Sunday 23 June 2013

----- ॥ उत्तर-काण्ड 3॥ -----

बृहस्पत /शुक्र, २६ /२७ दिसंबर , २ ० १ ३                                                                                

रघुबर भ्रात भरत तदनन्तर । प्रनिधाने राज निवेदन कर ॥ 
जो तिन्ह लहि  तात के दाईं । सकल सचिव तों अति हरसाईं ॥ 
तदनन्तर श्रीरामचन्द्र के भ्राता भरतराज ने उन्हें अवध प्रदेश का राज्य निवेदन कर अर्पित किया । जो उन्हें पिता  के दान स्वरुप प्राप्त हुवा था  ॥ उस समय समस्त मंत्रीगण अत्यंत प्रसन्न हुवे ॥ 


द्युति गति जोतिष बिद बुलाईं । तिलक मुहूरत पूछ बुझाईं ॥ 
तिनके कहि बर नखत सँजोगे ।  एक सुभ दिन धर लागै जोगे ॥ 
(फिर उन्होंने ) शीघ्रता पूर्वक ज्योतिर्विद को बुलवाया । उनसे राजतिलक का शुभ मुहूर्त पूछा ॥ उनके कहे अनुसार उत्तम नक्षत्र योग में एक शुभ दिवस निर्धारित कर उसके आगमन की प्रतीक्षा करने लगे ॥ 

बहुरि सोइ शुभ वासर आयो । पुलकित तिलकित थाल सजायो ॥ 
हरिएँ उतरी साँझ सिंदूरी । वाके रंग लै रँगी रूरी ॥ 
फिर वह शुभ दिवस भी  आ गया । सभी पुलकित होकर तिलक चिन्हों का थाल सजाने में लग गए ॥ धीरे से सिंदूरी सांझ उतरी । उसके रंग लेकर तिलक-रोली सुरंगी हो गई ॥ 

धारत चरन अछत अस खनके । जस सरगम निकसे छन छन के ॥ 
सुम सेखर कर धर लिए घेरे । अलंकरन प्रभु कंठन हेरे ॥ 
जब अक्षत कणों ने उस थाल में  अपने चरण रखे तो वह ऐसे खनकने लगे जैसे सुरग्राम छन छन के निक रहे हों ॥ उनके हाथों को पुष्प मालाओं ने धारण कर उन्हें घेर लिया । और वह प्रभु के श्रृंगार हेतु उनका कंठ ढूंडने लगे ॥ 

सद सदन सजायो रुचिर बनायो छन छटा अति सोहईं । 
सिन्हासन ऊपर बाघाम्बर दोइ मूठ मन मोहईं ॥ 
अहह सिरसोपर कलाकारी कर सत दीप जुग चितरिते । 
कहुँ धरा उकेरे परबत घेरे कहुँ बिपिन गोचर कृते ॥ 
सभह सदन भी सजाया गया, सुन्दर रचनाएं की गई उसकी छटा देखते ही बनती थी ॥ सिंहासन के ऊपर बाघाम्बर था दो हस्त मूठ मन को मोह रहे थे ॥ अहा ! शीर्षोपर कालाकारी करते हुवे सप्त द्वीप के युग्मन चित्रित किया गया था । कहीं पर्वतों से घिरी धरा उकेरी गई कहीं विपिन-चर बनाए गए॥ 

तापर रतनारे कटक कगारे किए कलापक काजहीं । 
आसन बिस्तारै छाया कारै छतर चाँवर बर छाजहीं ॥ 
रथ रखुबारे गज बाजि सँवारे चतुरंगी सैन सजै ।  
गहे भेषा भूषन छबि रति मदन इत प्रभु उत सिया लजै ॥ 
उसपर अरुण वर्ण का काटे हुवे कगारे के सह मोतियों की लड़ी का कार्य किये, सिंहासन पर विस्तार लेकर छाया करता हुवा,चंवर युक्त सुन्दर छत्र सुशोभित है ॥ सैन्यगण,रथ,हाथी एवं अश्व से श्रृंगार की हुई चतुरंगिणी सेना भी सुशोभित है । वेश आभूषण धारण किये रति -एवं कामदेव के प्रतिबिम्ब स्वरुप इधर माता सीता, उधर भगवान श्रीराम लजा रहे हैं  ॥ 

ढोर मजीर ढप झाँझर, तुरही संख निसान । 
ताल सुर सिंगारन कर, बाजे बिबिध बिधान ॥ 
ढोल, मंजीरे,ढप,झाँझर, तुरही,शंख एवं दुंदुभी आदि वाद्ययंत्र ताल एवं सुर का श्रृंगार कर विभिन्न प्रकार से वादन कर रहे हैं ॥  


