Saturday, 1 December 2012

----- ।। प्रथा की व्यथा ।। -----


                             'घूँघट अथवा पर्दा प्रथा' एवं 'शीश अपिधान ' यद्यपि एक रूढ़ीवादिता थी,
                              हैं और रहेगी किन्तु  'शरीर प्रदर्शन' भी न  तो  सुरीति  है और न ही यह
                              आधुनिकता का परिचायक.....

                             कई धर्म, जाति, समाज समुदाय परिवार में विशेषकर महिलाओं हेतु
                             इस रुढिवादिता को अपनाना न केवल  अनिवार्य  है  अपितु  कठोरता
                             पूर्वक  पालन  करने  के  निर्देश  हैं, पारंपरिक  परिधान यद्यपि अपनी
                             सभ्यता, संस्कृति  व  संस्कारों  को  जीवित  रखते  हुवे  स्मृति  गम्य
                             चिन्ह स्वरूप होते हैं किन्तु इन्हें पुरुष वर्ग द्वारा भी अपनाना चाहिए.....

                        

7 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    दो दिनों से नेट नहीं चल रहा था। इसलिए कहीं कमेंट करने भी नहीं जा सका। आज नेट की स्पीड ठीक आ गई और रविवार के लिए चर्चा भी शैड्यूल हो गई।
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (2-12-2012) के चर्चा मंच-1060 (प्रथा की व्यथा) पर भी होगी!
    सूचनार्थ...!

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  2. बहुत सही बात है नीतु जी, मैं आपसे पूर्णत्या सहमत हूँ.

    आपके ब्लॉग पर आकर बहुत अच्छा लगा ..अगर आपको भी अच्छा लगे तो मेरे ब्लॉग से भी जुड़े।
    आभार!!

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  3. बहुत सही .. दोहरे मानदंड नहीं होने चाहिए ..

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  4. बहुत सही बात कही ....लेकिन सोच कर देखा तो बहुत हंसी भी आयी ..

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  5. प्रिय नीतू काफी हद तक आपकी बात सही है विचारणीय है ना जाने कितने गाँव में अभी तक घूंघट प्रथा भारतीय तहजीब और संस्कृति के नाम पर चली आ रही है मुझे नहीं लगता किसी भी गाँव के लड़के अपनी प्राचीन सभ्यता संस्कृति के परिचायक परिधान धोती कुरता और पगड़ी बांधते होंगे फिर स्त्रियों के लिए ये सब पाबंदियां क्यूँ यही सब तो पुरुष वर्ग की सत्ता की प्रधानता का सूचक है जिसे मेल ईगो कहते हैं

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  6. पारंपरिक परिधान कोई बंधन नहीं हैं ये न केवल सौंदर्यता के प्रतिक स्वरूप हैं
    अपितु हमारी सभ्यता संस्कृति संस्कार के स्मृति चिन्ह भी हैं हाँ इन्हें पुरुषो
    द्वारा भी अपनाया जाना चाहिए.....

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