Monday, 24 June 2013

----- ॥ उत्तर-काण्ड 4॥ -----

सोमवार, ०६ जनवरी, २ ० १ ३                                                                             

पलक पहर भए पहर अहि राते । राख पाख अहि रात जुगाते ॥ 
जोगउना जुग दिनमल राखे । तिन पाख समउ जात न लाखे ॥ 
पलक पहर बने पहर दिन-रात में परिवर्तित हो गए । इस दिन-रातों को पक्षों ने संचय लिया । इस संचय के योग को मासों ने सुरक्षित रखा । उनके पंखों पर समय जाने कहाँ व्यतीत हुवा यह भान न हुवा ॥ 

धरनि धारन राम रउताई । सिया सन भ्रात भयउ सहाई ॥ 
परिनेता की प्रान पियारी । ते मज्झन गर्भनु धारी ॥ 
धरती के भार को धारण करने एवं अपनी प्रभुता स्थापित करने हेतु भगवान श्री राम को अपनी धर्मपत्नी महारानी सीता एवं प्रिय भ्राताओं का सहयोग सतत स्वरुप में प्राप्त हुवा ॥ फिर अपने प्रियतम के प्रेम प्राप्त कर माता सीता गर्भवती हुईं  ॥  

भए गर्भनु दिनमल कुल पाँचै । एक दिन पूछे प्रभु कहु साँचै ॥ 
रे सिय तव मन किमि अभिलाखहुँ । कहु तौ मैं तिन पूर्ण राखहुँ ॥ 
गर्भवती हुवे जब उन्हें पांच मास हो गए । तब एक दिन प्रभु श्रीराम चंद्रजी ने माता सीता से पूछा : -- देवी ! इस समय तुम्हारे मन में किस बात के लिए अभिलाषित है । तनिक कहो तो मैं उन्हें पूरा करूँगा ॥ 

तव संगिनि भइ मैं बड़ भागी । जस भागनु रहि सोन सुहागी ॥ 
कहत सिया सुनु मोरे नाथा । तुहरी किरपा निधि के साथा ॥ 
सीताजी ने कहा : -- मैं आपकी जीवन संगिनी बनी, मेरा यह परम सौभाग्य ऐसा है, जैसे स्वर्ण के संग सुहागी का सौभाग्य हो ॥ आपकी कृपा के भंडार के सह  मेरे प्राणनाथ ! 

तुम सन बहुकन भोगनु भोगें । मोरे मन को बिषय न जोगे ॥ 
जिनके अहहिं तव जस स्वामी । ते संगिनि भै पूरनकामी ॥ 
आपके साथ मैने बहुत से भोग भोग लिए अब मेरा मन कसी विषय के लिए अभिलाषित नहीं है ॥ जिनकी आपकी जैसा जीवन साथी हो वे अर्धांगिनियाँ पूर्णकामी होती हैं ॥ 

तथापि तव अनुग्रह कारि अरु प्रिय बातन राख । 
साँच कहउँ मैं हे नाथ, मोरे मन अभिलाख ॥ 
तथापि इन आग्रह कारी एवं प्रिय बातों का मान रखते हुवे हे नाथ मैं आपके सम्मुख सत्य स्वरुप में अपने मन की अभिलाषाएं कहती हूँ 

मंगलवार, ०७ जनवरी, २ ० १ ३                                                                                                   

प्रिय प्रान नाथ भयउ बहु दिना । लुपामुद्रादि के दरसन किना ॥ 
धर्म नुरत पत पिय पतियारी । तापस चरनी तिन  रिसि नारी । 
मेरे प्रिय प्राणनाथ लोपामुद्रा आदि ऋषि पत्नियों के दर्शन प्राप्त किये बहुंत दिन हो गए । पति धर्म में अनुरक्त प्रिय की विश्वासपात्र  उन तपस्विनी ऋषि नारियां : - 

पवित बदन के पावन दरसन । पायन्ह परस तिनके मम मन ॥ 
जस सिंधु तट तरंग उछाई  । तस उदंत उत्कंठ लहाई ॥ 
पवित्र मुखाकृति के पावन दर्शन एवं उनके चरण स्पर्शन हेतु मेरा चित्त  उसी प्रकार से उत्कंठा  के चरम को प्राप्त हो रहा है, जिस प्रकार तट के चरण हेतु सागर की तरंगे उद्वेलित होती हैं ॥ 

सोइ सबहि ज्ञान के कोषे । दोइ बूँदी पियासिन तोषे ॥ 
लाहतासीस तासु प्रसंगे । होहि मम अहिबात अभंगे ॥ 
वे सभी स्त्रियां ज्ञान की अधिकोष हैं उसकी दो बिंदु भी इस प्यासे मन को तुष्ट कर देवेगी ॥ उनके सानिध्य से जो सुभासीस प्राप्त होगा उससे मेरा सुहाग अखंड हो जाएगा ॥ 

मम प्रियतम अब बिलम न कीजै । पूर मनोरथ के सुख दीजै ॥ 
प्रियंवदा के श्रवनत बानी । तासु मनोरथ भगवन जानी ॥ 
मेरे प्रियतम अब आप विलम्ब न कीजिए पूर्ण मनोरथ का सुख दीजिए ॥ प्रियम्वदा की वाणी सुनकर एवं उसका मनोरथ भान कर : -- 

दरस दयिता दिरिस अनुरागी । कहत प्रभु तुम धन्य की भागी ॥ 
लवनाकर रमना सुखदाई । विभावरी जब लेहि बिदाई ॥ 
प्रियतमा को अनुराग पूर्णित दृष्टि से निहारते हुवे प्रभु कहते हैं : -- हे सीते तुम धन्य की पात्र हो ॥ हे रमणा ! सुंदरता की भंडार स्वरुप यह सुखादात्री रात्रि जब विदा होगी ॥ 

