ 
आप इस प्रकार निष्ठुर कैसे हो सकते हैं ( यह कहते हुवे ) उनके लोचन पटल पर जलकण झूलने लगे ॥ हे मेरे भ्राता आप ये वज्र के सरिस कड़क एवं कठोर वचन किस प्रकार कह सकते हैं । 

सूर देउ जब गगन उदयिते । सकल जगत निज किरन बिकरिते ॥ 
वाका मुख उलूक न सुहाई । वासु जगत जन का हनहाई ॥ 
गगन में जब सूर्यदेव उदयित होते हैं और समस्त लोक में अपनी किरणे विकिरित करते हैं । तब उसका मुख उल्लूक को रुचिकर नहीं लगता तब उसस क्या जगत जनों कि कोई हानि होती है ॥ 

हे भगवन सिया स्वीकारौ । चित चतन तिन तजन बिसारौ ॥ 

अग जग सिय सम सती न कोई । मोरे बचन जथारथ होई ॥ 
अत:हे भगवन ! आप माता सीता को स्वीकार कर अपने मन-मस्तिष्क से उनके त्याग का विचार को ही त्याग देवें ॥ समस्त लोक में माता के सदृश्य कोई पतिव्रता स्त्री नहीं है और मेरा यह वचन यथार्थ स्वरुप है ॥ 

नलिन नयन करनायतन, रघुकुल के धीवान । 
कहत सत्रुहन हस्त जोग, मम बचन लिजौ मान ॥  
तब भ्राता शत्रुहन ने हाथ जोड़ कर कहा नलिन नयन करुणा के आयतन रघुकुल के मनीषी पुरुष आप मेरे यह वचन मान लीजिए ॥ 

मंगलवार, ०४  मार्च, २ ० १ ४                                                                                         

कहीं केत रघुकुल लघु नंदन । रमारमन दाए न श्रुति साधन ॥ 
कहत सत्रुहन हराहरि होईं । पहलेहि कहे भरत प्रभु जोई ॥ 
रघुकुल के उस लघु नंदन ने कितना ही कहा किन्तु रमा के रमन ने उनकी एक न सुनी ॥  भ्राता भरत पहले ही कहकर मूर्छित  हो गए थे शत्रुहन भी वही कहते कहते थक गए ॥ 

मान न प्रभु बचन लघु भाइन्हि । बहुरि बहुरि सोइ दुहराइन्हि ॥ 
घनस्याम बदन बचन कुलिसा । रवनत रवन गूंजत चहुँ दिसा ॥ 
ज्वाल कन बल लेखन देखा । सत्रुहन कुलिस बाह जब लेखा॥ 
मुख दारुण दुःख गाह अगाही । आकुल अगम सिंधु अवगाही ॥ 
प्रभु श्री राम चन्द्र ने छोटे भाइयों की बात नहीं मानी । अपने त्याग वचनों को ही वारंवार दुहराने लगे । प्रभु का श्यामल घन के सदृश्य श्रीमुख से वह वचन कुलिस स्वरुप थे । उन  विद्युत् रूपी  वचन के ध्वनि रूपी शब्द चारों दिशाओं में गूंजने लगा ॥ 

जब उसने उस विद्युत् रूपी वचनों की ज्वलन-कण, उसकी शक्ति, उसकी मालाओं को देखा और जब उस विद्युत् रूपी वचन के प्रवाह को समझा  तब उनका मुख  दारुणी दुख एवं चिंतामयी वृत्तांत के व्याकुलता के दुर्गम सिंधु में डूब गया ॥ 

धरे धूर बायुर संपाते । मूर सहित जस बिटप निपाते ॥ 
तस सत्रुहन दिरिस धूँधराई । गहत मुरुछा भै धरासाई ॥ 
धूल धूसर से युक्त जब तीव्र वायु गमन करती हुई जैसे किसी वृक्ष को मूल सहित गिरा देती है शत्रुध्न की दृष्टि उसी भांति धुंधला उठी एवं उसने मूर्छा ग्रहण कर ली, और शत्रुध्न उस वृक्ष सा भूमि पर धराशाई हो गया ॥ 

निरख प्रभु हारे निलयन, दुज बंधुहु हत ज्ञान । 
लह लवन बहु भाव प्रवन, लेइ भवन हरिकान ॥  
दूसरे भ्राता को भी अचेत देखकर प्रभु श्रीराम हारे हुवे ह्रदय से पीड़ित हो अत्यधिक भावुक होकर उसे अपने ह्रदय भवन से लगा लिया ॥

 बुधवार,, ०५  मार्च, २ ० १ ४                                                                                         

भ्रात सत्रुहन्हु परे अचेता । लोकत  कातर नयन निकेता ॥ 
पुनि प्रभु प्रहरी आयसु दाईं । गत सन लखमन लेइ अवाईं ॥ 
भ्राता शत्रुध्न भी मूर्छित होकर धराशाई अपने नयन निकेत से यह दृश्य दखते हुवे प्रभु ने द्वार प्रहरी को पुन: आज्ञा दी जाओ अपने साथ भ्राता लक्ष्मण को ले आओ ॥ 