सद सन राउ भवन के सोभा । तिन चौरन चितबन अति लोभा ॥ 
गुरूवर पुनि प्रभु राम बुलाईं । सखि कर धर सिय हरिअर आईं ॥ 
सभा के साथ राज भवन की शोभा ऐसी थी कि जिसे चोरी करने के लिए चित्त अति लोभित हो रहा था ॥ गुरुवर वशिष्ठ जी ने फिर प्रभु श्री राम को बुलवाया । सखियों का हस्त ग्राह्य कर माता सीता भी धीरे-धीरे आईं ॥ 

 तब कुल भूषण राजधि राजे । दिब्य सिंहासन मै बिराजे ॥ 
दरसन भगवन नयन भिरामा । सिय श्री लावन सोहत बामा ॥ 
तब कुल के भूषण स्वरुप राजाधिराज भगवान श्री राम चन्द्र उस दिव्या सिंहासन में विराजमान हुव ।। भगवान का दर्शन से नयनों को मोहने वाला है । माता सीता लावण्य वर्धन करते हुवे प्रभु के दाहिने सुशोभित हैं ॥ 

अरु भगवन जब आसन धरयो । पुरबासिन हरिदै नन्द भयो ॥ 
नीति कुसल बर बध अनुसासन । नय बिद कोबिद कहत सचिव गन ॥ 
इस प्रकार भगवान ने आसान ग्रहण किया तब अयोध्या के समस्त वासियों का ह्रदय आनंद से भर गया ॥ नीति कुशल, अनुशासन बद्ध राजनीति के ज्ञाता श्रेष्ठ मंत्रीगण ने कहा  : -- 

हे गुरूवर अब अचिरम कीजै । सहस मौलि मुख तिलकन दीजै ॥ 

पहिलै तिलक बसिष्ठ धरायो । बहुरि क्रम धर बिप्रन्ह करायो ॥ 
हे गुरुवर! अब शीघ्रता कीजिये । भगवान विष्णुं स्वरुप श्रीराम चन्द्र के मुख पर तिलक दीजिये ॥ फिर प्रथम तिलक मुनि वशिष्ठ जी ने किया । फिर क्रमवार से विप्रों ने किया ॥ 

तेजस अस जस त्रस रजस, तिलक अतुलित तूल । 
तिलकावल के मुख कमल कल कुंतल रहि झूल ।।  
तिलक का अरुण वर्ण अतुलनीय है उसका तेज ऐसा है जैसे किसी ह्रदय से प्रकाश प्रवाहित हो रहा हो ॥ तिलकधारी भगवान श्रीराम का मुख कमल जैसा है जिसपर कुंतल की लट झूल रही है ॥ 

कहत सेष मुने जब प्रभु, बरे माथ अभिषेक । 
सुरगन किये तब स्तवन, मुदित भाव अतिरेक ॥ 
शेष जी कहते हैं : -- हे मुने! प्रभु श्रीरामचन्द्रजी ने जब मस्तक पर राज्याभिषेक ग्रहण किया । तब देवतागण भाव के अतिरेक में प्रसन्नचित होकर प्रभु की स्तुति करने लगे ॥ 

शनि/रवि, २८/२९ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                            

हे जग कारी सुरगन दुःख हारी जयति जय तव श्रीहरे । 
दनुपत बिनसाई, तुम कर साईँ, भइ धरनि पातक परे ॥ 
जे अद्भुद गाथा, गावन  नाथा, कबिगन मन उछाहहे । 
हे भू पाला, खमंडल माला, तुहरे रोम रोम गहे ॥ 
हे जगत के कारण स्वरुप, देवताओं के कष्टों को हरण करने वाले ईश्वर आपकी जय हो ! राक्षसों के पति रावण का नाश आपके ही श्रीकर से सम्भव हुवा और यह धरा  पातकों से मुक्त हो गई ॥ आपकी वह अभूतपूर्व गाथा का आख्यान करने हेतु कविगण सदैव उत्साहित रहते हैं ॥ हे भूमि के पालनकर्त्ता  आपके रोम रोम ने आकाश मंडल को माला स्वरुप गर्हहन किये हुवे है (अत: आपकी महानता अद्भुत है) ॥ 