अवतरित प्रत्यूख पियूख मयूख गगनहि मगनहि जोहही । 
गवनै राता भए काल प्रभाता उदरथि उदित होहही ॥ 
तब तुम रिसि नारी मोरि पियारी दरसत भयउ उपकृते। 
श्रुत विभो वदन जेइ मृदुलित बचन भइ सिया बहु कृत कृते ॥ 
गगन ( गगन+ अहि ) के जल में यह चंद्रमा निमग्न होने की प्रतीक्षा कर रहा है जब उषा अवतरित होगी । यह रात व्यतीत होगी प्रभात का शुभ समय होगा, सूर्यदेव उदयित होंगे ॥ मुझे पारणों से प्रिय हे सीते,  तब तुम उन ऋषि नारियों का दर्शन प्राप्त कर कृतार्थ होना । विभो के मुख से ऐसे कोमल वाणी सुनकर माता सीता कृत कृत हो गईं ॥ 

सोइ सुरयनि तदनन्तर, गहनहि काल समाए । 
तब भगवन नै गुपुतचर  , नगरी भीत पठाए ॥  
फिर जब वह सुन्दर रात्रि गहरे श्याम रंग में समा गई । तब भगवान ने नगर के भीतर गुप्तचर भेजे ।। 

बुधवार,०८ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                                       

भेदिहि भित एहि हुँते पठाईं । ते रौधानि घर घर जाईं ॥ 
तहाँ राउ के कीरति श्रवनै । जन जन अंतर भावनु लवनै ॥ 
प्रभु ने गुप्तचरों को नगर के भीतर इस उद्देश्य से भेजा कि वे राजधानी के घर-घर जाएं वहाँ राजा कि कृति को श्रवणे एवं परजा जनों के अंतर्भाव को ग्रहण करें ॥ 

एहि करनी जे भान लहाहीं। प्रजा जन कोउ दुखित त नाहीं ॥ 
पुनि एक धनौनि भवन अटारी । नाना रंग रुचिरु गज ढारी ॥ 
इस कार्य से यह विदित हो जाएगा कि प्रजा जनों में किसी को कष्ट तो नहीं है । फिर एक ध्वान की नाना वर्णों से सुरुचि पूर्वक छत ढली भवन-अटारी थी ॥  

भेदिन्ह तिसदिन तहाँ  पैठे । लुकत बिटप ऊपर चढ़ बैठे ॥ 
तनिक बिलम लग हहरत होरे । तबहि प्रभु जस करन रस घोरे॥
फिर उस दिन गुप्तचरों ने वहाँ प्रवेश किया तथा लुकते-छिपाते एक विटप के ऊपर चढ़ कर बैठ गए ॥ कुछ समय तक वे वहाँ भय से कंपकपाते हुवे बैठे रहे कि कोई उन्हें देख न ले । कि तभी प्रभु के यश कीर्तन कानों में रस घोलने लगा ( जिससे कँपकपी जाती रही) ॥ 

जँह को ललित लावनी लोचन । ले गोदि लाल गत लयन मगन ॥ 
स्नेहल नेह बिंदु तिरावति। देइ आबरन पयस पियावति ॥ 
जहां एक सुन्दर लोचन वाली सुन्दरी अपने बालक को गोद लिए लय में विलीन होते हुवे निमग्न थी ॥ वह कोमल हृतय से अत्यंत ही भावपूर्णित होकर स्नेह बिंदु अपने हृदय-भवन से उतार रही थी ॥ आवरण दिए बालक को पयस पिला रही थी ॥ 

ललकित लोचन लाल लखावति । अलक पलक हिंडोर हिलावति ॥ 
मंद मनोहरि भजन सुनावति । हर्ष भरि हरि कीर्तन गावति  ॥ 
अत्यंत सनेह गृहित नेत्रों से अपने बालक  को निहाते हुवे पलकों की अलकावलि के हिंडोलों पर उस  बालक को झूला रही थी ॥ एवं अति मंद स्वर में हर्ष में भर कर प्रभु का कीर्तन करते हुवे मनोहर भजन सुना रही थी ॥ 

लालनै कंठ मनिक श्री, करधनी के नुपूर । 
सुर कूर सों संगत किए, वादिन रागिन रूर ॥      
लाल के कंठ  माणिक्य श्री एवं करधनी के नुपूर, स्वर समूहों से संगति किए सुन्दर राग बजा रहे थे ॥ 

गुरूवार, ०९ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                              

धारे सीस कहि गही भुजंक । बाल मुकुंद रे लाल मयंक ॥ 
जेइ मम पय मधु परक समान । अजहुँ त तासु तू करि लै पान ॥ 
भुजाओं में बालक का शीश धारण किये एवं उसे अंकवार किये माता कहने लगी । रे मेरे बाल पुष्प ! मेरे दूज के चाँद !! अभी यह मेरा स्नेह रस मधु पार्क के सदृश्य मधुर है । अभी तो तू इसका रसास्वादन कर ले ॥ 

धरा देस नगरी नद एहि घट । पावनु पाछिन होहहिं औघट ॥ 
भयउ तिनके अहहिं कारन ए । नील कमल दल स्याम बरनए ॥ 
धरणी देश नगरी नदी सहित इस शरीर को प्राप्त करने बाद में कठिनाई होगी  इसका कारण यह है कि जो नील- कमल- दल के समान श्याम वर्ण वाले : --

जगनमई जानकी बल्लभं । श्री रमारमनं नलिन वदनं ॥ 
सारंग पानि जोइ बपुरधर । कौसल पुर के अहहिं ईश्वर ॥ 
जो जगन्मयी जानकी के प्रियतम एवं श्री रमा के रमण हैं । जिनका मुख मंडल नलिन के सदृश्य है ॥ जिनके हस्त शार्ङ्ग नामक धनुष से युक्त हैं वे सुंदरता की मूरत, अयोध्या पूरी के स्वामी हैं ॥

निहार न रे निराहार सुधा । रसनासन रसाहार सुधा ।। 
सोइ जगत पुनि जनम न लहहैं । तिनके नगर बासि जो रहहैं ॥ 
रे निर आहार अब तू इस स्नेहामृत को निहार मत रस स्वरूपी इस भोजन को अपनी जिह्वां से आहरित कर ॥ जो उन प्रभु की नगरी के वासी हैं वे फिर इस धरा में जन्म नहीं लेवेंगे ॥ 

