Wednesday 26 June 2013

----- ॥ उत्तर-काण्ड 5॥ -----

मंगलवार, २ १ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                        

भई जाग जग जीवन जागे । जाम घोष तब बोलन लागे । ॥
कुंज बन रवन पवन प्रसंगे । विचरत गतवत गगन बिहंगे ॥
जगत के जीवन रूप परमेश्वर के जागृत होते ही जगतभर में जागरण हुवा । कुक्कुटक तब उद्घोष करने लगे ॥ वनोपवन में कलरव करते पक्षी पवन का प्रसंग प्राप्त कर आकाश में गतिमान होकर विचरण करने लगे ॥ 

त्रइ जनि गृह चरन रघु नन्दनं । बिप्र गुरुं गण सादर वन्दनं ॥
कर नित्य करमन् भयउ शुचितम् । निमज्जन भ्रात सह सरयु सरितम् ॥
रघु नंदन ने तीनों जननियों के चरणों को स्पर्श करने के पश्चात फिर अपने पूज्यनीय गुरु एवं विप्रजनों की आदर सहित चरण वंदना की ॥ एवं नित्य कर्म पूर्ण कर निर्मल होते हुवे लघु भ्राताओं सहित सरयू नदी में डुबकी लगाई एवं स्नान किया ॥ 

पूजित कर पितृ गण कुल देवं । विधि महादेव सेव अर्चनं ॥
कटि धर परिकर पीताम्बरम् । पटतर पटीर वर भुज शिखरं ॥ 
 पितृ जनों में ईष्ट देव की आराधनाउरांत, ब्रह्मा शंकर आदि देवों की  सेवा अर्चना की ॥ करधनी पर  घेर लगा कर पीतम वस्त्र धारण किये । उसी के समतुल्य कंधों पर भी सुन्दर पट वरन किये ॥ 

मौलि मूर्धन दाम कंठनम् । शार्ङ्ग पाणि तर तूणीरं ॥ 
अंगाभूषण वरण सुवेशं । जानकी नयन पयस मयूखं ॥ 
मस्तक पर मुकुट कंठ में श्रीमाल हाथ में शार्ङ्ग नामक धनुष तीरों से युक्त तूणीर, अंग अंग में आभूषण से युक्त होकर माता सीता के नयनों के चंद्रमा ने इस प्रकार सुन्दर वेश धारण किया ॥ 

परिग्रहण पूर्ण परिकर्मणम । पर पक्ष पुरंजय परम पुरुषं ॥ 
तत्  परतस राज सदन गमनं । परात्मन् वेश्मन् राजितं ॥ 
 समस्त साज सज्जा को अंगीकार कर शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने वाले पुरुषोत्तम श्री राम चन्द्र उसके पश्चात राज सदन में गए । फिर जगत के परमात्मा  सिंहासन ग्रहण किया ॥ 

पालत प्रजा राम चंद, आपनि संतत सोंह । 
नमस्तुभ्यं नमो नमः, पीठ पितामह तोंह ॥ 
प्रजा जन  को अपनी संतान के सरिस पालन पोषण करने वाले आसीत श्रेष्ट जगत पिता को नमस्कार है ! इस प्रकार : --                                                                                                                                                                                                                                     बुधवार, २२ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                                

 सदस सभाजन लिए प्रभु नामा । नत सत सत किए सकल प्रनामा ॥ 
 भ्राता भरत छतर धर आयौ । विभो सिखर सिरोपर सजायौ ॥ 
सभा  सदस्यों ने इस प्रकार प्रभु का नाम ले नट मस्तक हो  सत सत प्रणाम अर्पण कर महाराज श्री राम का अभिनन्दन किया ॥ छत्र धारण किये फिर भ्राता भरत एवं उसे सर्वव्यापक  जगत स्वामी के शीर्ष शिखर पर सुशोभित किया ॥ 

लखन सत्रुहन लघु दोउ भाई । दोनहु चारू चँवर गहाईं ।। 
माननी बिभीषन कर व्यजन । चाप अंगद गहे असि हनुमन ॥ 
लक्ष्मण  एवं शत्रुध्न दोनों लघु भ्राता है दोनों ही ने सुन्दर चँवर ग्रहण किया हुवा है ॥ मान्यनीय लंकापति विभीषण ने पंख धारण किया है, अंगद ने धनुष एवं महाबली हनुमंत खड्ग ग्रहण किये हुवे हैं ॥ 

चरम अरु सक्ति लिए कपि राजे । अस प्रभु सोहत आसन साजे । 
श्रीवत पत श्री सहित विराजे ।  कोटि कमन छबि कारत लाजे ॥ 
चर्म एवं शक्ति वानर राज सुग्रीव ने धारण किया है इस प्रकार प्रभु श्री राम चन्द्र का सिंहासन सज्जित होकर अति सुशोभित हो रहा है ॥ जिस पर आश्रयदाता स्वामी समस्त वैभव-भूति सहित विराजमान हो करोड़ों कामदेव की छवि को भी विनिंदित कर रहे हैं ॥ 

तपस चरण घन बन के बासी । तँह मावस इहँ पूरन मासी ॥ 
सिंहासन पर  त्रिभुवन साईँ । सोह साज सुख बरनि न जाई ॥ 
तपस्या के आचरणी सघन विपिन के वासी का स्वरुप वहाँ जो अमावस्या के सदृश्य थेवहीँ यहाँ  पूर्ण निभानन के सदृश्य आलोकित हो रहे हैं ॥ सिंहांसन पर तिन लोक के स्वामी की साज-शोभा वर्णनातीत है ॥ 

वदन तेज लोचन तेज, लगन तिलक लक तेज । 
रूप सरूप रमा रमन, करत तपन निहतेज ॥  
जिनकी मुखाकृति दिव्य है लोचन दिव्य हैं मस्तक पर संलग्न तिलक दिव्य है । उन रमारमन का यह दिव्य रूप स्वरूप सूर्यदेव की कांति को भी लज्जित किये है ॥  