भुवनेश्वर अजर अमर प्रभु प्रबल बल संपन्नात्मने । 
जग उद्धारन कर घोर निसाचर सन सकल खलजन हने ॥ 
धर्म पुरुख के कुल रत्नाकर प्रगसित हे परमेश्वरम् । 
सुर वरेश्वर तव सुमिरन कर अनेकानेक भए पवित्रम् ॥ 
हे लोकों के स्वामी ! जरारहित अविनाशी प्रभो !प्रबल शक्तिसम्पन्न परमात्मन् !!। आपने भयंकर राक्षसों सहित दुष्ट जनों का विनाश कर इस जगत का उद्धार किया है ॥ धर्मात्माओं के कुल के सागर में प्रकट स्वरुप हे परमेश्वर ! देवताओं में श्रेष्ठ हे देव आपका स्मरण मात्र से  अनेकों जन पवित्र होकर पापमुक्त हो जाते हैं ॥ 

ब्रह्मा सिव संकर नाथ भयंकर तव सोंह सीस नवावहे । 

भए पूरनकामी जिनके दरसन जो यवादि लखन लहे ॥ 
करें नित चिंतन हम तिन चरन एहि हमरे अभिलखन अहे । 
सुर कस सुख पावैं  तुम न दावें जो अभय मंडल महे ॥ 
ब्रह्मा रूद्र के नाथ भगवान शिव शंकर जो यव आदि श्रेष्ठ चिन्हों से युक्त हैं एवं जिनक दर्शन मात्र से भक्त जन पूर्णकामि हो जाते हैं वे भी जिनके सम्मुख नतमस्तक हैं ॥ हम आपके उन्हीं श्री चरणों का निरंतर स्मरण करते रहें यही हमारी भी अभिलाषा है । यदि आप इस भूमण्डल को अभय दान न दें तो देवता कैसे सुखी हो सकते हैं ? 

हे कमल कंत मुख तुहरे सौंतुख कोटि कमन लजावहे । 
हे परम पवितई  प्रभु दयामई  तुम्ह कर सुर सुख लहे ॥ 
जब जब रघुनाथा दनु बल हाथा देइ दारुन दुख मही । 
तब तब उद्धरन कर भूमि अवतर दुःख दलन तुम कारहीं ॥ 
हे सूर्य के मुख स्वरुप श्री राम आपकी शोभा के सम्मुख करोड़ों कामदेव भी तिरष्कार का अनुभव करते हैं । हे परमपावन ! दयामय प्रभु  ! आपके कारण ही देवगण सुख को प्राप्त हुवे ॥ हे रघुनाथ! जब जब दानवों के बाहुबल ने इस पृथ्वी अतिशय  दुःसह दुःख दिया तब तब आप इस पृथ्वी पर अवतरित हुवे एवं आपके  कार्यों  से ही वह दुःख दले गए ॥ 

सर्ब दरसिन प्रिय सर्बजन प्रिय हे सर्बगत पुरुषोत्तम । 
सर्बस पूजनिय अबिकारी प्रभु सर्व बंध विमोचनं ॥ 
निज माया के छाया लै प्रगसे तव बिभिन्न स्वरूपम् । 
मरनासन्न जीवनदायनी तव चरितालि कल कंजनम् ॥ 
हे सर्वत्र देखने वाले सभी जनों को प्रिय,सर्वव्यापी पुरुषों में उत्तम ईष्ट देव ! सर्वतो पूज्यनीय अविकारी सभी बंधनों से मुक्त करने वाले प्रभो ।। आप अपनी माया  के आश्रय लेकर विभिन्न सवरूपों में प्रकट होते हैं ॥ आपकी यह सुन्दर चरित्रावली सुहा स्वरुप होकर   मरणासन्न को जीवन प्रदान करने वाली है ॥  

जो तिन श्रुतिकारी , निज अघहारी तव पदानुराग धरे । 
सुर गनमाना, कारत गुन गाना बार बार प्रभु तुहरे ॥ 
सबहि के आदि जोइ अनादि बिभो तरुनइ रूपान्तरए । 
गह कण्ठन माला, मुकुटित भाला, अवध मैं सुराज धरएँ॥ 
जो इसे भक्ति पूर्वक श्रवण करता है वह आपके चरणों में अनुराग रखते हुवे स्वयं के पातकों का स्वयं ही नाश करता है । गणमान्य देव भी आपके गुणों का वारम्वार व्याख्यान करते हैं ।। जो सबके आदि हैं , किन्तु जिनका आदि कोई नहीं है हे विभो आप उस अजर स्वरुप में रूपांतरित हुवे । कंठ में माल्य ग्रहण कर । मस्तक को  मुकुट युक्त कर अर्थात मानव स्वांग स्वरुप में आप इस अवध प्रदेश में अपना सुराज्य स्थापित करें ॥ 
करि अस्तुति अस श्रुतिभाल, सुरगन बिनइत भाउ । 
बहुरि बहुरि रघुनाथ के, प्रनत प्रभो चरनाउ ॥ 
ब्रह्मादि सम्पूर्ण देवता वारंवार प्रभु रघुनाथ के चरणों में नतमस्तक होकर विनम्र भाव से इस प्रकार प्रभु की स्तुति की ॥ 