देही धरे जन्में ना मही । पान पयस अवसरु कस लहीं ॥ 
तौ निरमल जल सुत हार सुधा । रे रुचि रुचि कण्ठन घार सुधा ॥ 
जब देह ही नहीं होगी जब  इस धरा में जन्म ही न होगा । बताओ तब इस प्रेम रस के पान का अवसर कैसे प्राप्त होगा ? तो, तू इस निर्मल स्नेह सुधा के मुक्तिक हार को स्वाद में प्रवृत्त होकर अपने कंठ में वरण कर ॥ 

जो जन अनंत कथा गावहीं । कारत कीरत नित ध्यावहीं ॥ 
सोहु  चाहे कितौ  लोभ लभे । तिनके मुख पुनि सार न सुलभे ॥ 
जो भी मनुष्य अनंत स्वरुप उस ईश्वर की कथा का आख्यान करता हो उस ईश्वर का नित्य प्रतिदिन ध्यान करता हो । फिर वह भी चाहे कितना ही अभिलाषा कर ले । उनके श्री मुख को भी फिर यह स्नेह सार सुलभ न होगा ॥ 

त प्रलोभ न प्रवन उतार सुधा । रे सारत बारहिं बार सुधा ॥ 
प्रभु की प्रभुता ऐसोइ भई । जोइ गत पावत पद परमई ॥ 
तो, रे बालक तू प्रलोभन करते हुवे इस सार पीयूष को वारंवार सारते हुवे अपने उदर में उतार ले ॥ प्रभु की प्रभुता तो ऐसी ही है कि जिस भी प्राणी अवसान होता है वह परम गति को प्राप्त होता फिर उसका इस भाव संसार में जन्म नहीं होता, वह चौरासी लाख योनियों के बंधन से मुक्त हो जाता है ॥ 

रसकर्षत रयनि निहार सुधा । पिउ पयस कलस मुख धार सुधा ॥ 
निभ निर्झरी के उदगार सुधा । निहार न रे निराहार सुधा ॥ 
तू इस अमिय स्वरुप सार रस को शोषित करते हुवे, रे बालक ! तू इस पयस के कलश में मुख लगा एवं रसाहारी हो ॥ यह स्नेह प्रसर जैसे झरने का उदगार स्थल है इसे तू रमणीय स्वरुप में निहार मत ॥ 

एहि भाँति श्री राम चन्द्र ,अरु तिनके जस रूप । 
सुधाधारिनी के बदन, श्रवनत  गान सरूप ॥ 
इस प्रकार प्रभु श्रीरामचंद्र एवं उनके यशरूप को सुधा हार्न करने वाली माता के मुख से गान स्वरुप में श्रवण कर : -- 

प्रनिधि मात प्रीत मुदित हिए , अवनत किए प्रनाम । 
गवनै पुनि सुभागसील, को दुज पुरजन धाम ॥  
गुप्तचरों ने प्रेम मुदित मन से उस माता को झुककर प्रणाम किया । फिर किसी सौभाग्यशील पुर वासी के भवन हेतु वहाँ से प्रस्थान किये ॥ 

शुक्रवार, १ ० जनवरी, २ ० १ ४                                                                                                   

बिलग बिलग पथ बिलग बिलग घर । श्रवनत प्रभु जस चले गुपुतचर ॥ 
गहनइ रयनइ चरन बिहारै । एक प्रबिधि एक भवन पैठारे ।। 
फिर गुप्तचर पृथक होकर पृथक मार्ग पर पृथक -पृथक भवनों में प्रभु के सुयश को श्रवण करते चले ॥ वह रायनी अत्यधिक गहनता लिए हुवे थी और एक गुप्तचर के चरण घूम-फिर कर एक भवन में प्रवेश किये ॥ 

परिगत पर्नक कर्नक कोटे । प्रनिधि को बिधि छुपे पत ओटे ॥ 
कहुँ कुमुद पर अनुरनै भौंरे । कर्ज मुख धर कहि चुप रहौ रे ॥ 
उस भवन के चारों और सुखी टहनियों पत्तों एवं शाखाओं का घेरा था । वह गुप्तचर पत्तों की ओट किए वहाँ किसी प्रकार से छिपकर बैठा था । कहीं कौमुद पुष्प पर भंवरे की गुंजायमान हुवे । तब उस गुप्तचर ने मुख पर दीधिति रख कर कहा हेह किंचित मौन रहो रे ॥  

एक कोत कनक अन्न कनी के । जिमि सम्पद उपकारि धनी के ॥ 
घन छाउँ लहे तरि तरुबर के । सोइ सदन रहि एक हलधर के  ॥ 
एक कोने में स्वर्ण स्वरुप अन्न के कण मानो किसी उपकारी की संपत्ति हो कर वह सदन श्रेष्ठ तरुओं की घनी छाया के तले अवस्थित था उस सदन का स्वामी एक कृषक था । । 

मुख छबि जाकी मयन मनोहर। प्रान समा वाकी अति सुन्दर ॥ 
गही छबि अस स्वामी सनेही । तिन सों ससि लघु दरसन देही ॥ 
जिसकी मुख की शोभा कामदेव सवरूप अत्यंत ही मनोहर थी एवं उसकी अर्द्धांगिनी अतिशय सुन्दर थी ॥ अपने स्वामी की स्नेही उस वनिता ने ऐसी छवि ग्रहण की थी , जिसके सम्मुख शशी की शोभा भी फीकी दिखाई दे रही थी ॥ 

