-----|| राग मेघ-मल्हार || -----
घेरि घटा घन घनकत घोरा |
छाए पिया पावस चहुँ ओरा || १ ||
थिरकत नदि जल झर झर झरे, पाँउ परे झनकत रमझोरा || २ ||
भर घमंड ए काल न देख्यो, बिनु नूपुर नाचहिं बन मोरा || ३ ||
बँट दै तरुवरि हरिअरि रसरी, पाए पवन हलै रे हिँडौरा || ४ ||
ढूँढत जलनिधि सुध बुध भुल्यौ, पँवर पँवर भँवरत चितचोरा || ५ ||
साँझी दिवस सोंहि गठ जोरे, परिनय करत रैन अरु भोरा || ६ ||
दूरबा कर बिछेउ बिछौने, तपन ऋतु कर न होए बहोरा || ७ ||
रमझोरा = घुंघरू
पँवर पँवर = द्वार-द्वार
चितचोरा = घनश्याम
पँवरहि = ढूंढ़ना
भावार्थ : - घटाओं से घिरा घन घोर गर्जना कर रहा है | हे प्रीतम ! पावस ऋतू सर्वत्र व्याप्त हो रही है || १ || नदी नृत्य करती हुई सी प्रतीत हो रही है झर झर झरती हुई वह इस भांति ध्वनि उत्पन्न कर रही है मानो उसके चरणों में नूपुर झंकृत हो रहे हैं || २ || घनता के घमंड के वशीभूत इसने काल भी नहीं जिससे वन में मोर विभ्रमित हैं एवं पावस के आगमन का भ्रम लिए नूपुर के बिना ही नृत्य कर रहे हैं || ३ || तरुवर भी बेल रूपी हरी हरी रसरियों को बँट दे रही हैं पवन की संगत प्राप्त कर मानो इन तरुवरों में हिंडोले हिल्लोल रहे हैं | चित का हरण करने वाले ये घनश्याम असमय मित्रों के साथ क्रीड़ा की आशा से द्वार द्वार पर भ्रमण कर रहे हैं इसे ढूंढते ढूंढते जलनिधि की सुध बुध विस्मृत हो गई किन्तु यह नहीं मिल रहे || ५ || विवाह का नहीं तथापि संध्या दिवस के साथ परिणद्ध हेतु आतुर है | रैन आओर भोर तो परिणय वेदी पर विराजमान हो गए हैं || दूर्वा के सुन्ब्दर बिछौने बीच गए तथापि तापस ऋतू का पग फेरी नहीं हुई है ||
**********************
-----|| राग मेघ-मल्हार || -----
घेरि घटा घन घनकत घोरा |
छाए पिया पावस चहुँ ओरा || १ ||
बेनु हरित अहि बेलरि डारै | बंदनिवारे परे दुआरे ||
भयउ मगन मन मोदु न थोरा || २ ||
काल घना की काजर पूरी | माँग भरे भइ साँझ सिँदूरी ||
दिसत झरोखै करत निहोरा || ३ ||
बरसि बरसि बादल पनिहारे | भर भर कलसि करषि कर धारे ||
तृपित कंठ भा चकित चकोरा || ४ ||
अह ! यह तापस रितुवन की बेला | जलधि नभ चढ़ि करिहिं का खेला ||
उड़त पतंगिहि भँवरत भौंरा || ५ ||
भावार्थ : - घटाओं से घिरा घन घोर गर्जना कर रहा है | हे प्रीतम ! पावस ऋतू सर्वत्र व्याप्त हो रही है || १ || बाँस, करीर पर पान की हरिणमय बेलें पड़ गई हैं जो बंदन वारों का रूप लेकर द्वारों को सुसज्जित कर रही हैं, यह दृश्य दर्श कर मन अतिशय प्रमुदित हो रहा है || २ || नैनों में काले मेघों की काजल उतारकर संध्या भी सिंदूरी हो चली है जो झरखों से संध्या वंदन करती दर्शित हो रही है || ३ || बादल वर्षा कर कर के पनिहारे का स्वांग भर लिया है प्यासे हाथों को खैंच खैंच कर मानो अमृत भरे कलश अर्पण कर रहे हैं, चकोर भी तृप्त कंठ होकर चकित है || ४ || आह ! यह तापस ऋतू की बेला है इस बेला में जलधि नभ में छाड़कर जाने कौन सा खेल कर रहे हैं पतंगे उड़ रही भौरें भंवर रहे हैं || ५ ||
उरहि पतंगी भंवरहि भौंरा = आंधी में पत्तो और धूल का बवंडर, पतंग और भौंरे (लट्टू) का खेल
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-----|| राग मेघ-मल्हार || -----
ढरती साँझ अति भाई | रे भाई !