तब तेजस्वी श्री राम, अतिसय प्रमुदित होत । 
लोकत देवन्ह अवनत, कहि अस कुल खद्योत ॥ 
तब तेजस्वी स्वरुप प्रभु श्रीरामचन्द्रजी अत्यधिक प्रसन्न हुवे । एवं देवताओं को नतमस्तक दर्श कर रघु कुल के सूर्य ने ऐसा कहा : -- 

मोहि अति प्रिय लागहि तुम, बिप्र गुर सुर पुर लोग । 
तन मन धन प्रिय गेह जन, तुम सों तज के जोग ॥ 
हे विप्रवर ! देवगन !! हे पुरवासियों !!! आप सब मुझे अतिशय प्रिय हैं । यह तन, मन, धन-सम्पदा ये प्रिय गृह जन आपके सम्मुख त्यागने के योग्य हैं ॥  

सोमवार, ३० दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                       

तब बोलै सब हे जगदीसा । आपनी करम हति दससीसा ॥ 
अवनिहि सुखकर दिए बरदानें । भइ किरपा बहु दया निधाने ॥ 
तब सभीजन कहने लगे हे जगत के ईश्वर ! आपके सद्कार्यों के परिणाम स्वरुप ही महा दानव रावण का वध सम्भव हुवा । आपने इस पृथ्वी को यह कल्याणकारी वरदान दिया हे दया के समुद्र यह आपकी इस पृथ्वी पर कृपा रही ॥ 

अब जब कोउ आसुरी माया । अघ प्रस्तरहि करत छल छाया ॥ 
तब तब तुम हमरे रखबारे । अवतर हरि तिन अरि हत कारें ॥ 
अब जब कोई आसुरी माया इस पृथ्वी पर कपटजाल कर पुनश पातकों का विस्तार करेंगी ॥ हे प्रभु ! तब तब आप हमारे रखवाले बनकर इस पृथ्वी पर अवतरित होकर उन पृथ्वी के शत्रुओं का नाश करें (ऐसी हमारी प्रार्थना है )॥ 

एवमस्तु कहत सुहसे भगवन । सुर पुर जन के गहनत बंदन ।। 
पुनि बोलै रघुबर एहि भाँती । श्रवनौ अब सुरतत मम बाती ॥ 
मृदु हास करते हुवे फिर प्रभु श्रीरामचन्द्र जी ने देवोव एवं नगर-नागरिक जनों कि प्रार्थना स्वीकार करते हुवे कहा 'ऐसा ही हो ' ॥ फिर अपनी वाणी को विस्तार देते हुवे प्रभु  इस प्रकार कहने लगे अब आप लोग मेरे वचनों को ध्यानपूर्वक श्रवण कीजिए ॥ 

तव श्री मुख जौ अस्तुति किन्हें । कृतारथ करत आदर दिन्हें ॥ 
ए सोत सप्रीत जे सुनहिं गाहि । रात प्रभात नित हरिदै लाहि ॥ 
आपके श्रीमुख ने मेरी जो स्तुति की है मुझे कृतार्थ करते हुवे जो आदर दिया है । जो कोई इस स्तुति को प्रभात एवं संध्या के समय प्रेम सहित सुनेगा अथवा इसका आगान करेगा : -- 

तिन हत सकै न खल दनु कोई । तिन्हन दारिद दुःख नहि होई ॥  
मम जुगल चरन भगतिहि गाढ़ी । महातत्व मह प्रतीति बाढ़ी ॥ 
उन्हें कोई भी दुष्ट अथवा दानव पीड़ा देने में समर्थ न होगा । उन्हें दारिद्र एवं कोई दुःख भी न होगा ॥ ( इसके पाठ से) मेरे अर्थात ईश्वर युगल चरणों में उसकी श्रद्धा वर्धन करेगी एवं ईश्वरीय तत्त्व के प्रति उसके विशवास में नित्य वृद्धि होगी ॥ 

जेइ स्तवन गीत बचन, दम्भ दारिद दुःख ताप । 
श्रुति रंजन कारिन हरन, अगत जगत उद्धाप ॥ 
यह स्तवन गीत एवं उसका गुणानुवाद श्रुति माधुर्य है तथा यह दम्भ दुःख दारिद्र संताप आदि विषयों को हरण करने वाला एवं समस्त संसार का उद्धारक है ॥ 