कमनिआ काइ मुख प्रत्यूखी । केस काल घन पयस मयूखी॥ 
करत गोठ दुहु बैठ अलिंदे । कहि सुदूर सुर वादिन बृंदे ॥ 
उसकी काया सुंदरता की मूर्ति स्वरुप थी एवं उसका श्रीमुख उषाकाल के सदृश था । उसके केस गहरे श्याम वर्ण के थे मानो वह चंद्रमा की ही प्रतिबिम्ब थी ॥ वे युगल दंपत द्वार के सम्मुख स्थित चबूतरे पर बैठे वार्तालाप कर रहे थे । दूर कहीं स्वर सप्तक समूह निनादित हो रहे थे ॥ 

संग संगिनी जब बोलत डोलै । छनन मनन पद झाँझरि बोलै ॥ 
हँसि अस जस कहुँ कूजत बीना । रूर कूर सुर सप्तक तीना ॥ 
उन सप्तग्राम की संगती कर जब संगिनी शब्दायमान होकर चंचल होती तब उसके पाँव की झाँझरी छनन मनन करते हुवे ध्वनिमय हो जाती ॥ 

अरुनारि रचनाकृत अरु , बलयित बिगलित केस । 
रमितमित अपरिमित रूप , परहित सुरुचित भेस ॥ 
सँवारी हुई अरुणामयी माँग,उसपर खुले खुए वलय युक्त केस । उस कृषक अर्धानीगिनी का  रूप-लावण अतुलनीय होते हुवे अत्यधिक लुभावना था जो सुदीप्त वेश में आवरित था ॥ 

शनिवार, ११ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                                 

लवनई नयन अंजन सारे । लागे लक अलि अलक लगारे ।। 
नयन भवन प्रिय पलक दुआरे । अलकावलि के बंदनवारे ॥ 
लावण्यमयी लोचन में अंजन श्रृंगारित थे । माथे पर कुंतल की पंक्तियाँ क्रमबद्ध रूप लगी थी ॥ वे नयन किसी भवन के सदृश्य एवं नयन की पलकें द्वार के सरिस थीं । उन पलकों पर लगी अलकों की पंक्तियाँ मानो उस द्वार की बंदनवार थीं ॥ 

उटि कुटि भृकुटि ऐसेउ बिकासे । जनु कृतिकारि कोदंड कासे ॥ 
लाखे लवन लजाउनहारे । ललनी वदन लजाउ न हारे ॥ 
उसकी भृकुटि कुटिल पत्तीयों के सदृश्य विकसित थीं । मानो रचनाकार ने कोई धनुष कस रखा हो ॥ लजानेवाला उसे देखाते न हारता । उसका सुन्दर मुख लजाते न हारता ॥ 

कबहु उघारी कभु पट ढारी । प्रीतम अनुरत कहत निहारी ॥ 
करम गाथ हे नाथ तुहारे । सिय रमन रघुनाथ अनुहारे ॥
वह कभी तो नयन के पट खोलती कभी लगा देती । फिर उसने अनुरागित होकर प्रियतम को निहारते हुवे कहा : -- हे नाथ आपके कर्मों की कहानि, जानकी जानि श्री रघुनाथ के समतुल्य है ॥ 

खलिहन कन कन भू बनबारी । जुगवन जस तुम किए रखबारी ॥
असहीं भगवन जन-जन राखें । समउ समउ लै भू सुधि लाखें 
जिस प्रकार आप खेत-खलिहानों भू वाटिकाओं में अन्न कणों की देखभाल करते हुवे उनकी रखवाली में लगे रहते हैं ॥  जगत जनों की समय समय पर सुधि लेकर इस प्रकार से तो परमात्मानन्द भगवन भी इस पृथ्वी की रक्षा करते हैं ॥ 

प्रिये प्रिय प्रनय नुरत दिए, उपदरसत जस मान । 
श्रुत अस रंजन बचन पिए, धरे अधर मुसुकान ॥ 
प्रिया  प्रिय के अनुराग में अनुरक्त होकर देय उपमान की जिस प्रकार से व्याख्या कर रही थी प्रिया के श्रुति मधुर वचन को सुनते हुवे प्रियतम के मुखोपर मुस्कान बिखर रही थी ॥ 

रविवार, १२ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                                   

श्रवन प्रिए के नुरागित बचना । कहत पिय कारत कल रचना ॥ 
री निस्छल तुम सरल सुभावा । जो वादिनि सो अति मनभावा ॥ 
अपनी धर्मपत्नी के ऐसे अनुरागित वचन को सुनकर । सुन्दर शब्द रचना कर कृषक इस प्रकार कहने लगा : -- हे निर्मल हृदया ! तुम्हारा स्वभाव सरल है तुम जो कुछ कहती हो वह मन को बहुत प्रिय लगता है ॥ 

पर सुनु हे मम प्रान पियारी । तुम जग नहि एक नार नियारी ॥ 
सब पतिनी निज पत प्रभु माने । भवन भुवन के राजन जाने ॥ 
किन्तु मेरी प्राण प्रिया सुनो, संसार में केवल तुम ही एक अकेली नहीं हो ॥ सभी पत्नियां अपने पति को ईश्वर मानती हैं एवं उसे अपने भवन-लोक का राजन जानती हैं ॥ 

मानस मनस किए कलसाकृते । मंगल मूरत मान पूजिते ॥ 
तिनके सरि तुहरे उपमाना । न त कँह तव पत कँह भगवाना ॥ 
वे अपने मन -मानस को मंदिर स्वरुप कर अपने प्रियतम को मंगल मूर्ति मान उसकी पूजा करती हैं । उनकी सदृश्य ही तुम्हारा भी उपमान है । अन्यथा कहाँ तुम्हारा पति एवं कहाँ जगतात्मन् ईश्वर ॥ 

 मंद भाग अरु दीन मतिहिनातव साजन समतुल तिन तुहिना ॥ 
कँह एक हलजुत हलि हलगाहा  । कँह जग कारन अवनिहि नाहा ॥ 
मंदभाग्य, अभावों से युक्त एवं बुद्धिहीन तुम्हारा यह प्राणप्रिय तो तुच्छ तृण के तुल्य है ॥ कहाँ भूमि की जुटाई करने वाला ॥ कहाँ तो एक गँवार भूमि जोतना वाला किसान एवं कहाँ जगत का कर्त्ता एवं धरती का शासक ॥ 

