धरम अनादर मति करो होत जहाँ अवसान |
ताहि कंधे पौढ़त सो पहुँचे रे समसान || १ ||
भावार्थ : -- सत्य,तप,दया और दान आदि धर्म साधारण धर्म है जो सभी मनुष्यों होना चाहिए | विशिष्ट धर्म का भी अनादर नहीं करना चाहिए, जीवन रूपी संध्या के अवसान होने पर धर्म के कंधे उठकर वह श्मशान पहुंचता है |
मुए जगत निरबसन कियो धरम दियो ओहार |
बासत पुरबल देहि कै करिया सो उद्धार || २ ||
भावार्थ : - मृत्यु के पश्चात दुनिया जब मनुष्य को निर्वस्त्र करती है, तब धर्म ही उसे वस्त्र देता है | दुर्गन्ध आने के पूर्व धर्म ही मृत शरीर का उद्धारकर्ता है |
भोजन बासा बसन जब भै जिअ के चिन्हारी |
ताहि प्रबंधन अर्थकर करिअब नीति अनुहारि || ३ ||
भावार्थ : -- सभ्यता के पश्चात जब भोजन वस्त्र व् आवास मनुष्य के जीवन हेतु आवश्यक साधन हो गए तब कतिपय नीतियों का अनुशरण करते हुवे उसने अर्थ को प्रबंधित किया |
अर्थात : -- मनुष्य द्वारा अर्जित किये गए धन को किस प्रकार प्रबंधित किया जाए कि वह सरलता पूर्वक इन आवश्यक साधनों को प्राप्त कर सके यह उपक्रम अर्थ -प्रबंधन कहलाया |
दूसरे शब्दों में : -- सार्वजनिक राजस्व और उसके आय-व्यय की व्यवस्था ही अर्थ-व्यवस्था है |
भोजन बासा बसन जब भै जिअ के चिन्हारी |
ताहि प्रबंधन अर्थकर करिअब नीति अनुहारि || ३-क ||
भावार्थ : -- सभ्यता के पश्चात जब भोजन वस्त्र व् आवास मनुष्य के जीवन हेतु आवश्यक साधन हो गए तब कतिपय नीतियों का अनुशरण करते हुवे उसने अर्थ को प्रबंधित किया |
जब गगन तेउ औतरी घन बासिनि बिद्युत |
बहुतक साधन संग सो भयऊ जटिल बहूँत || ३-ख ||
भावार्थ : -- और जब घन निवासिनी का धरती पर प्राकट्य हुवा और विद्युत् का आविष्कार हुवा तब इन आवश्यक हेतु के सह अन्यान्य संसाधनों की व्यवस्था के फलस्वरूप अर्थ नीतियां जटिल होती गई |
एक अर्थ हेतु स्वारथ एक परमारथ हेतु |
यहाँ अधर्माधीनता यहाँ धरम के सेतु || ४ ||
भावार्थ : -- सत्ता के लालच ने अर्थ को दो भागों में विभक्त कर दिया | अब अर्थ एक स्वहित के हेतु और एक परहित के हेतु व्यवस्थित होने लगा | जहाँ स्वहित हेतु व्यवथित होता वहां यह अधर्म के अधीन होता जहाँ परहित के हेतु व्यवस्थित होता वहां यह धर्म के द्वारा मर्यादित रहता, अर्थात उत्तम रीति से यह प्राप्त किया जाता और उत्तम नीति से यह व्यय किया जाता.....
