कंठ कटि कनक केर एक नारंगी सी नार ।
उद बहनु उदक हेर सिर बिंदु उदकाति चली ।१।
सर सौं हैं सरसाए सरसई सर सिरु धराए ।
हरिद बरन अलकाए सुम सुरभि गंधाति चली ।२।
कंज कलस कर भाल कूल कालिंदी निकार ।
नागिन से कलि काल अलकबलि लहलाति चली |३।
करी बँध रचित कार सिर सुर सारंगी सार ।
गनपति भूषन धार किरनों को लजाति चली ।४।
धूरि पथ पदुम पाँव धुरिका भइ पलक पधार ।
बैसी हरि पत छाँव पुनि नैन मलियाति चली ।५।
दिवा किरन के छाप असित लोहित लहरिदार ।
चाँद मुख चुनर ढाँप घर घघरन घुमाति चली ।६।
फरे बिटप बट छोर, डारि झुकै लइ फर तोर ।
भरी जमुनिया झोर रसन रस लिपटाति चली ।७।
कलित कल कंठ फाग रसन नील रंजन राग ।
रसिके रस मस लाग पिया के गुनगाति चली । ८ ।
धवल धूरि धर पाँव पँवर परे पीपर छाँव ।
पहुँच पिया के गाँव पुर पुरन खनकाति चली । ९ ।
भावार्थ : --
स्वर्ण आभूषण से सुसज्जित एक नारंगी रंग की नारी जलपात्र में
जल पात्र लिए जल ढूँडती, सिर ऊपर से स्वेद बूंदों को बिखराती हुई चल
रही है ।1।
अर्थात : -- "सुन्दरता तो सर्वत्र व्याप्त है, केवल दृष्टिकोण होना चाहिए"
हरीभरी सरसों है जिनकी सुन्दर माला सिर पर धारण कर, बालो में पीतम
राग भरे फूलों से सगुन्धित होकर चल पड़ी । 2 ।
यमुना के किनारे से अमृत कलश को भर कर शीश पर धरे ।
काली नागिन के जैसे बालों की लटों को लहराती हुई चल रही है ।3।
जब बालों को बाँध कर सँवारा तो शीश पर बूंदों का राग बिखर गया । किरणों
सिंदूर( गणेश भूषण=सिंदूर) को आधार करे किरणों को भी वशीभूत करती हुई
चल रही है । 4 ।
धूल भरे पथ पर कमल जैसे पाँव हैं और धूलिका पलकों पर विराज गई ।
हर पत्तो की छाँव में थोड़ी देर बैठ कर पुन: आँखों को मलती हुई चल रही है ।5 ।
सूर्य मुखी छपा हुवा बैंगनी बेल बूटों वाली चुनरी से मुख ढांक कर
घाघरे को घुमाती घर की ओर चल पड़ी । 6 ।
मार्ग के किनारे फलदार वृक्ष हैं, डाली झुकाई और फल तोड़ लिए ॥
भरी झोली के जामुन फल का स्वाद लेती चल पड़ी ।7।
मधुर सुर-स्वर में फाल्गुनी गीत सजा कर जिव्हा को राग नील से रँगकर ।
रसिकपन में आनंदित हॊकर पिया के गुण गाती चली । ८ ।
उज्जवल रज से लिपटे चरण हैं और द्वार से हटकर पीपल की छाँव है ।
पीया के गाँव पहुँच कर घर के अन्दर बिछिया खनकाती हुई चली ।९।
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फिर किरण पाँव धरे निरख रही मुकुर मुख धो ।
निर्झरी नीर झरे नाद कर नुपूर चमके ॥
फिर ग्रहे पट गहरे दमके रूप लावण लौ ।
पद कमल कर सँवरे भर मणि माणिक मनके ॥
फिर दिनकर दिन करे जाग उठा रात भर सो ।
कर वन्दन पद वरे जल ढलके अमृत बनके ॥
रमण किरण बाहु भरे लाज धरे नयन नत हो ॥
रथ रयनि कण उतरे पुष्प पत्र पर सुर झनके ॥
शंख करे रव हरे जयति जय राधेमाधौ ।
कलश कलश जल भरे खन खन खंखणा खनके ॥
फिर सर सजदा दरे मस्जिद में अल्लाह हो ।
गिरजा घर गुंजरे फुली शफ़क सबद सुनके ॥
उद बहनु उदक हेर सिर बिंदु उदकाति चली ।१।
सर सौं हैं सरसाए सरसई सर सिरु धराए ।
हरिद बरन अलकाए सुम सुरभि गंधाति चली ।२।