चारु चंद्र की कनक कनी सी बिंदिया माथ सुहाई || १ ||
उरत सिरोपर सैंदूरि धूरि जगत लखत न अघाई || २ ||
अरुन रथी सों रश्मि लेइ के बीथि बीथि बिहराई || ३ ||
दीप अली दुआरि लग जौंहे लौनी लौ न लगाई || ४ ||
बिरताइ जूँ गौ धूलि बेला रैनि चरन बहुराई || ५ ||
भावार्थ : -- अरे भाई ! ये ढलती हुई संध्या मनभावनी प्रतीत हो रही है | इसके मस्तक पर प्रिय चन्द्रमा के स्वर्ण जटित हीरक कण के जैसी बिंदिया अति सुहावनी प्रतीत हो रही है || १ || शीश पर सेंदुर की धूलिका उड़ रही है दर्शन के पिपासु लोग सौंदर्य रस से परिपूर्ण होकर भी तृप्त नहीं हो रहे || २ || अरुण राठी की रश्मियाँ लेकर देखो कैसे यह नगर के पंथ पंथ का परिभ्रमण कर रही है || ३ || दीपक की पंक्तियाँ द्वार से संलग्न हो कर प्रतीक्षारत हैं तिली अथवा इस सुंदरी ने अबतक ज्योति जागृत नहीं की || अब तो गौधूलि बेला भी व्यतीत हो चली है, रात्रि का आगमन हो रहा है यह अब तक नहीं लौटी ||
घेरि घटा घन घनकत घोरा |
छाए पिया पावस चहुँ ओरा || १ ||
थिरकत नदि जल झर झर झरे, पाँउ परे झनकत रमझोरा || २ ||
भर घमंड ए काल न देख्यो, बिनु नूपुर नाचहिं बन मोरा || ३ ||
बँट दै तरुवरि हरिअरि रसरी, पाए पवन हलै रे हिँडौरा || ४ ||
ढूँढत जलनिधि सुध बुध भुल्यौ, पँवर पँवर भँवरत चितचोरा || ५ ||
साँझी दिवस सोंहि गठ जोरे, परिनय करत रैन अरु भोरा || ६ ||
दूरबा कर बिछेउ बिछौने, तपन ऋतु कर न होए बहोरा || ७ ||
रमझोरा = घुंघरू
पँवर पँवर = द्वार-द्वार
चितचोरा = घनश्याम
पँवरहि = ढूंढ़ना
भावार्थ : - घटाओं से घिरा घन घोर गर्जना कर रहा है | हे प्रीतम ! पावस ऋतू सर्वत्र व्याप्त हो रही है || १ || नदी नृत्य करती हुई सी प्रतीत हो रही है झर झर झरती हुई वह इस भांति ध्वनि उत्पन्न कर रही है मानो उसके चरणों में नूपुर झंकृत हो रहे हैं || २ || घनता के घमंड के वशीभूत इसने काल भी नहीं जिससे वन में मोर विभ्रमित हैं एवं पावस के आगमन का भ्रम लिए नूपुर के बिना ही नृत्य कर रहे हैं || ३ || तरुवर भी बेल रूपी हरी हरी रसरियों को बँट दे रही हैं पवन की संगत प्राप्त कर मानो इन तरुवरों में हिंडोले हिल्लोल रहे हैं | चित का हरण करने वाले ये घनश्याम असमय मित्रों के साथ क्रीड़ा की आशा से द्वार द्वार पर भ्रमण कर रहे हैं इसे ढूंढते ढूंढते जलनिधि की सुध बुध विस्मृत हो गई किन्तु यह नहीं मिल रहे || ५ || विवाह का नहीं तथापि संध्या दिवस के साथ परिणद्ध हेतु आतुर है | रैन आओर भोर तो परिणय वेदी पर विराजमान हो गए हैं || दूर्वा के सुन्ब्दर बिछौने बीच गए तथापि तापस ऋतू का पग फेरी नहीं हुई है ||
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-----|| राग मेघ-मल्हार || -----