लोह लेत जग लोहिता भयउ लोह कर जोइ |
दोहत कोयर सब कतहुँ कोयर कोयर होइ || ५ ||
भावार्थ : - मध्य कालीन युग में लोहा पृथ्वी से निष्कासित होकर जब मनुष्य के हाथ में आया तब कलह-क्लेष से उसने संसार को रक्त से लाल कर दिया | आधुनिक काल के प्रारम्भ में जब कोयले का भी दोहन होने लगा तब उसकी करनी से चारों ओर मलिनता व्याप्त हो गई |
छूटत गया बधावना छूटत गए सब ग्रंथ |
कलि का चाका गति गहा लोहल भए जब पंथ || ६ ||
भावार्थ : -- पृथ्वी के संग्रह का रहस्योद्घाटन होते ही उसकी संचित धन-सम्पदा शनै: शनै: रिक्त होने लगी | जब वह लोहपंथी हो गई तब आधुनिक काल का पहिया द्रुत गति से संचालित होने लगा |
आठ जुग के ठाट जुटे, परे देह पर पाँखि |
चरन धरा कू छाँड़ के गगन धरे तब लाखि || ७ ||
भावार्थ : -- मानव के संसाधन अब देखते ही बनते थे उसकी देह में जैसे पंख उग आए हों उसके चरण धरती पर न पड़कर गगन पर धरे दिखाई पड़ने लगे | जितनी सुख-सुविधाएं उसने इस एक काल में संकलित की उतनी सभी कालों को मिलाकर भी नहीं की | १०० -१५० वर्षों में पृथ्वी का जितना दोहन हुवा विगत कालों में उसका १% भी नहीं हुवा |
समय पुरब उद्यम बिनहि, भाग तेउ अधिकाह |
पाप करम उपजाइया सुख साधन करि लाह || ८ ||
भावार्थ : -- उद्यम के बिना समय से पूर्व और भाग्य से अधिक सुख साधनो की लालसा ने कुत्सित कर्मों को उत्पन्न किया |
अधिकाधिक की दौड़ जनि जोड़ जोड़ की होड़ |
लाखोँ लाख लिखा भयो कौड़ी भयउ करोड़ || ९ ||
भावार्थ : -- अधिकाधिक सुख उपभोग के फेर ने फिर संग्रह करने की प्रतिस्पर्धा उत्पन्न की अब करोड़ों की धन-सम्पत्ति अल्प व् लाखों की धन-संपत्ति अत्यल्प हो गई |
कतहुँ त भ्रष्ट चरन चरे, कतहुँ त अत्याचार |
आचरन करि कदाचरन बिकरित भयउ बिचार || १० ||
भावार्थ : -- यह विकृत विचारों की परिणीति थी कि निर्द्वन्द्व सुख-उपभोग व् अधिकाधिक संग्रह की प्रवृत्ति ने कहीं भ्रष्टाचार तो कहीं अत्याचार का चलन कर दिया , सदाचरण विलुप्त होने लगा कदाचरण ही अब सदाचरण हो चला |
दुराचरन अपनाए भए करतब काज मलीन |
धर्म सेतु बिसुरत अर्थ होतब पाप अधीन || ११ ||
भावार्थ : -- दुराचरणों को अंगीकार किये जाने के कारण कुत्सित कार्य करणीय कार्य हो गए परिणामतस अर्थ धर्म की मर्यादा से विहीन होकर पाप के अधीन हो गया |
ताहि कंधे पौढ़त सो पहुँचे रे समसान || १ ||
भावार्थ : -- सत्य,तप,दया और दान आदि धर्म साधारण धर्म है जो सभी मनुष्यों होना चाहिए | विशिष्ट धर्म का भी अनादर नहीं करना चाहिए, जीवन रूपी संध्या के अवसान होने पर धर्म के कंधे उठकर वह श्मशान पहुंचता है |
मुए जगत निरबसन कियो धरम दियो ओहार |
बासत पुरबल देहि कै करिया सो उद्धार || २ ||
भावार्थ : - मृत्यु के पश्चात दुनिया जब मनुष्य को निर्वस्त्र करती है, तब धर्म ही उसे वस्त्र देता है | दुर्गन्ध आने के पूर्व धर्म ही मृत शरीर का उद्धारकर्ता है |
भोजन बासा बसन जब भै जिअ के चिन्हारी |
ताहि प्रबंधन अर्थकर करिअब नीति अनुहारि || ३ ||
भावार्थ : -- सभ्यता के पश्चात जब भोजन वस्त्र व् आवास मनुष्य के जीवन हेतु आवश्यक साधन हो गए तब कतिपय नीतियों का अनुशरण करते हुवे उसने अर्थ को प्रबंधित किया |
अर्थात : -- मनुष्य द्वारा अर्जित किये गए धन को किस प्रकार प्रबंधित किया जाए कि वह सरलता पूर्वक इन आवश्यक साधनों को प्राप्त कर सके यह उपक्रम अर्थ -प्रबंधन कहलाया |
दूसरे शब्दों में : -- सार्वजनिक राजस्व और उसके आय-व्यय की व्यवस्था ही अर्थ-व्यवस्था है |
भोजन बासा बसन जब भै जिअ के चिन्हारी |
ताहि प्रबंधन अर्थकर करिअब नीति अनुहारि || ३-क ||
भावार्थ : -- सभ्यता के पश्चात जब भोजन वस्त्र व् आवास मनुष्य के जीवन हेतु आवश्यक साधन हो गए तब कतिपय नीतियों का अनुशरण करते हुवे उसने अर्थ को प्रबंधित किया |
जब गगन तेउ औतरी घन बासिनि बिद्युत |
बहुतक साधन संग सो भयऊ जटिल बहूँत || ३-ख ||
भावार्थ : -- और जब घन निवासिनी का धरती पर प्राकट्य हुवा और विद्युत् का आविष्कार हुवा तब इन आवश्यक हेतु के सह अन्यान्य संसाधनों की व्यवस्था के फलस्वरूप अर्थ नीतियां जटिल होती गई |
एक अर्थ हेतु स्वारथ एक परमारथ हेतु |
यहाँ अधर्माधीनता यहाँ धरम के सेतु || ४ ||
भावार्थ : -- सत्ता के लालच ने अर्थ को दो भागों में विभक्त कर दिया | अब अर्थ एक स्वहित के हेतु और एक परहित के हेतु व्यवस्थित होने लगा | जहाँ स्वहित हेतु व्यवथित होता वहां यह अधर्म के अधीन होता जहाँ परहित के हेतु व्यवस्थित होता वहां यह धर्म के द्वारा मर्यादित रहता, अर्थात उत्तम रीति से यह प्राप्त किया जाता और उत्तम नीति से यह व्यय किया जाता.....
