बादहि बादल बजहि बधावा,
पिया भवनन मोदु प्रमोदु मन सावन घन घमंडु भरि छावा |
मंगल धुनि पूरत अगासा परत रे पनवा माहि घावा ||
हेरी माई देउ सगुनिया परिअ दुअरि दुलहिन के पाँवा |
कंठि हारु कर करिअ निछावरि तृन तोरत सिरु बारि फिरावा ||
सकल ननदिया आरती करहि पावै सोइ जोइ मनभावा |
लोक रीति करि पाएँ पखारै दूब पयस मय थार धरावा ||
छुटत कंगन खोरत कर गाँठि हारत गए पिय खोरि न पावा |
दूबि संगत धरेउ बरायन गोतिनि कंगन द्युत खिलावा ||
गह करतल पिय बारहिबारा ,जय पावत मुख बिहँस सुहावा |
गावैं जहँ तहँ लोग लुगाई निरख नयन भर पियहि बिहावा ||
भावार्थ : - बादल वादन कर रहे हैं जिसमें 'बधाई' बज रही है | प्रीतम के भवन पर परिजनों के मन में आनंदोल्लास, सावन के मेघों जैसे घुमड़ कर छा रहे हैं | नगाड़ों पर चोट पड़ रही है, मंगल ध्वनि से आकाश परिपूरित हो रहा है | वधु के आगमन का सन्देश देते हुवे देवर ने कहा अरी जननी शगुन दो तुम्हारे द्वार पर दुलहन का आगमन हो रहा है तब होती जननी बलैयाँ लेती कंठ पर के हार को वधु के शीश पर वार कर न्यौछावरी देती हैं | सभी ननदें वधु की आरती उतारती हैं और रूचि अनुसार भेंट प्राप्त करती हैं | लोक रीति का निर्वहन करते वरवधू का चरण प्रक्षालन किया गया दूर्वा पायस से युक्त थाल सामुख आधरित की गई | सप्त-ग्रंथि पड़े कंगन खोलने के खेल में प्रीतम की हार होती हैं वह ग्रंथि खोल नहीं पाते | तदनन्तरखोले गए कंगन के छल्ले को दूर्वा के साथ पयस भरी थाल में ज्येष्ठ पत्नी वरवधू को कंगन के पण की क्रीड़ा करवाती हैं | प्रीतम छल्ला न ढूंढ कर वारंवार वधु का करतल ग्रहण करते हैं तथापि उक्त क्रीड़ा में वह विजय प्राप्त करते हैं उनके मुख का सुहास अतिशय सुहावना प्रतीत हो रहा है | प्रियवर के इस विवाह का दर्शन कर नर नारियां उसकी शोभा को जहाँ-तहाँ वर्णन करते हैं |
पनवा = नगाड़ा
घावा = चोट
तृण तोड़ना = बलैया लेना
बरायन = विवाह के समय दूल्हा-दुल्हन को कंगन के साथ पहनाया जाने वाला छल्ला
गोतिनि = कुल वधु, जेष्ट की स्त्री
द्युत = पण
पिया भवनन मोदु प्रमोदु मन सावन घन घमंडु भरि छावा |
मंगल धुनि पूरत अगासा परत रे पनवा माहि घावा ||
हेरी माई देउ सगुनिया परिअ दुअरि दुलहिन के पाँवा |
कंठि हारु कर करिअ निछावरि तृन तोरत सिरु बारि फिरावा ||
सकल ननदिया आरती करहि पावै सोइ जोइ मनभावा |
लोक रीति करि पाएँ पखारै दूब पयस मय थार धरावा ||
छुटत कंगन खोरत कर गाँठि हारत गए पिय खोरि न पावा |
दूबि संगत धरेउ बरायन गोतिनि कंगन द्युत खिलावा ||
गह करतल पिय बारहिबारा ,जय पावत मुख बिहँस सुहावा |
गावैं जहँ तहँ लोग लुगाई निरख नयन भर पियहि बिहावा ||
भावार्थ : - बादल वादन कर रहे हैं जिसमें 'बधाई' बज रही है | प्रीतम के भवन पर परिजनों के मन में आनंदोल्लास, सावन के मेघों जैसे घुमड़ कर छा रहे हैं | नगाड़ों पर चोट पड़ रही है, मंगल ध्वनि से आकाश परिपूरित हो रहा है | वधु के आगमन का सन्देश देते हुवे देवर ने कहा अरी जननी शगुन दो तुम्हारे द्वार पर दुलहन का आगमन हो रहा है तब होती जननी बलैयाँ लेती कंठ पर के हार को वधु के शीश पर वार कर न्यौछावरी देती हैं | सभी ननदें वधु की आरती उतारती हैं और रूचि अनुसार भेंट प्राप्त करती हैं | लोक रीति का निर्वहन करते वरवधू का चरण प्रक्षालन किया गया दूर्वा पायस से युक्त थाल सामुख आधरित की गई | सप्त-ग्रंथि पड़े कंगन खोलने के खेल में प्रीतम की हार होती हैं वह ग्रंथि खोल नहीं पाते | तदनन्तरखोले गए कंगन के छल्ले को दूर्वा के साथ पयस भरी थाल में ज्येष्ठ पत्नी वरवधू को कंगन के पण की क्रीड़ा करवाती हैं | प्रीतम छल्ला न ढूंढ कर वारंवार वधु का करतल ग्रहण करते हैं तथापि उक्त क्रीड़ा में वह विजय प्राप्त करते हैं उनके मुख का सुहास अतिशय सुहावना प्रतीत हो रहा है | प्रियवर के इस विवाह का दर्शन कर नर नारियां उसकी शोभा को जहाँ-तहाँ वर्णन करते हैं |
पनवा = नगाड़ा
घावा = चोट
तृण तोड़ना = बलैया लेना
बरायन = विवाह के समय दूल्हा-दुल्हन को कंगन के साथ पहनाया जाने वाला छल्ला
गोतिनि = कुल वधु, जेष्ट की स्त्री
द्युत = पण
.... हार गए पर खोल न पाए .....,
ReplyDeleteयह भी हमारी रीति का , एक महत्वपूर्ण सोपान..... मन भावन वर्णन बधाई सादर
नमस्कार
क्षेत्रपाल 04.07.18 , 12.58 अपराह्न
आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' ०९ जुलाई २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
ReplyDeleteटीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
आवश्यक सूचना : रचनाएं लिंक करने का उद्देश्य रचनाकार की मौलिकता का हनन करना कदापि नहीं हैं बल्कि उसके ब्लॉग तक साहित्य प्रेमियों को निर्बाध पहुँचाना है ताकि उक्त लेखक और उसकी रचनाधर्मिता से पाठक स्वयं परिचित हो सके, यही हमारा प्रयास है। यह कोई व्यवसायिक कार्य नहीं है बल्कि साहित्य के प्रति मेरा समर्पण है। सादर 'एकलव्य'
विशेष : हम चाहते हैं आदरणीय रोली अभिलाषा जी को उनके प्रथम पुस्तक प्रकाशन हेतु आपसभी लोकतंत्र संवाद मंच पर अपने आगमन के साथ उन्हें प्रोत्साहन व स्नेह प्रदान करें। 'एकलव्य'
बहुत सुन्दर ! लगभग डेड़ सौ वर्ष से उपेक्षित हमारी आंचलिक भाषाओँ की पुनर्स्थापना का यह सार्थक प्रयास सराहनीय है. जायसी और तुलसीदास की स्मृति को पुनर्जीवित करने के लिए नीतू सिंघल बधाई की पात्र हैं.
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