सब जगज जन भगवन कृत इहँ कन कन उपजोगि |
जो कहँ ए केहि जोग नहि सो तो मानसि रोगि || ११ ||
भावार्थ : -- यह चराचर जगत ईशवर की कृति है यहां कण-कण उपयोगी है | जो यह कहता पाया जाए कि यह जीव अथवा अजीव किसी योग्य नहीं वह मानसिक रोगी है | उसके परिजनों को उसका उपचार करवाना चाहिए, यदि परिजन न हों तब सबंधित राष्ट्र उसके उपचार की व्यवस्था करे.....
राष्ट्र की समृद्धि व्यक्ति की समृद्धि सुनिश्चित करती है, व्यक्ति की समृद्धि राष्ट्र की समृद्धिसुनिश्चित करे यह आवश्यक नहीं.....
साधारन असाधारन धन संपद कुल दोइ |
असाधारन जनहित हुँत अखिल जगत कर होइ || १ ||
भावार्थ : - धन-संपदाएँ दो प्रकार की होती है एक साधारण व् एक असाधारण | असाधारण संपदाएँ व्यक्ति अथवा राष्ट्र की न होकर जनकल्याण हेतु समस्त विश्व की होती है |
जैसे: - ज्ञान की सम्पदा एक असाधारण है.....
तीनि भाँति कर होइहीं साधारन भव भूति |
एक निज दुज जन जन हेतु तीजी देस बिभूति || २ ||
भावार्थ : -- साधारण धन-संपदाएँ तीन प्रकार की होती हैं, एक संपदा व्यक्ति के निजि उपयोग हेतु, एक सार्वजनिक उपयोग हेतु, एक राष्ट्र के उपयोग हेतु |
जन मानस की सम्पदा धरनि धेनु धन धाम |
श्रम सील होत कमाइए करतब भल भल काम || 3 ||
भावार्थ : -- राष्ट्र में भूमि- भवन, धान-धेनु, रुपया-पैसा, रत्न -मणि आदि सम्पदाएँ जन-मानस के निजि स्वामित्व हेतु होती हैं, जिसे वह उत्तमोत्तम कार्य करते श्रम पूर्वक अर्जित करे | वह ऐसा कार्य न करे जिससे जीवन के अधिकार का अतिक्रमण होता हो |
कूप बापि बन बाटिका घाट हाट बट सेतु |
जाताजात के साधन सम संपद सब हेतु || ४ ||
भावार्थ : -- नलकूप, ताल-तालाब, वनवाटिका, नदियों के घाट, व्यापार मंडी, मार्ग, सेतु एवं यातायात के साधन जैसी संपति, सार्वजनिक संपति होकर सर्वजन हेतु होती है |
नदी नदिपत बन परबत सकल खनिक खनि खान |
राज कोष सम्पदा के देस होत श्री मान || ५ ||
भावार्थ : - राष्ट्र की प्रभुसत्ता में सीमाबद्ध भूखंड के अंतर्गत स्थित भूमि, नदियाँ, समुद्र, खनित खनिज, समस्त खानें व् राजकोश आदि सम्पदा, राष्ट्र के स्वामित्व में होकर राष्ट्र की सम्पदा होती है |
खेत जोत श्रम साध के निपजावे जो नाज |
धनार्जन हेतु जै तौ सबते उत्तम काज || ६ ||
भावार्थ : -- श्रम की साधना करते हुवे खेत जोत कर अन्न का उत्पादन धनार्जन करने की सबसे उत्तम वृत्ति है |
घर की संचित सम्पदा खोद खोद के खाए |
दारिद होतब जात तब सो तो बिनहि कमाए || ७ ||
भावार्थ : -- वास्तविक उत्पादन में कठोर परिश्रम की आवश्यकता पड़ती है | जब जनमानस कठोर परिश्रम न कर राष्ट्र की संचित व् संरक्षित सम्पदा को उत्खाद करते हुवे निजि सम्पति एकत्रित कर समृद्ध होता जाता है तब वास्तविक अर्जन के अभाव में वह राष्ट्र दरिद्र होता जाता है |
एक सँजोइ सुकरम ते एक कुकरम ते सँजोइ |
यह तो दैबिअ सम्पदा येह आसुरी होए || ८ ||
भावार्थ : - वर्जित कृत्यों व् दुर्वृत्ति द्वारा अर्जित की गई धन-सम्पति आसुरी, तथा विहित कृत्यों व् सद्वृत्ति द्वारा अर्जित की गई धन -सम्पति, दैविक कहलाती है |
धरनि धाम ते मानसा नीर नाज ते देस |
सरब जन की सम्पति सों धनी होत परिवेस || ९ ||
भावार्थ : -- भूमि- भवन, धान-धेनु, रुपया-पैसा, रत्न -मणि जन- मानस को व् जल, अन्न, उत्तम विचार, नदियों, खनिज आदि सम्पदा देश को कूप, ताल-तालाब, वनवाटिका, sनदियों के घाट, मार्ग, सेतु जैसी सार्वजनिक संपति देश के परिवेश को समृद्ध करती हैं.....