घेरि घटा घन घनकत घोरा |
छाए पिया पावस चहुँ ओरा || १ ||
बेनु हरित अहि बेलरि डारै | बंदनिवारे परे दुआरे ||
भयउ मगन मन मोदु न थोरा || २ ||
काल घना की काजर पूरी | माँग भरे भइ साँझ सिँदूरी ||
दिसत झरोखै करत निहोरा || ३ ||
बरसि बरसि बादल पनिहारे | भर भर कलसि करषि कर धारे ||
तृपित कंठ भा चकित चकोरा || ४ ||
अह ! यह तापस रितुवन की बेला | जलधि नभ चढ़ि करिहिं का खेला ||
उड़त पतंगिहि भँवरत भौंरा || ५ ||
भावार्थ : - घटाओं से घिरा घन घोर गर्जना कर रहा है | हे प्रीतम ! पावस ऋतू सर्वत्र व्याप्त हो रही है || १ || बाँस, करीर पर पान की हरिणमय बेलें पड़ गई हैं जो बंदन वारों का रूप लेकर द्वारों को सुसज्जित कर रही हैं, यह दृश्य दर्श कर मन अतिशय प्रमुदित हो रहा है || २ || नैनों में काले मेघों की काजल उतारकर संध्या भी सिंदूरी हो चली है जो झरखों से संध्या वंदन करती दर्शित हो रही है || ३ || बादल वर्षा कर कर के पनिहारे का स्वांग भर लिया है प्यासे हाथों को खैंच खैंच कर मानो अमृत भरे कलश अर्पण कर रहे हैं, चकोर भी तृप्त कंठ होकर चकित है || ४ || आह ! यह तापस ऋतू की बेला है इस बेला में जलधि नभ में छाड़कर जाने कौन सा खेल कर रहे हैं पतंगे उड़ रही भौरें भंवर रहे हैं || ५ ||
उरहि पतंगी भंवरहि भौंरा = आंधी में पत्तो और धूल का बवंडर, पतंग और भौंरे (लट्टू) का खेल
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-----|| राग मेघ-मल्हार || -----
ढरती साँझ अति भाई | रे भाई !
चारु चंद्र की कनक कनी सी बिंदिया माथ सुहाई || १ ||
उरत सिरोपर सैंदूरि धूरि जगत लखत न अघाई || २ ||
अरुन रथी सों रश्मि लेइ के बीथि बीथि बिहराई || ३ ||
दीप अली दुआरि लग जौंहे लौनी लौ न लगाई || ४ ||
बिरताइ जूँ गौ धूलि बेला रैनि चरन बहुराई || ५ ||
भावार्थ : -- अरे भाई ! ये ढलती हुई संध्या मनभावनी प्रतीत हो रही है | इसके मस्तक पर प्रिय चन्द्रमा के स्वर्ण जटित हीरक कण के जैसी बिंदिया अति सुहावनी प्रतीत हो रही है || १ || शीश पर सेंदुर की धूलिका उड़ रही है दर्शन के पिपासु लोग सौंदर्य रस से परिपूर्ण होकर भी तृप्त नहीं हो रहे || २ || अरुण राठी की रश्मियाँ लेकर देखो कैसे यह नगर के पंथ पंथ का परिभ्रमण कर रही है || ३ || दीपक की पंक्तियाँ द्वार से संलग्न हो कर प्रतीक्षारत हैं तिली अथवा इस सुंदरी ने अबतक ज्योति जागृत नहीं की || अब तो गौधूलि बेला भी व्यतीत हो चली है, रात्रि का आगमन हो रहा है यह अब तक नहीं लौटी ||
बहुत। सुंदर
ReplyDeleteसुंदर दोहे.
ReplyDeleteकविता और मैं
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