पात प्रहर जस पवन प्रदाने । पेह आयसु प्रहरी पयाने ॥ 
उरु क्रम धारत गत लखन भवन । सिरुनत किए संदेस निवेदन ॥ 
पवन प्रदान करते ही जैसे पत्ते गति करने लगते हैं पवन रूपी आज्ञा प्राप्त कर प्रहरी भी गमनशील हो उठा ॥ लम्बे लम्बे डग भरते हुवे वह लक्ष्मण के भवन को गया एवं उनके सम्मुख नतमस्तक होकर उसने यह प्रभु का सन्देश निवेदन  किया ॥ 

 आपनि सुमिरत नाथ हमारे । तिनके सों हे तात पधारें ॥ 
अहहि सब सकुसल मंगलताई । अद्यावधि सुमिरत रघुराई ॥ 
हमारे नाथ श्रीराम चंद्रजी आपका स्मरण  कर रहे हैं हे तात आप उनके सम्मुख अपनी उपस्थिति अंकित करें ॥ सब कुशल मंगल से तो है ?।  इस समय प्रभु श्रीराम जो मुझे स्मरण कर रहे हैं (लक्ष्मण ने पूछा ) ॥ 

पाल बरनि जब सकल प्रसंगे । तत छन लखमन तूल तुरंगे ॥ 
द्रुत गति प्रभु भवन परबेसे । भित दिस दरसत भै निर्मेसे ॥ 
 द्वारपाल ने जब निंदा-वृत्तांत कह सुनाया तब भ्राता लक्ष्मण ने उसी क्षण अश्व के समान तीव्र गति से प्रभु के भवन में प्रवेश किया  और अंतर-दृश्य के दर्शन होते ही वह अपलक हो गए ॥ 

गहत अति गहन दुःख अँधियारे । रोचन लोचन पद प्रस्तारे ॥ 
गिरि गौर बदन  काल घन छाए । बरखन चाहे बरख ना पाए ।। 
दुःख के अत्यधिक गहरे अंधियारे को ग्रहण कर उन्की सुन्दर आँखों के दो पद विस्तृत हो गए । हिमगिरि क सदृश्य गौर वर्णी मुख पर घन की सी कालिमा छा गई उसने  बरसना तो चाहा किन्तु वह बरस न सकी ॥ 

बाँध नयन पट पानि, बाँध रद छादन बानि । 
चकित भयउ दृग धानि , भ्रात मुरुछा दिरिस दरस ॥ 
नयनों के पटल ने घन जल को बांधे रखा, अधरों ने वाणी को बांधे रखा । भ्राताओं का मूर्छा-दृश्य देखकर लक्ष्मण के  नयनों की धानी जैसे चकित सी हो गई॥ 

बृहस्पतिवार, ०६ मार्च, २ ० १ ४                                                                                   

जगत सुवामि हे बर भाई । बोले लखमन पुनि सिरुनाई ॥ 
दुःख दारुन दृग दिरिस दिखावै । कृपाकरत कस मोहि बुझावै ॥ 
तब लक्ष्मण ने नतमस्तक होकर कहा जगत के स्वामिन हे श्रेष्ठ भ्राता । मेरे नेत्र जो दारुण डरूं दुःख के दृश्य का साक्षात्कार करवा रहे हैं । मुझपे अनुग्रह करते हुवे हे प्रभु ! इसका कारण समझाएं ॥ 

जदपि तिन तईं प्रहरिहि रउना । धुनी धर पर अर्धंन पउना ।। 
कथनत परन ऐसेउ तिनके । बिसराए रवनिन्ह पुनि बिन के ॥ 
यद्यपि द्वार प्रहरी न मुझे इस प्रसंग से अवगत करवा दिया था किन्तु वह प्रसंग आध अधूरे वर्णों को ग्रहण किये हुवे था । उनके ऐसा पूछने के पश्चात बिखरे हुई ध्वनि को पुनश्च संकलित कर : -- 

अहह करत करताल सँजोई । कलपत रसना माल पिरोई ॥ 
दुःख नाद  करे प्रभु कंठ चढ़े । लखमन पलकन बन कन उतरे ॥ 
शोक सूचक उदगार व्यक्त करते करताल ने संजोया  पीड़ा से युक्त होकर उसे फिर  रसना ने माल में पिरोते हुवे । उख सूचित स्वर उत्पन्न कर वह प्रभु के कंठ में अर्पित हुई । तो कण कण होकर वह लक्ष्मण के पलकों से उतरती चली गई ॥ 

पद्मिन पाद कमल कर धारे । रज सरोज सिरु सरवर सारे ॥ 
नयन गगन घन बधन उबारे । बरखत कन प्रभु चरन पखारे ॥ 
लक्ष्मण ने प्रभु के पदम्-पादको अपने कमल-करों से धारण कर लिया  चरणों  के धूलि -सरोजों को अपने मस्तक के सरोवर में व्याप्त कर लिया  ।। नयनरूपी गगन ने फिर घन के बंधन को इस प्रकार मोचित किया कि वह उतरते हुवे कण प्रभु के पद्म-चरणों को प्रक्षालित करने लगे ॥ 