मंगलवार, ३१ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                          

अस कहत सुर सिरोमनि रामा । बिस्तारित बानी दिए बिश्रामा  ॥ 
तब बिप्र सुर पुर जन गन माने ।  हर्षित निज निज लोक पयाने  ॥ 
ऐसा कहकर डिवॉन के शिरोमणि भगवान श्री राम चन्द्र जी ने अपनी विस्तारित वाणीं को विश्राम प्रदान किया ॥ तब सभी देव,विप्र एवं गणमान्य नागरिक हर्षित हो कर अपने अपने लोकों को प्रस्थान किये ॥ 

चतुर्दस बरस किए बन बासे । तपस चरन पर  प्रभु परवासे ॥ 
भयउ राजन अजोधा राजे । दसों दिसा मह सांति बिराजे ॥ 
चौदह वर्ष तक वन में वासित रहे । और इस तपस्या के पश्चात जब लौटे राजन होकर अयोध्या पूरी का राज्य सँभाला । जिससे देशों दिशाओं अर्थात सभी प्रदेशों में शांति विराजित हो गई ॥ 

जगन्नाथानंद अबिनासिहि । कमल नयन घन सुख के रासिहि ॥ 
पूजित पितु दसरथ पर काला । सुधी भ्रात के भए प्रतिपाला ॥ 
जगत के स्वामी, अविनाशी कमल-नयन अतिशय सुख के राशि प्रभु श्रीराम चन्द्र जी फिर पूज्य पिता दशरथ के देहावसान के पश्चात अपने सुबुद्धि भ्राताओं के स्वयं पालक हो गए ॥ 

परजा मानत सुनू समाना । तिनके दुःख-सुख आपनि जाना ॥ 
करइँ करम सब जन हितकारी । भए न मन सोंह को अघचारी ॥ 
प्रजा  को अपनी संतान मानते हुवे उनके दुःख-सुख को अपना जाना ॥ प्रजा जन भी लोकहित के कार्यों में व्यस्त रहते । कोई कभी तन से तो क्या मन से भी पापाचरण नहीं करता ॥ 

निज भरु भगतिहि राखत नारी । धर्म पालिका आयसु चारी ॥ 
नरहु के प्रीत रहत एक तिया । चलहि स्वधर्म सनेहत प्रिया ॥ 
नारी अपने अपने पति में श्रद्धा रखती । और पतिव्रता धर्म का पालन करते हुवे उनकी आज्ञा का पालन करती /कराती ॥ नर की भी प्रीति एक ही स्त्री में केंद्रित रहती । और प्रिया को स्नेह करते हुवे सभी जन अपने अपने धर्म का अनुपालन करते ॥ 

रामराज मैं चहुँ कोत, धरमन के पहिरात । 
चोरी चकारि ईति हुँत, रहहि न दिन को रात ॥ 
राम-राज्य में चारो ओर धर्म का पहरा है । चोरी आदि कृत्यों, ईटी अर्थात छह: उपद्रव जैसे : --  अवृष्टि, अतिवृष्टि,खेतों में चूहों का लगना,टिड्डियों का उपद्रव,सुग्गों से हानि, कलह के लिए न तो कोई दिवस था न कोई रात ॥ 

कुकर्मन कुदिरिस कुचाल, रखे न को अस्थान । 
चहुँपंथ सीत नयन सन, दरस रहे भगवान ॥ 
पापकर्म, व्यभिचार, अमंगल के लिए कोई स्थान नहीं है  । प्रभु अपने शीतल नयनों से चारों दिशाओं को निरख रहे हैं ॥ 

 बुधवार, ०१ जनवरी २ ० १ ४                                                                                        

देव असुर यछ नाग ब्याले । सबहि नाथ के आयसु पाले ॥ 
निज निज धर्म सुख तोख लहिके । बिद्या सोंह कौतुक सबहि के ।। 
देवगण, दानवगण , यक्ष , नाग, सर्प ये सभी न्यायमार्ग पर स्थित होकर प्रभु की आज्ञा का पालन करते ॥ सभी नागरिक गण अपने अपने धर्म में ही सुख एवं संतोष प्राप्त करते एवं विद्या से ही उनका विनोद होता ॥ 

को के होत न मीच अकाला । भए मुकुतिक रुज पास ब्याला ॥ 
तरु हरियरी फर फलीभूते । दानै धरनि अनधन सँजूते ॥ 
रामराज्य में किसी की भी अकालमृत्यु नहीं होती । सभी रोगों की भयंकर फाँस से मुक्त थे ।। वृक्षा सदा हरे होकर फलों से फलीभूत रहते ॥ जुतने  के पश्चात धरती, अन्न के धन का दान किया करती ॥ 

