Wednesday, 19 June 2013

----- ॥ दोहा-पद॥ -----


एक  नगर  माली  के  बन  डालि   डालि  भरपूर ।।
बानि   बानि   के  फर   फूर   धानी   धानी   झूर ।।

ताप   रितु  तर  बरखा   पर  अवनु   सरद  हेमंत ।
सीत   सिसिर   के   रथ   उतर   रागे  रंग  बसंत ।।

सूझ बूझ परख कर गोठ तब लिए  निर्नय  सकल ।
जुना  कोटि  कोटिक  कोठ  राखु  माली नए  कल ॥

बहुस माली अदल बदल पुनि चयन किए दल एक ।
नव  दल  के   पंक   बलकल  रहे  सदस्य रव भेक ॥

कोट   कपट   के  ओट  गहे  चाटुक   दलपति   घेर ।
लपट   लपट   मधु   मधुर   कहें  रहे   हेर  के  फेर ॥

कपट तापस  दल  पति  उर  मारे  जन  एक  लात ।
चर  अचर  न  अधर  ऊपर  थर  न  कहुँ जर गात ॥

पुनि  पदस  सोइ  झोरुधर  रहें  न  कोउ   बिकल्प ।
सुखे  कंठ  बन  सुखे अधर  गहे  मुख  काल कल्प ॥

अब   ते  उहि   झोरा   छाप    लूट  खसोट   मचाए ।
कपट  करे  न  राखे  धाप  जन  बन उजरत जाए ।।



भावार्थ : --
कपट के  परकोटे  के  ओट किये हुवे दलपति को चाटुकार घेरे हुवे थे 
वो मुख   में माधुर्य लपेट कर मीठा  कहते किन्तु  सदा  हेरा-फेरी में 
ही लगे रहते ॥ 

दल पति जो की  ढोंगी  बाबा  था लोगों  ने उसकी छाँती पर एक लात
मारी। और उसे भी भगा दिया  अब  वह  ना  तो चलता  है, न रुका है 
न वह नीचे का रहा न वह ऊपर  गया  न वह स्थल पर है न वह  जल
के ऊपर है ॥ 

अब फिर से वही  कमर  में  झोला  रखे  वाला पदस्थ हुवा, और कोई 
विकल्प भी नहीं था ॥ वनों के  होठ और कंठ सुख गए, मुँह काल के 
गर्त में समा रहा है ॥ 

अब तो उस झोला छाप माली ने लूट खसोट मचा रखी है । वह छल 
करता है और संतोष भी नहीं  करता  व  एवं वन के जन सभी उजड़े 
जा रहे हैं ॥ 

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