बाहु सिखर धर कंठी लगाए । ताजन  निहचय लखमन जताए ॥ 
निज मत सम्मति पैह को दिसा  । लखे लखमन पूछबत दिरिसा॥ 
प्रभु न लक्ष्मण के कन्धों को पकड़ कर उन्हें कंठ से लगा लिया । और आता सीता क त्याग का निश्चय प्रकट किया ॥ फिर अपने विचार पर सम्मति अथवा कोई  दिशा निर्देश प्राप्त करने हेतु लक्षण को प्रश्न वाचक दृष्टि से देखने लगे ॥ 

तजन जोगित बचन श्रवन,लेइ गहनई  साँस । 
उरस भवन उच्चित पवन, छाँड़ि बदन उछ्बास ॥ 
माता सीता के त्याग से सम्बंधित वचनों को श्रवण कर भ्राता लक्षमण गहरी गहरी स्वांस लेने लगे । जब हृदयभवन में वायु संगृहीत होने लगती तब वह आह भारत हुव उस वायु को निस्कासित करते ॥ 

शुक्रवार, ०७ मार्च, २ ० १ ४                                                                                         

अरु निहचय प्रभु जब दृढ कारे । सन्न मन लखन कह हहरारे ॥ 
माता सम सीता त्याजहू । तात भ्रात बात जे का कहू ॥ 
और प्रभु का वह निश्चय जब डरः हो गया तब लक्ष्मण का चित्त सन्न रह गया और वह चकित मुद्रा में  कहने लगे माता सी सीता को त्यागेंगे ? हे तात हे भ्रात !! आप यह कैसे वचन उत्काशित कर रहे हैं ॥ 

देखत लखन बदन दुःख लेखे । तिन को उतरहु देत न देखे ॥ 
रोचन लोचन तोय कन तिरा । सोक पूरित बहु आरत गिरा ॥ 
जब भगवन न लक्षमण क मुख पर दुःख उल्लखित देखा । तब उन्हें कोई उत्तर देते नहीं बना । उनके रक्त-कमल सी एवं उज्जवल आकाश सी आँखों पर जलकण तैरने लगे और शोक-पूर्णित एवं अत्यंत ही  व्यथित वाणी में : -  

कहत रघुबर गरुबर कंठ कर । अपजस लाछन सन बस भूपर ॥ 
कहु रे भाऊ अब का करहूँ । निंदा नदी पार कस करहूँ ॥ 
भारी कंठ से रघुवर श्रीरामचन्द्रजी बोले । मेरे भ्राता कहो तो अपकीर्ति एवं लांछनाओं के साथ भूमि पर बसकर अब मैं क्या करूंगा । इस निंदा की नदी से पार कैसे पाउँगा ॥ 

सकल भ्रात तुम बुद्धिहि बाने । कहन चले मम आयसु माने ॥ 
हत भागिनु बसीभूत अधुने । सोई  मोरे  बचन न श्रवने ॥ 
तुम सभी बुद्धिमान भ्रातागण मेरी आज्ञा का पालन करते हुवे मेरे कहनी पर चले ॥ किन्तु इस समय कदाचित मैं ही दुर्भाग्य के वशीभूत हूँ कि वही भ्राता मेरे वचनों को कान भी नहीं दे रहे ॥ 

सुनत राम के अस कथन गहबर घन गहलाए । 
गौरम गिरि लखमन बदन, मंद मलिन प्रभ छाए ॥ 
भगवान श्रीरामचंद्र के ऐसे वचन सुनकर लक्ष्मण के मुखोपर व्यथा के घन और गहरा गए । जो मुख गौरम गिरि के सदृश्य था उस पर मलिन सी धूमिल सी प्रभा छा गई ॥ 

शनिवार, ०८ मार्च,२ ० १ ४                                                                                           

अरु गहबरी गहन सुर साथा । तरल नयन बोले हे नाथा ॥ 
बिगरहा के बिषाद न कीजौ । मोहि आप जो आयसु दीजौ ॥ 
और गहरी गुहा से आते हुवे से स्वर के साथ नयनों को तरल नयन से लक्ष्मण बोले : -- हे स्वामिन ! भर्त्सना करने वाले का विषाद न कीजिए । यदि आप मुझ आज्ञा देवें : -- 

रजक पाहि मैं गवनत अजहूँ । तिन्ह सोंह जे बूझ पूछहूँ ॥ 
जग जननी जो जग बर नारी । वाके बिगरहनिहि कस कारी ॥ 
मैं अभी उस रजक के पास जाकर उसके  सम्मुख यह पश्न करूंगा । कि जो जगत की जननी है संसार की सर्वश्रेष्ठ नारी है, उसकी तुमने भर्त्सना कैसे कर दी ॥ 

राम राज लघु जीहु जिआउत । मनुज मात्र के का कहनाउत । 
बन उपबन जँह को न बिषादे । सरीसृप हों कि पाद पयादे ॥ 
राम राज्य मन लघु से लघु जीव को भी जीवन मिलता है, मनुष्य जाति का तो कहना ही क्या है ॥ बन हो कि उपवन हो, रंगने वाले हों की चलने वाले जीव हों कहीं भी किसी को कोई क्लेश नहीं है । 

