श्रम करम गौन करत तब भयऊ अर्थ प्रधान |
पददलित भए दीन हीन गहे मान धनवान || १ ||
भावार्थ : -- श्रम व कर्म को गौण कर जन संचालन व्यवस्था में अर्थ प्रधान हो गया, इस प्रधानता से दरिद्र पद दलित होने लगे व् धनाढ्य मान्यवर हो गए |
होइब अर्थ बिहीन जो जिनके भेस भदेस |
विलासित भवन तिन्हने निरुधित भयउ प्रवेस || २ ||
भावार्थ : -- अब जो कोई दरिद्र है जिसका भेष भद्दा है चमचमाते भवनों एवं गगन चुम्बी अट्टालिकाओं में उसका प्रवेश निषिद्ध हो गया |
अर्थ प्रधान बिधान ने दियो रेख एक खींच |
ऊँचे कू ऊँचे कहे नीचे कू कह नीच || ३ ||
भावार्थ : -- अर्थ की प्रधानता को स्वीकार्य करने वाले संविधानों ने एक रेखा खींची जिसे निर्धन रेखा कहा गया | जो इस रेखा के ऊपर होते वह अब सभ्रांत हो गए और सभ्य कहलाने लगे जो इसके नीचे होते वह क्षुद्र होकर
अछूत हो गए और नीच कहलाने लगा |
अँखुवा केरे आँधरे जो को गाँठ पुराए |
सोइ सत्ता सूत गहे सोइ बिधिक पद पाए || ४ ||
भावार्थ: - अब जिसकी बाहु में धन का बल होता, वही सत्ता का सूत्रधार होकर संवैधानिक पदों को प्राप्त होता फिर वह निर्बुद्धि अपराधी, चरित्र हीन, दुराचारी ही क्यों न हो | जिसके पास सत्ता होती उसके पास पैसा होता और वह निर्धन रेखा के सबसे ऊपर होता |
इस प्रकार लोकतंत्र पैसे से सत्ता और सत्ता से पैसे के चक्कर में पड़ गया
राजू : - बोले तो इस चक्कर से लोकतंत्र का सत्यानास हो गया.....
ऐसे वैसे कैसेउ अर्थ रहे तब अर्थ |
जोइ अर्थ बिहीन रहे अब सो होइ ब्यर्थ || ५ ||
भावार्थ : -- अर्थ-प्रधान व्यवस्था में अर्थ की उपलब्धि से ही व्यक्ति की उपयोगिता सिद्ध होती, अर्थात ऐसा वैसा हो चाहे कैसा हो पैसा होना आवश्यक हो गया, अब कोई बुद्धिजीवी, सदाचारी व् चरित्रवान ही क्यों न हो अर्थ की अनुपलब्धता से वह अनुपयोगी कहा जाने लगा |
समता वाद प्रस्तावत भारत के सविधान |
भीतर भेदभाव भरे बाहिर कहत समान || ६ ||
भावार्थ : -- समता वाद को प्रस्तावित करते हुवे २६ जनवरी १९५० से भारत में एक नया संविधान लागू किया गया | बाह्य स्वरूप में यद्यपि समान नागरिक संहिता का उल्लेख किया गया था किंतु इसकी आतंरिक विषय वस्तु भेद-भाव से परिपूर्ण थी | सरल शब्दों में कहें तो इसके बाहर कुछ और था अंतर में कुछ और |
सोइ संबिधि सविधायनि बिधेय सोइ बिधान |
जासु देस समाज सहित होत जगत कल्यान || ७ ||
भावार्थ : -- वह शासन- प्रबंध,प्रबंधित करने योग्य है तथा वह विधान, संविधान के अंतर्गत नियम व् सिद्धांत के रूप में स्थापित करने योग्य है जो तत्संबंधित व्यक्ति, समाज व् राष्ट्र सहित विश्व कल्याण के प्रयोजन हेतु हो |
अर्थ प्रधान बिधान ने जने बरन पुनि चारि |
समता वाद बिसार के भेद भाव करि भारि || ८ ||
भावार्थ : -- अर्थ प्रधान विधान के द्वारा भारतीय जनमानस पुनश्च चार वर्ग में विभक्त हो गया जो जाति पर आधारित न होकर धन की उपलब्धता पर आधारित था | समता-वाद की अवहेलना करते हुवे इन वर्गों में अतिसय भेदभाव- किया जाने लगा |