बृहस्पतिवार, २३ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                                

करत स्तुति बशिष्ठ मुनीसा । महरिसि गन कर देइ असीसा ॥ 
सदन सचिव सहि प्राड बिबेका । करत राधन पुरुख परबेका ॥ 
मुनियों में श्रेष्ठ वशिष्ठ जी प्रभु की स्तुति कर रहे हैं । महर्षि गण के हस्त आशीर्वाद दे रहे हैं ॥ सदन में सुमन्त्र आदि सचिव सहित न्यायविद् भी वहाँ उपस्थित हो प्रुशोत्तम श्री राम की उपासना करने लगे ॥ 

ता परतस देइ सदुपदेसे । काल बयस सद दरसत देसे ॥ 
नय कोविद नव नय निर्धारैं । आवइ जन जो जय जय कारें ॥ 
तत्पश्चात समस गणमान्य सदस्यों ने देश काल एवं परिस्थिति का ध्यान कर अपने अपने उत्तम विचार व्यक्त किये ॥ नीति निपुण विशारदों ने नई नई नीतियों का निर्धारण किया । सभा में जो सामान्य जन आता वह प्रभु कि जय जय कार करता ॥ 

सोइ गुपुत चर साथ  समाजे । तेहि समउ सद बीच बिराजे ॥ 
नय निरनय कर मतिवर राजन । नत मस्तक किए सभा विसर्जन ॥ 
फिर उसी समय वे गुप्तचर पूर्ण तैयारी के साथ सदन के मध्य में विराजित हुवे । नीतियों का निर्णय कर बुद्धिमंत महाराज ने शीश अवनत कर सभा विसर्जित की ॥ 

बहुरि प्रभो तिन प्रबिधि अनाईं । रयनइ प्रसंग पूछ बुझाईं ।। 
कहि मम संतन को संतापे । सुख सम्पद जन सब कहुँ धापे ॥ 
फिर प्रभु ने उन गुप्तचरों को बुलाया । एवं रात्रि का सारा वृत्तांत पूछा ॥ कहने आगे क्या मेरी संतान में कोई दुखी है ? अथवा सुख की सम्पदा ने जनता को सभी प्रकार से संतुष्ट किया हुवा है ॥ 

पीरित रुजित कि भै भयभीते । दीन मलिन का को धन रीते ॥ 
बिलगन पत को नारि बियोगी । हे अन्तर्वन्त मैं सँयोगी ॥ 
कोई पीड़ित है? रोगित है? या कोई भयभीत है अथवा धनहीन स्वरुप में कोई दुर्दशा ग्रस्त होकर कोई खिन्न तो नहीं है ॥ प्रजा के अंतर को जानने वाले हे अन्तर्वन्त मैं तो संयोगी हूँ, अपने पति से अलग कोई स्त्री विरही तो नहीं है ॥ 

कस राजन सचिव गन कस, नियम नय नीति मंत्र । 
समीखन करत कहु बुधजन, कस मम सासन तंत्र ॥ 
राजा कैसा है, उसके सचिवगण कैसे हैं उस राजा के राज्य का विधि-विधान नीति -मंत्र कैसा है । हे प्रबुद्धजनों कृपया समीक्षा करते हुवे कहो कि मेरा शासन तंत्र कैसा है ॥ 

शुक्रवार, २४ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                                          

 पत प्रेमरत प्रनत नत माथा । बोलेसि प्रनिधि हे रघुनाथा ॥ 
तव कीर्ति भव सागर तरनी । त्रिभुवन जन जन पावन करनी ॥ 
अपने स्वामी के प्रेम में अनुरक्त प्रनिधियों ने शीश झुकाकर प्रणाम करते हुवे कहा : -- हे रघुनाथ ! आपकी श्री कीर्ति इस संसार रूपी सागर से पारगमनी है । त्रिभुवन के जन जन को पवित्र करने वाली है ॥ 

हमहि गुपुत घर घर पइसारे । धनिक बनिक का खेवनहारे ॥ 
जन जन के मुख मधुरस साने । श्रुत भए कृत प्रभु सुयस बखाने ॥ 
हम लोगों ने घर घर में गुप्त प्रवेश किया । क्या धनी क्या बनी क्या मल्लाह अर्थात चातुर वर्ण से सम्बन्ध रखने वाले के अंतर का मर्म जाना । एवं लोगों के मुख से मधुर रस में डूबी प्रभु की सुकीर्ति का बखान श्रवण कर कृतार्थ हुवे ॥ 

प्रभुकुल  पुरखा भयौ अनेका । सगरादि सहित पुरुख प्रबेका ॥ 
आपनि किए जस अवध कृतारथ ।  अस न करे को सिद्ध मनोरथ ॥ 
प्रभु के कुल में राजा सगर एवं स्वयं पुरुषोत्तम सहित अनेकानेक पूर्वज हुवे । किन्तु जिस प्रकार आपने ( अपने सत्कर्मों से ) अवध को कृतार्थ किया । ऐसा मनोरथ तो किसी के द्वारा सिद्ध न हुवा ॥ 

जस रघुवर कीर्ति जग छाई । तिन्ह श्रवन देवन्ह लजाईं ॥ 
पाए प्रजा तव सोंह स्वामी । भए सुभाग हे अन्तरजामी ॥
जगत में जैसी कीर्ति रघुवर की छाई है कि जिसको सुनकर  देवता भी लज्जित होते हैं ( क्योंकि आपके सुयश से उनका यश निश्तेज हो जाता है ) ॥ यह प्रजा का सौभाग्य है कि जिसने आपके जैसे शासक को प्राप्त किया ॥ 