रजक मनस हो जेहि बिधि प्रतीति । संतोख करे जस जेहि रीति ॥
नाथ जस तव संसै निबारे । तस तिन सों किजौ ब्यबहारे ॥ 

उस धोबी के मस्तिष्क में जिस विधि से भी विश्वास जगे । वह जिस रीति से भी वह माता के सतीत्व से संतुष्ट हों । एवं हे नाथ आप के संशय का भी निवारण हो । आप उससे फिर वैसा ही व्यवहार करना ॥ 

धराधी जनक नंदिनी, सरबस जग तिन मानि । 
मन क्रम बचन रागि चरन, नाथ नाथ निज जानि ॥  
धरा की तनया जनक की तनुजा जिनके सम्बन्ध में सम्पूर्ण जगत यह मानता आया है कि वह मन से कर्म से वचन से जगन्नाथ के ही चरणों में अपना अनुराग अर्पित कर केवल उन्हें ही अपना नाथ स्वीकार किया है ॥ 

रविवार, ०९ मार्च, २ ० १ ४                                                                                       

एतैव प्रभु मात स्वीकारू । तिन परिहर बिचार परिहारू ॥ 
मोरे मत हिय दए अस्थाने। कृपाकरत मम बाचन माने ॥ 
अत:हे प्रभु आप माता को इस प्रकार न त्यागें उन्हें स्वीकार करते हुवे उनके त्याग के विचार का ही परित्याग करें । मेरे इस परामर्श को अपने ह्रदय में स्थान देवें एवं कृपाकरते हुवे मेरा कहना मानें ॥ 

कहत कहत लखमन ररिहाई । सोकातुर बहोरि रघुराई ॥ 
सुनत भ्रात प्रभु बोलि बिहाना । निःपातक जानकी मैं न जाना । 
ऐसा कहते कहते लक्ष्मण गिड़गिड़ाएं लगे । फिर शोकविह्वल होकर राजा श्रीराम चन्द्र भ्राता लक्ष्मण के वचन 
श्रवण कर अंत में बोले । क्या मैं नहीं जानता कि जानकी निष्पाप हैं ॥ 

मन के निठूर मति के आंधे । पर निंदक के मुख को बांधे ॥ 
को राज परजा तस जस राजा । करे काज जस राजा काजा ॥ 
किन्तु मन से निष्ठूर बुद्धि से अधम पराये जनों की निंदा करने वालों के मुख कौन बांधे ॥ किसी राज्य का जैसा राजा जिस स्वभाव का होता है उसकी प्रजा भी उसी स्वभाव को वरण करती है । और उसके कार्य वैसे ही होते हैं जैसे की राजा के कार्य होते हैं ॥ 
  जान बिना गुन दोष बिभाजन । आपनी नाथ करत अनुसरन ॥ 
दूषन करनी करमन लागसि । सत सयनई तमो गुन जागसि ॥ 
गुण-दोष के विभाजन के विवेक से रहित वे अपने स्वामी का ही अनुशरण करते हैं । जिसके कारण वे ऐसे दूषण कर्म में प्रेरित हो जाते हैं जिससे सात्विक गुण सुसुप्त हो जाते हैं,  तामसी गुण जागृत हो उठते हैं ॥ 

पात अधर्मं अधमचरन दुष्कृति कृत सब लोक । 
बेलरी सोंह ब्यापहि, उर दुःख भय रुज सोक ॥  
पातक आचरण, अधर्म आचरण, निकृष्ट आचरण के वशीभूत संसार दुष्कृति में संलिप्त हो जाता है  जिसके कारण हृदयों में दुःख,भय,रोग,शोक बेलों के जैसे व्याप्त होने लगते हैं ॥ 

 सोमवार, १ ० मार्च, २ ० १ ४                                                                                     

कथनत गुरबर सुर मुनि लोग । जनहित जे सुख ताजन जोगे । 
भव भाव भूति प्रिया प्रियतमा । रहस गहस सुत मित गुर गरिमा ॥ 
गुरुवर, मुनिवर, सुरगण, बुद्धिजन आदि का कहना है कि शासक द्वारा जनहित में ये सुख त्याग के योग्य हैं : -- भौतिक सत्ता से प्रेम,जन्म-मरण का भय,पत्नी एवं प्रियतमा ,रहस्य,गृहस्थ, पुत्र , मित्र , गुरु  एवं गौरव ॥  

चाहे केतक हूँते कोई । प्रनय प्रतीति नुभूतत होई ॥ 
समउ लग भरि काचा घाऊ । तैसिहि होत प्रतीत सुभाउ ॥ 
चाहे कोई कितना भी आह्वान करे किन्तु प्रणय एवं प्रतीति अनुभूति से ही होती है ॥ जिस प्रकार कच्चे घाव को भरने में समय लगता है  प्रतीति अर्जित करने में भी समय की आवश्यकता उसी प्रकार होती है ॥ 