खगनाथ कँह पाँवर पतंगा । कँह पय पोखरि कँह जल गंगा ॥ 
कान्ह कुम्भज कँह सिंधु अपारा । पुरुख दहन कँह दसावतारा ॥ 
कहाँ तो पक्षीराज गरुड़ एवं खान एक मूर्ख पतंगा । कहाँ पोखरे का पानी एवं कहाँ गंगाजल । कहाँ एक लघु कुम्भ कहाँ अपार सिंधु । कहाँ एक साधारण पुरुष, कहाँ दशावतारी प्रभु ॥ 

कँह जग पूजित जगतधर, कँह तव  क़तर ब्यूँत । 
कँह द्यवन के द्युतिमन, कँह खद्युत के द्यूत ॥ 
कहाँ सर्वत्र पूजित, जगत का भार ग्रहण करने वाले प्रभु । खान तुम्हारा यह निंदाई-गुढ़ाई करने वाला किसान । कहाँ तो सूर्य का तेज एवं कहाँ जुगुनू का खेल ॥ 

पावत देवी अहिलिआ, जिनके चरनन धूरि । 
सील मई छन मैं भई, मोहिनि भामिनि भूरि ॥ 
 देवी अहिल्या ने जब उन प्रभु के चरणों की धूलि प्राप्त की तब वह शिलामयी क्षणभर में भुवन-मोहन अवँय से युक्त सुन्दर स्त्री में परिवर्तित हो गई अर्थात प्रभु की लीला अपरम्पार है तुम उनकी तुला मुझसे न करो ॥ 

सोमवार,१३ जनवरी, २०१४                                                                                                   

भरै पोषए जदपि करसाना । प्रभु न मान निज लघुतम जाना ॥ 
प्रबिधि सहृदय कहत सिरु नाई । तिनके दरसन प्रभु सुरताई ॥ 
यद्यपि कृषक ही संसार का भरण-पोषण करता है ।  तथापि उस कृषक ने स्वयं को प्रभु न मानकर लघु ही जाना ॥ इसके दर्शन से प्रभु श्रीरामचंद्र का स्मरण हो आया , यह कहते हुवे गुप्तचर ह्रदय से उस हलधर के सम्मुख नतमस्तक हो गया ॥ 

एहि भाँति सोइ आगिन बाढ़े । रयन नयन अंजन घन गाढ़े ॥ 
तेहि तम काल उत अवर प्रनिधि । एक देइ द्वारि लुकत को बिधि ।। 
इस प्रकार वह गुप्तचर आगे बढ़ा । रात के नेत्रों में काजल और गहरी होती चली गई ॥ उसी अँधेरे में उधर दुसरा गुप्तचर एक श्रीमति के द्वार पर आड़ लेते किसी प्रकार से : -- 

श्रवन सुजस छुप बैसे  बनिका  । सोइ कलित कर कंठ कूनिका ॥ 
पुर रुर सुमधुर दिए सुर ताने । प्रभु के मंगल कीर्ति गाने ॥ 
वह वाटिका में छुपकर बैठ गया एवं उस देवी के श्रीकर में सुशोभित वीणा से हरि का सुयश सुनने लगा ॥ उस उसका घर सुन्दर सुमधुर स्वर में ईश्वर के कल्याणकारी कीर्ति-को  विस्तारित कर रहा था  ॥ 

तिनके पत रहि एक कुम्हारे । बैसि श्रमित दुहु कुम्भ सँवारे ॥ 
बनिता अस जस बलइ बरतिका । दीप के सरिस सरूप पति का ।। 
उस देवी का स्वामी एक कुम्भकार था । वे दोनों उस समय कुम्भ गढ़ कर थके हुवे बैठे थे एवं ईश्वर की कीर्ति कर रहे थे । देवी ऐसी थी जैसे कि प्रज्वलित वर्तिका हो । उस देवी का नाथ का स्वरुप दीपक के जैसा था ॥ 

बैन भजन भाउ पूजन, मंदिर तिनका धाम । 
दम्पति जरत दीप बरत, मूरत मुख हरि नाम ॥ 
वाणी में भजन, भावों में पूजन उनका धाम जैसे पूजन गृह था  । दम्पति प्रज्वलित दीपक-वर्तिका थे एवं मुख में ईश्वर का शुभनाम ही वहाँ मूर्ति थी ॥ 

मंगलवार, १४ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                         

धन्य हम  कहत प्रिये स्वामी । जिनके नृप हरि अंतरजामी ।। 
जो जन जन संतति सम लाखें । पूछ कुसल मुख सुख सहि राखें ॥ 
प्रिया ने कहा हे स्वामी ! हम धन्य हैं कि जिनके नगर के स्वामी साक्षात अन्तर्यामी प्रभु हैं ॥ प्रभु  प्रत्येक जन को अपनी संतान के समरूप दर्शते हैं ॥ एवं उनकी कुशलता अपने श्रीमुख से पूछकर उन्हें सुख सहित पालते हैं ॥ 

भै हरिकर बर दुष्कर काजे । अवर करन तिन हहरत लाजें ॥ 
मैं कहुँ पिय तव बूझउ कैसे । बाँध पयोधि कस किए बस जैसे ॥ 
प्रभु के शुभ हाथों से बड़े ही दुष्कर कार्य सम्पन हुवे हैं । जो दूसरों के लिए असाध्य होते हुवे उनकी लज्जा का कारण हैं ॥ स्वामी आपके पूछने पर कि कैसे मैं विस्तार पूर्वक कहती हूँ । जैसे उन्होंने विशाल सागर को कस-बाँध कर अपने वश में कर लिया था ॥ 

पुनि कपि लिए लंका पुर नासे । परिहरे सिय हरानत पासे ॥ 
घटकारु पत सुनत मृदु बानी । कहत धरे मुख हँसी सुहानी ॥ 
फिर कापियों का संग प्राप्तकर लंका पूरी का विध्वंस किया । एवं रावण के पाश से माता सीता को छुड़ा लाए ॥ कुम्भकार पति ने जब अपनी अर्द्धांगिनी के किमल वचन सुने तब वह मुख पर सुखप्रद हास वरण किये कहने लगा : -- 