राजा बासै झोपड़ा, चरन पादुका हीन |
रचिया जो पथ राजसी, सो तो अर्थ बिहीन || १० ||
भावार्थ : -- जिस देश का राजा चरण- पादुका से रहित होकर झोपड़ियों में निवास करता हो, वहां राजपथ जैसी सार्जनिक सम्पति व्यर्थ होकर राजा की दरिद्रता का वर्धन करती हैं.....
रह जब संचित सम्पदा तब सम्पत सब काल |
सीस पड़े को आपदा, जन जन होत निहाल || ११ ||
भावार्थ : -- जिस राष्ट्र में संयत व्यवहार से सम्पदाएँ संचित रहती हैं उस राष्ट्र के भूत भविष्य और वर्तमान तीनों काल सुखमय होते है, वहां आने वाली पीडियां जन्मजात धनी होती हैं | आपदा ग्रस्त होने पर भी वहां कुछ अभाव नहीं होता.....
उद्यम मन ते धन लख्मी आलस मन ते हानि ||
माया के बंधन पड़े तामें ऐंचा तानि ||
----- || संत कबीर दास || ----
भावार्थ :- उद्यमशीलता लाभ जनित लक्ष्मी की जननी है | आलस्य दरिद्रता का जनक है | जनमानस जब विलासिता के बंधन में पड़ता है यब वह अपनी मातृ भूमि की खाल खाने पर भी उतारू हो जाता है ||
जो कहँ ए केहि जोग नहि सो तो मानसि रोगि || ११ ||
भावार्थ : -- यह चराचर जगत ईशवर की कृति है यहां कण-कण उपयोगी है | जो यह कहता पाया जाए कि यह जीव अथवा अजीव किसी योग्य नहीं वह मानसिक रोगी है | उसके परिजनों को उसका उपचार करवाना चाहिए, यदि परिजन न हों तब सबंधित राष्ट्र उसके उपचार की व्यवस्था करे.....
राष्ट्र की समृद्धि व्यक्ति की समृद्धि सुनिश्चित करती है, व्यक्ति की समृद्धि राष्ट्र की समृद्धिसुनिश्चित करे यह आवश्यक नहीं.....
साधारन असाधारन धन संपद कुल दोइ |
असाधारन जनहित हुँत अखिल जगत कर होइ || १ ||
भावार्थ : - धन-संपदाएँ दो प्रकार की होती है एक साधारण व् एक असाधारण | असाधारण संपदाएँ व्यक्ति अथवा राष्ट्र की न होकर जनकल्याण हेतु समस्त विश्व की होती है |
जैसे: - ज्ञान की सम्पदा एक असाधारण है.....