स्पष्टीकरण : -- वैदिक काल में वेदों में एक जन-संचालन व्यवस्था का उल्लेख है जिसमें भारत के मूलनिवासी जातिय आधार पर चार वर्गों में विभक्त थे | ऐसा माना जाता है कि जैन और बौद्ध धर्म का अभ्युदय इस काल के पश्चात हुवा | मुसलमानों एवं अंग्रेजों द्वारा भारत को दास बनाकर उसपर राज करने के पश्चात भी मूल निवासियों में वही परिपाटी चली आ रही थी |
शासक कहँ सो सही कहँ करतब सत्ता वाद |
जो कोई नहि नहीं कहँ ताको संग विवाद || ९ ||
भावार्थ : - संविधान आतंरिक विषय वस्तु में सत्तावाद का प्रतिपादन करते हुवे कहा गया कि सत्ता धारी की कही सर्वमान्य होगी | अब जो सत्ताधारी कहता वही सही होता, यदि कोई इसका विरोध कर उस सही नहीं कहता वह विवादित कहा जाने लगा |
सत्ता धारी कहँ अलप सोइ अलप कहलाए |
अधिकाधिक होइ चाहे जोइ जगत समुदाय || १० ||
भावार्थ : -- वैश्विक पटल पर चाहे कोई अधिकाधिक क्यों न हो सत्ताधारी जिसे अल्प कहते वही अल्प होता |
सासक कह यह पद दलित, यह निर्धन असहाय |
पद कलित होत जात सो घन धन दल बल पाए || ११ ||
भावार्थ :-- सत्ताधारी जिसे कुचला हुवा, निर्धन व् असहाय कहते वही दलित कहलाता वह फिर उन्हें पद पर प्रतिष्ठित क्यों हो उसके पास अपार वैभव क्यों न हो, उसके साथ करोड़ों लोगों के दल का बल क्यों हो |
ऐसे दलित के पैर के नीचे फिर न जाने कितने ही कुचले गए.....
पददलित भए दीन हीन गहे मान धनवान || १ ||
भावार्थ : -- श्रम व कर्म को गौण कर जन संचालन व्यवस्था में अर्थ प्रधान हो गया, इस प्रधानता से दरिद्र पद दलित होने लगे व् धनाढ्य मान्यवर हो गए |
होइब अर्थ बिहीन जो जिनके भेस भदेस |
विलासित भवन तिन्हने निरुधित भयउ प्रवेस || २ ||
भावार्थ : -- अब जो कोई दरिद्र है जिसका भेष भद्दा है चमचमाते भवनों एवं गगन चुम्बी अट्टालिकाओं में उसका प्रवेश निषिद्ध हो गया |
अर्थ प्रधान बिधान ने दियो रेख एक खींच |
ऊँचे कू ऊँचे कहे नीचे कू कह नीच || ३ ||
भावार्थ : -- अर्थ की प्रधानता को स्वीकार्य करने वाले संविधानों ने एक रेखा खींची जिसे निर्धन रेखा कहा गया | जो इस रेखा के ऊपर होते वह अब सभ्रांत हो गए और सभ्य कहलाने लगे जो इसके नीचे होते वह क्षुद्र होकर
अछूत हो गए और नीच कहलाने लगा |
अँखुवा केरे आँधरे जो को गाँठ पुराए |
सोइ सत्ता सूत गहे सोइ बिधिक पद पाए || ४ ||
भावार्थ: - अब जिसकी बाहु में धन का बल होता, वही सत्ता का सूत्रधार होकर संवैधानिक पदों को प्राप्त होता फिर वह निर्बुद्धि अपराधी, चरित्र हीन, दुराचारी ही क्यों न हो | जिसके पास सत्ता होती उसके पास पैसा होता और वह निर्धन रेखा के सबसे ऊपर होता |
इस प्रकार लोकतंत्र पैसे से सत्ता और सत्ता से पैसे के चक्कर में पड़ गया
राजू : - बोले तो इस चक्कर से लोकतंत्र का सत्यानास हो गया.....
