Sunday 18 November 2018

----- ॥ दोहा-द्वादश १० ॥ -----,

जोग चरन दलीत भया बैठा सीस अजोग |
झूठे निजोग करत जो सांचे करत बिजोग || १ ||
भावार्थ :- अब योग्यता पददलित हो गई और अयोग्य शीर्ष पर विराजित हो गए हैं अवगुण गुप्त रहें इस हेतु वह सत्य को वियोजित करते हुवे असत्य का नियोजन करते हैं |

दिसा हीन दुर्दसा जग दिसा दसा दरसाए |
अजहुँ तो दुश्चारिता नारी धरम बताए || २ ||
भावार्थ :-- वर्तमान समय में दिशाहीनता व् दुर्दशा जगत की दशा व् दिग्दर्शक हो चली है | दुश्चरित्रता नारी-धर्म की शिक्षा दे रही है |

काँकरि बन बिकसाए के करत जगत समसान |
प्रगत के सन्दरभ माहि पाछिन के अनुमान || ३ ||
भावार्थ : - प्रगति के सन्दर्भ में पाश्चात्य संस्कृति की यही अवधारणा हैं कि कंकड़ पत्थरों के जंगल विकसित कर पृथ्वी को निर्जीव श्मशान में परिवर्तित कर दो |


एहि सासन दुरचारिता  भ्रष्ट चरन के पोष ||
दाता निज मत दाए के धरिहु न तापर दोष || ४ ||
भावार्थ : - न केवल भारत अपितु विद्यमान की वैश्विक शासन व्यवस्था दुश्चारित्र्ता व् भ्रष्ट आचरण की पोषक है | यदि कोई मतदाता निज मत से इसे अपनी सम्मति प्रदान करता है तब उसे इसपर दोषारोपण का अधिकार भी नहीं होता  |

गुरु दीपक गुरुहि चंदा  गुरु अगास का सूर |
अंतर गुरु प्रगास गहे  होत अन्धेरा दूर || ५ ||
भावार्थ : - गुरु दीपक स्वरूप होते हैं गुरु चन्द्रमा स्वरूप होते हैं गुरु आकाश के सूर्य समदृश्य होते हैं | गुरु के ज्ञान प्रकाश ग्रहण कर अंतरतम अन्धकार से विमुक्त हो जाता है |


रट्टू सुआ रटत रहे राम राम हे राम |
राज पाट पुनि पाए के रसनी दियो बिश्राम || ६ ||
भावार्थ : - रट्टू तोता के समान राम राम हे राम ! रट कर इस देस में राजपाट प्राप्त हुवा और राज पाट प्राप्त करने के पश्चात उस रटन का त्याग कर इस्लाम इस्लाम रटा गया ||

बसुधैव कुटुम्बकं  के अहइँ अर्थ सो नाए |
को बिरान गेह भीते अपने नेम चलाए || ७ ||
भावार्थ : - 'वसुधैव कौटुम्बकं' इस वेदवाक्य का यह अर्थ कदापि नहीं है कि कोई दुसरा आपके गृह में बलपूर्वक प्रवेश कर उसपर आधिपत्य स्थापित करे, उसे खंड-खंड करे, और चार खण्डों में एकमात्र प्राप्य खंड में भी स्वयं के नियम लागू कर आपके अपने वंदन स्थल को प्राप्त करने की चेष्टा करे |


वसुधैव कुटुंबकम के अर्थ अहहिं पुनि येह |
निज निज गेह बसबासत रहँ सब सहित सनेह || ८ ||
भावार्थ : - 'वसुधैव कौटुम्बकं'इस वेदवाक्य का यह अर्थ है ' पृथ्वी एक कुटुंब के समान है' उसमें भारत एक गृह है और इसका भाव यह है कि अपने अपने गृह/देश में निवासित रहते हुवे कुटुंब के समान मधुरता पूर्वक रहें |


दीप बहुरि सो दीप जो उजयारत चहुँ कोत |
मीत बहुरि सो मीत जो कठिन समउ सहुँ होत || ९ ||
भावार्थ : - दीपक फिर वही दीपक है जो अपने प्रकाश से चारों दिशाओं को प्रकाशित करे | मित्र फिर वही मित्र है जो विपरीत परिस्थितियों में भी तुम्हारे साथ रहे |

पहनी रहनी एक रहै सोई संत सुभाए |
पहनी रहनी बिलग किए साधु संत सो नाए || १० ||
भावार्थ : - रहनी और पहनी एक रहे साधू संत का यही स्वभाव है | जिनकी रहनी विलग और पहनी विलग होती है वह साधुसंत न होकर पाखंडी होते हैं |

दए बिन परिचय आपुना माँगे जो मत दान |
दाता तासौं पूछिता का तुहरी पहचान || ११ ||

भावार्थ : - अपना परिचय दिए बिना कोई प्रत्याशी जब मत दान की अभिलाषा कर दाता से मत की मांग करता है तब दाता उससे पूछता है तुम हो कौन ? कहाँ से आए हो.....?

जातपाति कुल धर्म जो मंतर ते मिलि जाए |
होतब जग सब मानसा पसु न को कहलाए || १२ ||
भावार्थ : - यदि मन्त्रों से ही जाति-वर्ण कुल धर्म प्राप्त हो जाते तो संसार में सभी मनुष्य जाति के होते पशु  कोई नहीं कहलाता |

मनुष्योचित धर्म करम नहीं बरन कुल जात |
पसु तेउ गै बिरते सो महा क्रूर कहलात ||
भावार्थ : - जो मनुष्योचित धर्म कर्म (जियो और जीने दो ) का पालन नहीं करते जिसकीजाति-वर्ण कुल धर्म  भी नहीं ( जो उसे इस नियम के पालन हेतु बाध्य करती है) हो, वह मनुष्य पशु से भी इतर महा क्रूर की उपाधि को प्राप्त होते है |






3 comments:

  1. वाह! प्रभावशाली संदेशपरक दोहे। बधाई एवं शुभकामनाऐं।

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  2. वाह! प्रभावशाली संदेशपरक दोहे। बधाई एवं शुभकामनाऐं।

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