बदन लघु धरे वचन लघु, कहनइ देस बिसाल । 
कहुँ ताप त्रिबिध लहने न, काहुहि  मीच अकाल ॥ 
इस विशाल देश की विशाल कहानि प्रभु मुख लघु है उस पर कथन लघु है कि आपके राज्य में कहीं भी त्रिबिध ताप अर्थात दैहिक ,दैविक एवं भौतिक दुःख नहीं है, अकाल म्रत्यु नहीं है ॥ 

कृपा सिंधु हे दया निधि, हे दीनन के नाथ । 
वाकू सबहि सुख संभव, जाकू सिरु तव हाथ ॥ 
हे कृपा के सागर दया के भंडार हे दीनानाथ । उसको सभी सुख सम्भव हैं, जिसके शीश पर आपका हाथ हो ॥

शनिवार, २५ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                              

रबि उदइत जस जब संसारे ।  बीय पीन बन बिपिन बिहारे ॥ 
किरन किरन जिन  दिन्हसि नेई । विभो कृपा दृग जीवन देई ॥ 
जगत में जब सूर्य उदयित होकर वन उपवन में भ्रमरण करते हुवे  बीजों को पुष्ट करता है एवं उसकी किरण किरण उन्हें मूल प्रदान करती है । हे विभो ! आपकी कृपा दृष्टि फिर उन्हें जीवन देती है ॥ 

भए धन्य धन्य हम गुपुत चर । लखन जोग प्रभु बदन मनोहर ॥ 
दरसत नयन प्रभु दरसन पाए । सोइ भगतन बहु भाग बँधाए ॥ 
 हे प्रभु हम गुप्तचर धन्य हुवे हमें प्रभु के मनोहर छबि के दर्शन कि योगयता प्राप्त हुई ॥ जो प्रभु का साक्षात दर्शन करते हैं वे भक्तजन बहुंत ही भाग्यशाली होते हैं ॥ 

बरन कहुँ अरु बचन एहि भाँती । भगवन चितबन परे न सांती ॥ 
बरनन कछुकन अरथ न रेखे । भाव अवर मुख रंजन लेखे ॥ 
फिर भगवन का चित्त संतुष्ट न हुवा । वचन तो ऐसे पर उसके वर्ण अवर हैं शब्द कुछ अर्थ नहीं कर रहे । मुख ऊपर की अनुभूतियाँ दूसरा ही भाव प्रकट कर रहीं है उसका वर्णन से मेल नहीं हो रहा ॥ 

प्रभु जब सब मुख दिरिस निपाते । कहि मन मैं अहहीं कछु बाते ॥ 
बहुरि भगवन पूछे महमते । मम सोंह कहहु सबहि कहबते ॥ 
प्रभु ने जब सभी गुप्तचरों के मुख पर दृष्टि डाली तब उनके चित्त में कुछ ऐसी ही बातें आईं । फिर भगवान ने उन गुप्तचरों से पूछा हे महामते ! तुम मेरे सम्मुख सारी बातें कहो ( कुछ छुपाओ नहीं ) 

बिबस बस अस बचन न सहारौ । तुम्ह मम सौंह असत बिसारौ ॥ 
जोइ जितो जँह जोहनु जैसे । तोइ तितो तुम कहु तिन तैसे ॥ 
विवशता के वशुभूत होकर बातों को ऐसे सहारो तुमको मेरी सौंगंध है तुम असत्य का त्याग कर दो । जो जिधर जहां जैसा देखा-सुना । तुम उसे उतना ही एवं वैसा ही कहो ॥ 

 हे वादि मम मन मानस, होवत अतिसय भारि । 
भेद मरम तुम्ह बचन कहु, तव रहिहुँ हिय अभारि ॥
मेरे  मन-मस्तिष्क अत्यधिक भारी हो रहे हैं । हे मर्म वादी !  रहस्योद्घाटन करो एवं जिन्हें तुम कहना नहीं चाहते वे गूढ़ वचन  मेरे सम्मुख कहो तो  मैं तुम्हारा हृदय से आभारी रहूँगा ॥ 
                                                       
रविवार, २६ जनवरी, २०१४                                                                                      

नीरधि नदीस अंबुनिधि सिंधु । उदरथि पाथधि पयोनिधि बंधु ॥ 
बासित बन हे तापस चरनी । तुहरी करनी कलिमल हरनी ॥    
नीर के आगार , अम्बु के आधार, नदी के ईश, उद के अर्थि पाथ के भंडार, पयस अपार धारण करने वाए सनिधु कू बांधने वाए हे राम ! वैन में वास कर तपस्या के आचरण करने वाए हे राम! आपकी करनी तो कलयुग की कलुषता को हरण करने वाली है ॥ 

कहत प्रनिधि हे जगत सुवामी । रघुकुल दीपक पूरन कामी ॥ 
दीना नाथ हरण महि भारे । दयाकरन लिए दसावतारे ॥ 
गुप्तचरों ने पुन: कहा : -- हे जगत के स्वामी रघु कु के दीपक हे पूर्णकामी प्रभो हे दीनों के नाथ  इस पृथ्वी के पाप रूपी भार का वरण करने हेतु दया कर आप दस अवतारों में अवतरित हुवे ॥ 

मधु कैटभ दितिसुत संघाते । बाँध्यो बलिहि बातहि बातें ॥ 
जब दनुपत तव भयौ बिरोधा । जान तपस्वी तव सन जोधा ॥ 
मधु, कैटभ,महाबली दितिसुत का संघात किया बाली को बात ही बात में बाँध लिया । जब दनुजपति लंकेश आपके विरोधी हो गए । एवं एक तुच्छ तपस्वी समझ कर उसने आपके किया ॥ 