ऐसे वैसे कैसेउ अर्थ रहे तब अर्थ |
जोइ अर्थ बिहीन रहे अब सो होइ ब्यर्थ || ५ ||
भावार्थ : -- अर्थ-प्रधान व्यवस्था में अर्थ की उपलब्धि से ही व्यक्ति की उपयोगिता सिद्ध होती, अर्थात ऐसा वैसा हो चाहे कैसा हो पैसा होना आवश्यक हो गया, अब कोई बुद्धिजीवी, सदाचारी व् चरित्रवान ही क्यों न हो अर्थ की अनुपलब्धता से वह अनुपयोगी कहा जाने लगा |
समता वाद प्रस्तावत भारत के सविधान |
भीतर भेदभाव भरे बाहिर कहत समान || ६ ||
भावार्थ : -- समता वाद को प्रस्तावित करते हुवे २६ जनवरी १९५० से भारत में एक नया संविधान लागू किया गया | बाह्य स्वरूप में यद्यपि समान नागरिक संहिता का उल्लेख किया गया था किंतु इसकी आतंरिक विषय वस्तु भेद-भाव से परिपूर्ण थी | सरल शब्दों में कहें तो इसके बाहर कुछ और था अंतर में कुछ और |
सोइ संबिधि सविधायनि बिधेय सोइ बिधान |
जासु देस समाज सहित होत जगत कल्यान || ७ ||
भावार्थ : -- वह शासन- प्रबंध,प्रबंधित करने योग्य है तथा वह विधान, संविधान के अंतर्गत नियम व् सिद्धांत के रूप में स्थापित करने योग्य है जो तत्संबंधित व्यक्ति, समाज व् राष्ट्र सहित विश्व कल्याण के प्रयोजन हेतु हो |
अर्थ प्रधान बिधान ने जने बरन पुनि चारि |
समता वाद बिसार के भेद भाव करि भारि || ८ ||
भावार्थ : -- अर्थ प्रधान विधान के द्वारा भारतीय जनमानस पुनश्च चार वर्ग में विभक्त हो गया जो जाति पर आधारित न होकर धन की उपलब्धता पर आधारित था | समता-वाद की अवहेलना करते हुवे इन वर्गों में अतिसय भेदभाव- किया जाने लगा |
स्पष्टीकरण : -- वैदिक काल में वेदों में एक जन-संचालन व्यवस्था का उल्लेख है जिसमें भारत के मूलनिवासी जातिय आधार पर चार वर्गों में विभक्त थे | ऐसा माना जाता है कि जैन और बौद्ध धर्म का अभ्युदय इस काल के पश्चात हुवा | मुसलमानों एवं अंग्रेजों द्वारा भारत को दास बनाकर उसपर राज करने के पश्चात भी मूल निवासियों में वही परिपाटी चली आ रही थी |
शासक कहँ सो सही कहँ करतब सत्ता वाद |
जो कोई नहि नहीं कहँ ताको संग विवाद || ९ ||
भावार्थ : - संविधान आतंरिक विषय वस्तु में सत्तावाद का प्रतिपादन करते हुवे कहा गया कि सत्ता धारी की कही सर्वमान्य होगी | अब जो सत्ताधारी कहता वही सही होता, यदि कोई इसका विरोध कर उस सही नहीं कहता वह विवादित कहा जाने लगा |
सत्ता धारी कहँ अलप सोइ अलप कहलाए |
अधिकाधिक होइ चाहे जोइ जगत समुदाय || १० ||
भावार्थ : -- वैश्विक पटल पर चाहे कोई अधिकाधिक क्यों न हो सत्ताधारी जिसे अल्प कहते वही अल्प होता |
सासक कह यह पद दलित, यह निर्धन असहाय |
पद कलित होत जात सो घन धन दल बल पाए || ११ ||
भावार्थ :-- सत्ताधारी जिसे कुचला हुवा, निर्धन व् असहाय कहते वही दलित कहलाता वह फिर उन्हें पद पर प्रतिष्ठित क्यों हो उसके पास अपार वैभव क्यों न हो, उसके साथ करोड़ों लोगों के दल का बल क्यों हो |
ऐसे दलित के पैर के नीचे फिर न जाने कितने ही कुचले गए.....
सुंदर
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