तिय जीवन जग संतति साथा । जुरे नाथ सन रहत सनाथा ॥ 
लहत सतत साजन संजोगे । पावत सुख कभु बिरह न भोगें ॥ 
स्त्रियों का जीवन संतानों से युक्त होता । उन्हें निरंतर अपने प्रियतम का संयोग प्राप्त होता एवं संयोग सुख मिलते रहने के कारण उन्हें कभी वियोग का कष्ट नहीं होता ॥ 

नागरी सदा रघुराइहि के । श्रवनत कथा बहु उछाइहि के ।। 
भजन प्रबन मह तिनकी बानी । कबहु पराइ निंदा न जानी ॥ 
नागरिक सदैव राजा श्री रामचन्द्रजी की कथा श्रवण करने के लिए उत्साहित रहते ॥ भजनों में प्रवृत्त उनकी वाणी कभी प्रायजनों की निंदा नहीं करती ॥ 

पातक संकलप कभु न कारैं । राम सिया जब बदन निहारैं ॥ 
तेइ समउ थिर लोचन लाखे । लख लखतहिं रहि अपतहि पाँखें ॥ 
उनके मानस में कभी पाप का संकल्प नहीं होता । वे जब प्रभु श्रीराम एवं माता सीता के श्रीमुख को निहारते तो उस समय उनके लोचन स्थिर दृष्टिगत होते । वे उन्हें बिना पलक गिराए निहारते ही रहते ॥ 

सदा इष्ट आपूर्ति के, कारत सब आधान  । 
तिन्ह कारन राज मूरि  , गहनइ गहन निधान ॥ 
(लोगों द्वारा) सदैव इष्ट ( यज्ञ- यागादि) और आपूर्ति( कुँवे खुदवाना,उद्यान लगाना आदि पुण्य कृत्य) का अनुष्ठान करते रहने के कारण भारतीय राष्ट्र की मूलि अत्यधिक गहरी होती गई ॥ 

बृहस्पतिवार, ०२ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                                                            

दया के सिंधु अवध नरेसा । जाचक जन हुँत रहहिं धनेसा ॥ 
धेनुहु सन पसु धन बहुताईं । हरितक धरी सुभीतहि पाईं  ॥ 
अवध के नरेश श्रीरामचन्द्रजी दया के सागर हैं, वे याचकों के लिए कुबेर स्वरूप हैं ॥ राज्य में गौवॉ के सह अन्य पशुओं के धन की अधिकता है । उन्हें धरती पर हरी घास सरल सुलभ है ॥ 

हरे भरे रहि राज समूचे । परजा जन सुठि सोहनु सूचे ॥ 
चौपथ देवल प्रभु अधिठाइँ । तिन्ह  राज के सोहा बढ़ाइँ   ॥ 
समूचा राज्य हरयाली से परिपूर्ण है । पप्रजा जन सुन्दर सुहावने एवं पावन चरित्र वाले हैं । चाउ पथों पर देवालयों में प्रभु प्रतिष्ठित हैं । जो उनके राज्य की शोभा को बढ़ा रहे हैं ॥ 

भरे पूरे रहहि सब गाँवा । गाँउ गवइँ के भूति सुहावा ॥ 
भूरि भूरि प्रफुरत फुरबारी । रुचि रुचि फर लह झूरत डारी ॥ 
सारे ग्राम भरे पुरे हैं वहाँ अभाव कहीं लक्षित  नहीं हो रहा । गाँव के वासी की विभूतियां सुहावनी प्रतीत हो रही हैं ॥ वनोद्यान अत्यधित प्रफुलित होकर हैं । वृक्षों की शाखाएं स्वादिष्ट फलों से युक्त हैं ॥ 

आकराकर नलिन निकेचाए । धरनिहि के मुख लवन श्री पाए॥ 
गगन बीथि पग धर अति मंदे । परस पुहुप बहि चरत सुगंधे ॥ 
सरोवर सरोवर नलिनों पुष्पों के ढेर लगे हैं जो धारा का श्रीवदन  लावण्य के अतिरेक को प्राप्त हो रहा है ॥ गगन के मार्ग पर धीरे से पग धरे वायु पुष्पं को स्पर्श कर धीरे धीरे चलती हुई सुगंध बिखेरती ॥ 

बायुर चारत पथ जन भेसा । करै न कभु बिधून लव लेसा ॥ 
निर्झरनी निरमल जल घारी। करत कोलाहल धरि निहारी ॥ 
तीव्र चलने पर वह पथिकों के वस्त्र तक को तनिक भी विगलित नहीं करती ॥झरनों से निकाने वाली नदियां निर्मल जल धारण किये निहार वरण किए कोलाहल करती । 