कँह भलु प्रद्योत की प्रद्यूति ।  कहाँ खलु खद्योत की द्यूति ॥  
दुरा चारि सो असुर अहंता । हंत काम हो प्रभु कर हंता ॥ 
कहाँ तो संत सूर्य की कांति एवं कहाँ असंत जुगनू का खेल । वह दुराचारी अहंकारी असुर ।  स्वयं के वध का इच्छुक हो प्रभु के हाथ से हंतव्य होकर उत्तम गति को प्राप्त हुवा ॥ 

असुरारिहि कहनि के हे, सगुन रूप भगवान । 
कंठ कंठ रव कल करत, करहि सुमंगल गान ॥                                                                                              हे सगुण स्वरुप परमेश्वर  करते हुवे मंगल गान स्वरुप में उस आसुरी शत्रुता की कहानी को कंठ कंठ मधुर व्याख्यान कर रहे हैं ॥                                                                                                                                                                                  सोमवार, २७ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                             

सखेद नत  दृग कहि प्रभु परंतु । का परंतु कहु हे भेदवंतु ॥ 
एकै बचन जन होत लजावा । तिन सन बर नहि अंतरभावा ॥ 
 गुप्तचरों ने खेद पूर्वक नीचे नयन किए कहा किन्तु प्रभु तब प्रभु कहने लगे : --  हे गुप्तचर! किन्तु क्या किन्तु ? (गुप्तचरों ने उत्तर दिया) एक वृत्तांत ऐसा है जिसकी निंदा हो रही है जिसके सह पुर वासियों के अंतर भाव अनुकूल नहीं हैं ॥ 

तव सौंह कहें कस सो बाता । जेहि बचन सन लागित माता ॥ 
अह बसी सिय रावन निकाई । बहुसह पुरजन बात बनाईं ॥ 
हे प्रभु ! आप के सम्मुख हम उस प्रसंग किस प्रकार कहेंन जिसका सम्बन्ध माता सीता से हो ॥ आह ! माता सीता श्रीराम की पत्नी है सो क्या हुवा रहीं रावण के घर में ही थी । ऐसा कह कर बहुंत से लोग बात बना रहे हैं एवं उनके मन में संदेह होने लगा है ॥ 


एक रजक गत अर्धन जामिनी । बिबादित तिन सों निज भामिनी ॥ 
सोइ तिआ कहुँ दिन की जाई । तनिक बिलम मैं घर बहुराई ॥ 
 एक धोबी गत आधी रात को अपनी धर्मपत्नी के साथ विवाद रत था ॥ वह स्त्री दिवस काल में कहीं गई थी सो उसे लौटने में किंचित विलम्ब हो गया ।

रजक करक अस धुत धुत कारै। जस घरयारी घन गहरारै ॥ 
दुर्घोष दमन बादन भासे । बहुरि बहुरि कर धरत निकासे ॥ 
 इस पर उसका धोबी पति कुपित होकर उसे ऐसे धिक्कारने लगा जैसे घंटा बजाने वाले का घन घनघना रहा हो ॥ वह श्रवणेंद्रिय को कटु लगने वाली ध्वनि कर अनियंत्रित होकर अपनी स्त्री की निंदा कर रहा था और उसका हाथ पकड़ के उसे वारंवार गृह से निष्कासित कर रहा था ॥

अस दिरिस दरस कहि जनि वाकी । इब घनकत घन छबि छन झाँकी ॥ 
जस पख पंकज पर निसपंके ।  बापुरी बधु तस निसकलंके ॥ 
 ऐसा दृश्य देखकर जैसे गरजते हुवे घन मन चंचला प्रकट होती है वैसे उसकी माता प्रकट स्वरुप में  कहने लगी : -- जैसे पंकज पुष्प के पत्र पंक में होकर भी निष्पंक रहते हैं, यह बेचारी उसी प्रकार निष्कलंक है ॥

निर्दोषु दोषु देहु न ठोटे । बाँधे लगन त  रहु एक जोटे ॥ 
तनिक बिचार करु मन माही । कलेष कलि कल्हन का लाही ॥ 
 बेटा ! निर्दोष पर दोषारोपित मत करो। जब बंधन बांधा है, तो एकजुट रहो ॥ मन में थोड़ा विचार मंथन करो । मन को दुखित करने वाले वचन, झगड़ा, कलहकुछ आभ नहीं देते ॥ 

जे तीय तव पल्लै गहि , तुहरे घर सरनाइ । 
ए  दासी तुअ जीवन भर, करहि पद सेउकाइ ॥ 
यह स्त्री तुम्हारे पल्ले बंधी है तुम्हारे घर की शरण में है । यह तो दासी है जो जीवन भर तुम्हारे चरणों की सेवा करेगी ॥ 

 मंगलवार, २८ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                                   

कहि मात अस निंदा न कारू । मानौ तनि कन बचन हमारू ॥ 
रोष रोष मह दोष न काढ़ौ । गवन दौ परिहरौ चलु छाढ़ौ ॥ 
माता ने कहा ऐसे निंदा न करो । किंचित हमारी बात भी मानो ॥ आक्रोश में ऐसे दोष मत निकालो । ( इन छोटी छोटी बातों को ) बिसराओ, छोडो, चलो जाने दो ॥ 

 न मैं राम ना मैं को राऊ । न तिन्ह सों मैं सील सुभाऊ ॥ 
तिन्हने दनुज के घरबासी । बहुरि ग्रहत गह सदन सुपासी ॥ 
ना मैं राम न मैं कोई राजा हूँ । न ही मैं उनके समान शील स्वभाव का हूँ । उन्होंने तो राक्षसों के घर में निवास की हुई स्त्री को ग्रहण किया जो उन्हें अपने गृह सदन में सुखकारी प्रतीत हो रही है ॥ 

राउ होत समरथ री माई । समरथी सब करनी नियाई ॥ 
होहि अवर जो धर्मी लोगे । तिनके करम अन्याइ जोगे ॥ 
अरी माता ! राजा समर्थ होते हैं । समर्थ के सभी कार्य न्यायोचित होते हैं ॥ दूसरे चाहे धर्मात्मा ही क्यों न हो उनके सभी कार्य अन्याययुक्त होते हैं ॥ 

