-----|| राग मेघ-मल्हार || -----
साँझ सलोनी अति भाई | ( देखु माई )
चारु चंद्र की कनक कनी सी बिंदिया माथ सुहाई || १ ||
उरत सिरोपर सैंदूरि धूरि जगत लखत न अघाई || २ ||
अरुन रथी की रश्मि लेइ के बीथि बीथि बिहराई || ३ ||
दीप अली दुआरि लग जौंहे लौनी लौ न लगाई || ४ ||
बिरत भई गौ धूलिहि बेला रैनि चरन बहुराई || ५ ||
भावार्थ : -- अरे माई ! ये ढलती हुई संध्या मनभावनी प्रतीत हो रही है | इसके मस्तक पर प्रिय चन्द्रमा के स्वर्ण जटित हीरक कण के जैसी बिंदिया अति सुहावनी प्रतीत हो रही है || १ || शीश पर सेंदुर की धूलिका उड़ रही है दर्शन के पिपासु लोग सौंदर्य रस से परिपूर्ण होकर भी तृप्त नहीं हो रहे || २ || अरुण राठी की रश्मियाँ लेकर देखो कैसे यह नगर के पंथ पंथ का परिभ्रमण कर रही है || ३ || दीपक की पंक्तियाँ द्वार से संलग्न हो कर प्रतीक्षारत हैं तिली अथवा इस सुंदरी ने अबतक ज्योति जागृत नहीं की || अब तो गौधूलि बेला भी व्यतीत हो चली है, रात्रि का आगमन हो रहा है यह अब तक नहीं लौटी ||
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