मनि मनोहर स्याम सर, प्रगसे परबत भूमि। 
मान भूप जगदात्मा, भूतिहि सकल पहूमि ॥  
पर्वत-स्थली राजा को ही जगत आत्मा ईश्वर मान कर मनोहर लाल-माणिक्य हीरे नीलम जैसे रत्न प्रकट कर पृथ्वी को ऐश्वर्य से भर देती ॥ 

शुक्रवार, ०३ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                      

रामराज मह नदहि सदंभा । नागरी जन बिजुगे अदंभा ॥ 
गवनै नदीहि मग कुटिलाई । नागर कूट भाउ न लहाईं ॥ 
रामराज्य में नद ही में दम्भ था । नागरिक जन दम्भ से विमुक्त थे । वहाँ की नदियाँ ही कुटिल मार्ग से गमन करती थीं, नागरिकों में कुटिलता का सर्वथा अभाव था ॥ 

मीर मौन रह रहि मरजादे । गिरि धरा अवगाहे पयादे ॥ 
तम लाखिहि बस करियन पाँखे । तहाँ तमोगुन कहुँ ना लाखे ॥ 
समुद्र मननशील होकर अपनी मर्यादाओं में रहते । पर्वतों के चरण धरा में ही धंसे रहते ॥ अन्धकार केवल कृष्ण पक्ष ही दर्शाता । वहाँ अज्ञान, आलस्य का अन्धेरा और कहीं प्रदर्शित नहीं होता ॥ 

सबजन धर्म चरन चरि आईं  । तिन कर सत गुन गहि बहुताईं ॥ 

नाहि कोउ धन मद सों आँधे । रहि अनुसासन नियमन बाँधे ॥ 
सभी जन धर्म के आचरण पर चलते और मनुष्यों में धर्म की अधिकता थी इस कारण उनमें सत्त्वगुण का ही उद्रेक था ॥ धन के मद से वहाँ के मनुष्य अंधत्व को प्राप्त नहीं थे । वे अनुशासन शील एवं नियमों एवं विधानों से आबद्ध थे ॥ 

राज रजत बस रथ अन्याई । करम कारी निआइ सुभाई ॥ 
दंडक  दरसै भालन फरसे । क्रोध जने अरु कहहु न दरसे ॥ 
उस राज्य में केवल रथ ही में 'अनय' विराजित होता था । राजप्रशासन का धर्म न्याय पूरित था । दण्ड केवल भालों,फावड़ों आदि आयुधों में ही परिलक्षित था अन्यत्र कहीं भी क्रोध-जनित दंड दर्शन में नहीं आता ॥ 

कूट कूठ भेषज मह कूरे । दुबराउ पन करधनी धूरे ॥ 
भेद रतन गज मूरति सूला । भेद सूल सकै न रुज मूला ॥ 
वहाँ औषधियों में ही कूट अथवा कूठ का योग समाहित था । दुर्बलता केवल स्त्रियों की करधनी में ही थी, सेना में नहीं ॥ रत्नों में ही वेध होता था मूर्तियों के हाथों में ही त्रिशूल रहता था , प्रजा जनों के शरीर में वेध अथवा शूल का रोग नहीं होता था ॥ 

रसरंजन सत भाउ जन, कारन हहरति काए  । 
भय कारन भयौ हहरन, अस कहुँ नहि दरसाए ॥ 
रसानुभूति के समय सात्विक भाव के कारण काया स्फुरित होती थी । भय के कारण स्फुरण हो ऐसी बात कहीं भी नहीं दिखाई देती ॥ 

शनिवार, ०४ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                         

मन मदहिन गज ही मतवारे । तरंग मान सरोवर धारे ॥ 
दान तजे गज राजन नाही । तेजक तज गुन बिरहन लाही ॥ 
प्रजाजनों के मानस मटवाए न थे, रामराज्य में केवल हाथी ही मतवाले थे । तरंगे जलाशयों में ही उठती थीं ॥मद्य  केवल हाथी के मस्तक से झरा करता था, राजों के हाथों से नहीं ॥ 

कोउ जन नाहि तीख सुभाऊ । तीखपने कंटक दरसाऊ ॥ 
पोथी पतर माह रचित प्रबन्धे । रहहि लोक  को बास न बंधे ॥ 
तीक्ष्ण स्वाभाव किसी का नहीं था सभी का कोमल व्यवहार था । तीक्षणता केवल कंटक-कंकड़ों में थी । पोथी पत्रों में ही अर्थात सुश्लिष्ट प्रबंध रचना  अर्थात दृढ़ बन्दोक्ति थी । लोक में कोई भी कारावास में आबद्ध नहीं था ॥ 