रजक फिरि फिरि ए बत दुहराई । न मैं राम ना मैं को राई ।। 
तुम गहन कहु मैं रखु न ताही । तुम रखन कहु मैं लखुहु नाही ॥ 
गुप्तचर ने कहा : -- प्रभु ! वह धोबी वारंवार यही वचन दुहरा रहा था "न मैं राम हूँ ना कोई राजा हूँ" ॥ तुम इस स्त्री को ग्रहण करने हतु कहो, मैं रखूँ भी नहीं । तुम यदि रखने को कहो मैं उसे देखूँ भी नहीं ॥ 

ते काल हमरे मन बन उपजे खन खन रोष । 
सहस सुमिरत प्रभु आयसु, देइ न तिन्हन पोष ।।  
उस समय हमारे चित्त- कानन के खंड खंड में रोष उपज आया था ॥ सहसा प्रभु का आदेश स्मरण हो गया, हमने उस रोष को पोषित नहीं किया ॥  

स्वामी अजहुँ जो तुम्ह, हमही आयसु  दाएँ । 
एक पलक मह तिन दुर्जन, बाँध छाँद लै आएँ ॥                                                                                              हे स्वामी! अब यदि आप की आज्ञा हो तो हैम उस दुष्ट धोबी को एक क्षण में ही बांध जोड़ के ले आएँ ॥                                                   

बुधवार, २९ जनवरी, २०१४                                                                                                   

भगवन तुम अति अनुग्रह कारे । ते कर अन कहनी कह डारें ॥ 
जेइ कथन बिपरीत न्याई । कहनी अजोग मुख निकसाई ॥ 
हे भगवन ! आपके अतिशय आग्रह किये इस कारण यह न कहने वाली बातें भी कहनी पड़ीं ॥ ये कथन न्याय के विपरीत हैं इनका वर्णन कहने योग्य नहीं थे फिर भी यह कहे गए ॥ 

अनाहूत होइहि अनाहिता । जिन सन सँजुगे न को के हिता ॥ 
अब ए बिषै मह हे सियकंता। आपहि  नैक आपहि नियंता  ॥ 
 यह घटना अप्रिय एवं अनिमंत्रित है जिसके साथ किसी का भी हित संयोजित नहीं है ॥ अब इस विषय में हे सीता कान्त आप ही व्यवस्थापक हैं, एवं आप ही नियंता हैं ॥ 

चहुँ पुर भल बिधि सोच बिचारैं । कृतागम सोइ करतब कारें ॥ 
प्रवृत्तिग्य के बचन कराले । एक एक बरन जासु मह काले ॥ 
सभी और से भाई प्रकार सोच विचार कर जो योग्य हो वही कर्त्तव्य करें ॥ भेड़वंतों के वाक्य विकट थे । उसका एक एक शब्द महा भयंकर स्वरुप के थे ॥ 

अरथ गहे सो बजर समाने । धाराबिष धरि भाव बिहाने ॥ 
दुःखधर अहुरि अहुरि उहसाँसे । रघुबर बहुरि बहुरि उछ्बासे ॥ 
वाक्यों ने जो अर्थ ग्रहण किया था वह वज्र के संदृश्य था अंत में जो भाव उत्पन्न हुवे वे किसी महावृष्टि अथवा खड्ग से थे ॥ रघुवर ने दुःख पूर्वक दुःख को सूचित करने वाई सांस को बार बार लेते एवं बार बार छोड़ते ॥ 

रजक दुखारि , ए अगान दूषनारि , मरम आहत कीन्हे । 
प्रनिधि अवाऊ अरु भरत पठाऊ हतबत आयसु दीन्हें ॥ 
पाहन उर धारे, सो दुखियारे भरत वेसमन गवने । 
तहवाँ रघुराया के मुख दाया संदेस प्रियं वदने ॥ 
रजक के इस  दुःख पूर्णित वृत्तांत ने रघुवर के मर्म पर आघात किया । उन्होंने दुखी होकर गुप्तचर को प्रस्थान करने की की आज्ञा देते हुवे कहा जाओ और भ्राता भरत को भेजो ॥ वे दुखियारे गुप्तचर हृदय पर पाषाण रखे भारत के नावस में गए । वहाँ राजा राम चन्द्र के मुख से प्राप्त  सन्देश को मधुर भाषा में भ्राता भारत को सम्प्रेषित करने लगे ॥ 

सुमत भरत सहुँ भेदि नत , ज्योंहि कहत बिहाए । 
अधीरत अरधरत तुरत, भगवन सदन सिधाए ॥  
 प्रवृत्तिज्ञों ने मतिवान भरत के सम्मुख अपना सन्देश कहकर जैसे ही निवृत्त हुवे । उस अर्धरात्रि में  अधीर होकर भ्राता भरत तत्काल भगवन के सदन गए ॥ 

गुरूवार, ३ ० जनवरी, २ ० १ ४                                                                                                   

तहाँ ठारै गोपा दुआरे । अधम काल पट दिए ओहारे ॥ 
बुझेसि तिनते अधीरत भरत  । कहाँ अहहैं अजोधा के पत ॥ 
वहाँ द्वार पाल  अर्द्ध रात्रि को पट पर आवरण दिए गोपुर की रक्षा कर रहे थे ॥ भ्राता भरत ने उनसे अधीर होते हुवे पूछा : -- अयोध्या के राजा श्रीरामचन्द्रजी कहाँ है ? ॥ 

संकेत करत गोपा अंतर । जे भवन रतन रचित मनोहर ॥ 
भरत आतुरत पैठे तँहवाँ । दरसत बिचरत  रघुबर जहवाँ ॥ 
तब द्वारपाल ने अंतर की और संकेत कर खा उस रत्न निर्मित मनोहर गृह में ॥ तब भ्राता भरत आतुरता पूर्वक उस गृह में प्रवेश किया जहां प्रभु श्रीराम विचरण करते दिखाई दिए ॥ 

