'घूँघट अथवा पर्दा प्रथा' एवं 'शीश अपिधान ' यद्यपि एक रूढ़ीवादिता थी,
हैं और रहेगी किन्तु 'शरीर प्रदर्शन' भी न तो सुरीति है और न ही यह
आधुनिकता का परिचायक.....
कई धर्म, जाति, समाज समुदाय परिवार में विशेषकर महिलाओं हेतु
इस रुढिवादिता को अपनाना न केवल अनिवार्य है अपितु कठोरता
पूर्वक पालन करने के निर्देश हैं, पारंपरिक परिधान यद्यपि अपनी
सभ्यता, संस्कृति व संस्कारों को जीवित रखते हुवे स्मृति गम्य
चिन्ह स्वरूप होते हैं किन्तु इन्हें पुरुष वर्ग द्वारा भी अपनाना चाहिए.....
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteदो दिनों से नेट नहीं चल रहा था। इसलिए कहीं कमेंट करने भी नहीं जा सका। आज नेट की स्पीड ठीक आ गई और रविवार के लिए चर्चा भी शैड्यूल हो गई।
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (2-12-2012) के चर्चा मंच-1060 (प्रथा की व्यथा) पर भी होगी!
सूचनार्थ...!
बहुत सही बात है नीतु जी, मैं आपसे पूर्णत्या सहमत हूँ.
ReplyDeleteआपके ब्लॉग पर आकर बहुत अच्छा लगा ..अगर आपको भी अच्छा लगे तो मेरे ब्लॉग से भी जुड़े।
आभार!!
बहुत सही .. दोहरे मानदंड नहीं होने चाहिए ..
ReplyDeleteबहुत सही बात कही ....लेकिन सोच कर देखा तो बहुत हंसी भी आयी ..
ReplyDeleteवि्चारणीय
ReplyDeleteप्रिय नीतू काफी हद तक आपकी बात सही है विचारणीय है ना जाने कितने गाँव में अभी तक घूंघट प्रथा भारतीय तहजीब और संस्कृति के नाम पर चली आ रही है मुझे नहीं लगता किसी भी गाँव के लड़के अपनी प्राचीन सभ्यता संस्कृति के परिचायक परिधान धोती कुरता और पगड़ी बांधते होंगे फिर स्त्रियों के लिए ये सब पाबंदियां क्यूँ यही सब तो पुरुष वर्ग की सत्ता की प्रधानता का सूचक है जिसे मेल ईगो कहते हैं
ReplyDeleteपारंपरिक परिधान कोई बंधन नहीं हैं ये न केवल सौंदर्यता के प्रतिक स्वरूप हैं
ReplyDeleteअपितु हमारी सभ्यता संस्कृति संस्कार के स्मृति चिन्ह भी हैं हाँ इन्हें पुरुषो
द्वारा भी अपनाया जाना चाहिए.....