गवनै बन तप चरनन चारें । अस कारज मह पुरुखहि कारें ॥ 
दमन दसानन नद पति रमिते । न जान केत अस कर उपकृते ॥ 
प्रभु वनगामी हुवे और तप के आचरण पर चले । ऐसे कार्य महापुरुष ही करते हैं ॥ हे मुग्धे ! उन्होंने समुद्र का दमन किया दनुजपति दःसानां का दमन किया और न जाने ऐसे कितने ही कल्याणकारी कार्य कर हमें उपकृत किया ॥ 

कुमति हरन सुमति बिकिरन , बंस किरन पत केतु । 
दुष्ट दनुज खल दल दलन, राम जनम कर हेतु ॥ 
कुबुद्धि को हरण कर दुष्ट अत्याचारी दानव के दल को दलन कर सुबुद्धि का विस्तार करने हेतु ही उनका सूर्य वंश में जन्म हुवा ॥ 

बुधवार, १ ५ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                                  

श्रुति भालादि सब सुर साथे । बहु याचनि करि प्रस्तरि हाथे ॥ 
लीला कर मनु काया धारे । तब भगवन भू लिए अवतारे ॥ 
ब्रह्मादि सभी देवों ने जब साथ में मिलकर हाथ पसारते हुवे बहुंत ही प्रार्थनाएं की तब भगवान ने मनुष्य शरीर धारण कर लीला रचते हुवे पृथ्वी पर अवतार लिया ॥ 

अरु अघ नाशत जग उद्धारे । परम चरित निज किए बिस्तारै ।। 
कौसल्या आनन्द बढ़ायौ । जन जन कहि भइ नन्द जनायौ ॥ 
एवं पापं का विनाश करते हुवे इस संसार का उद्धार करते हुवे अपने उत्तम चरित्र को विस्तार दिया ॥ माता कौसल्या का प्रसन्नता का वर्धन कर उनके पुत्र हुवे । तब अयोध्या के वासियों ने हर्ष पूर्वक खा माता ने पुत्र स्वरुप में भगवान् को ही जना है ॥ 

जग सर्जन जग पालनहारे । सोइ सारहि सोइ संहारे ॥ 
धन्य भए हम साँच तव कहने । कमल वदन नित दरसन लहने ॥ 
वे भगवान ही इस संसार के सृजक हैं वही पालनहार हैं । वही इस जगत के विस्तारक हैं, वही संहारक हैं । प्रिये ! तुम सत्य कहती हो, हम धन्य हैं, जो प्रत्येक दिवस कमल-वदन ईश्वर स्वरुप श्री राम चन्द्र के दर्शन प्राप्त करते हैं । 

जोइ दुरलभ देव अभागे  । तिन दरसन हम लहन सुभागे ॥ 
एहि बिधि हरि भजन कन घारे । ठाढ़ पाछिन प्रबिधि पट ढारे ॥ 
जो दर्शन भाग्यहीन देवताओं को भी दुर्लभ है, यह हमारा सौभाग्य ही है कि वह हमें प्राप्त है ॥ इस प्रकार अपने उपास्य देव की स्मरण स्तुति कानों में ग्रहण कर वह गुपचार ढले हुवे द्वार पट के पीछे खड़ा रहा ॥ 

कारत सत सत नमन, सोंह तिन जुगल जोत ।  
मुख सोइ भजन चरन, चले दुजन पथ कोत ॥ 
उसने ज्योति स्वरुप उन युगल दम्पति को सत सत नमन किया । उसी स्तुति को मुख में धारण किए फिर उसके चरण किसी दूसरे पथ की और चल पड़े ॥ 

गुरूवार, १६ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                                        

जब मन दुःख तन रुज ना घारे । तबहि सुखकर कामना कारे ॥ 
पलक पहर निस दिन दुहु पाखे । जब अग जग हरि किरपा लाखे ॥ 
जब मन को कोई संताप नहीं सताता एवं देह निरोगी रहती है तभी सुख की आकाक्षाएं भी जागृत होती हैं ॥ पलक,पहर,दिन-रात दोनों पक्ष जब चार-अचर  पर ईश्वर की कृपा दृष्टी हो ॥ 

जन मानस नहि दुःख लहि कोई । दीन मलिन को दरिद न होई ॥ 
चर अचर तब कामना धारे । धर्म रत भगत हरिहि पुकारें ॥ 
तब जनमानस को कोई संताप नहीं होता । कोई व्यथित नहीं होता कोई उदास नहीं रहता न ही कोई दरिद्रा को प्राप्त होता ॥ तब समस्त संसार में कामनाओं का जन्म होता एवं धर्म में अनुरक्त भक्त गण फिर बी ईश्वर का ही आह्वान करते हैं॥ 

ऐसेउ प्रबिधि जन अभिलाखे । जथा जोग जुग  मन मह लाखे ॥ 
चहु दिसि चौपुर पंथ घनेरे । लुक छुप कहहूँ जन जन हेरे ॥ 
इस प्रकार वे गुप्तचर प्रजाजन की यथायोग्य अपेक्षाओं को एकत्र कर मन में लेखित करते जाते । चारों दिशाओं में अनेको चौंक एवं पथ थे । वे कहीं भी छिपते -छिपाते जन जन को ढूंडते ॥ 

का बनिक पनिक का मनिहारे । कुम्हारे का खेवनहारे ॥ 
का हलधर का सुबरनकारे । का हल घन कारुक लोहारे ॥ 
क्या वाणिज्यक व्यवहारी क्या प्रसाधक क्या कुम्हार क्या नाविक क्या कृषक क्या स्वर्णकार एवं क्या हल-हथोदे गढ़ने वाला लोहार ॥ 