तीनि भाँति कर होइहीं साधारन भव भूति |
एक निज दुज जन जन हेतु तीजी देस बिभूति || २ ||
भावार्थ : -- साधारण धन-संपदाएँ तीन प्रकार की होती हैं, एक संपदा व्यक्ति के निजि उपयोग हेतु, एक सार्वजनिक उपयोग हेतु, एक राष्ट्र के उपयोग हेतु |
जन मानस की सम्पदा धरनि धेनु धन धाम |
श्रम सील होत कमाइए करतब भल भल काम || 3 ||
भावार्थ : -- राष्ट्र में भूमि- भवन, धान-धेनु, रुपया-पैसा, रत्न -मणि आदि सम्पदाएँ जन-मानस के निजि स्वामित्व हेतु होती हैं, जिसे वह उत्तमोत्तम कार्य करते श्रम पूर्वक अर्जित करे | वह ऐसा कार्य न करे जिससे जीवन के अधिकार का अतिक्रमण होता हो |
कूप बापि बन बाटिका घाट हाट बट सेतु |
जाताजात के साधन सम संपद सब हेतु || ४ ||
भावार्थ : -- नलकूप, ताल-तालाब, वनवाटिका, नदियों के घाट, व्यापार मंडी, मार्ग, सेतु एवं यातायात के साधन जैसी संपति, सार्वजनिक संपति होकर सर्वजन हेतु होती है |
नदी नदिपत बन परबत सकल खनिक खनि खान |
राज कोष सम्पदा के देस होत श्री मान || ५ ||
भावार्थ : - राष्ट्र की प्रभुसत्ता में सीमाबद्ध भूखंड के अंतर्गत स्थित भूमि, नदियाँ, समुद्र, खनित खनिज, समस्त खानें व् राजकोश आदि सम्पदा, राष्ट्र के स्वामित्व में होकर राष्ट्र की सम्पदा होती है |
खेत जोत श्रम साध के निपजावे जो नाज |
धनार्जन हेतु जै तौ सबते उत्तम काज || ६ ||
भावार्थ : -- श्रम की साधना करते हुवे खेत जोत कर अन्न का उत्पादन धनार्जन करने की सबसे उत्तम वृत्ति है |
घर की संचित सम्पदा खोद खोद के खाए |
दारिद होतब जात तब सो तो बिनहि कमाए || ७ ||
भावार्थ : -- वास्तविक उत्पादन में कठोर परिश्रम की आवश्यकता पड़ती है | जब जनमानस कठोर परिश्रम न कर राष्ट्र की संचित व् संरक्षित सम्पदा को उत्खाद करते हुवे निजि सम्पति एकत्रित कर समृद्ध होता जाता है तब वास्तविक अर्जन के अभाव में वह राष्ट्र दरिद्र होता जाता है |
एक सँजोइ सुकरम ते एक कुकरम ते सँजोइ |
यह तो दैबिअ सम्पदा येह आसुरी होए || ८ ||
भावार्थ : - वर्जित कृत्यों व् दुर्वृत्ति द्वारा अर्जित की गई धन-सम्पति आसुरी, तथा विहित कृत्यों व् सद्वृत्ति द्वारा अर्जित की गई धन -सम्पति, दैविक कहलाती है |
धरनि धाम ते मानसा नीर नाज ते देस |
सरब जन की सम्पति सों धनी होत परिवेस || ९ ||
भावार्थ : -- भूमि- भवन, धान-धेनु, रुपया-पैसा, रत्न -मणि जन- मानस को व् जल, अन्न, उत्तम विचार, नदियों, खनिज आदि सम्पदा देश को कूप, ताल-तालाब, वनवाटिका, sनदियों के घाट, मार्ग, सेतु जैसी सार्वजनिक संपति देश के परिवेश को समृद्ध करती हैं.....
राजा बासै झोपड़ा, चरन पादुका हीन |
रचिया जो पथ राजसी, सो तो अर्थ बिहीन || १० ||
भावार्थ : -- जिस देश का राजा चरण- पादुका से रहित होकर झोपड़ियों में निवास करता हो, वहां राजपथ जैसी सार्जनिक सम्पति व्यर्थ होकर राजा की दरिद्रता का वर्धन करती हैं.....
रह जब संचित सम्पदा तब सम्पत सब काल |
सीस पड़े को आपदा, जन जन होत निहाल || ११ ||
भावार्थ : -- जिस राष्ट्र में संयत व्यवहार से सम्पदाएँ संचित रहती हैं उस राष्ट्र के भूत भविष्य और वर्तमान तीनों काल सुखमय होते है, वहां आने वाली पीडियां जन्मजात धनी होती हैं | आपदा ग्रस्त होने पर भी वहां कुछ अभाव नहीं होता.....
उद्यम मन ते धन लख्मी आलस मन ते हानि ||
माया के बंधन पड़े तामें ऐंचा तानि ||
----- || संत कबीर दास || ----
भावार्थ :- उद्यमशीलता लाभ जनित लक्ष्मी की जननी है | आलस्य दरिद्रता का जनक है | जनमानस जब विलासिता के बंधन में पड़ता है यब वह अपनी मातृ भूमि की खाल खाने पर भी उतारू हो जाता है ||
बहुत सुंदर
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (13-07-2017) को "पाप पुराने धोता चल" (चर्चा अंक-2665) (चर्चा अंक-2664) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'