लोह लेत जग लोहिता भयउ लोह कर जोइ |
दोहत कोयर सब कतहुँ कोयर कोयर होइ || ५ ||
भावार्थ : - मध्य कालीन युग में लोहा पृथ्वी से निष्कासित होकर जब मनुष्य के हाथ में आया तब कलह-क्लेष से उसने संसार को रक्त से लाल कर दिया | आधुनिक काल के प्रारम्भ में जब कोयले का भी दोहन होने लगा तब उसकी करनी से चारों ओर मलिनता व्याप्त हो गई |
छूटत गया बधावना छूटत गए सब ग्रंथ |
कलि का चाका गति गहा लोहल भए जब पंथ || ६ ||
भावार्थ : -- पृथ्वी के संग्रह का रहस्योद्घाटन होते ही उसकी संचित धन-सम्पदा शनै: शनै: रिक्त होने लगी | जब वह लोहपंथी हो गई तब आधुनिक काल का पहिया द्रुत गति से संचालित होने लगा |
आठ जुग के ठाट जुटे, परे देह पर पाँखि |
चरन धरा कू छाँड़ के गगन धरे तब लाखि || ७ ||
भावार्थ : -- मानव के संसाधन अब देखते ही बनते थे उसकी देह में जैसे पंख उग आए हों उसके चरण धरती पर न पड़कर गगन पर धरे दिखाई पड़ने लगे | जितनी सुख-सुविधाएं उसने इस एक काल में संकलित की उतनी सभी कालों को मिलाकर भी नहीं की | १०० -१५० वर्षों में पृथ्वी का जितना दोहन हुवा विगत कालों में उसका १% भी नहीं हुवा |
समय पुरब उद्यम बिनहि, भाग तेउ अधिकाह |
पाप करम उपजाइया सुख साधन करि लाह || ८ ||
भावार्थ : -- उद्यम के बिना समय से पूर्व और भाग्य से अधिक सुख साधनो की लालसा ने कुत्सित कर्मों को उत्पन्न किया |
अधिकाधिक की दौड़ जनि जोड़ जोड़ की होड़ |
लाखोँ लाख लिखा भयो कौड़ी भयउ करोड़ || ९ ||
भावार्थ : -- अधिकाधिक सुख उपभोग के फेर ने फिर संग्रह करने की प्रतिस्पर्धा उत्पन्न की अब करोड़ों की धन-सम्पत्ति अल्प व् लाखों की धन-संपत्ति अत्यल्प हो गई |
कतहुँ त भ्रष्ट चरन चरे, कतहुँ त अत्याचार |
आचरन करि कदाचरन बिकरित भयउ बिचार || १० ||
भावार्थ : -- यह विकृत विचारों की परिणीति थी कि निर्द्वन्द्व सुख-उपभोग व् अधिकाधिक संग्रह की प्रवृत्ति ने कहीं भ्रष्टाचार तो कहीं अत्याचार का चलन कर दिया , सदाचरण विलुप्त होने लगा कदाचरण ही अब सदाचरण हो चला |
दुराचरन अपनाए भए करतब काज मलीन |
धर्म सेतु बिसुरत अर्थ होतब पाप अधीन || ११ ||
भावार्थ : -- दुराचरणों को अंगीकार किये जाने के कारण कुत्सित कार्य करणीय कार्य हो गए परिणामतस अर्थ धर्म की मर्यादा से विहीन होकर पाप के अधीन हो गया |
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (20-07-2017) को ''क्या शब्द खो रहे अपनी धार'' (चर्चा अंक 2672) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'