वेद विद कि को पुजारी, माली को पनिहार । 
भेदिबंत चारिन बरन, घर घर किए पइसार ॥ 
कोई वेदों का विद्वान विप्र कि कोई पुजारी कोई माली कि कोई उदहार क्यों न हो । उन गुप्तचरों का चारों वर्ण से सम्बन्ध रकहने वाले लोगों के घर घर में प्रवेश हुवा ॥ 

शुक्रवार, १७ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                                   

तासु बिलग  एक अवर गुप्तचर । आपनि सौंमुख निरख रजक घर ।। 
तेहि निसा सेवक रघुनायक । श्रवन हरि कीर्तन सुख दायक  ॥ 
उसके अतिरिक्त एक अन्य गुप्तचर अपने सम्मुख एक धोबी का घर देखा  ।। उस रात्रि में वह श्रीराम का सेवक अपने आराध्य देव का सुख दायक यशगान सुनने की आकांक्षा से : -- 

जब बन आँगन अंतर गामी । कारत कोप वाके स्वामी ॥ 
धारे बिपुल लोचन अंगारा । उत्सर्जे धुनी जस बिष धारा ॥ 
जब उस घर के आँगन के अंतर में प्रवेश किया तब उस घर का स्वामी क्रोध करते हुवे , अपने लोचन में अत्यधिक अंगार धारण किये । मुख से ऐसे शब्द उत्सर्जित कर रहा था जैसे कि वे शब्द न हो के महावृष्टि हो अथवा कोई खडग की धार हो ॥ 

तिनकी तिय कहुँ दिन की जाई । तनिक बिलम मह घर बहुराई ॥ 
रजक तिया धिक्कारत जावै । निन्दित बचन कहत न लजावैं ॥ 
उस धोबी की पत्नी दिन में कहीं किसी  के घर गई हुई थी जिसे घर लौटने में थोड़ी देर हो गई ॥ वह धोबी अपनी पत्नी को धिक्कारता जा रहा था । निन्दित वचन कहते हुवे वह तनिक भी लज्जित नहीं हो रहा था ॥ 

संवादत घन जौं घननादा । छाँड़ेसि तौं सकल मरजादा ॥ 
नाना भाँति करेंसि दुर्बादे । ताड़त अतिसय करत बिबादे ॥ 
जिस प्रकार घनघोर घटा गहन संवाद करती है । उसी प्रकार उस धोबी की भी संवाद की मर्यादातीत थी ॥ वह विभिन्न प्रकार से दुर्वादन करते हुवे अपनी पत्नी को पीड़ा देकर विवाद कर रहा था ॥ 

कोप करत सो अस कहत, मम घर करौ निकास । 
जँह बिताई सकल दिवस, रह जा सोइ निवास ॥ 
कुपित होकर फिर वह ऐसे कह रहा था कि तुम मेरे घर से निकल जाओ । जहां सारा दिन व्यतीत किया है तुम उसी निवास में जाकर रहो ॥ 

शनिवार, १८ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                               

कुमति कुटिल रे अधम कुचारी । रे कुलछनी कलुखिनी कलिहारी ॥ 
पापिनी पति धर्म ना जानी । तुम निज नाथ आयसु न मानी ॥ 
मंद बुद्धि, कुटिल अरी अधम दुष्टा । री कुलक्षणी अपवित्र, कलिहारी ॥ रे पापिनी तुझे पतिधर्म का भी संज्ञान नहीं जो तूमने  अपने स्वामी की आज्ञा का पालन नहीं किया ॥ 

अगिनि जल बिंदु के जस बरसे । अरु कहि निकसौ अजहूँ घर से ॥
रजक धरे जब मुख अरगारी । थर थर हहरि रजक की जानी ॥ 
वह धोबी अग्नि चिंगारी के जैसे बरस रहा अतः । एवं कहे जा रहा अतः अभी मेरे घर से निकलो ॥ जब उसने अपने मुख पर चुप्पी साधी तब राजन कि संगिनी थर थर कराती कांप रही थी ॥ 

 दरसत निज सुत लोचन लाला । तासु जनि धरसत तेहि काला ॥ 
बोलि रे ललन भई भुराई । इ बापुरी भवन न  बहुराई ॥ 
जब अपने पुत्र  के नेत्र में इस प्रकार से क्रोध भरे देखा तब उस धोबी की माता ने उसे डाँटते हुवे कहा ॥ रे लाला इससे भूल हो गई । यह बेचारी घर लौट आई न ॥ 

गवनु बिहनिआ सांझ बहुरे । तिन्ह जन जगत कहत न भूरे ॥ 
इ तव संगिनि अस न ताजौ । एहि कार करत तनिक त लाजौ ॥ 
प्रात: का गया हुवा जब साँझ  को लौटता है तब लोक-समाज में उन जनों को भुला नहीं कहते ॥ यह तुम्हारी जीवन संगिनी है इसे ऐसे न त्यागो । इस प्रकार का कार्य करते हुवे किंचित तो लज्जित होओ ॥ 

ए न कुकर्मी न को अपराधी । ए निर्दोषित न को उपाधी ।। 
सनेह सान बचन निकसाई । आन माई धरहरियाई ॥ 
यह न तो कुकर्म किये हैं न ही यह कोई अपराधिनी है । यह निर्दोषित है कोई उपद्रवी नहीं है ॥ इस प्रकार माता ने स्नेह में सने वचन कहते हुवे उक्त दम्पति का बीचबचाव किया ॥ 

ना मैं भरत ना दसरथ, ना अहहूँ रघुराइ ।  
दूजे निवास वासिनी , को जौ दूँ मैं श्राइ ॥  
न मैं भरत हूँ न दशरथ हूँ न ही मैं रघु कुल का कोई राजा हूँ । जो मैं दूसरे घर में निवास करने वाली स्त्री को आश्रय दूँ ॥ 

रविवार १९ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                                 

तिनके का जोइ अहइँ राई । जो कछु कारें सोइ न्याई ॥ 
जोइ तिय परन घर जा बासी । पतिनी का न जोग मम दासी ॥ 
उनका क्या जो राजा हैं, वे जो कुछ कार्य करें वही न्याय है । जो स्त्री पराए निवास में जाकर बसी हो । वह स्त्री मेरी धर्मपत्नी तो क्या मेरी दासी के योग्य भी नहीं है ॥ 