मलिन बसन जस धोवन अंका । धोवन धोबन समउ कलंका ॥ 
ब्रह्म निकेत नगर के बासी । कहि पुनि नरनागर अबिनासी ॥ 
जैसे वस्त्रों की मलिनता जल नामक धोबी से ही मुक्त होती है । उसी प्रकार समय नामक धोबी कलंक को मुक्त करता है ॥ हृदय भवन एवं ह्रदय के नगर में ही वास करने वाले अविनाशी श्री हरि पुन:बोले ॥ 

जे मम आयसु अरु तिन मानौ । अजहूँ को घन बिपिन पयानौ॥ 
प्रिया सिय संग लेइ जाऊ । कहहुँ कवनहु  तजत बहुराओ ॥ 
यह मरी आज्ञा है तुम इसका पालन करो । तुम इसी समय किसी सघन विपिन के लिए प्रस्थान करो । मेरी भार्या सीता को साथ में ले जाओ । फिर किसी भी उपाय से कहीं छोड़ आओ ॥ 

करत कमन मन बदन कठोरे । करत सुकुवाँर नयन कठोरे । 
कहत राम जब बचन कठोरे । नमन नयन लखमन कर जोरे ॥ 
फिर सुन्दर मुख एवं कोमल नयनों कठोरता वरण कर फिर  वचनों को कठोर कर जब प्रभु न यह कहा  तब भ्राता लक्ष्मण हस्त-बद्ध व् अवनत नयन मुद्रा में ॥ 

करन श्रवण बचन छन छन, सोक सिंधु अवगाहि । 
न त पाहि तँहसन निकसन , न त कहुँ थाहहि लाहि ॥ 
यह वचन कानों में ग्रहण किये शोक के सिंधु में डूबते चले गए । न तो और ऐसे डूबे कि न तो वह उसका पार ही पा रहे थे न ही उस सिंधु की थाह प्राप्त कर पा रहे थे ॥ 

मंगलवार, ११ मार्च, २ ० १ ४                                                                                      

छन भृगुनायकु सुमिरन कारे । फिर मन ही मन जेइ बिचारे ॥ 
पात आयसु परसु निज ताता । किए हत बाधित आपनि माता ॥ 
ऐसी दशा में तत्काल ही उन्हें भगवान परशुराम का स्मरण हो आया फिर उन्होंने मन ही मन यह विचार किया ॥ अपने पिता की आज्ञा प्राप्त कर भगवान परशुराम ने तो अपनी माता तक को हत बाधित कर दिया था ॥ 

जे करमन मम उर जे जाने । मातपिता के कहि सब माने ॥ 
लाहत पितु के एक संकेते । नाथ करे घन बिपिन निकेते ॥ 
इस कार्य स मुझे यह ज्ञान प्राप्त हुवा कि माता-पिता का कहना सभी को मानना चाहिए ॥ पिटा के एक ही संकेत प्राप्त कर जगत के स्वामी श्रीराम चन्द्र ने सघन विपिन को ही अपना निवास घोषित कर दिया था ॥ 

गुरुबर के कहनहि  नहि  लंगए । रहे चइल गुरु बचन प्रसंगे ॥ 
गुरुबर दिनकर ज्ञान प्रकासू । ज्ञान पयस जिग्यास पिपासू ॥ 
गुरुजनों के कथनों का तो उल्लंघन कदापि नहीं करना चाहिए । शुष्य का यह कर्त्तव्य है कि वह अपने सतगुरु के कथनों के प्रसंग में रहे ॥ यदि सद्गुरु दिनकर है तो ज्ञान उनका प्रकाश है । यदि ज्ञान पायस है तो जिज्ञासा प्यास है ॥ 

चलि आइ जगलग जेहि रीती । लगे रहे मन जिन सन प्रीती ॥ 
जो प्रिय प्रिय हो सोइ पियारा । का मम जोजन जगत नियारा ॥ 
जग भर में यही रीत चली आई है । यह मन उसी के निमित्त लगा रहे जिसके संग प्रीत हो ॥ जो प्रिय को प्रिय लगे कर्त्ता को भी वही प्यारा लगे । क्या मेरा यह नियोजन ( माता सीता को वैन में छोड़ना )जग से न्यारा है ? ॥ 

गुरुबर रघुराई मम प्रिय भाई, मम तईं तात सहुँ जे । 
जन जन हियरंजन, कहे जो बचन, पलिअहि अर्थायासुहु ते ॥ 
चहे उचितानुचित चहे हिताहित, उचित हित मह लीजिओ । 
तुहरे न बिबेका नहि बुद्धि एका सब भाँति कहि कीजिओ ॥ 
रघुकुल के राजा श्रीराम ही मेरे श्रेष्ठ गुरु हैं, वह मेरे प्रिय भ्राता हैं और वह मेरे लिए पिता के तुल्य भी हैं । अत: जन जन के ह्रदय को आनंदित करने वाले जो वचन उद्धरित करते हैं वह मरे लिय पालन करने योग्य हैं  । वह उचित हो चाह अनुचित, हितकर हो चाहे अहित कर हे लक्ष्मण तुम उन्हें उचित एवं हित स्वरुप में ही लेना । तुम्हारी बुद्धि उचितानुचित हिताहित के विभाजन करने में असमर्थ है । तुम्हें उसका कुछ विवेक नहीं है अत: प्रभु द्वारा जैसी आज्ञा करें उसका पालन करना ॥ 