भरत भयउ भै जुगत बिस्मिते । कहे स्वामिन भ्रात प्रनमिते ।। 
जोई जोग सुख सोंह अराधे । सोई बदन सुठि प्रगसि प्रबाधे ॥ 
भ्राता भरत भय एवं विस्मय से युक्त होकर भ्राता श्रीराम को प्रणाम करते हुवे कहने लगे हे स्वामी ! जो श्री मुख  सुख से आराधना के योग्य है वह अशांत स्वरुप में पीड़ा को प्रकट कर रहा है ॥ 

नीरज पलक लक नीचक ताए । पयस मयूख मुख मीचक छाए ॥ 
कवन कारन कहत प्रबोधे । हे प्रभो मोहि सत संबोधें ॥ 
नीरज जैसी पलकेँ से युक्त आपका मस्तक नीचे झुका है । चंद्रमा से मुख पर मेघ की परछाई है ॥ किस कारण प्रभु ! आप मुझे  संज्ञान कराते हुवे उसके यथार्थ का सम्यक बोध कराएं ॥ 

नयन पटल पल किए सजल, अरु कहि हे रघुराए । 
मोरिजोग सेवा टहल, होहि त आयसु दाए ॥ 
नयन पटल औरपलकों को जल युक्त किये भारत ने फिर खा हे रघुनाथ ! यदि मेरे योग्य कोई सेवा सुश्रुता अहो तो कृपया आदेश दें ॥ 

शुक्रवार, ३१ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                                       

गहन निमज्जन चिंतन सागर । तमी तमहर ताप तरंग धर ॥ 
निगदित निगदन  हँसि कर फीकी । रबधे रघुबर निज रमनी की  ॥ 
चिंतन के गहरे सिंधु में निमग्नहो रात्रि रूपी अज्ञान के अन्धकार को दूर करने वाए प्रभु दुःख की तरंगों को धारण किये हुवे थे तब रघूत्तम के के अलोनी हंसी करते हुवे अपनी जीवन संगिनी  के प्रति कहे गए उक्त ( निंदा ) कथन कहना आरम्भ किए ॥ 

धरे पदुम कर भरत के कंधु ।  निनादत बोले हे रे बंधु ॥ 
 बिसंभरी बर जीवन तिनके । सत्कृत कीर्ति प्रस्तरि जिनके ॥ 
रघुवर ने अपने पद्म हस्त भ्राता भरत के कंधो पर रखे भारी स्वर में बोले मेरे प्रिय भ्राता ! इस विश्वंभरी में उनका जीवन श्रेष्ठ है  जिनकी सद्कार्यों की कीर्ति प्रस्तार लिए है ॥ 

जीअत जी अपकीर्ति भोगें । भयउ मरे सम सोई लोगे ॥ 
सकल जगत रहि पवित एकंगा । भई कलुखित जस मई गंगा ॥ 
अपने जीते जी जो अपयश भोगते हैं वे मनुष्य मरे के सदृश्य होते हैं ॥ मेरी अर्थात ईश्वर की कीर्ति कीर्तिमयी गंगा की समस्त जगत में एकांग स्वरुप मन पवित्रता धारण किये थी वह आज कलुषित हो गई ॥ 

जे कहनी मैं कहन सँकोचूँ । धुनी बरन कस साधौं सोचूँ ॥ 
कथन बरनन धरे कटुताई । धरन परेन्हि मन निठुराई ॥ 
जिस कथन को मैं अभिव्यक्त करने में संकोच कर रहा हूँ । उसके शब्द एवं अक्षरों को केस साधूँ यह विचार कर रहा हूँ । उस कथन का वर्णन अत्यधिक कटुता ग्रहण किये हुवे है। किन्तु मन में निष्ठुरता तो धारण करनी ही पड़ेगी । एवं वे निंदा वचन अभिव्यक्त करने पड़ेंगे ॥ 

ए नगर के एक नागरी, रजक रजो रस रात । 
मिथिलाकुँआरी जोगित , कहि कछु निंदित बात ॥  
इस नगर का एक नागरिक जो कर्म से धोबी है इस अन्धेरी रात्रि में , मिथिला कुंवारी सीता से सम्बंधित कुछ निंदनीय वचन कह रहा था ॥ 

शनिवार, ०१ फरवरी, २ ० १ ४                                                                                                   

कहु रे बंधु अजहुँ का कारौं । पञ्च भूति के तन परिहारौं ।। 
बाँध लगन जिन सन अनुरागे । कै तिन संगिनि करौं त्यागे ॥ 
 भाई ! तुम ही कहो अब मैं क्या करूँ । कयास इस पञ्च भूति से रचे शरीर का त्याग कर दूँ ?॥ अथवा जिस के संग सानुराग लगन बँधाए उस जीवन संगिनी  का परित्याग कर दूँ ॥ 

आनि मोरि मन दोइ उपाई । अब तुम्ह कहु का करी जाई ॥ 
चिंतत भरत बूझैहि ताता ।  रजक वदन अस कहि को बाता ॥ 
मेरे चित्त ने यह दो उपाय उपजे हैं । अब तुम बताओ क्या करना उचित होगा ॥ चिंता में डूबे भारत ने भरता से पूछा । हे भ्राता ! रजक के मुख ने ऐसी कौन सी बात कह दी ॥ 

जइसिहुँ जल हिन् कमल मलीना । दरसत प्रभु तुम अइसिहुँ दीना ॥ 
भयउ बदन बिबरन जिन कारन । कहहु बैदेहि देहि परिहरन ॥ 
जैसे जल के बिना  कमल मुरझा जाता है । हे प्रभो आप मुझे ऐसे ही विकलता स परिपूर्ण दर्शित हो रहे हो ॥ आपके श्री मुख की कांति जिस कारण से विवर्ण हुई कि आप अपनी देही एवं माता वैदेही के परित्याग की बात कर रहे हैं ॥ 