मतिहीन कही मात न माना । गर्जा बजरा घात समाना ॥ 
बैन बान घन सम बरसावै । कलह बोइ के कलि उपजावै ॥   
बुद्धिहीन प्राणी अपनी माता की कही बात भी नहीं मानता । गरज तो ऐसे रहा है जैसे वज्रा का आघात कर रहा हो एवं वाणी को जैसे घनरस रूपी वाणों वर्षा करते हुवे कलह को बो रहा है कलुषता की उपज ले रहा है ॥ 

 हरिज झगर के रँग रंगावै । चित्र निज घर पर खाँच खचावै।
पट पाँवर मरजादा भूरा । कोप अगन गह जारन तूरा ॥ 
आकाश को फिर झगड़े के रंग से रंगकर  फिर उस  विचित्र से चित्र को पराए खांचे में खचित कर रहा है । निपट मूर्ख ने सारी मर्यादाएं लांघ दी । क्रोध रूपी  अग्नि से अपना ही घर जलाने चला है ॥ 

अस मत मति सरनि संचारे ।  कुटिल रेख लक करक निहारे ॥ 
का कारौं तँह सोचत ठारे । बाँध रजक लै गवनु बिचारे ॥ 
उस गुप्तचर के मस्तिष्क की  सरणि में ऐसे मत संचरण करने लगे । उसके मस्तक की  त्योरियाँ चढ़ गईं वह उन्हें कठोरता पूर्वक निहारने लगा ॥ वह गुप्तचर वहाँ ठहर कर सोचने लगा अब क्या करूँ  उसने विचार किया क्यों न इस रजक को बाँध के ले जाऊं ॥ 

सुरतत आयसु  रघुबर दाई । मम पुर बासिन बाँधि न लाईं ॥ 
एही बात बचन जब लेखे । साति बरत तिन देखि न देखे ॥ 
फिर उस भेदवंत को रघुवीरर की आज्ञा स्मरण हो आई कि मेरे पुर वासियों को (अपराधित होने पर भी ) बाँध कर न लाया जाए ॥ जब उसने इस बात को एवं इस वचन को समझा तब शान्ति का व्यवहार करते हुवे उस गुप्तचर ने उन्हें अनदेखा कर दिया ॥ 

करकस बचन कर निज कन, प्रनिधिहि मन दुःख पाए । 
तेहि समउ तासु नियंतन, सुझि न तिन को उपाए ॥  
किन्तु ऐसे करकस वचनों को सुनकर उस प्रणिधि का ह्रदय में दुःख भर आया । उस समय उस रजक को नियंत्रित करने का उसे कोई उपाय नहीं सूझा ॥  

सोमवार, २ ० जनवरी, २ ० १ ४                                                                                              

फिरि फिरि खीँचत मुख उछ्बासे । कुपित करक कस कासिन कासे ॥
पुनि अति तुर आगत तिन्ह ठाएँ । जँह सकल भेद वंत सकलाए ॥
वारम्वार मुख से उच्छवास खींचते वह गुप्चर कोप में भरकर मुष्टिका को कठोरता पूर्वक कसते हुवे फिर अति शीघ्रता कर उस स्थान पर आया, जहां सभी गुप्तचर एकत्रित थे ॥ 

सब मिलि कहहि परस्पर संगे । एक दुज निज निज बरन प्रसंगे ॥
राम चंद जो जगत वंदिते । कहत सुनावै तिनके चरिते ॥
वे परस्पर मेल मिलाप एक दूजे के संग अपने अपने प्रसंगों का वर्णन कर रहे थे ॥ प्रभु श्री रामचंद्र जो जग भर में वन्दनीय हैं वे सब उनके चरित्र की वर्णन-व्याख्या कर रहे थे ॥ 

कहन  कथन जब रजक बिहाई । तिनके मानस कछु मत आईं ॥
मत मंथत जे निसचै कारे । दुर्जन सुधि  प्रभु करन न धारें ॥
अंत में जब उस रजक का वृत्तांत कहा गया । तब उन गुप्तचरों के मस्तिष्क सरणि में कुछ विचार विचरण करने लगे । तब उन्होंने उन विचारों पर मंथन करते हुवे यह निश्चय कियाकि दुष्टजनों की बातें प्रभु के कानों तक नहीं पहुंचनी चाहिए ॥ 

आपनि मति जे मत अवधाने । ब्यापहि केतु नभ जब बिहाने ॥
तब सुधि गवनत मह राउ पाहि । सकल अगात अवगत कर दाहि ॥
उन्होने अपने मस्तिष्क में यह विचार स्थापित किया कि विभात में जब सूर्यदेव समस्त जगत में व्याप्त होंगे । तब भरी भोर में हैम महाराज के पास जाकर समस्त वृत्तांत से उन्हें अवगत करा देंगे ॥ 

अस कह निज निज सोइ सयाने । सयन सरनगत सदन पयाने॥
रयनि बरन  घन घनि रयनाई । अरु अयोध्या पुर पर छाई ॥
ऐसा कहते हुवे वे बुद्धिवंत गुप्तचर शयन के शरणागत होने के लिए अपने अपने निवास को प्रस्थान किये ॥ ( उस समय ) रात्रि घन के वर्ण में और अधिक अनुरक्त हो गए थी । और समस्त अयोध्या नगरी पर व्याप्त थी ॥ 

हे मुनि बरमहा ब्रह्मन, कहत सेष अहिनाथ । 
उषारमन पथ किए गमन, प्रभा तपन जब साथ ॥  
सर्पों के अधिराज भगवन शेष ने कहा  : --  हे ब्राह्मण कुल में श्रेष्ठ मुनेश्वर,  अनिरुद्ध पथ (आकाश) में जब सूर्यदेव अपनी पत्नी प्रभा के साथ गमन किये : -- 

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