कंज कलस कर भाल कूल कालिंदी निकार ।
नागिन से कलि काल अलकबलि लहलाति चली |३।
करी बँध रचित कार सिर सुर सारंगी सार ।
गनपति भूषन धार किरनों को लजाति चली ।४।
धूरि पथ पदुम पाँव धुरिका भइ पलक पधार ।
बैसी हरि पत छाँव पुनि नैन मलियाति चली ।५।
दिवा किरन के छाप असित लोहित लहरिदार ।
चाँद मुख चुनर ढाँप घर घघरन घुमाति चली ।६।
फरे बिटप बट छोर, डारि झुकै लइ फर तोर ।
भरी जमुनिया झोर रसन रस लिपटाति चली ।७।
कलित कल कंठ फाग रसन नील रंजन राग ।
रसिके रस मस लाग पिया के गुनगाति चली । ८ ।
धवल धूरि धर पाँव पँवर परे पीपर छाँव ।
पहुँच पिया के गाँव पुर पुरन खनकाति चली । ९ ।
भावार्थ : --
स्वर्ण आभूषण से सुसज्जित एक नारंगी रंग की नारी जलपात्र में
जल पात्र लिए जल ढूँडती, सिर ऊपर से स्वेद बूंदों को बिखराती हुई चल
रही है ।1।
अर्थात : -- "सुन्दरता तो सर्वत्र व्याप्त है, केवल दृष्टिकोण होना चाहिए"
हरीभरी सरसों है जिनकी सुन्दर माला सिर पर धारण कर, बालो में पीतम
राग भरे फूलों से सगुन्धित होकर चल पड़ी । 2 ।
यमुना के किनारे से अमृत कलश को भर कर शीश पर धरे ।
काली नागिन के जैसे बालों की लटों को लहराती हुई चल रही है ।3।
जब बालों को बाँध कर सँवारा तो शीश पर बूंदों का राग बिखर गया । किरणों
सिंदूर( गणेश भूषण=सिंदूर) को आधार करे किरणों को भी वशीभूत करती हुई
चल रही है । 4 ।
धूल भरे पथ पर कमल जैसे पाँव हैं और धूलिका पलकों पर विराज गई ।
हर पत्तो की छाँव में थोड़ी देर बैठ कर पुन: आँखों को मलती हुई चल रही है ।5 ।
सूर्य मुखी छपा हुवा बैंगनी बेल बूटों वाली चुनरी से मुख ढांक कर
घाघरे को घुमाती घर की ओर चल पड़ी । 6 ।
मार्ग के किनारे फलदार वृक्ष हैं, डाली झुकाई और फल तोड़ लिए ॥
भरी झोली के जामुन फल का स्वाद लेती चल पड़ी ।7।
मधुर सुर-स्वर में फाल्गुनी गीत सजा कर जिव्हा को राग नील से रँगकर ।
रसिकपन में आनंदित हॊकर पिया के गुण गाती चली । ८ ।
उज्जवल रज से लिपटे चरण हैं और द्वार से हटकर पीपल की छाँव है ।
पीया के गाँव पहुँच कर घर के अन्दर बिछिया खनकाती हुई चली ।९।
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फिर किरण पाँव धरे निरख रही मुकुर मुख धो ।
निर्झरी नीर झरे नाद कर नुपूर चमके ॥
फिर ग्रहे पट गहरे दमके रूप लावण लौ ।
पद कमल कर सँवरे भर मणि माणिक मनके ॥
फिर दिनकर दिन करे जाग उठा रात भर सो ।
कर वन्दन पद वरे जल ढलके अमृत बनके ॥
रमण किरण बाहु भरे लाज धरे नयन नत हो ॥
रथ रयनि कण उतरे पुष्प पत्र पर सुर झनके ॥
शंख करे रव हरे जयति जय राधेमाधौ ।
कलश कलश जल भरे खन खन खंखणा खनके ॥
फिर सर सजदा दरे मस्जिद में अल्लाह हो ।
गिरजा घर गुंजरे फुली शफ़क सबद सुनके ॥
धूल भरे पथ पर कमल जैसे पाँव हैं और धूलिका पलकों पर विराज गई ।
ReplyDeleteहर पत्तो की छाँव में थोड़ी देर बैठ कर पुन: आँखों को मलती हुई चल रही है
बहुत अच्छी रचना आभार.. .
kya baat hai...sundar arth...
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