चिंतन मंथन मनन कर, कहि लखमन हहरान । 
तुम प्रिय बंधु तुम गुरुबर, तुम मम पिता समान ॥  
इस प्रकार मन ही मन में चिंतन, मंथन एवं मनन करते हुवे लक्ष्मण दुःख मिश्रित आश्चर्य से चकित होकर प्रभु से बोले : -हे प्रभु! आप मेरे प्रिय बंधु हैं आप ही गुरुवर हैं, आप मेरे पिता तुल्य हैं ॥ 

बुधवार, १२ मार्च, २ ० १ ४                                                                                           

जो कारज जग कारन बिजोगे । गुरुबर कहत कारन सँजोगे ॥ 
गुरु कह करतब अनुपालन । गुरु आयसुहु सिस सिरौधारन ॥ 
संसार जो कार्य अकरणीय हैं गुरुवर के वाचन के पश्चात वह करणीय हो जाते हैं । गुरुवार के कथन अनुपालनीय कर्त्तव्य है गुरु की आज्ञा शिष्य के लिए सर्वोपरि होते हुव शीश पर धारण करने वाली है ॥ 

गुरु के मुख जो मंतर दाना । साधना सिद्धि प्रथम सोपाना ॥ 
कहत नारद बिसारद सहिता । दखिना बिनु दिछा अपूरनिता ॥ 
गुरु मुख से जो मंत्र प्रदाय होता है वह साधना की सिही का प्रथम सोपान होता है ॥ दक्षिणा के बिना दीक्षा अपूर्ण रहती है ऐसा नारद की विद्वान संहिता का कहना है ॥ 

गुरुकथनी कल्यान पूरिता । तिनके लंघन भयौ न उचिता ।। 
एतएव तव श्रीमुख कहि जोई । सोई मम हुँत आयसु होई ॥ 
सदगुरु की कथनी कल्याणपुरित होती है। उसका उलंघन करना किसी प्रकार उचित नहीं है । अत: हे प्रभु ! आपके श्रीमुख जो भी कहेंगे वह वचन मेरे लिए आदेश ही होंगे ॥ 

अच्छर सह तिन पालनहारा । जगत बिभो यह दास तुहारा ॥ 
सुनी प्रभु लखमन मुख अस बानी । भर अभिराम नयन पट पानी ॥ 
हे जगत के स्वामी यह आपका दास उसका पूर्णतया पालन करेगा ॥ प्रभु ने लक्षमण के मुखारविंद से जब यह वक्तव्य सुना । तब उनके अभिराम नेत्र पटल पर पानी भर आया ॥ 

अतिबर कह जब भ्रात लखाई । अहह यह धुनी बरनि न जाई ॥ 
हहरत कहि रद साथरि सोखित। अजहूँ मम चित भा संतोखित ॥ 
'अति उत्तम ' कहते हुवे जब उन्होंने भ्राता लक्ष्मण की ओर देखा । आह ! वह ध्वनि वर्णनातीत हैं ॥ कुश के शुष्क आच्छादन के समान पभु के दन्त पत्रों ने  कंपकपाते हुवे कहा अब मेरा चित्त तृप्त हो गया ॥ 

निंदा चिंतन भयौ बन, द्रुमदल भगवन धीर । 
निसि बदन दुःख बन गोचर, निर्झरि लोचन नीर ॥ 
निंदावचन का चिंतन विपिन हो गया । भगवान का धैर्य वृक्ष समूह हो गया । आट्री क सदृश्य मुख पर दुःख वैन में जीव-जंतु नयन से झरता हुवा नीर पर्वत से निकलता हुवा झरना हो गया ॥ 

बृहस्पति/शुक्र, १३/१४ मार्च, २ ० १ ४                                                                                      


अजहूँ कछुकहि बेरा परतस । चन्द्रानना सुहासिनिहि सुहस ॥ 
मम सों प्रगसत निज अभिलाखन। कहि मन कामन तपसिहि लाखन ॥ 
अभी कुछ ही समय पूर्व चंद्रमा के मुख वाली एवं सुन्दर हँसी हॅसने वाली मैथिली ने हँसते हुवे मेरे सम्मुख अपनी  अभिलाषा प्रकट की  । वह कह रही थी कि मेरा मन लोपामुद्रा आदि पतिव्रता एवं तपस्विनी मुनि पत्नियों के दर्शन को हो रहा है ॥ 

एतदरथ तुम्ह एक रथ धारो । तापर जनक सुता बैठारो ॥ 
बहुरि बिभो जे बचन दुहराए । बिहर बिपिन तिन बिहुर बहुराए॥ 
एतएव तुम एक रथ लो उस पर जनककुमारी को विराजित करो और उसे किसी बीहड़ विपिन में छोड़ आओ ।फिर भगवान श्रीराम ने वही वचन दोहराए ॥   