चारि बरन कुलीन सब लोगे । जन धन धर्मार्थ उपजोगें ॥ 
राज भीत भामिनिहि भरमाहीँ । दरसत सुधित भरम कहुँ नाही ॥ 
चारों वर्ण अर्थात ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य,क्षुद्र में सभी जन कुलीन थे । वह लाभ-लब्धि, करदां आदि स्त्रोतों से प्राप्त प्रजाजन के धन को धर्मार्थ ही प्रयोग करते थे, विषय-विलास में नहीं ॥ राज्य के अंतर में केवल सुंदरियां  ही भ्रमित थी । विद्वान एवं विदुषियों में भ्रम अदर्शनीय था  ॥ 

प्रात अवतर रबि किरन पूंजे । अवध गगन प्रभु वंदन गूंजे ॥ 
प्रीतम पाद पदम् मन लाई । रहि रत सास सिय सेउकाई ॥ 
प्रात:काल में रवि की किरण पुंज के उतरते ही अवध देश का गगन प्रभि के कीर्तनों से गुंजायमान हो जाता ॥ अपने प्रियतम श्रीराम के पद्म पाद में अनुराग किये माता सीता, सास की सेवा में अनुरक्त रहती ॥ 

अवध प्रजा  सबहि साधन, पोषत कृपानिधान । 
एहि जन सिथिलाए बिनु, करहि राम गुनगान ॥ 
अवध की प्रजा का पालन-पोषण कृपा के निधान जगतात्मन श्रीराम समस्त साधनों से करते । इसी कारण नागरिक गण उनके गुणगान करते नहीं थकते ॥ 

फुरत फरत पुरवासी, बोलै धरनी धारि । 
राम बर राज चहुँ कोत, चरि बयारि सुख कारि ॥ 
भगवान शेष जी कहते हैं : -- फिर अवध-देश एवं उसके वासी फलने-फूलने लगे, इस प्रकार रामके उस उत्तम राज्यव्यवस्था में चारों दिशाओं में कल्याण कारी वायु प्रवाहित रही ॥ 

रविवार, ० ५ जनवरी, २ ० १ ३                                                                                              

राम चन्द्र के गुन आगाने । एक छिनु ढारत देइ बिताने  ॥ 
धरा धर सेष कहत अगारिहि । एक मतिहिन के मुख एक बारिहि ॥ 
फिर भगवान शेष जी ने एक क्षण को विश्राम किया प्रभु श्रीरामचंद्र के गुणों के आख्यान का विस्तार करते हुवे आगे कहने लगे : --
  श्रवन बचन अपमान सिया के । किए परिहारुहु राम तिया के ॥ 
ता परतस सिय बिरहन सोई । तजन करम सुन जन जन रोईं ॥ 
एक बार एक मतिहीन के मुख से सीता के लिए अपमान जनक वचन श्रवण कर प्रभुश्री रामचद्र ने अपनी धर्मपत्नी का त्याग कर दिया ॥ उसके पश्चात प्रभु,माता सीता की संगति से रहित हो गए  । त्याग करण को सुनते ही प्रजा -जन द्रवित हो उठे ॥ 

कथा रसन रत धिआन निमगन । तब कथनै मुनि बात्स्यायन ॥ 
जैसे तुहरे कहनइ भगवन । तजत प्रभु कर सिया फिरि बन बन ॥ 
कथा के रसना अनुरक्ति में ध्यान को निमग्न किये तब मुनि श्रीवात्स्यायन ने कहा  : -- भगवन ! जैसा आपका कहना है । प्रभु श्रीराम के त्याग प्रसंग के पश्चात माता सीता पुनश्च वैन-विहारिणी हो गईं ॥ 

कँह निबासी कँह पुत जनाई । कँह सो पुत धनुधर गुन पाईं॥ 
आजुध छेपन बिद्या बरने । कँह राम के जग्य हय हरने ॥ 
फिर उन्होंने कहाँ निवास किया कहाँ उनके पुत्र जन्मे, उन पुत्रों को धनुष धारण करने की क्षमता कहाँ से प्राप्त हुई ॥ आयुध के संचालन की विद्या उन्हें किस प्रकार प्राप्त हुई । कौन से स्थान में उन्होंने प्रभु श्रीराम के यज्ञ का अश्व का अपहरण किया ॥ 

धर्म पूरनित कारिते, नियति नटी के काज । 
सेष पुनि कहत मुने प्रभु, धरा रछत किए राज ॥ 
प्रभु शेष ने पुन: कहना आरम्भ किया : -- फिर प्रभु ने धर्म पूर्वक प्रकृति के क्रियाकलाप का कार्य संचालित करते हुवे समस्त पृथ्वी की रक्षा करते उपरोक्त के क्रमश: अपना राज्य स्थापित किया ॥ जो 'रामराज्य' के नाम से जगत में प्रसिद्ध है ॥ 


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