अबिकसित तन मति अरु मन बिनु कारज कुसलात |
अस जनमानस संग सो देस दरिद कू पात || १ ||
भावार्थ : -- जहाँ शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक विकास से न्यून व् कार्य कुशलता के अभाव से युक्त जनमानस हो वह राष्ट्र दरिद्रता को प्राप्त होता है.....
जहँ नही मितब्यईता जहँ ब्यसन के बास |
जहँ कर उद्यम हीन तहँ दलिदर करे निवास || २ ||
भावार्थ : - जिस राष्ट्र में मितव्यविता न हो व्यसनों का वास हो, हस्त परिश्रम से हीन हों उस राष्ट्र में दरिद्रता निवास करती है.....
निर्द्वंद्व सुख भोग जहां अधिकाधिक अभिलास |
नव नवल प्रत्यास तहाँ होत दरिद के बास || ३ ||
भावार्थ : - जहाँ जनमानस के सुख-दुःख की चिंता से रहित होकर सुखों का उपभोग किया जाता हो,लोभ व् लालसा के कारण अभिलाषाऐं अधिकाधिक हों, जहाँ नित नव नवल वस्तु के प्रयोग की अभ्यस्तता हो, वहां दरिद्रता का निवास होता है ||
हठ धर्मिता पच्छ पात जहँ नित कलह क्लेस |
संपन ते संकटापन होत जात सो देस || ४ ||
भावार्थ : -- जहाँ हठधर्मिता हो, पक्षपातिता हो जहाँ नित्य कलह क्लेष हो वह संपन्न राष्ट्र संकटापन्न होता चला जाता है |
आसुरी सम्पद कर गहे होत जात जो पीन |
रीतत सोधन सम्पदा करत देस कू दीन || ५ ||
भावार्थ : -- जो जनमानस अनुचित साधनों से धन-सम्पति अर्जित कर समृद्ध होता जाता है वह राष्ट्र की भू- सम्पदा को रिक्त कर उसे दरिद्र करता जाता है |
जो धन माँगे छाँड़ के अर्जन केर उपाए |
सो तो मित सुदामा सम सदा दरिद कहलाए || ६ ||
भावार्थ : - जो राष्ट्र अथवा जो जनमानस धनार्जन की युक्तियों को न मांग कर धन की मांग करता है, वह मित्र सुदामा के जैसे छटी का दरिद्र कहलाता है |
पुरबल महु निज करगहे खेट खेह खलिहान |
गेह गेह संपन रहे रहे देस धनवान || ७ ||
भावार्थ : -- प्राचीन भारत में इन्हीं गावों और खेत-खलिहानों से घर घर में विभूति विराजमान रहती थी और अपनी समृद्धि के लिए यह राष्ट्र विश्व भर में प्रसिद्ध था |
सोइ देस खेटक खेड सोइ खेह खलिहान |
दीन दुखि धनहीन होत तरपत मरे किसान || ८ ||
भावार्थ : - अब वही देश है ,वही गाँव-खेड़े हैं खेत खलिहान भी वही हैं, किन्तु किसान की दशा दयनीय है वह तड़पते हुवे प्राण दे रहा है उसके गृह में दरिद्रता क्यों विराजित है इस प्रश्न का उत्तर हमें ढूंढ़ना ही होगा |
धनी के उतरु दान है निर्धन के धन-धाम |
अधर्मी के उतरु धरम दूषन दंड बिधान || ९ ||
भावार्थ : - धनी यदि एक प्रश्न है तब दान उसका उत्तर है, निर्धन यदि एक प्रश्न है तब धन-सम्पति उसका उत्तर है, अधर्मी यदि एक प्रश्न है तब धर्म उसका उत्तर है, अपराध यदि एक प्रश्न है तब दंड विधान उसका उत्तर है |
अर्थात : - यदि कोई प्रश्न है तब उसका उत्तर भी अवश्य होगा.....
जहाँ दरिदर दान करत, समरथ करत त्याज |
दोषि सत कह करि नृप तप तहाँ धरम कर राज || १० || भावार्थ -- जहाँ दरिद्र दान करता हो, समर्थ त्याग करता हो, जहाँ अपराधी सत्य कहता हो और शासक तपस्या करता हो वहां धर्म का राज होता है |
अजहुँ त हमरे देस में दारिद भया दातार |
समरथ लज्जा परिहरत मांगे हाथ पसार || ११ ||
भावार्थ : -- विद्यमान भारत में लोभ और लौलुपता के वश निर्लज होकर समर्थ उद्योगपति हाथ पसारे मत की मांग करता है और निर्धन दातार बनकर उस मत को दान करके स्वयं को धन्य मानता है | धिक्कार है ऐसे उद्योगपति पर.....