यह कहत सुमन्त्र बोलि पठाए । कंठ भरत जेइ आयसु दाए । 
चंवर छतर दिए बर ओहारे । हय सथ मम रथ बाहि सँवारे ॥ 
ऐसा कहते ही प्रभु ने महामात्य सुमंत्र को बुला भेजा । भरे कंठ से उसे यह आदेश दिया । मेरी रथ वाहिनी को अश्व सहित सुन्दर चंवर छत्र -एवं शोभाषील आच्छादन से आच्छादित कर सजाइये ॥ 

अटबि पठाउनि साज संजोएँ । बन सारथि संग आपहि होए ॥ 
एक छन त सुमंत्र प्रभु मुख ताके । बिसमयमंत भयऊ अबाके ॥ 
वन में भेजने वाले सामग्रियों से योजित कर उसके सारथी आप ही बनिये और संग हो लीजिए ॥ एक क्षण के लिए सचिव सुमंत्र प्रभु का श्री मुख ताकते ही रह गए एवं विस्मितवंत होकर अवाक रह गए ॥ 

सुनत सुमंत्र गवन तुरत, रथ बर साज समाज । 
आन लवाई सिरुनत, कर धर कहि महराज ॥ 
किन्तु प्रभु को श्रवण कर सुमंत्र फिर तत्काल गमन किये रथ को उत्तम सवरूप में सजा कर तैयार किया । फिर उसकी किरण धारण किये  उसे प्रभु के सम्मुख ला कर शीश झुकाते हुवे कहा महाराज सेवा में रथ प्रस्तुत है ॥ 

घन घूँघट निभ बदन गुंठाए । नैन झुकाए बिधु कन बरखाए ॥ 
बिहुरन बचन सुन उडुगन रोए । पलक भिजोए पल पल्बल धोए ॥ 
शशी ने अपने प्रभासित मुख घन रूपी घूँघट में छुपाए, अवनत नेत्रों से लवण कण बरसा रही है । वियोग क वचन सुनकर नक्षत्र क्रंदन करने लगे वे पलक भोगोटे और उसे वारंवार सरोवर के जल में धोते ।। 

पेयुस महस रजोरस घोरे । आजु नियति कह भयउ न भोरे ॥ 
परस रजस कर रहिं रतनारी । मंद कंत भए मलिन मुखारी ॥ 
उजियारा में अंधियारा  घुलता रहा । प्रकृति कह रही है आज भोर न होए ॥ जो पराग-कण किरणों का स्पर्श प्राप्त कर रत्नों के समरूप चमक रहे थे वे उन किरणों की कांति के मंद होते ही मलिन मुखी होकर तिल के सदृश्य हो गए ॥ 

निसीथ निसि नभ निहनब हेरे । पहर पहर  पद भावँरी फेरे ॥ 
भाउ प्रबन भइ रैन की रानी । निलयन घन मुख पानी पानी ॥ 
पर्वत-नदियां धरती-अम्बर कोई बहाना,  अर्धरात्रि हो चुकी निशासँग नभ अवरोधन का कोई साधन भूत कारण ढूंढ रहे हैं ।। वे प्रतीक पहर चरण पहर फर 

कमल मुरझाए कुईं कुमलाइ । हलबल जल मह निरबता छाइ ॥ 
जगति जोत लौ लगन लगावै । प्रभु बिहुरन कवनेहुँ बिसरावै ॥ 
कमल मुरझाए हुवे हैं, कौमुद कुम्हालाई हुई है चंचल जल में नीरवता छाई है ॥ जागती जोत आशान्वित है और लगनपूर्वक प्रज्वलित हो रही है कि प्रभु किसी भाँती त्याग को विस्मृत कर दें ॥  

जब सिय बिहरन रघुराइ, बहुरि बहुरि दुहराए । 
जोति जोइ लगन जगाए, भयौ बुझाए बुझाए ॥

जब सीता के त्याग वचन को राजा रामचंद्र वारंवार दुहराने  लगे तब जगती ज्योति जो आस लगाए थी कि रघुवर त्याग भाव को किसी प्रकार विस्मृत कर देवें वह निराशावश बुझी बुझी हो गई ॥ 

चँवर छतर ओहार धर जब रथ साज सँजोए । 
कह अवध कानन कानन,,आःह रोकु रे कोए ॥ 
चंवर-छत्र आवरण आदि धारण कर रथ ने जब सभी श्रृंगार प्रसाधन  संजो लिये तब साकेत की वाटिकाएं कह उठी आह ! माता सीता को कोई तो रोको । 

शनिवार, १५ मार्च, २ ० १ ४                                                                                        

पुनि प्रभु लखन कहत करुनाई । बिलम तज बेगि करू रे भाई ॥ 
अरु कहिं रथि रथ पीठ पधाओ । लए सिया संग बिपिन सिधाओ ॥ 
फिर प्रभु ने करुणा से युक्त होकर लक्ष्मण से कहा : -- मेरे भाई अब विलंब को त्यागो, शीघ्रता करो । और कहा कि हे रथी रथ का पीठासन ग्रहण करो एवं मैथिली को संग लिए वन को जाओ ॥ 

