Wednesday, 19 June 2013

----- ॥ दोहा-पद॥ -----

आओ  तुम  कौ  भरत  खन  के  दरसन   करवाएँ ।
जहँ  हिम  सैल  सिर पावन  सुर सरित बही आए ॥

मुँदरी   पाछु   धरे   मनिक   पंच    करज   फैलाए ।
धनद सम बर धनिक बनिक जहँ मँगते  कहलाएँ ॥

बैसे  जहँ  अस  राउ  आसन  कारा  धन   गड़ियाए ।
झुठे    लार   लसे    भासन    बोले    तौ    उछराए ॥

कोटि   के  पहन  परकोट  कोटिक  भवन  टिकाए ।
गाँव   गँवन   कहते   गोठ  इ   लुक  तंत्र  है  भाए ॥

भावार्थ : --

आओ तुमको भारत खंड के दर्शन करवाएं । जहां  हिमालय  पर्वत से
पवित्र गंगा नदी निकलती है ॥

जहां अंगूठी के पीछे  में रत्न जड़ित कर कुबेर के समान  धनवान और
व्यापारी ( मत के लिए ) पाँचों  उंगलियाँ  फैला  कर  भीख माँगते हैं ॥

जहां काले धन का संचय कर, उच्च पदों पर ऐसे शासक बैठे हैं।जिनके
 भाषण ऐसे होते हैं, जहां से झूठ उझल उझल कर बाहर आ जाता है ।।

करोड़ करोड़ रूपए के तो ये कोट पहनते हैं । और ये जाने कितने भवनों
के  स्वामी  हैं ।ये  गाँव  के  निवासियों  से कहते है : -- देखो! देखो ! इसे
लोकतंत्र कहते हैं ॥

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