अस जनमानस संग सो देस दरिद कू पात || १ ||
भावार्थ : -- जहाँ शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक विकास से न्यून व् कार्य कुशलता के अभाव से युक्त जनमानस हो वह राष्ट्र दरिद्रता को प्राप्त होता है.....
जहँ नही मितब्यईता जहँ ब्यसन के बास |
जहँ कर उद्यम हीन तहँ दलिदर करे निवास || २ ||
भावार्थ : - जिस राष्ट्र में मितव्यविता न हो व्यसनों का वास हो, हस्त परिश्रम से हीन हों उस राष्ट्र में दरिद्रता निवास करती है.....
निर्द्वंद्व सुख भोग जहां अधिकाधिक अभिलास |
नव नवल प्रत्यास तहाँ होत दरिद के बास || ३ ||
भावार्थ : - जहाँ जनमानस के सुख-दुःख की चिंता से रहित होकर सुखों का उपभोग किया जाता हो,लोभ व् लालसा के कारण अभिलाषाऐं अधिकाधिक हों, जहाँ नित नव नवल वस्तु के प्रयोग की अभ्यस्तता हो, वहां दरिद्रता का निवास होता है ||
हठ धर्मिता पच्छ पात जहँ नित कलह क्लेस |
संपन ते संकटापन होत जात सो देस || ४ ||
भावार्थ : -- जहाँ हठधर्मिता हो, पक्षपातिता हो जहाँ नित्य कलह क्लेष हो वह संपन्न राष्ट्र संकटापन्न होता चला जाता है |
आसुरी सम्पद कर गहे होत जात जो पीन |
रीतत सोधन सम्पदा करत देस कू दीन || ५ ||
भावार्थ : -- जो जनमानस अनुचित साधनों से धन-सम्पति अर्जित कर समृद्ध होता जाता है वह राष्ट्र की भू- सम्पदा को रिक्त कर उसे दरिद्र करता जाता है |
जो धन माँगे छाँड़ के अर्जन केर उपाए |
सो तो मित सुदामा सम सदा दरिद कहलाए || ६ ||
भावार्थ : - जो राष्ट्र अथवा जो जनमानस धनार्जन की युक्तियों को न मांग कर धन की मांग करता है, वह मित्र सुदामा के जैसे छटी का दरिद्र कहलाता है |
पुरबल महु निज करगहे खेट खेह खलिहान |
गेह गेह संपन रहे रहे देस धनवान || ७ ||
भावार्थ : -- प्राचीन भारत में इन्हीं गावों और खेत-खलिहानों से घर घर में विभूति विराजमान रहती थी और अपनी समृद्धि के लिए यह राष्ट्र विश्व भर में प्रसिद्ध था |
सोइ देस खेटक खेड सोइ खेह खलिहान |
दीन दुखि धनहीन होत तरपत मरे किसान || ८ ||
भावार्थ : - अब वही देश है ,वही गाँव-खेड़े हैं खेत खलिहान भी वही हैं, किन्तु किसान की दशा दयनीय है वह तड़पते हुवे प्राण दे रहा है उसके गृह में दरिद्रता क्यों विराजित है इस प्रश्न का उत्तर हमें ढूंढ़ना ही होगा |
धनी के उतरु दान है निर्धन के धन-धाम |
अधर्मी के उतरु धरम दूषन दंड बिधान || ९ ||
भावार्थ : - धनी यदि एक प्रश्न है तब दान उसका उत्तर है, निर्धन यदि एक प्रश्न है तब धन-सम्पति उसका उत्तर है, अधर्मी यदि एक प्रश्न है तब धर्म उसका उत्तर है, अपराध यदि एक प्रश्न है तब दंड विधान उसका उत्तर है |
अर्थात : - यदि कोई प्रश्न है तब उसका उत्तर भी अवश्य होगा.....
जहाँ दरिदर दान करत, समरथ करत त्याज |
दोषि सत कह करि नृप तप तहाँ धरम कर राज || १० || भावार्थ -- जहाँ दरिद्र दान करता हो, समर्थ त्याग करता हो, जहाँ अपराधी सत्य कहता हो और शासक तपस्या करता हो वहां धर्म का राज होता है |
अजहुँ त हमरे देस में दारिद भया दातार |
समरथ लज्जा परिहरत मांगे हाथ पसार || ११ ||
भावार्थ : -- विद्यमान भारत में लोभ और लौलुपता के वश निर्लज होकर समर्थ उद्योगपति हाथ पसारे मत की मांग करता है और निर्धन दातार बनकर उस मत को दान करके स्वयं को धन्य मानता है | धिक्कार है ऐसे उद्योगपति पर.....
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (17-07-2017) को "खुली किताब" (चर्चा अंक-2669) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'