Tuesday, 26 June 2018

----- ॥ दोहा-पद १५ ॥ -----,

हाय भयो (रे)कस राम ए रोरा..,
सांझ बहुरत बहुरेउ पाँखी, नभ सहुँ लाखै सहसै आँखी |
रैन भई ना गयउ अँजोरा ||

कहत दिवस सों साँझि रे पिया, झूठि आँच ते जरइहौ हिया |
कन भरै मन मानै न तोरा  ||

यहु तापन यहु बैरन रारी, हम सों अतिसय तुअहि प्यारी |
अगन लगइ ए फिरै चहुँ ओरा  ||

रे निस दिन केरी कहीबत ए  पास परौस मुख जोर कहत ए |
कह अनभल सकुचाए न थोरा ||

अजहुँ लगन की बेला न आइ  तापर दियरा पौंर पधराए                                                                            निज हुँत पेखै पंथ ए मोरा ||    

भावार्थ : - ये कैसा व्यर्थ का कोलाहल है
संध्या  के लौटते ही पंछी लौट आए,  अभी नभ में सूर्य भी सम्मुख दर्शित हो रहे है || न रैन हुई है न उजाला ही गया है  तथापि यह कैसा कोलाहल है |   संध्या दिवस से कहती रे प्रियतम  झूठी आंच से अपने ह्रदय को तप्त कर रहे हो,  कान भरे बिना तुम्हें विश्राम नहीं मिलता | यह तापस ऋतु और यह कलह बड़ी ही बैरन है, जो तुम्हें हमसे भी प्रिय हैं  ये चारों ओर आग लगाए फिरती हैं |  पास पड़ोस के लोग बातें बनाते हुवे कहते हैं ये झगड़ा तो निसदिन का है इसे क्या सुनना, अनुचित कथन करते इन्हें  किंचित भी संकोच नहीं होता | अभी तो लगन की बेला नहीं आई तद्यपि अपने स्वार्थ हेतु ये दीप ड्योढ़ी पर मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं..... 

1 comment:

  1. अति सुन्दर।

    इससे भोज राजा के साथ कालिदास के निर्वासनके दौरान अद्य धारा सदा नीरा याद आया पर मै दोनो के बीच समानता की सोच नही रहा । इसलिए कि सुनने की गलती बताई थी ।
    यहा अद्भुत नजारा है । काव्य सौष्ठव। धन्य है ।

    सादर नमस्कार । बहुत आनन्दित हुआ। एसी रचनाऔ का मुन्तजिर हू।

    क्षेत्रपाल

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