आन दरस बिथुरन के बेरा । भ्रात लखन जब तन मन हेरा ॥ 
ठाढ़ि रहीँ पट नयन दुआरी । दुःख अँधियारी अरधन ढारी ॥ 
विरह की बेला आती देख भ्राता लक्ष्मण ने जब अपना तन मन ढूंडा । नयन-द्वार के अध् मूँदे पटल पर दुःख की अंधियारी को खड़ा पाया ।। 

भीत लगन लग हियरा दाहा । दीन बदन सन प्रगसे आहा । 
धुकधुक सह धुक धुअँ धुअँ होई । बाडबानल दरसे न कोई ॥ 
भीतर जगती हुई अग्नि से हृदय भस्मसात हुवा जा रहा था । और व्याकुल मुख से शोक सूचक उदगार प्रकट हो रहे थे ॥ ह्रदय की धुकधुक कराती धड़कनों की धौंकनी से धुंआ ही धुंआ छाया हुवा था यह समुद्र की अनतर अग्नी थी जिसे कोई भी देख नहीं सकता था ॥ 

कम्पत कसकत करत निहोरे । कहत बहुरि दुहु कर जोरे ॥ 
दीजिए दरसन प्रभु एक बारा । मात सिया पर कर उपकारा ॥ 
उस दहन के संसर्ग में लक्ष्मण कांपते, टीस  उठाते प्रार्थना अकरते दोनों हाथो को जोड़े फिर श्रीराम चंद्रजी से कहते हैं : -- हे प्रभु ! आप माता सीता पर उपकार करते हुवे एक बार उन्हें अपने दर्शन दीजिए ॥ 

सोइ त बिहुरन बिषय न बोधी। रोधिहार का कह अवरोधी ॥ 
कोइ  कवन कस  होर निहोरहि । को बिधि कवन निहोरन गहि रहि ॥ 
वह तो त्याग के विषय में वह कुछ भी नहीं जानती ।  रोकने वाले उन्हें क्या कह कर रोकेंगे ॥ कोई उन्हें किसे किस भाँती से रोकन हेतु मनाएगा ।  रुकने के निवेदन को वह किस विधि से स्वीकार करेंगी और रुक जाएंगी ॥ 

भगवन उतरू न आव, निर्निमेष निरखत लखन । 
सरि परबर्जित भाउ, बरबस बाँधि सलिल नयन ॥  
भगवान श्रीराम को कोई उत्तर नहीं सुझा । वह अपलक स्वरुप में लक्ष्मण को देखते रहे ॥ त्याग के भाव की मालाओं में  नयनों ने सलिल को बलपूर्वक बांधे रखा ॥ 

रविवार, १६ मार्च, २०१४                                                                                        

नमित सीस  कर कहि  रघुराई । अति कठिनाई नहि रे भाई ॥ 
उपजे बिचार मन बिहुरन के । पैठे हियरा जब दृढ़ बन के ।। 
रघुवीर ने सिर नीचा करते हुवे कठिनता पूर्वक कहा, नहीं मेरे भाई ॥ जिस समय चित्त में त्याग का विचार उत्पन्न हुवा  था और वह ह्रदय में दृढ स्वरुप में स्थापित हो गया था ॥ 

बचन सोंह तब सन परिहारे ॥ कह लखि प्रभु जस अटल पहारे ॥ 
बन बहेड़ गिरी कंदर खोहा । प्राण पियारी के पथ जोहा ॥ 
वचन के साथ मैने सीता को उसी समय त्याग दिया था । यह  कहकर प्रभु श्रीराम चन्द्र ऐसे प्रतीत हुवे मानो वह कोई अचल पहाड़ हो ॥ बीहड़ वन के पर्वतीय गुफाएँ एवं दर्रे । प्राणों के सदृश्य प्रिय उस प्रियतमा  की प्रतीक्षा में हैं ॥ 

करि केहरि बृक काननचारी । मृग नयनी के पंथ निहारी ॥ 
अगमु  मग पग काँकरी कांटे । पलक बिछाए बिलोकहिं बाटे ॥ 
दंतैल हाथी, श्रृंग नखी व्याल नरभक्षी भेड़िये आदि वनगोचर उस मृगनयनी की पंथ -जोहार रहे है ॥ दुर्गम मार्ग के कंकड़ कांटे उसके चरणों की पलक बिछाए  बाट जोह रहे हैं ॥ 

छुधा तीस कटु फल जल डाबर । त्रास त्रसत त्रस तमस भयंकर ॥ 
घोर घाम हिम धारा आहे । नाग नगन पद परसन चाहे ॥ 
हृदय में भय उपन्न काने वाला घनघोर अंधेरा है । क्षुधा, तृष्णा के लिए कड़वे-कड़वे फल व पोखरों का पानी हैं । तीक्ष्ण धूप है आह जहां हिम की सी धाराएं हैं और अनगिनत नाग उसके चरणों का स्पर्श चाहते हैं ॥ 

दुख दसा दिसा बिपरीत, काल ब्याल कराल । 
आगौरत निज आगंतुक, कष्ट धरे करमाल ॥  
जहां दुखद दःसा है, दिशाएं विपरीत हैं जहां काल दुष्ट होकर भयानक स्वरुप लिए है एवं कष्ट हाथों में माला लिए अपने अतिथि के स्वागत हेतु खड़ा है ॥ 

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