Friday, 1 June 2018

----- ॥ दोहा-पद 12॥ -----,


-----|| राग मेघ-मल्हार || -----

 साँझ सलोनी अति भाई | (  देखु माई )

चारु चंद्र की कनक कनी सी बिंदिया माथ सुहाई || १ ||

उरत सिरोपर सैंदूरि धूरि जगत लखत न अघाई || २ ||

अरुन रथी की  रश्मि लेइ के बीथि बीथि बिहराई || ३ ||

दीप अली दुआरि लग जौंहे लौनी लौ न लगाई || ४ ||

बिरत भई गौ धूलिहि बेला रैनि चरन बहुराई || ५ ||


भावार्थ : -- अरे माई  ! ये ढलती हुई संध्या मनभावनी प्रतीत हो रही है | इसके मस्तक पर प्रिय चन्द्रमा के स्वर्ण जटित हीरक कण के जैसी बिंदिया अति सुहावनी प्रतीत हो रही है || १ || शीश पर सेंदुर की धूलिका उड़ रही है दर्शन के पिपासु लोग सौंदर्य रस से परिपूर्ण होकर भी तृप्त नहीं हो रहे || २ || अरुण राठी की रश्मियाँ लेकर देखो कैसे यह नगर के पंथ पंथ का परिभ्रमण कर रही है || ३ || दीपक की पंक्तियाँ द्वार से संलग्न हो कर प्रतीक्षारत हैं तिली अथवा इस सुंदरी ने अबतक ज्योति जागृत नहीं की ||  अब तो गौधूलि बेला भी व्यतीत हो चली है, रात्रि का आगमन हो रहा है यह अब तक नहीं लौटी || 

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