रजक अहहिं को कहु हे राऊ  । तिनके परचन तनिक बताऊ ॥ 
अस का कहि जे भै सुभु छूछे । करत याचन भरत पुनि पूछे ॥ 
हे राजन ! रजक ने ने क्या कहा है एवं उस रजक का परिचय क्या है कृपया मुझे बताइये ॥ उसने ऐसी कौन सी अकल्याणकारी बात कह दी । भारत ने याचना कृते हुवे प्रभु से पुन: यह प्रश्न किया ॥ 

रजक सन श्रुति प्रनिधि कही, जाने जोइ अगान । 
बहोरि विभो जौं के तौं, कारि तिनके बखान ॥ 
रजक के मुख से सुनी हुई गुप्तचर की कहने से जो वृत्तांत ज्ञात हुवा । फिर प्रभु ने उसका ज्यों का त्यों व्याख्यान किया ॥ 

रविवार ०२ फ़रवरी, २ ० १ ४                                                                                                      

बचन भरत कन देइ सुनाई । गाहे अंतर बहु कठिनाई ॥ 
मुख काँति मंद होवत ऐसे । दिनमुख घन मसि मलिनत जैसे ॥ 
जब ऐसे वचन भ्राता भारत के कानों में सुनाई पड़े । तब वे वचन उन्होंने अत्यधिक कठिनता पूर्वक ग्रहण किये । मुख की कांति ऐसे धीमी हो रही थी जैसे  दिवस के मुख पर मेघ अपनी कालिमा मल रहा हो ॥ 

इतस भरत हिअ भरि संतापे । उतस राम मन सोक ब्यापे ॥ 
ताप मगन प्रभु बदन निहारे । भरत बचन किमि भाँति सँभारे ॥ 
इधर ब्राता भारत का ह्रदय संताप से भर गया । उधर भगवान श्री राम चन्द्र के चित्त  शोक व्याप्त हो गया ॥ श्री राम चन्द्र जी का दुःख में निमग्न श्रीवदन निहारते हुवे भ्राता भरत ने अपने वचनों को किसी प्रकार से सँभाला : -- 

बहु दुर्दम कर बोले भ्राता । बीरन्ह तईं सुपूजित माता ॥ 
यहु तपसीनिहि त रहि कंचन । तप तपन परिखन भई कुंदन ॥ 
एवं अतिशय कठिनाई से बोले : -- हे भ्राता ! माता वीरों द्वारा सुपूजित है एवं यह तपस्विनी तो कंचन थीं । जो तप  के ताप द्वारा परीक्षणोंपरांत कुंदन हो गई ॥ 

सुधित कहि जिन्ह परन परीखा । ब्रह्मादि देव बानर रीछा ॥ 
जगन मई जो जगत बंदिनी । रजक एक कथन भई निंदिनी ॥ 
इस परीक्षा के उपरान्त ब्रह्मादि देव सहित वानर दीर्घ केश रीछों ने भी जिन्हें शुद्ध बताया ॥ जो जगन्मयी जग भर में वन्दनीय हुई वह रजक के एक कथन से किस प्रकार निंदनीय होगी ॥ 

अस पतनुबर्तिनी जोहि प्रान प्रिया पतियारि । 
केहि बिधि कृपानिधि होहि, कस तज की अधिकारि ॥ 
जो पति की आज्ञाकारिणी, पति की अनुशरण कारिणी , प्राणों से भी प्रिय एवं विश्वसनीय हैं । हे कृपानिधि ! वह किस विधि से, कौन से विधान से त्याग के योग्य होंगी ॥ 

सोमवार, ०३ फ़रवरी, २ ० १ ४                                                                                                     

संत मुनि गन प्रभो जस गाने । निगम सेष सारदा बखाने ॥ 
कलिमल हर जग प्रभु करि पावन | किए खल खलहिन बन हत रावन ॥ 
संत एवं मुनिगण एकत्रीभूत हो आपकी  यशोकीर्ति का आगान करते हैं, वेद, भगवान सेष एवं स्वयं माँ शारदा आपका सुन्दर व्याख्यान करते हैं ॥ कि जिन प्रभु के करणी ने समस्त पातकों का हरण कर दुष्ट रावण का उद्धार करते हुवे इस वसुंधरा को दूषणहीन कर दिया ॥ 

भ्राजि भुवन भुइँ राज रघुराजु । सोइ  पविता भई बयरु आजु ।। 
एक मुख कहने कथनी ऐसे । होहि कलंकित प्रभु जस कैसे ॥ 
यह भू लोक जिन रघु पति राघव राजा राम के कीर्तित राज से कांतिवान हो उठा । वही पवित्र कीर्ति आज ( धोबी के कहे एक वचन के कारण ) उसी भूलोक की वैरी हो गई ॥ 

प्रभो तनि कहु आपहु आपनी । त्यागहु कस बिग्रह कल्यानी ॥ 
आपहि हमारे भय दुःख हारे । आपही भरु अवतारन भारे ॥ 
हे प्रभो ! कृपाकर कहें कि आप अपने इस कल्याण मयी देह का परित्याग भला क्यों करेंगे ॥ आप ही  हमारे भय एवं दुःख के हरणकर्ता हैं । हे स्वामी ! आप ही हमारे भारावतारी हैं ॥ 

अभ्युदय सोंह  सोभन धारी । भोग भाव भव भूति बिसारी ॥ 
प्रीतम सन बन चारनि जोई । हरि हिय बासिनि जनि श्री सोई ॥ 
उदयमान सूर्य एवं चन्द्र से शोभा प्राप्त करने वाली सांसारिक आकर्षण,सुखों उपभोगों एवं ऐश्वर्य का त्याग करने वाली अपने प्रियतम के संग जो वनगतिका है ईश्वर के निलय भवन में निवास करने वाली शोभा स्वरूपा जो हैं ॥ 

