एक नगर माली के बन डालि डालि भरपूर ।।
बानि बानि के फर फूर धानी धानी झूर ।।
ताप रितु तर बरखा पर अवनु सरद हेमंत ।
सीत सिसिर के रथ उतर रागे रंग बसंत ।।
सूझ बूझ परख कर गोठ तब लिए निर्नय सकल ।
जुना कोटि कोटिक कोठ राखु माली नए कल ॥
बहुस माली अदल बदल पुनि चयन किए दल एक ।
नव दल के पंक बलकल रहे सदस्य रव भेक ॥
लपट लपट मधु मधुर कहें रहे हेर के फेर ॥
कपट तापस दल पति उर मारे जन एक लात ।
चर अचर न अधर ऊपर थर न कहुँ जर गात ॥
पुनि पदस सोइ झोरुधर रहें न कोउ बिकल्प ।
सुखे कंठ बन सुखे अधर गहे मुख काल कल्प ॥
अब ते उहि झोरा छाप लूट खसोट मचाए ।
कपट करे न राखे धाप जन बन उजरत जाए ।।
भावार्थ : --
कपट के परकोटे के ओट किये हुवे दलपति को चाटुकार घेरे हुवे थे
वो मुख में माधुर्य लपेट कर मीठा कहते किन्तु सदा हेरा-फेरी में
ही लगे रहते ॥
दल पति जो की ढोंगी बाबा था लोगों ने उसकी छाँती पर एक लात
मारी। और उसे भी भगा दिया अब वह ना तो चलता है, न रुका है
न वह नीचे का रहा न वह ऊपर गया न वह स्थल पर है न वह जल
के ऊपर है ॥
अब फिर से वही कमर में झोला रखे वाला पदस्थ हुवा, और कोई
विकल्प भी नहीं था ॥ वनों के होठ और कंठ सुख गए, मुँह काल के
गर्त में समा रहा है ॥
अब तो उस झोला छाप माली ने लूट खसोट मचा रखी है । वह छल
करता है और संतोष भी नहीं करता व एवं वन के जन सभी उजड़े
जा रहे हैं ॥
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