वाके जी जग जिअत न जाना । छिनु भर तुहरे बिनु भगवाना ॥ 
मैं लघु मुख विभो तुम स्वामी । तुम सर्बाखि अंतरजामी ॥ 
हे प्रभु उन्हीं माता सीता की जीवात्मा ने आपके विहीन क्षण भर को भी जीवना नहीं सीखा ॥ हे विभो ! मैं आपका अनुज लघु मुख हूँ आप तो मेरे स्वामी हैं ॥ और आप सर्वदृष्टा अन्तर्यामी हैं, अर्थात आपसे कुछ छिपा नहीं है ॥ 

पुनि भ्रात अनुरोदन करत, कातर लोचन लाख । 
श्री धर श्री संग कीजिए, राजलखी की राख ॥ 
फिर अनुज भरत भ्राता के सम्मुख अनुरोध कर कातर दृष्टि से देखते हुवे कहते हैं । हे श्रीधर ! आप (परिहरण का विचार त्याग कर) श्री स्वरुप माता सीता के संग इस अयोध्या राज्य -लक्ष्मी की रक्षा कीजिए ॥ 

मंगलवार, ०४ फरवरी, २ ० १ ४                                                                                                      

ए बचन कन धर बर बागीसा । एहि बदने बदनइ जगदीसा ॥ 
तुम जो कहन कहहु रे भाई । सोइ धरमतस जुगत जुगाई ॥ 
भ्राता भरत के इन वचनों को कर्णधार कर वक्ताओं में श्रेष्ठ, मधुरभाषी जगद -ईश्वर ने यह कहा : -- भ्राता ! तुम जो कथन कह रहे हो, वह धर्मसम्मत एवं युक्तियुक्त है ।। 

पर एहि काल बर भ्रात कहाउ । सोइ बचन सरि आयसु लहाउ ॥ 
सीत केतु मुख सुख की रासी । प्राण समा सिय मम हिय बासी ॥ 
किन्तु इस समय यह तुम्हारा वरीयस भ्राता जो कह रह रहा है । उन वचनों को तुम आज्ञा के सरिस ग्रहण करो ॥ चंद्रमा के सीतल मुख एवं सुख की राशि हैं । मेरे कमल ह्रदय में निवास करने वाली श्री स्वरुप सीता जो मेरी अर्द्धांगिनी हैं ॥ 

ताप तपन  भइ तपत सूधिता । परम पवित त्रै लोक पूजिता ॥ 
परिचारिका मम मनस बिमाना । प्रान पवन के गति मैं जाना ॥ 
वह तपस्या की अग्नी में तप कर शुद्ध होकर परम पवित्र हो गईं एवं तीनों लोकों में पूजी गईं ॥ जो मेरे मन-मस्तिष्क रूपी विमान की परिचालिका हैं । उसके प्राणवायु की गति भी मैं जानता हूँ ॥ 

तिनके रोम रोम मह रमना । चरन चरत जँह लग मम लमना ॥ 
तथापि मैं जग निंदन कारन । अजहुँ तिनके कारौं परिहारन ॥ 
उसके रोम रोम में उसका प्रियवर है । जहां तक मेरी दूरी है, वह उतने ही पग धरती हैं ॥ तथापि में ोकापवाद के कारण । मैं आज उसका त्याग करता हूँ ( त्याग एवं परित्याग में अंतर है, जब कोई ह्रदय से भी त्यागा जाए तब उसे परित्याग अर्थात पूर्ण त्याग कहा जाएगा ) ॥ 

सुखउन मुख जतने, रघुबर कथने  प्रमथित बहु दुखित मने । 
रे हरि रे हरिअरि रे हरि कर धरि, परिहरि को बिपिन घने ॥ 
अवतरे लघु बंधु सोक के सिंधु जब राम आयसु दियो । 
गहे गहनहि अंधु कह नहि नहि बंधू, हतचित चित भुँइ परियो ॥ 
प्रभु ने अपने सूखे हुवे मुख को व्यवस्थित कर उत्पीड़ित एवं बहुंत ही दुखित मन से कहा : -- हे ले जाने वाले, हरी अर्थात मेरा पल्ला पकड़ने वाली को धीरे से किसी घने विपिन में छोड़ आओ ॥ जब भगवान श्रीराम ने ऐसी आज्ञा दी तब अनुज भरत शोक के सिंधु में उतर गए एवं उसके जल में गहरे निमग्न होकर कहने लगे नहीं नहीं रे बंधू नहीं और मूर्छित होकर धरा पर चितवत गिर पड़े ॥ 

देखि दसा चित अनुज के, हरिएँ धरे दुइ बाहु  । 
आह हेरत सिय हेरेँ  प्रभो मथित मन माहु ॥ 
मूर्छित अनुज की दशा देखकर उसे धीरे से दो भुजाओं में उठाए । आह! भगवान पुकार लगा कर पीड़ित मन के भीतर माता सीता को ढूंडने लगे ॥ 

रामु रामु हे रामु सुमिरत हरिदै हरि नामु । 

लोचन छबि हरि धामु, सेष सरजू सरिल तरे ॥ 
हे राम हे राम हे राम । हृदय भगवान का नाम स्मरण करने लगा । भगावन शेष के कमल नयनों में भगवान के धाम श्री अयोध्या की छवि उतर आई और उसमें सरयू नदी का जल उतरने लगा ॥
 


1 comment:

  1. दौनौ बाल पुर पुरौकाई । भँवर भँवर रमायन सुनाईं ॥
    मधुर गान रहि अस रस बोरे। पागत श्रवन पुरौकस घोर

    बहुत सुन्दर दोहा...

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